भारत की आर्थिक कूटनीति क्या है ? India’s Economic Diplomacy in hindi आवश्यकता , भविष्य
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भारत की आर्थिक कूटनीति India’s Economic Diplomacy
समय-समय पर इस शब्द को परिभाषाओं पर चर्चा होती रही है और उनका विश्लेषण भी किया जाता रहा है। कूटनीति अपनी प्रकृति में राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वाणिज्यिक हो सकती है। परंपरागत अर्थों में कूटनीति प्रकृति में राजनीतिक है, लेकिन वैश्वीकरण के साथ इसमें आर्थिक संबंधों को सम्मिलित करने के लिए इसके क्षेत्र का विस्तार किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि वाणिज्यिक संबंध राष्ट्रों के बीच मजबूत रिश्तों को बनाने और उन्हें बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि समकालीन विश्व में आर्थिक कूटनीति अन्य राष्ट्रों के साथ किसी राष्ट्र के राजनीतिक संबंधों को बहुत हद तक प्रभावित करती है। किसी राष्ट्र के राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को आज एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए, अगर कोई राष्ट्र बाकी दुनिया से सुदृढ़ संबंध स्थापित करना चाहता है, तो उसके राजनीतिक और आर्थिक रिश्तों में सामंजस्य होना अनिवार्य हो गया है क्योंकि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक कूटनीति के तहत, ऐसी नीतियाँ बनाई जाती हैं, जो उत्पादन, माल के विनिमय, सेवाओं . और सीमा-पार निवेश के विकल्पों को नियंत्रित करती हैं। दूरदर्शितापूर्ण दृष्टि से देखने में यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक कूटनीति . इच्छुक राष्ट्रों के बीच वार्ताओं के जरिए व्यापार और निवेश के अवरोधों में कमी लाकर अर्थात प्रशुल्क और गैर-प्रशुल्क अवरोधों को हटाकर व्यापार और निवेश को सुगम बनाती है। बाजार, कच्चे माल, संसाधनों और पूँजी तक पहुँच बनाना भी ऐसी वार्ताओं का उद्देश्य हो सकता है।
विकसित राष्ट्रों के साथ-साथ विकासशील राष्ट्रों के लिए भी आर्थिक कूटनीति अत्यधिक महत्वपूर्ण नीतिगत पहल बन चुकी है। ज्यादातर विकासशील राष्ट्र आर्थिक कूटनीति का प्रयोग अपनी वैश्विक उपस्थिति दर्ज कराने और अन्य राष्ट्रों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। केवल वे विकसित राष्ट्रों तक ही नए संबंध नहीं बना रहे बल्कि वे अपने संबंधों का विस्तार विकासशील और अल्प-विकसित राष्ट्रों तक भी कर रहे हैं। व्यापार और निवेश संबंधों को बढ़ाना मुख्य रूप से आर्थिक कूटनीति के अंतर्गत आता है। व्यापार और निवेश समझौते के अतिरिक्त राष्ट्र जरूरतमंद अर्थव्यवस्थाओं को सहायता और ऋण दे सकते हैं।
भारत के घरेलू आर्थिक परिदृश्य पर एक नजर डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विकासशील राष्ट्रों में, भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। 90 के दशक के शुरू में नई आर्थिक नीति अपनाने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने का रास्ता साफ हुआ। अर्थव्यवस्था के विकास ने न केवल नीति-निर्माताओं और अर्थशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया है, बल्कि उन पूँजीपतियों को भी आकर्षित किया है जो अब भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए इच्छुक हैं। विश्व के दूसरे राष्ट्रों और बाजारों के साथ भारत के बढ़ते व्यापार और निवेश संबंधों से भारतीय और विदेशी दोनों कंपनियों के लिए एक-दूसरे के अनुभवों को बाँटने और उनसे सीखने की सहभागितापूर्ण पृष्ठभूमि बननी आरंभ हो गई है। ऐसी स्थिति में उज्ज्वल आर्थिक संभावनाओं और लाभ के साथ भारत की आर्थिक कूटनीति के विकास, उसकी वर्तमान प्रक्रियाओं और भावी संभावनाओं को समझना नितांत आवश्यक हो गया है।
अंग्रेजी पराधीनता से मुक्ति के बाद भारतीय नीति-निर्माताओं ने पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित विकास का ‘समाजवादी’ मॉडल अपनाया। ‘महालनोबिस मॉडल’ नामक एक आर्थिक योजना प्रणाली तैयार की गई और संतुलित विकास सुनिश्चित करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का भी सूत्रीकरण किया गया। आयोजन का मुख्य उद्देश्य आर्थिक तौर पर देश को आत्मनिर्भर स्वरूप प्रदान करना था।
प्रारंभिक नीतियाँ प्रकृति से संरक्षणवादी थीं, जिनमें राज्य का हस्तक्षेप, केंद्रीय नियोजन और कारोबार नियमन शामिल थे। इनके कारण राष्ट्र में व्यापार करने के लिए कई तरह के लाइसेंसों की जरूरत पड़ती थी। हालाँकि विकास नीति को शुरू में तो सफलता मिली, लेकिन प्रणाली के निष्प्रभावी सिद्ध होने के कारण इसका प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया। अर्थव्यवस्था को सन् 1991 में भुगतान संतुलन की भयानक समस्या से जूझना पड़ा। इसके बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund – IMF) द्वारा प्रस्तावित ढाँचागत सुधार कार्यक्रम (Structural Adjustment Programme -SAP) को अंगीकार किया।
मार्थिक सुधारों की दृष्टि से वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों का अपना विशेष महत्त्व है। इसके तहत लाइसेंस राज जैसी पिछली योजना रणनीति की खामियों को और सरकारी एकाधिपत्य को खत्म कर दिया गया। इन सुधारों के कारण कई क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की स्वीकृति अपने आप मिलने लगी। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का दायरा समय-समय पर बढ़ाया भी जाता रहा है। सन् 1990 से भारत मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है और दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में इसकी गणना होने लगी है। प्रभावशाली एवं सतत् आर्थिक वृद्धि, अन्य सामाजिक एवं आर्थिक संकेतकों में सुधार और बहुपक्षीय मंचों पर भागीदारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले दो दशकों में नई दिशा दी है, साथ ही साथ इसकी नई तस्वीर उभर कर विश्व के सामने आई है।
व्यापार समझौता वार्ताओं के साथ उदारीकरण के कारगर इस्तेमाल से भारत को अपने आर्थिक संबंधों के नेटवर्क के विस्तार में मदद मिली है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में सेवा क्षेत्र वृद्धि का मुख्य उत्प्रेरक रहा है। राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (ळतवेे क्वउमेजपब च्तवकनबज.ळक्च्) में सेवा सेक्टर का योगदान 50 प्रतिशत से अधिक है और इसका मुख्य बाजार अमेरिका है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत धीरे-धीरे विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र बनता जा रहा है।
भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश समय के साथ बढ़ता रहा है। यद्यपि वैश्विक आर्थिक संकट के कारण भारत में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment) की वृद्धि दर प्रभावित हुई लेकिन निरपेक्ष एफडीआई अंतर्वाह के क्वांटम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मॉरिशस भारत में सबसे बड़ा निवेशक रहा है। इस सिलसिले में मॉरिशस के साथ दोहरा कर अपवचन समझौता (क्वनइसम ज्ंग ।अवपकंदबम ।हतममउमदज . क्ज्।।) कारगर साबित हुआ है। इसके बाद सिंगापुर और अमेरिका का स्थान आता है।
भारत के ज्यादातर अर्थशास्त्री भारत को उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में देख रहे हैं। इसका मुख्य कारण अच्छा आर्थिक विकास एवं निवेश संबंधों में विस्तार है। माना जा रहा है कि भारत 21वीं सदी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाएगा। लेकिन महज अच्छे आर्थिक प्रोफाइल का अर्थ यह नहीं है कि इससे बड़े लाभ मिलेंगे। इसके लिए उपयुक्त अन्य नीतियों, खासकर आर्थिक कूटनीति से संबंधित नीतियों की भी आवश्यकता है। वैश्वीकृत दुनिया में तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के कारण पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए भारत की विदेश नीति में आर्थिक कूटनीति एक महत्वपूर्ण युक्ति है जिसके साथ हम अच्छे आर्थिक भविष्य के प्रति भी आशावान रह सकते हैं।
भारत के लिए एक प्रभावी आर्थिक कूटनीति की आवश्यकता क्यों?
(Why India needs an eff~ective Economic Diplomacy)
आर्थिक कूटनीति किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण कारक होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास एवं आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalisation) के संदर्भ में भी इसका महत्त्व उतना ही प्रासंगिक है। खुली अर्थव्यवस्था में भावी घरेलू आर्थिक प्रगति और समृद्धि बहुत हद तक दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंधों पर निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त, घरेलू बाजार को खोलने से वह वैश्विक उत्पादन और निवेश (Global Production and Investment) नेटवर्क का हिस्सा बन जाती है। इस नेटवर्क से अलग-थलग रहने से भारत का विकास बाधित हो सकता है। इस बात की भी आशंका रहती है कि वैश्विक मुद्दे घरेलू मुद्दों और प्रक्रियाओं को बहुत प्रभावित करते हैं, जिससे कारगर आर्थिक कूटनीति को जरूरत बढ़ जाती है। वैसे भी यह भावी व्यापार और निवेश के अच्छे परिणामों के लिए अपरिहार्य है। चूँकि भारत की महत्वाकांक्षा अपनी आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने की है, इसलिए इस पहलू को महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय पिछले साल से आर्थिक कूटनीति के लिए एक अलग बजट निर्धारित करता आ रहा है, जिसमें क्रेता-विक्रेता की बैठकें आयोजित करना और विदेशों में ‘ब्रांड इंडिया’ को प्रोत्साहन देना शामिल है। 16 राष्ट्र वाले ‘पूर्व एशिया सम्मेलन’ और पाँच राष्ट्रों वाले ‘दक्षिण अफ्रीकी कस्टम्स संघ’ (South African Customs Union – SACU) सरीखे क्षेत्रीय संगठनों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (Free Trade Agreements) की दिशा में भारत आगे बढ़ रहा है। आसियान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, श्रीलंका, नेपाल और भूटान के साथ एफटीए पर पहले ही दस्तखत किए जा चुके हैं। आसियान के साथ वस्तु (Goods) संबंधी मुक्त व्यापार समझौता किया गया है।
वैश्वीकरण के कारण, भारतीय कंपनियाँ विलय एवं अधिग्रहण तथा संयुक्त उद्यमों के माध्यम से तेजी से अपना विस्तार करती रही हैं। उन्होंने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को अपने पक्ष में करने के लिए हर संभव प्रयास किए हैं। इसके अच्छे नतीजे निकल सकते हैं। भारत के व्यापार और सीमा पार निवेश में निरंतर वृद्धि होती रही है। इक्विटी और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश दोनों के रूप में निर्गामी और बहिर्गामी पूँजी प्रवाह में वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था का सेवा क्षेत्र सीमा पार निवेश और व्यापार के इस मामले में महत्वपूर्ण रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधित सेवाओं (Information Technology Enabled Services – ITES) के क्षेत्र में असीम संभावनाएँ नजर आ रही हैं।
घरेलू आर्थिक नीतियों को आर्थिक कूटनीति से अलग नहीं किया जा सकता। वैश्विक अर्थव्यवस्था या व्यापार-संबंधी मुद्दे जटिल हैं, इसलिए वार्ताओं के दौरान अधिकतम लाभ लेने और कारगर समझौते का प्रारूप तैयार करने के लिए ऐसे दक्ष लोगों की आवश्यकता है, जो विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे बहुपक्षीय संगठनों के ढाँचे के भीतर प्रभावशाली तरीके से अपनी बात रख सकें। यह भी कि वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक कूटनीति के दायरे में आने वाले राष्ट्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। बहुपक्षीय और क्षेत्रीय संघों में राष्ट्रों की बढ़ती संख्या को देखते हुए आर्थिक राजनयिकों के कौशल को और भी निखारने की जरूरत है।
लगभग यह स्पष्ट हो चुका है कि आने वाले दशकों में एशिया और विश्व में भारत प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा। अतः उसे दीर्घकालिक, प्रभावोत्पादक आर्थिक नीतियाँ अपनानी होंगी। सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product – GDP) में सतत् वृद्धि के लिए भारत ने आर्थिक कूटनीति पर अधिक जोर देने का फैसला किया है। लिहाजा वह कई राष्ट्रों और क्षेत्रीय संगठनों के साथ व्यापार और निवेश संबंधी समझौतों के लिए अपनी वार्ता में तेजी ला रहा है। जनसांख्यिकी प्रोफाइल, मानवीय कौशल और बाजार के बड़े एवं बढ़ते आकार को दृष्टिमत रखते हुए राष्ट्र के विकास के लिए सक्षम आर्थिक कूटनीति और आर्थिक नीतियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।
भारत की आर्थिक कूटनीतिक की समीक्षा
(Review of India’s Economic Diplomacy)
सतत् वृद्धि, विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोत्तरी, निर्यात में वृद्धि, बढ़ते विदेशी निवेश और सभी वृहत्त (Macro) आर्थिक संकेतकों को भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल तत्व समझा जाता है। इनमें पिछले कुछ वर्षों से अनवरत दृढ़ता देखने में आई है। आने वाले वर्षों में भारत के लिए आर्थिक भविष्यवाणियाँ इन रुझानों के जारी रहने की ओर संकेत करती हैं। प्रारंभ में भारत की आर्थिक नीति राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित थी, जिसे सन् 1990 के दशक में अपनी विदेश नीति में बदलाव लाते हुए भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया और इस तरह, वह आर्थिक कूटनीति की ओर बढ़ने लंगा। यही नहीं, वह राष्ट्रों का विश्वास हासिल करने के लिए सर्वोत्तम प्रक्रियाओं का प्रयोग कर रहा है। इससे उसकी घरेलू नीति का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है।
अन्य राष्ट्रों और क्षेत्रों के साथ भारत के बढ़ते समझौतों से स्पष्ट है कि मौजूदा और भावी आर्थिक संभावनाओं के साथ, भारत आर्थिक कूटनीति पर बहुत ध्यान देता रहा है। फलतः भारत के आर्थिक संबंध अब किसी विशेष समूह के समान आर्थिक परिस्थितियों वाले राष्ट्रों तक सीमित नहीं रहे। इसने अपने पड़ोसी राष्ट्रों से लेकर छोटे और बड़े राष्ट्रों तक सभी के साथ आर्थिक संबंध स्थापित किए हैं। इन कदमों से राष्ट्र को न केवल आर्थिक रूप से फायदा हुआ, बल्कि अन्य राष्ट्रों में भारत की साख भी बढ़ी है। भारत को इस तरह के व्यापार और निवेश संवर्धन समझौतों से बहुत लाभ हो सकता है। इन समझौतों से भारत के निर्यात बाजार का न केवल विविधीकरण होगा बल्कि भारतीय कंपनियों के लिए निवेश के नए अवसर मिलने की भी प्रबल संभावना है।
आर्थिक कूटनीति ही एक ऐसा तत्व है जो भारत को वैश्विक वित्तीय मंदी की स्थिति में मददगार सिद्ध हो सकता है। एक बार व्यापार और निवेश समझौतों के प्रभावी हो जाने पर आर्थिक वृद्धि दर बढ़ेगी, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नए रोजगारों का सृजन होगा और लोगों का जीवन स्तर ऊँचा होगा। विभिन्न राष्ट्रों के साथ कारगर आर्थिक समझौते आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के उभरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
आर्थिक कूटनीति का भविष्य (Future of Economic Diplomacy)
संचार क्रांति के इस युग में आर्थिक कूटनीति के पहलू उसके किसी भी अन्य रूप की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण हैं। दरअसल, वाणिज्यिक और आर्थिक कूटनीति किसी राष्ट्र राज्य की राजनीतिक अर्थव्यवस्था से प्रत्यक्षतः जुड़ी होती है जो वैश्वीकरण के इस युग में बहुत महत्वपूर्ण है। अतः भारत के आर्थिक कूटनीति के मिशन को आगे बढ़ाने और नीतियों.तथा समझौतों को कारगर बनाने के लिए प्रशिक्षित, विशिष्ट और सुविज्ञ विशेषज्ञों की जरूरत है क्योंकि बिना निपुण व चातुर्थपूर्ण लोगों के आर्थिक कूटनीति को प्रभावी नहीं बनाया जा सकता। विशेषज्ञों के बाद दूसरी जरूरत सर्वोत्तम संभव चयन और विकल्पों की खोज के लिए आर्थिक फैसलों को आर्थिक शोध से जोड़ने की है। अपनी आर्थिक कूटनीति की सफलता के लिए भारत को व्यापार, प्रौद्योगिकी और निवेश के प्रवाह में सतत् वृद्धि करनी होगी। साथ ही साथ उसे, प्रस्तावित समझौते की व्यवहार्यता के अध्ययन के साथ साथ विश्लेषण, पैरोकारी तथा विवाद निपटारे के लिए शीर्ष व्यापार एवं उद्योग संगठनों से जुड़ना होगा। भारत की ब्रांड छवि निर्माण में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने से, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को बढ़ाने में बहुत मदद मिल सकती है।
इनके अतिरिक्तः एक अन्य आवश्यकता समन्वयन की है। कार्यक्रमों व विकास सहयोग नीतियों के बेहतर समन्वयन के बिना आर्थिक कूटनीति को सभी लक्ष्यों से नहीं जोड़ा जा सकता। प्रवासी संबंधों को बढ़ावा महत्वपूर्ण साबित हो सकता है क्योंकि आयुर्विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भारतीय प्रवासियों के योगदान को व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है। यही नहीं इससे ज्ञान के आदान-प्रदान में तो वृद्धि होगी ही, साथ ही साथ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को भी बढ़ावा मिलेगा।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष व्यापार को बढाने के साथ-साथ बाजार में पैठ बनाने की रणनीति के विकास तथा परामर्श एवं प्रोजेक्ट निर्यात के अवसर के सृजन में प्रवासी भारतीय भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। बेहतर शासन, बेहतर विश्व के निर्माण में भागीदारी और व्यापारिक एवं वित्तीय हितों के परस्पर जुड़ने से भारत को लाभ होगा। विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation) जैसे बहुपक्षीय संगठनों में आर्थिक कूटनीति के कारगर प्रयोग के अतिरिक्त भारत, ‘संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवम् विकास सम्मेलन’ (UNCTAD) और विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (World Intellectual Property Organçation- WIPO) जैसे संगठनों के जरिए भी अपने लाभ में वृद्धि कर सकता है। शुल्क घटाने और व्यापार एवं निवेश-संबंधी अवरोधों को खत्म करने के लिए कारगर समझौता वार्ताओं का आयोजन भी जरूरी है।
भारत को उभरती हुई आर्थिक शक्ति तो मान लिया गया है, लेकिन उसे भ्रष्टाचार के स्तर को कम करने, सहयोग बढ़ाने और व्यापार बाधाओं को खत्म करने के लिए प्रभावी कार्यनीति बनाने की आवश्यकता है। यह भी कि राष्ट्र में बौद्धिक संपदा अधिकार के संरक्षण के लिए कारगर व्यवस्था की जरूरत है। चूँकि ज्ञान का आदान-प्रदान, नवीन प्रक्रियाएँ, प्रौद्योगिकीय हस्तांतरण, अंतरिक्ष एवं ऊर्जा शोध कार्यक्रम, सभी अच्छी एवं सक्रिय आर्थिक कूटनीति से जुड़े हुए हैं इसलिए भारत की आर्थिक कूटनीति की भूमिका संकीर्ण नहीं होनी चाहिए। समझौता वार्ता और सहयोग का ढाँचा क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र के संबंधों पर केंद्रित होना चाहिए। आर्थिक कूटनीति के पारस्परिक लाभ राजनीतिक कूटनीति और अर्थव्यवस्था के लिए भी उपयोगी हैं, यह ध्यान में रखना अनिवार्य है।
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