Immunology in hindi , प्रतिरक्षा विज्ञान किसे कहते हैं , परिभाषा क्या है , प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (The inmune response)
पढ़िए Immunology in hindi , प्रतिरक्षा विज्ञान किसे कहते हैं , परिभाषा क्या है , प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (The inmune response)
प्रतिरक्षा विज्ञान (Immunology)
परिचय (Introduction)
प्रतिरक्षा एक जीव की वह क्षमता है जो उसे किसी भी प्रकार के संक्रमण के प्रति रोकने की क्रिया अथवा प्रतिरोधकता से सम्बन्धित होती है। प्राणी की देह का एक प्रमुख कार्य संक्रमण अथवा बाह्य पदार्थ, जहरीले (प्रतिजन जो प्रोटीन के बने होते हैं से लड़ने की शक्ति विकसित करता है। संक्रमित कारक, जीवाणु, विषाणु, कवक, प्रोटोजोआ एवं अन्य परजीवी हो सकते हैं जो पोषक में रोग उत्पन्न करते हैं। प्रतिरक्षा तन्त्र प्राणि की देह का एक जटिल तन्त्र होता है।
मानव देह पर त्वचा का बाह्य रक्षात्मक आवरण उपस्थित होता है। त्वचा अथवा इसकी संरचनाएँ देह पर बाहर खुलने वाले मुख, आँख, नाक, कान, मूत्र एवं गुदा जनन छिद्रों से भीतर की ओर जारी रहती हुई मानव देह को संक्रमण एवं रोगों से रोधकता (resistance) या सुरक्षा प्रदान करती है। यह सुरक्षा सभी मनुष्यों में पायी जाती है इसे सामान्य (general) या अविशिष्ट प्रतिरोधकता (non specific resistance) भी कहते हैं। इस प्रकार की रोधकता प्राणियों में अनुकूलन के फलस्वरूप कुछ संरचनाओं के विकास एवं निर्माण के कारण उत्पन्न होती है अतः इसे अनुकूलित ( adaptive) या संरचनात्मक रोधकता (constitutive resistance) भी कहते हैं।
प्राणियों की देह में बाह्य पदार्थों (foreign substances) या सूक्ष्मजीवों को प्रवेश करने हेतु देह के इस सुरक्षात्मक स्तर को भेदना होता है या अन्य मार्गों से श्वांस अथवा भोज्य एवं पेय पदार्थों के साथ प्रवेश का माध्यम अपनाना होता है। इन बाह्य कार्यों का देह में प्रवेश संक्रमण (infection) कहलाता है। संक्रमण प्रोटोजोआ, जीवाणु विषाणु, फफूंद, माइकोप्लाज्मा, परजीवियों या अन्य जीवों द्वारा हो सकता है। ये पोषक (host) या मानव देह में अपनी उपापचयी क्रियाओं द्वारा आविष (toxin) एवं अन्य जैविक क्रियाओं द्वारा रोग उत्पन्न करते हैं अत: इन्हें रोगजनक (pathogen) कहते हैं।
सामान्य या अविशिष्ट रोधकता के फलस्वरूप प्राणी के देह से प्राकृतिक (natural) प्रतिरोधी पदार्थ जैसे लाइसोजाइम (lysozyme) आदि स्त्रावित किये जाते हैं। देह में भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis), शोथ (inflammation), तापक्रम का बढ़ना (rise in temperature) एवं इन्टरफेरान (interferons) का स्त्रावित होना आदि क्रियाओं के कारण देह अनेक रोगाणुओं एवं परजीवीयों के प्रति सुरक्षित बना रहता है।
द्वितीय प्रकार की रोधकता विशिष्ट प्रतिरोधकता ( specific resistance ) या प्रेरित प्रतिरोधकता (induced resistance) कहलाती है जो रोगाणुओं के देह में प्रवेश कर जाने के बाद इनके अनुक्रिया (response) के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
पोषक की देह में रोगजनक आविष या परजीवी के प्रति पायी जाने वाली क्षमता को रोधकक्षमता (immunity) कहते हैं। प्रतिरक्षी शब्द लेटिन भाषा के इम्यूनिस (immunis) शब्द लिया गया है जिसका अर्थ है बोझ से मुक्ति (free of burden) अर्थात् पोषक की विभिन्न रोगजनक जीवों एवं रोगों से सुरक्षा करने की क्षमता। रोगजनक जीवों एवं रोगों के प्रति की जाने सुरक्षात्मक क्रियाओं या प्रतिरक्षा के विज्ञान को प्रतिरक्षी विज्ञान (immunology) कहते हैं।
प्रतिरक्षी विज्ञान एक प्रकार से देह के प्रतिरक्षा संस्थान का अध्ययन है। यह वास्तव में चिकित्सा विज्ञान की ही एक शाखा है किन्तु पिछले चार सौ वर्षों से इस विज्ञान का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है। इसमें प्राणी की देह के अर्थात् स्वयं (self) के एवं बाह्य (non sell के अणुओं, कोशिकाओं, ऊत्तकों के द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को सम्मिलित किया गया है। इसमें बाह्य पदार्थों या अणुओं के अन्तर्गत सूक्ष्मजीवों (प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणुओं, माइकोप्लाज्मा एवं विषाणुओं), परजीवीयों, आविष एवं विषैले पदार्थों, अबुर्दों (tumours) तथा अबुर्दीय कोशिकाएँ (neoplastic cells) एवं आनुवंशिक तौर पर बेमेल प्राणियों से प्रतिस्थापित कोशिकाओं या अंगों (transplanted cells or organs) तथा रक्ताधान (transfusion) के अन्तर्गत कोशिकाओं या अणुओं को भी सम्मिलित किया गया है।
रोगाणुओं के बचाव हेतु टीका (vaccine) बनाने एवं लगाने की क्रिया भी इसी प्रतिरक्षा विज्ञान के अन्तर्गत सम्मिलित की जाती है। प्रतिरक्षा संस्थान सम्पूर्ण देह में कोशिकाओं एवं अन्तः ऊत्तकीय माध्यम में विसरित (diffused) रहता है। इस तन्त्र में अनुमानित तौर पर 1012 कोशिकाएँ पायी जाती हैं जिनमें प्लीहा, यकृत, थायमस, अस्थि मज्जा (bone marrow), लसीका गाँठें (lymph nodes) रक्त एवं लसीका में प्रवाहित कोशिकाएँ होती हैं। यदि इनका भार लिया जाये तो लगभग 2 किलोग्राम होता है। एक वयस्क मानव में लगभग 60 ग्राम प्रोटीन ऐसा होता है तो प्रतिरक्षी क्रियाओं से सम्बन्धित होता है। यह प्रोटीन सामान्य प्रोटीन संश्लेषणी क्रियाओं द्वारा संश्लेषित किया जाता है। स्पष्ट है कि एक कुपोषित (malnourished ) व्यक्ति में प्रतिरक्षण हेतु प्रोटीन संश्लेषण दर अपर्याप्त होती है। अतः कुपोषित व्यक्ति शीघ्र ही संक्रमण का शिकार हो जाता है या इसको हमेशा संक्रमण का खतरा बना रहता है।
प्रतिरक्षी तन्त्र में उन सभी अंगों या कोशिकाओं को सम्मिलित किया जाता है जो देह को सूक्ष्मजीवों या बाह्य पदार्थों के प्रति सुरक्षा प्रदान करते हैं।
प्रतिरक्षा विज्ञान का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। इसे अब अनेक उप शाखाओं में विभक्त किया जाने लगा है जैसे-
(1) प्रतिरक्षा रसायनिकी ( Immunochemistry),
( 2 ) अबुर्द प्रतिरक्षा विज्ञान (Tumour immunology),
( 3 ) प्रत्यारोपण प्रतिरक्षा विज्ञान (Transplantation immunology),
(4) भ्रूणमातृ प्रतिरक्षा विज्ञान (Foeto-maternal immunology),
(5) जरण प्रतिरक्षा विज्ञान (Ageing immunology)
उपरोक्त सभी शाखाएं आधारभूत प्रतिरक्षा प्रणाली से उद्गमित हुयी है।
मानव की देह में बाह्य पदार्थों के प्रवेश करने से अनुक्रिया (response) के फलस्वरूप देह की सुरक्षा के लिये तीन प्रकार की योजना बनायी जाती हैं-
- देह के स्तर द्वारा अम्लीय अथवा लाइसोजाइम जैसे स्त्रावण स्त्रावित कर परजीवी का तत्काल नाश करना।
(ii) बाह्य स्तरों का परजीवी के सम्पर्क में आने पर अनुक्रिया स्वरूप तत्काल अति संवेदनशील (hypersensitive) होना ।
(iii) लम्बी अवधि की क्रियाओं द्वारा परजीवी का नाश करना जिसके अन्तर्गत देह में जटिल प्रकार के रासायनिक यौगिक एवं विशिष्ट कोशिकाएँ उत्पन्न की जाती है। संक्रमण के प्रकार एवं मात्रा के अनुसार इसमें कुछ घण्टे या दिन अथवा माह लगते हैं।
प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (The in.mune response)
अधिकतर प्राणियों में बाह्य (non self) पदार्थों को पहचान करने का गुण होता है। यह बा अणुओं, जीवों, कोशिकाओं या प्रोटीन्स की पहचान कर उपयुक्त अनुक्रिया ( response) करता है या इसकी आवश्यक तैयारी आरम्भ हो जाती है। इस अनुक्रिया द्वारा बाह्य कारक या तो नष्ट कर दिया जाता है अथवा इसे उदासीन बनाने की कार्यवाही की जाती है।
इस प्रकार प्रारम्भिक पहचान संकेतों को प्रभावी प्रतिरक्षी अनुक्रियाओं में रूपान्तरित भी किया जाता है। यदि इसी प्रकार का कारक देह में पुनः प्रवेश करता है तो प्रतिरक्षी तन्त्र की स्मृति अनुक्रिया (memory response) द्वारा इस कारक से देह को मुक्त कराया जाता है।
प्रतिरक्षा विज्ञान के विकास के चरण (Steps in development of immunology)
लुई पाश्चर (Louis Pasteur – 1856) ने रोगों के जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होने हेतु मत (germ theory of disease) प्रस्तुत किया। इसके साथ ही वैज्ञानिकों का रूझान प्रतिरक्षा विज्ञान की ओर हुआ एवं इस समय अनेकों महामारी समान रोगों का प्रकोप था जिससे अनेकों लोगों की मृत्यु हो रही थी जो बच गये थे उनमें अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गयीं थी। चेचक, तपेदिक, मलेरिया आदि इसी प्रकार के रोग थे जिनसे लोगों में भय व्याप्त हो गया था। यह भी लोग जान चुके थे कि एक बार चेचक हो जाने के बाद दोबारा यह रोग नहीं होता यदि रोगी बच जाता है तो हालाँकि प्रथम बार ही रोग होने पर चेहरे व देह पर धब्बे या निशन पड़ जाते हैं। अनेक लोग अन्धे एवं बहरे हो जाते हैं।
ईसा से 3000 वर्ष पूर्व ग्रीक व रोमन संस्कृति के लोगों को संक्रामक रोगों व उपार्जित प्रतिरक्षा का ज्ञान था। ईसा से दो शताब्दी पूर्व वारो (Varo) ने रोगों का कारण अत्यन्त सूक्ष्म अदृश्य कारकों को माना एवं इन्हें संसर्ग कारक (contagium vivum) नाम दिया । तेरहवीं शताब्दी में फ्रान्सिस बेकन (Fancis bacon) ने रोगों के अदृश्य जीवों द्वारा उत्पन्न होने की जानकारी प्रस्तुत की । वाल्टेयर (Voltaire 1773) ने बताया कि चीन में यह रिवाज है कि चेचक के छिलकों को चूर्ण के रूप में निगल लिया अथवा सूँघनी ( snuff) की तरह से सूँघ लिया जाता है तो इस प्रकार रोग
होने को रोका जा सकता है। क्रिचर (Kricher, 1671) ने प्लेग महामारी के समय लेन्स की सहायता से रक्त में कुछ विशिष्ट कृतियाँ देखी जिन्हें इस रोग का जनक माना। वास्तव में इन्होंने रक्त कणिकाओं के समूह ही देखें किन्तु इस रोग के फैलने के कारण के रूप में वैज्ञानिक आधार जीवित काय को मानकर ही प्रस्तुत किया गया। प्लेन्सिज ( Plenciz, 1762) ने रोगों के जीवों द्वारा उत्पन्न होने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार प्रत्येक रोग एक विशिष्ट कारक द्वारा उत्पन्न होता है। ये विशिष्ट कारक प्राणियों की देह में पहुँच कर वृद्धि करते हैं व रोग उत्पन्न करते हैं। ऐसे ही विचार फ्राकास्ट्रो (Fracastro) व होम्स (Homes, 1843) के भी थे। किन्तु इसका वैज्ञानिक आधार सर्वप्रथम डेवाइन (Davine, 1883) ने प्रस्तुत किया। इन्होंने बताया कि एन्थ्रेक्स के रोगी के रक्त में शलाखा के समान सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं। रार्बट कॉक (Robert Koch, 1875) न अनेकों परीक्षण कर उपरोक्त सिद्धान्त का समर्थन किया।
1796 में ब्रिटिश चिकित्सक एडवर्ड जैनर (Edward Jenner, 149 ने टीके की तकनीक की खोज की। इन्हें ही प्रतिरक्षा विज्ञान का जनक माना जाता है। पाश्चेर (Pasteur) ने 1885 में रेबीज रोग हेतु टीके की खोज की यद्यपि इन्होंने रेबीज के विषाणु को देखा नहीं था। जुलियस कोहेनहीम (Julius cohnheim 1860-1870) ने शोथ (inflammation) कोशिकीय घटनाओं का वर्णन किया। 1880 में एली मेशिनकाफ (Elie Metchnikoff’s) ने भक्षाणुनांशन मत (phagocytic theory) को प्रस्तुत किया। इन्होंने ही यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि त्वचा पर शोध कोशिकीय प्रतिक्रिया का परिणाम होता है। संवहनीय एवं तन्त्रिकीय प्रतिक्रियाएं द्वितियक महत्व की होती हैं। इन्होंने ही यह मत प्रस्तुत किया कि ये गमनशील कोशिकाएँ ही शत्रु से सामना करने हेतु देह में घूमती है एवं जीवाण्विक संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करती हैं । पाश्चेर नेही चिकन कॉलेरा नामक रोग के जीवाणु की खोज की एवं प्रतिरक्षीकरण (immunization) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । बान वेहरिंग (Von Behring, 1890) ने टेट्नस व डिप्थीरिया पर प्रतिरक्षीकरण हेतु प्रयोग किये एवं जन्तुओं में इस तकनीक को विकसित किया । पाल एहरलिच (Paul Ehrlich, 1854-1915) ने प्रतिरक्षीकरण हेतु रसायनिक आधार की खोज की। 1888 में एमिल रॉक्स एवं ए. येरसिन (Emil Roux and A. Yersin) ने डिप्थीरिया आविष के प्रति प्रतिरक्षी क्रिया की खोज की। एमिल वान बेहरिंग (Emil Von Behring, 1901 ) ने प्रतिरक्षीयों (antibodies) की खोज की। राबर्ट कॉक (Robert Koch) ने तपेदिक की कोशिकीय प्रतिरक्षा क्रिया का अध्ययन किया।
1903 में आल्मरोथ राइट (Almroth Wright) ने रक्त में तरल कारक आप्सोनिन (opsonin) की खोज की। 1908 में पाल एहरलिच ( Paul Ehrlich) ने प्रतिरक्षी उत्पादन का चयनात्मक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। 1908 में मेशिनकाफ को पाल एहरलिच के साथ शोथ के अध्ययन हेतु नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1913 में चार्ल्स रिकेट (Charles Richet) ने तीव्रग्राही प्रतिक्रिया ( anaphylactic activity) की खोज की। 1919 में जुलेस बोर्ड (Jules Bordet) ने पूरक माध्यित कोशिका लयन की खोज की। इन्हें 1920 में इस खोज हेतु नोबल पुरस्कार दिया गया। 1930 में कार्ल लेन्डस्टेनर ने मनुष्य में रक्त समूहों की खोज की, इन्हें इस कार्य हेतु भी नोबल पुरस्कार दिया गया। यद्यपि रक्त में समूहन (agglutination) के प्रयोग इनसे पूर्व अनेक वैज्ञानिक कर चुके थे। इन्होंने ही Rh समूह की खोज भी की। 1930 में ही क्लेमेन एवं साथियों ( Clemen and coworkers) ने सीरम के कारण रोग होने के कारणों का वर्णन किया। 1935 में माइकल व हेडल बर्गर (Michael and Heidel burger ) ने प्रतिरक्षीकाय निर्धारण की मात्रात्मक विधि की खोज की। 1940 में एलबर्ट एच. कून्स (Albert H. Coons) ने फ्लोरीसेन्ट धारित प्रतिरक्षियों का उपयोग किया। इसी समय जूलेस जे. फ्रेंड (Jules J. Ferund) ने प्रतिरक्षी अनुक्रिया को प्रेरित करने की विधि की खोज की। बीसवीं सदी में मुख्यतः वैज्ञानिकों का खोज का क्षेत्र प्रतिरक्षियों की प्रकृति एवं क्रिया विधि ही रहा। 1957 में बर्नेट (Burnet) ने बताया कि प्रत्येक कोशिका एवं इसका क्लोन केवल एक ही प्रकार का ग्राही (receptor) बनाती है अर्थात् प्रतिजन के ग्रहण करने या स्पर्श करने पर प्रतिरक्षियों की क्रिया में तीव्र वृद्धि होती है। द्वितीयक अनुक्रिया (secondary response) अधिक तीव्र इसलिये होता है कि उसी प्रतिजन के प्रति स्मृति कोशिकाओं द्वारा प्रतिरक्षियाँ बनाने की क्रिया पूर्व में भी की गयी हैं। इन्हें 1960 में इस कार्य हेतु नोबल पुरस्कार दिया गया।
अंग प्रतिरोपण (organ transplantation) एवं सहनशीलता (tolerance) पर अनेक वैज्ञानिक वर्षों से कार्य कर रहे थे किन्तु इनके बाह्य तत्व (foreign element) होने के कारण ग्राही की देह अस्वीकृत कर देती थी । ऐसा प्रतिरक्षी तन्त्र के सक्रिय होने के कारण ही होता है। मेडावर (Medawar) ने सुझाया कि यदि बाह्य ग्राफ्ट (graft) या अंग को ग्राही के प्रतिरक्षियों के अनुरूप निवेशित (injected) कर रोपित किया जाये तो ग्राही इन्हें स्वीकार कर सकता है। इन्होंने एक प्रजाति के मूसे की त्वचा को अन्य प्रजाति के मूसे में इसी सिद्धान्त पर रोपित कर सफलता हासिल की इन्हें बर्नेट (Bunet) के साथ 1960 में इस कार्य हेतु नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1984 में नील्स जैर्न (Niels Jerne) को क्लोनल सिद्धान्त प्रस्तुत करने हेतु नोबल पुरस्कार दिया गया। 1972 में रोडने आर. पोर्टर (Rodney R. Porter) को एवं गेराल्ड एम. ऐडलमेन (Gerald M. Edelmon) को प्रतिरक्षी संरचना (antibody structure) का वर्णन करने हेतु नोबल पुरस्कार दिया गया। 1975 में जॉर्जेज् कोहलर एवं सीजर मिलस्टेन (Georges kohler and Cesar Milstein) ने कायिक संकरण कराकर एक क्लोनी प्रतिरक्षियाँ (monoclonal antibodies) बनाने के विधि की खोज की। इन्हें इस कार्य हेतु 1984 में नोबल पुरस्कार दिया गया। इस विधि से इच्छित मात्रा में प्रयोगशाला में एक क्लोनी प्रतिरक्षियाँ प्राप्त की जा सकती है। 1987 में टोनीगावा (Tonegawa ) को प्रतिरक्षी उत्पादन में जीन की पुनर्व्यवस्था का अध्ययन करने हेतु नोबल पुरस्कार दिया गया। 1989 में जे. मुरे (J. Murray) ने सर्वप्रथम वृक्क प्रत्यारोपण किया एवं इ. डी. थॉमस (E.D. Thomas) ने उत्तक व अंग प्रत्यारोपण में रासायनिक पदार्थों की उपयोगिता का अध्ययन किया 1996 में होडर्टी राल्फ एवं एम. जिंकरनागेल (Doherty Rolf and M. Zinkernagel) ने कोशिका माध्यित प्रतिरक्षी अनुक्रिया की विशिष्टता का गहन अध्ययन किया ।
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