History of Plant Tissue Culture in hindi , पादप ऊतक संवर्धन का इतिहास क्या है
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पादप ऊतक संवर्धन का इतिहास (History of Plant Tissue Culture)
1902 | गोटेलैब हेबरलैंड
(Gottileb Haberlandt) |
जर्मन वनस्पतिज्ञ : इन्होनें श्लाइडन व शॉन के कोशिका सिद्धान्त पर नॉप (Knop) के विलयन में सर्वप्रथम पेप्टोन, शर्करा व एस्परेजीन का प्रयोग करते हुए पर्ण की बाह्यत्वचा, रोम, खम्भ ऊतक व मज्जा की कोशिकाओं का संवर्धन किया। यह पोषक माध्यम पर कुछ काल तक जीवित रहीं पर आगे विभाजित नहीं हुई । |
1939 | पी. नॉबेकोर्ट
(P. Nobencourt) |
फ्रांसीसी वनस्पतिज्ञ : इन्होंने बताया कि पादप ऊतकों को असीमित काल तक पोषक माध्यम पर संवर्धित किया जा सकता है । |
1939 | पी. आर. गाथरे
(P.R. Gauthert) |
फ्रांसीसी वैज्ञानिकः इन्होंने मूलाग्र संवर्धन पर कार्य किया। इसके पश्चात इन्होंने घाव भरने की प्रक्रिया पर कार्य करने के लिए कुछ पादपों की एधा को पोषक माध्यम पर रखा। कुछ काल पश्चात् इनमें कैलस निर्मित हो गये। इन्होंने ऑक्सिन व यीस्ट के निष्कर्ष में विटामिन ‘बी’ की उपस्थिति रिपोर्ट की ।
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1941 | वॉन ऑवरबीक
(Van Overbeck) |
इन्होंने धतूरा के भ्रूण संवर्धन (embryo culture) में नारियल के दूध की महत्वपूर्ण भूमिका प्रदर्शित की। |
1942 | व्हाईट व ब्रान
(White and Braun) |
इन्होंने संकर निकोटिआना के क्राउन गॉल पर शोध किया । |
1948 | स्टीवर्ड, कैपलिन
व मिलर (Stward. (Kaplin, and Miller) |
इन्होंने गाजर के कर्तोतक पर अध्ययन के दौरान 2.4D को पोषक पदार्थ के रूप में प्रयोग किया। इन्होंने 2.4D व नारियल के पानी का इस्तेमाल करके आलू व गाजर के ऊतकों में प्रचुरोद्भवन प्रदर्शित किया।
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1950 | स्कूग व मिलर (Skoog and Miller) | इन्होंने बताया कि पादप ऊतक संवर्धन में साइटोकाइनिन पूर्णशक्त (titopotent) कोशिका में कोशिका विभाजन तेज करता है। |
1950 | जार्ज मोरेल
(George Morel) |
सर्वप्रथम एकबीजपत्री पादप रॉयल फर्न का संवर्धन यीस्ट निष्कर्ष तथा नारियल पानी के उपयोग से किया । |
1952 | मोरेल एवं मार्टिन
(Morel and Martin) |
मेरीस्टेम संवर्धन तकनीक विकसित करके डहेलिया के वायरस मुक्त पादप प्राप्त किए। |
1953 | म्यूर (Muir) | कैलस को द्रव माध्यम पर स्थानान्तरित करके हिलाने पर एकल कोशिकायें प्राप्त की जिन्हें निलंबन संवर्धन कहा जाता है तथा यह तकनीक पृथकित एकल कोशिका संवर्धन कहलाती है। |
1959 | जे. राइनर्ट | जर्मन वनस्पतिज्ञ थे जिन्होंने गाजर की जड़ से अलग की गयी मृदुतकीय कोशिकाओं का सफलतापूर्वक संवर्धन करके कायिक (vegetagive) भ्रूण प्राप्त किए। |
1960 | इ.सी. कॉकिंग (E.C. Cocking) | यह इंगलैण्ड के वनस्पतिज्ञ थे जिन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सर्वप्रथम विकर ( enzyme) का उपयोग करके प्रोटोप्लास्ट प्राप्त करने की तकनीक विकसित की । |
1965 | वासिल तथा
हिल्डीब्रांड (Vasil and Hildibrandt) |
इन्होंने निकोटिआना में एकल कोशिका संवर्धन तकनीक द्वारा पूर्ण पादप को पुनर्जनित करने में सफलता प्राप्त की । |
1968 | तोशियो मुराशिगे व
(T. Murashige and Skoog) |
इन्होंने पादप पोषण पर गहन अध्ययन के फलस्वरूप एम. एस. माध्यम (M.S. medium) विकसित किया । यह माध्यम आज विश्व में सर्वाधिक उपयोग किया जाने वाला ऊतक संवर्धन का पोष पदार्थ है।
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1970
1970 |
स्मिथ व नाथन (Smith and Nathan)
बाल्टीमोर (Baltimore ) |
रेस्ट्रीक्शन एन्जायम की खोज के पश्चात् पूर्णशक्त पादप कोशिकाओं | में बाह्य (foreign) जीन प्रविष्ट करवाकर आनुवांशिक (genetically) रूप से रूपान्तरित फसलें प्राप्त करनी संभव हो सकी।
इन्होंने RNA tumor virus से रिवर्स ट्रांस्किपटेज की खोज की। |
1972
1972 |
भोजवानी तथा कॉकिंग
(Bhojwani and (Cocking)
कार्लसन (Carlson) |
इन्होंने सर्वप्रथम परागकण तथा परागकण मातृ कोशिकाओं से प्रोटोप्लास्ट प्राप्त करने में सफलता पायी तथा इस तकनीक का |इस्तेमाल करके T.M.V. विषाणु के संक्रमण व गुणन को समझा ।
प्रोटोप्लास्ट फ्यूजन द्वारा प्रथम अन्तरजातीय निकोटियाना का संकर प्राप्त किया । |
1976 | जैनन (Zaenen) | एग्रोबैक्टीरियम में T, प्लाज्मिड अबुर्द (tumor) उत्पन्न करता है, यह रिपोर्ट किया । |
1977 | क्लिटन (Chilton) | DNA के T, प्लाज्मिड को एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमिफेसियेन्स से | सफलतापूर्वक पादपों में समाकलित (integrate) किया । |
1984 | होर्श (Horsh) | निकोटिआना पादप में एग्रोबैक्टीरियम के उपयोग से ट्रांसजेनिक पादप प्राप्त किए।
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1987 | क्लीन (Klien ) | पादपों के रूपान्तरण हेतु बॉलिस्टिक (Bolistic) जी स्थानान्तरण की प्रक्रिया प्रदर्शित की।
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2005 | इन्टरनेशलन राइस जीनोम सीक्वेसिंग
प्रोजेक्ट के वैज्ञानिक |
चावल के जीनोम का सीक्वेन्स तैयार किया गया। |
भारत में डॉ. पंचानन महेश्वरी ने प्रयोगिक भ्रूणविज्ञान के नींव रखी। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के विज्ञान विभाग में कार्य करते हुए भ्रूणविज्ञान के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए- जैसे अण्डाशय, बीजाण्ड, भ्रूण, भ्रूणपोष, बीजपत्र तथा जननांगों के संवर्धन की तकनीक विकसित की।
सतीश महेश्वरी एवं शिप्रा गुहा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अणुजीव विज्ञान की आधारशिला रखी तथा भारत में सर्वप्रथम अणुविज्ञान केन्द्र स्थापित किया। इनके कार्यों में प्रोटोप्लास्ट संवर्धन, फसली पादपों में पुनर्जनन, जीन विलगन तथा जीन अनुक्रमण व जीन स्थानान्तरण का उपयोग करके गेहूं, चावल, मूंग तथा पालक आदि पर महत्वपूर्ण कार्य किया।
इन्द्रकुमार वासिल ने दिल्ली विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् इलिनाय विश्वविद्यालय व विस्कोंसिन विश्वविद्यालय में पादप ऊतक संवर्धन पर महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके उल्लेखनीय कार्यों में चिकोरियम एनडिविया (Chicorium endivia) के पादपकों को कोशिका निलंबन तकनीक द्वारा प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करना है। उन्होंने एक बीजपत्री पादपों की तरूण पर्ण, पुष्पक्रम तथा भ्रूण का उपयोग करते हुए भ्रूणजनिक कोशिकाओं को प्राप्त किया व अभ्रूणजनिक कोशिकाओं व भ्रूणजनिक कोशिकाओं में स्पष्ट विभेद दर्शाया जिससे संवर्धन के आरम्भ में ही भ्रूणजनित कोशिकाओं को पृथक करना आसान होता है।
पादप ऊतक संवर्धन तकनीक (Technique of Plant Tissue Culture)
पिछले कुछ दशकों से ऊतक संवर्धन तकनीक कृषि के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुई हे। कुछ अन्तरास्पशीज संकरणों में भ्रूणपोष के शीघ्र ही नष्ट होने के कारण संकर भ्रूण जीवित नहीं रह पाते। ऐसी अवस्था में इनकी पात्रे कल्चर द्वारा वृद्धि संभव है। आर्किड उद्योग में भी पात्रे कल्चर का बहुतायत से उपयोग हो रहा है। इसी प्रकार पात्रे कल्चर के अनगिनत उपयोग हैं। अतः पात्रे कल्चर करते समय कुछ समस्याओं का निदान जरूरी है। जैसे कल्चर को सूक्ष्मजीवों से मुक्त रख पाना आवश्यक है तथा कल्चर का वैज्ञानिक के मनचाहे अनुसार परिवर्धन जरूरी है।
पादप के विभिन्न अंगों का जब प्रयोगशाला में पोष पदार्थ पर संवर्धन किया जाता है तब सबसे बड़ा उद्देश्य होता है संवर्धन को सूक्ष्मजीवों से मुक्त रखना। अगर संवर्धन भली भांति वृद्धि कर रहा हो तब दूसरा उद्देश्य उसमें अपनी आवश्यकता अनुरूप परिवर्धन करना होता है। संवर्धन करने के लिए निम्न की आवश्यकता होती है-
- प्रयोगशाला में पात्रों को धोने का स्थान ।
- पोष पदार्थ बनाने उसे निर्जमिकृत करने तथा भण्डारित करने का स्थान ।
- कर्तातकों को निर्जमिकृत स्थल पर एक पात्र से दूसरे पात्र में स्थानान्तरित करने का जैसे लैमिनर वायु प्रवाह केबीनेट युक्त स्थल
- संवर्धन कक्ष।
प्रयोगशाला ( Laboratory )
ऊतक कल्चर हेतु प्रयोगशाला में कुछ कमरे होने चाहिए जिनमें पात्र धोने व भंडारित करने स्थान हो । कर्तोंतकों को निर्जमित अवस्था में स्थानान्तरण करने का कक्ष जहाँ संभव हो तो लेमिनर फ्लो केबिनेट में रखा हो। कल्चर की वृद्धि अच्छी तरह हो तो अतः उसके लिए कल्चर अनुरक्षण (maintenance) कक्ष होना चाहिए। अगर इतने कमरे उपलब्ध नहीं हो तब एक ही कमरे में पोष पदार्थ के अनुरक्षण बनाना तथा निर्जमीकरण करने की प्रक्रिया बहुत सावधानी पूर्वक करनी चाहिये। कल्चर के लिए अलग प्रकोष्ठ बनाना चाहिए ताकि उनकी वृद्धि भली-भांति हो सके।
कल्चर कक्ष (Culture Room)
कल्चर कक्ष इसलिये भी अलग होना आवश्यक होता है क्योंकि इसमें कल्चर की वृद्धि के मुताबिक प्रकाश व तापमान को नियंत्रित किया जाता है। इन सुविधाओं को प्राप्त करने हेतु कल्चर कक्ष में एयर कंडीशन या हीटर होना आवश्यक है। इसी प्रकार कल्चर रैक पर 1000/px प्रकाश की ट्यूबलाइट संवर्धन हेतु उचित शेकर ( shaker ) होने चाहिए।
कल्चर पात्र एवं उनकी सफाई (Culture Vessels and Their Cleaning)
कल्चर हेतु बाजार में दो प्रकार के पात्र उपलब्ध है। एक तो निर्जमित अवस्था में प्राप्त होते हैं किन्तु इनका उपयोग एक बार ही किया जा सकता है। दूसरे कांच जैसे बोरोसिलिकेट या पायरेक्स के होते हैं जिनका उपयोग कई बार किया जाता है।
इन काँच के पात्रों को ऑटो क्लेव किया जा सकता है। अतः यह बारम्बार इस्तेमाल के लायक होते हैं। संवर्धन हेतु ज्यादा उपयोग में आने वाले पात्रों में संवर्धन नलिका रिमहीन 25150mm फ्लास्क या पेट्रीप्लेट है। कल्चर नलिका या फ्लास्क उपयोग करते समय इनका मुँह रूई के प्लग, धातु क अथवा पॉलिप्रोपिलीन के ढक्कन (caps) द्वारा बंद करते हैं।
एक बार संवर्धन प्रक्रिया पूर्ण होने पर इन काँच के पात्रों का पुनः उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए इन पात्रों को ऐसे साबुन में जो विषालु (toxic) नहीं होते हैं उनमें रात भर भिगोते हैं तत्पश्चात् सुबह ब्रश की सहायता से अच्छी तरह साफ कर नल के पानी के नीचे धो लेते हैं। आखिर में आसुत जल से धोकर अवन में 75 से 80°C पर निर्जमित कर लेते हैं। अगर काँच का पात्र संदूषित (contaminated) हो गया हो तब ऐसी अवस्था में उसे पहले ऑटोक्लेव में रोगणामुक्त करते हैं फिर धोने का कार्यक्रम करते हैं। काँच के पात्रों को स्वच्छ करने के पश्चात् उन्हें ऐसे स्थानों पर रखते हैं जहाँ धूल नहीं आती हो।
पादप संवर्धन में प्रयुक्त उपकरण (Tools Used In Plant Culture)
- ऑटोक्लेव (Autoclave)
- अपकेन्द्रण यंत्र (Centrifuge )
- थर्मामीटर (Thermometer)
- आर्द्रतामापी (Hygrometer)
- तुला (Balance)
- गैस (Gas)
- लैमीनर वायु प्रवाह (Laminar air flow )
- वर्णमिती (Colorimetry )
- प्रकाशमापी (Luxmeter)
- जल आसवन संयंत्र (Water distillation equipment )
- pH मीटर (pH Meter )
- स्वचालित विलोडक (Automatic stirrer)
13 संवर्धन स्थानान्तरण (Media dispenser pipetee)
- हलित्र (Shaker)
- फ्रिज (Fridge)
- सूक्ष्मदर्शी (Microscope)
- अलमारी (Almirah )
- कांच के उपकरण (Equipment of glass )
- अन्य उपकरण (Other equipment)
- ऑटोक्लेव (Autoclave)
निजमीकरण हेतु यह उपकरण बहुत उपयोगी माना जाता है। यह सूक्ष्मजीव युक्त ठोस व तरल माध्यमों के लिए उपयुक्त होता है। यह उन सभी वस्तुओं एवं पदार्थों के लिए होता है जिन पर अधिक ताप का असर नहीं होता। यह प्लास्टिक पाउडर, तैल आदि के लिए अनुपयुक्त होता है।
ऑटोक्लेव स्टील अथवा कॉपर का बेलनाकार, दोहरी भित्ति युक्त होता है जिसका एक हिस्सा ढक्कन के रूप में खुलता है तथा जिसे खोलकर जिन पदार्थों को ऑटोक्लेव करना होता है उन्हें अंदर रख देते हैं। ऑटोक्लेव के ढक्कन (lid) के ऊपर प्रेशर गॉज (प्रेशर मापन हेतु) व स्टीम कॉक (निर्वात वाल्व exhaust valve) ऑटोक्लेव चेम्बर में निर्वात उत्पन्न करने के लिए पाया जाता है। ऑटोक्लेव में एक सेफ्टी वाल्व तथा एक नियंत्रण (control) पुर्जा होता है जिसके समायोजन (adjustment) से इस उपकरण के अंदर ताप तथा प्रेशर को नियंत्रित किया जाता है।
पोष पदार्थों से युक्त कल्चर मीडिया को अथवा खाली पात्रों को ऑटोक्लेव में 121°C तथा 15 P.S.i (Pound per square inch = 1.06 kg/cm2) पर 15 मिनट (20-50 मिलीलीटर पोष पदार्थ) से 40 मिनट (2 लीटर पोष पदार्थ) तक रख सकते हैं ताकि जो भी ऑटोक्लेव के अंदर पात्र या कल्चर मीडिया हैं पूर्ण रूप से निर्जर्मित हो सके यह प्रक्रिया ऑटोक्लेविंग कहलाती है।
ऑटोक्लेव की अनुपस्थिति में कल्चर मीडिया अथवा पात्रों को प्रेशर कुकर में भी निर्जर्मित किया जा सकता है। ऑटोक्लेव के इस्तेमाल के दौरान निम्न सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिए-
- जिन भी पात्रों को ऑटोक्लेव में रखा जाता है वह भी भली भांति प्लग (plugged) होने चाहिए। यह प्लग बटर पेपर अथवा एल्यूमिनियम फॉइल से ढके होने चाहिए ताकि गीले ना हों।
- ऑटाक्लेव को इस्तेमाल करने से पूर्व इसमें जल की मात्रा देख लेनी चाहिए तथा पात्रों को अंदर रखने के पश्चात् ढक्कन अच्छी तरह बंद कर देना चाहिए ।
- स्टीम निकलने वाले हिस्से को पहले खुला रखते हैं ताकि अंदर की पूरी हवा बाहर प्रवाहित हो। जाये उसके बाद जब निर्वात हो जाता है तब वह बंद कर देते हैं।
- प्रेशर तथा ताप को अंदर रखे पात्रों के अनुरूप उचित रूप से नियंत्रित किया जाना चाहिए।
- निर्धारित समय के पश्चात स्विच बंद कर देते हैं तथा ऑटोक्लेव के ठंडा होने की प्रतीक्षा कर हैं एवं ठंडा होने के बाद ही दाब शून्य होने पर ऑटोक्लेव को खोलते हैं।
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