ट्यूनिका कार्पस सिद्धान्त (tunica corpus theory in hindi) क्या है ?
ऊतकजन सिद्धान्त (histogen theory in hindi) : यह अवधारणा एक जर्मन वनस्पति शास्त्री हेन्सटीन द्वारा प्रस्तुत की गयी थी , जो विभिन्न पौधों में जड़ों और तने के शीर्ष सिरों की संरचना को समझाती है। इस सिद्धांत के अनुसार मूल और प्ररोह में शीर्षस्थ सिरे विभज्योतकों की तीन परतों अथवा स्तरों में विभेदित होते है। यह परतें अथवा ऊतक क्षेत्र विभिन्न प्रकार के ऊतक तंत्रों का निर्माण करती है। अत: इनको ऊतकजन अथवा ऊतक निर्माता कहा जाता है। सामान्यतया पौधों में तीन प्रकार के ऊतकजन क्षेत्र पाए जाते है , यह है –
(i) त्वचाजन (dermatogen) : बाह्यत्वचा के निर्माण हेतु उत्तरदायी हिस्टोजन को त्वचाजन कहते है। यह सबसे बाहरी एकपंक्तिक मोटाई की कोशिका परत होती है , जिसकी कोशिकाएँ अपनत विभाजनों के द्वारा एकस्तरीय बाह्यत्वचा बनाती है।
(ii) वल्कुटजन (periblem) : वल्कुट का निर्माण करने वाली विभाज्योतकी परत को वल्कुटजन कहते है। यह क्षेत्र त्वचाजन के ठीक नीचे पाया जाता है। ऊपरी सिरे पर यह केवल एक पंक्तिक अथवा एक कोशिका मोटाई का होता है लेकिन नीचे की ओर यह बहुस्तरीय हो जाता है और इसके द्वारा निर्मित सभी प्रकार के ऊतक मिलकर भरण ऊतक तंत्र का विकास करते है।
(iii) रम्भजन (plerome) : रम्भ अर्थात मुख्य रूप से संवहन ऊतक , मज्जा और परिरंभ का निर्माण करने वाली विभाज्योतक कोशिकाओं को रम्भजन कहते है। यह विभाज्योतकी कोशिकाएं प्ररोह शीर्ष के मध्य भाग में पायी जाती है और इसके द्वारा निर्मित सभी कोशिकाएँ मिलकर संवहन ऊतक तंत्र बनाती है।
हैन्सटीन के अनुसार प्रत्येक ऊतकजन परत की कार्यप्रणाली अथवा इनका भविष्य सुनिश्चित बताया गया है लेकिन फिर भी हिस्टोजन सिद्धान्त के आधार पर मूलशीर्ष संरचना को आसानी से समझाया जा सकता है परन्तु प्ररोह शीर्ष की संरचना को इसके आधार पर नहीं समझाया जा सकता है।
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार हिस्टोजन सिद्धांत में निम्नलिखित कमियाँ बताई गयी है –
(1) सभी संवहनी पौधों विशेषकर आवृतबीजी पौधों में इनके प्ररोह शीर्ष में तीनों ऊतकजन स्तर अर्थात त्वचाजन , वल्कुटजन और रम्भजन स्पष्टत: विभेदित नहीं होते।
(2) विभिन्न ऊतकजन परतों की भविष्यता अथवा अंतिम परिणति भी स्पष्ट नहीं है। पादप शरीर के विभिन्न हिस्सों का निर्माण निर्धारित ऊतकजन से ही होता है , इसके भी स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत कई बार यह देखा गया है कि वल्कुट की भीतरी परतें संवहन ऊतक का और प्लीरोम की बाहरी परतें वल्कुट का निर्माण करती है।
ट्यूनिका कार्पस सिद्धान्त (tunica corpus theory in hindi)
यह सिद्धांत प्ररोह के अग्रस्थ अथवा शीर्ष सिरे के संगठन को समझाने के लिए अपेक्षाकृत उपयुक्त माना गया है और अग्रस्थ विभाज्योतकी कोशिकाओं में होने वाले विभाजन के तल और दिशा पर आधारित है।
ट्युनिका कार्पस सिद्धांत महान जर्मन वनस्पति शास्त्री श्मिट के द्वारा प्रस्तुत किया गया था और फास्टर ने इस सिद्धांत का समर्थन किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार उच्चवर्गीय पौधों का प्ररोह शीर्ष दो क्षेत्रों ट्यूनिका और कार्पस में विभेदित होता है।
(i) ट्यूनिका अथवा कंचुकी : प्ररोह शीर्ष का यह एक अथवा बहुस्तरीय आवरण होता है। इसकी कोशिकाएँ अपेक्षाकृत छोटी और गहरा अभिरंजन ग्रहण करने वाली होती है। यही नहीं , कोशिकाएँ केवल अपनत विभाजन के द्वारा प्ररोह शीर्ष के बाह्य स्तरीय क्षेत्रफल में वृद्धि करती है। ट्यूनिका की सबसे बाहर वाली कोशिका पंक्ति बाह्यत्वचा बनाती है और यदि एक से अधिक परतें उपस्थित हो तो भीतरी परतें वल्कुट ऊतक और पर्ण आद्यकों का निर्माण करती है।
(ii) कार्पस अथवा पिण्ड : ट्यूनिका की परतों के द्वारा ढका हुआ केन्द्रीय कोशिकाओं का एक समूह होता है। इसकी कोशिकाएँ विभिन्न तलों में विभाजित होती है और अपेक्षाकृत बड़ी साइज की होती है। इस कोशिका समूह को कार्पस अथवा पिण्ड कहते है। इन कोशिकाओं की सक्रियता के द्वारा पादप शरीर के भीतरी ऊतक क्षेत्रों जैसे – भरण ऊतक तंत्र और संवहन ऊतक तंत्र का विकास होता है। यह कोशिकाएँ पादप शरीर की मोटाई अथवा संहति और आयतन में वृद्धि के लिए उत्तरदायी होती है।
वैसे तो ट्यूनिका कार्पस पर्तें अधिकांश पौधों में सुस्पष्ट और विभेदित होती है लेकिन कुछ उदाहरणों में इन विभाज्योतकी क्षेत्रों की सीमा रेखाएँ स्पष्ट नहीं होती। ट्यूनिका की सबसे बाहरी परत से बाह्यत्वचा और इसकी भीतरी कोशिकाएं और सम्पूर्ण कार्पस परत से अन्य ऊतक क्षेत्रों जैसे वल्कुट , संवहन ऊतक और मज्जा का विकास होता है। वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यह अपेक्षाकृत एक लचीला सिद्धांत है , जिसमें विभिन्न विभाज्योतकी क्षेत्रों की अंतिम परिणति के बारे में स्पष्ट नहीं किया गया है और यह लचीलापन ही इसका सबसे मजबूत पहलू कहा जा सकता है।
रिवस और फ़ॉस्टर के द्वारा ट्यूनिका कार्पस सिद्धान्त के लचीलेपन के बारे में निम्न तथ्य प्रस्तुत किये गए है –
(i) विभिन्न पादप प्रजातियों में ट्यूनिका परत में कोशिका पंक्तियों में पर्याप्त विविधता पायी जाती है। मौसम में बदलाव के कारण ट्यूनिका पर्त में कोशिका पंक्तियों की संख्या भी परिवर्तित होती है। रीव्स के अनुसार मौसम में बदलाव के कारण एक विशेष प्रक्रिया पौधों में देखी जाती है जिसे घटना अंतराल आवर्तिता कहते है।
(ii) ट्यूनिका और कार्पस परतों के बीच सीमा रेखा सुस्पष्ट नहीं होती। अनेक बार तो यह देखा गया है कि एक ही पादप प्रजाति में यह अलग अलग समय पर अलग अलग हो सकती है।
ऊतकजनी परत सिद्धान्त (histogenic layer theory in hindi)
यह सिद्धांत डर्मेन के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। डर्मेन ने ट्यूनिका सिद्धान्त में प्रस्तुत तथ्यों से अपनी असहमती प्रस्तुत की। उसके अनुसार पौधों के अग्रस्थ सिरों अथवा वृद्धिकारी शीर्षों पर अनेक विभाज्योतकी स्तर पाए जाते है। वैसे इनकी आधारभूत संख्या तीन है परन्तु अधिकांशत: यह तीन से अधिक होते है। इन विभाज्योतकी परतों को कोई विशेष नाम न देकर LI , LII , LIII , LIV आदि नामकरण दिया गया है।
डर्मेन के अनुसार LI बाह्यत्वचा , LII वल्कुट और संवहन ऊतक का बाहरी भाग बनाती है और LIII और LIV परत संवहन ऊतक के शेष भाग और मज्जा के निर्माण हेतु ऊत्तरदायी होती है। डर्मेन ने इन विभाज्योतकी पर्तों को ऊतकजन कहा है। मोटे तौर पर देखने से यह सिद्धांत हेन्सटीन द्वारा प्रस्तुत हिस्टोजन सिद्धान्त के समान ही प्रतीत होता है। यहाँ केवल नामों का अंतर है। आजकल इस सिद्धांत की कोई मान्यता नहीं है।