हिंदी वर्ण | हिंदी वर्णमाला में कितने वर्ण हैं | स्वर और व्यंजन | मात्राएँ कितनी होती है | जनक किसे कहते है ?
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हिन्दी शब्द , हिन्दी भाषा और उसकी बोलियाँ
भाषा नदी की धारा के समान सदा प्रवाहित होती रहती है। उसकी गति अबाध होती है। हिन्दी भाषा की भी वही स्थिति है। संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है जिसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। इस प्रकार क्रमशः वैदिक भाषा, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से हिन्दी का विकास दिखाया जा सकता है। हिन्दी का इतिहास वैदिक काल से शुरू होता है। यों यह बात दूसरी है कि उससे पहले की आर्यभाषा के स्वरूप का लिखित प्रमाण नहीं मिलता है। अतः हम कह सकते हैं कि वैदिक भाषा और संस्कृत भाषा हिन्दी के प्राचीन रूप, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश हिन्दी के मध्यकालीन रूप तथा हिन्दी इन सब भाषाओं का वर्तमान रूप है । इसका तात्पर्य यह है कि इन भाषायी रूपों में भिन्नता अवश्य है, फिर भी इनमें समानता के भी लक्षण मिलते हैं ।
हमारी भाषा ‘हिन्दी’ नाम मुसलमानों द्वारा दिया हुआ है। संस्कृत भाषा की ‘स’ ध्वनि फारसी में ‘ह’ हो जाती है। इसलिए मुसलमानों ने सिन्धु के पार के सम्पूर्ण क्षेत्र को ‘हिन्द’ कहा और वहाँ की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा। इस ‘हिन्दी’ शब्द का कई अर्थों में प्रयोग होता रहा है। व्यापक अर्थ में ‘हिन्दी’ हिन्द या भारत से सम्बन्धित किसी भी व्यक्ति, वस्तु तथा हिन्द अथवा भारत में बोली जाने वाली किसी भी भाषा के लिए प्रयुक्त होती थी। स्पष्ट है कि हिन्दी शब्द हिन्द के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा हैै। हिन्दी का उपर्युक्त अर्थ आज बदल गया है। आज ‘हिन्दी’ कहने से भारत की समस्त भाषाओं का बोध नहीं होता, बल्कि एक निश्चित भाषा का बोध होता है । आजकल प्रचलित या साहित्यिक अर्थ में हिन्दी का प्रयोग मुख्यतया उत्तरी भारत के मध्य देश के हिन्दुओं की वर्तमान साहित्यिक भाषा के अर्थ में होता है। यों साधारणतया इसी भूभाग की बोलियों और उनसे सम्बन्ध रखने वाले प्राचीन साहित्यिक रूपों के अर्थ में भी हिन्दी का व्यवहार होता है। हिन्दी क्षेत्र की सीमाएँ पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर-पश्चिम में अम्बाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल के पूर्वी छोर तक के पहाड़ी प्रदेश का दक्षिण भाग, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण-पूर्व में रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खण्डवा तक पहुँचती है। लेकिन इस सीमा के बावजूद भी आज हिन्दी का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण भारत में है। इसके बोलनेवालों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। सन् 1950 ई० से ही हिन्दी भारत की राजभाषा है। इस समय हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली की एकमात्र राज्यभाषा है। अन्य राज्यों में भी हिन्दी का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
हिन्दी मध्यदेश के लगभग बीस करोड़ लोगों की मातृभाषा है। हिन्दी ही इनकी शिक्षा दीक्षा का माध्यम है। यों प्रारंभिक ज्ञान भी इसी भाषा द्वारा इन्हें प्राप्त होता है। लेकिन आजकल तो हिन्दी सर्वत्र फैली हुई है। संपूर्ण देश में हिन्दी के माध्यम से भ्रमण किया जा सकता है। अखिल भारतीय सेवाओं, व्यवसाय, यातायात, शिक्षा, सिनेमा आदि के कारण सारा देश हिन्दी से परिचित है ।
भाषाशास्त्र के अनुसार मध्यदेश की आठ बोलियों को ही हिन्दी कहते हैं। ये आठ ग्रामीण बोलियाँ दो वर्गों में विभक्त हैं। पहला वर्ग पश्चिमी हिन्दी का है। जिसमें खड़ी, बांगरू, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी हैं तथा दूसरा वर्ग पूर्वी हिन्दी का है जिसमें अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी बोलियाँ हैं ।
खड़ी बोली- यह बोली ही वर्तमान साहित्यिक भाषाओं- हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी- का मूलाधार है। जब खड़ीबोली में संस्कृत तत्व की प्रधानता रहती है तब वह खड़ी बोली या हिन्दी कही जाती है। यही हिन्दी आज राजभाषा है और इसी में आधुनिक साहित्य का निर्माण हो रहा है। यही खड़ीबोली जब अरबी-फारसी के अत्यधिक तत्सम और अर्द्ध-तत्सम शब्दों से युक्त हो जाती है तथा फारसी लिपि में लिखी जाकर विदेशी वातावरण में रँग जाती है तो उसे उर्दू कहते है। उर्दू का अर्थ है ‘बाजार’ प्रारम्भ में उर्दू भाषा बाजारू भाषा ही थी। दिल्ली या शाहजहाँनाबाद के महलों से बाहर शाही फौजी बाजारों में उर्दू का प्रयोग होता था। विदेशी शासन के कारण अरबी-फारसी के शब्दों का प्रचार हो गया था। इन विदेशियों से बातचीत करने के लिए देशी बोली में जब अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग होने लगा तो उर्दू भाषा का जन्म हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से देखने से पता चलता है कि दक्षिण हैदराबाद के मुसलमानी दरबार में उर्दू का साहित्य में प्रयोग शुरू हुआ था । भाषाविज्ञान की दृष्टि से उर्दू और हिन्दी खड़ीबोली के साहित्यिक रूपमात्र हैं। खड़ीबोली का एक और रूप है ‘हिन्दुस्तानी’। आज की साहित्यिक हिन्दी या उर्दू भाषा का परिमार्जित बोलचाल का रूप हिन्दुस्तानी है। देशी-विदेशी भाषा के प्रचलित शब्द हिन्दुस्तानी में प्रयुक्त होते हैं । यांे व्यवहार में हिन्दुस्तानी का झुकाव उर्दू की ओर अधिक रहता है। हिन्दुस्तानी का अपना कोई साहित्य नहीं है। वह देवनागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखी जाती है ।
मूलतः खड़ीबोली रामपुर रियासत, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फनगर, सहारनपुर, देहरादून, अम्बाला, कलसिया तथा पटियाला रियासतों के पूर्वी भागों में बोली जाती है। दिल्ली के आसपास की खड़ीबोली का प्राचीनतम रूप अमीर खुसरो की रचनाओं में देखने को मिलता है। दक्खिनी हिन्दी के साहित्य में भी उसका रूप देखने को मिलता है।
ब्रजभाषा- यह भाषा ब्रजमंडल में बोली जाती है। ब्रजभाषा का शुद्ध रूप मथुरा, आगरा, अलीगढ़ और धौलपुर में देखने को मिलता है। खड़ीबोली को साहित्यिक रूप मिलने से पूर्व ब्रजभाषा ही प्रधानतः साहित्यिक भाषा थी। ब्रजभाषा में प्रचुर सुन्दर साहित्य उपलब्ध है। इस साहित्य का आरम्भ वल्लभ सम्प्रदाय की स्थापना से माना जाता है।
बाँगरू – बांगर प्रदेश अर्थात पंजाब के दक्षिण पूर्वी भाग में बाँगरू बोली जाती है। इसे जाटू या हरियानी भी कहते हैं। दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार, पटियाला, नाभा, झींद आदि की ग्रामीण बोलियाँ बाँगरू के नाम से जानी जाती हैं। बाँगरू बोली पंजाबी, राजस्थानी और खड़ी बोली तीनों का मिश्रण है।
बुन्देली- ब्रजभाषा क्षेत्र के दक्षिण में बुन्देलखण्ड में बुन्देली बोली जाती है। इस बोली का शुद्ध रूप झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, भूपाल, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी और होशंगाबाद में देखने को मिलता है। मिले-जुले रूप में यह दतिया, पत्रा, चरखारी, दमोह, बालाघाट एवं छिन्दवाड़ा के कुछ भागों में पाई जाती है। बुन्देलखण्ड मध्यकालीन हिन्दी साहित्य का केन्द्र तो था, परन्तु रचनाएँ ब्रजभाषा में की गयीं।
कनौजी- यह बोली अवधी और ब्रजभाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाती है। कत्रौजी ब्रजभाषा से बहुत साम्य रखती है। फरुखाबाद इसका केन्द्र है। हरदोई, शाहजहाँपुर, पीलीभीत, इटावा और कानपुर के आसपास तक इसका प्रसार मिलता है। यों इस क्षेत्र के निवासी कवियों ने ब्रजभाषा में रनचाएँ की हैं।
अवधी- इसे कोशली और बैसवाड़ी भी कहते हैं। लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, खीरी, फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, सुलतानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी में अवधी बोली जाती है। यों इलाहाबाद, फतेहपुर, कानपुर, जौनपुर जिलों के कुछ भागों में भी अवधी बोली जाती है। अवधी में भी बड़ा ही सन्दर साहित्य उपलब्ध है। जायसी कृत ‘पद्मावत’ और तुलसी का रामचरितमानस आदि रचनाएँ अवधी की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं।
बघेली- बघेली का केन्द्र रीवा है । परन्तु किसी न किसी रूप में यह मध्य प्रदेश के अन्य स्थानों में भी प्रचलित है, जैसे दमोह, मंडला, जबलपुर तथा बालाघाट जिला। बघेली का अपना कोई साहित्य नहीं है।
छत्तीसगढ़ी- मध्यप्रदेश में रायपुर और विलासपुर के जिलों तथा काँकेर, नन्दगाँव, खैरागढ़, रामपुर, कोरिया, सरगुजा, उदयपुर आदि में यह बोली प्रचलित है। इस बोली में भी कोई साहित्य नहीं है। यो दूसरी भाषा में इस क्षेत्र से साहित्यिक रचनाएँ प्रस्तुत होती रही हैं।
भोजपुरी- भोजपुरी एक बोली है जो बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश तक फैली हुई है। यह छोटानागपुर, सारन, चम्पारन, शाहाबाद से लेकर आजमगढ़, देवरिया, बलिया, गोरखपुर, बस्ती, गाजीपुर, जौनपुर, मिर्जापुर, बनारस तक बोली जाती है। भोजपुरी का साहित्य अभी बाल्यावस्था में ही है । भोजपुरी प्रदेश के लोग भी खड़ीबोली में ही अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं।
हिन्दी प्रदेश के अन्तर्गत ब्रज, अवधी और खड़ीबोली ही वे मुख्य बोलियाँ हैं जो साहित्य रचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, प्रायः इन्हीं बोलियों का साहित्य ही हिन्दी साहित्य के रूप में जाना जाता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का अध्ययन करते समय इन्हीं बोलियों में उपलब्ध साहित्य पर विचार किया जाता है।
हिन्दी की लिपि-देवनागरी
भारत में लेखन कार्य बहुत प्राचीन काल से ही होता था। जैन एवं बौद्धधर्म के ग्रंथों एवं विदेशी यात्रियों के वर्णनों से पता चलता है कि भारत में अनेक लिपियाँ प्रचलित थीं। लेकिन उनके अस्तित्व के बारे में पूरा प्रमाण नहीं मिलता। यों कुछ मुख्य लिपियों के सम्बन्ध में अधिकाधिक प्रमाण मिलते हैं, जैसे सैंधव लिपि, खरोष्ठी लिपि, ब्राह्मी लिपि।
कुछ लिपियों को छोड़कर भारत की आधुनिक लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि से ही माना जाता है । इसी ब्राह्मी लिपि से नागरी लिपि का विकास हुआ और 12वीं शती के आसपास प्राचीन नागरी लिपि से आधुनिक देवनागरी लिपि विकसित हुई। नागरी या देवनागरी के नामकरण के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के अनुमान लगाए जाते हैं। कहा जाता है कि गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम ‘नागरी’ पड़ा। नगरों में प्रयुक्त होने के कारण भी इस लिपि को नागरी कहा गया। इसी तरह देवनगरों में प्रयुक्त होने के कारण अथवा देवनगरी काशी में इसके प्रयोग के कारण इसे ‘देवनागरी’ कहा गया। यहाँ यह स्पष्ट करना चाहिए कि इन नामकरणों के पीछे कोई तार्किक आधार नहीं है।
देवनागरी विश्व की श्रेष्ठ लिपियों में से एक है। यह एक वैज्ञानिक लिपि है । इसी लिपि में हिन्दी लिखी जाती है। देवनागरी एक ध्वन्यात्मक लिपि है जिसमें अक्षरात्मक और वर्णात्मक लिपियों की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इस लिपि के कई गुण बताए गए हैं। 1-देवनागरी लिपि एक व्यवस्थित ढंग से निर्मित लिपि है, 2-इसकी ध्वनियों का क्रम वैज्ञानिक है, 3-इस लिपि में छपाई एवं लिखाई के लिए एक ही रूप है, 4-स्वरों में हस्व-दीर्घ का भेद है एवं स्वरों की मात्राएँ निश्चित हैं, 5-इस लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग लिपि-चिन्ह हैं, 6-एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि-चिन्ह है। 7-देवनागरी के एक लिपि-चिन्ह से सदैव एक ही ध्वनि की अभिव्यक्ति होती है। देवनागरी लिपि में जहाँ अनेक गुण बताये गए वहीं उसमें अनेक त्रुटियौं भी हैं। 1-देवनागरी लिपि पूर्णरूप से वर्णात्मक नहीं है जिससे इसके वैज्ञानिक विश्लेषण में कठिनाई होती है, 2-इस लिपि की लिखावट अधिक स्थान एवं समय-साध्य है। 3-देवनागरी लिपि में स्वरों की मात्राओं को नीचे-ऊपर, दाएंँ-बाएँ लिखने के कारण इसकी लिखावट कठिन है। 4-देवनागरी के लिपि-चिन्हों में अनेकरूपता है। 5-देवनागरी लिपि में कुछ अनावश्यक चिन्ह भी हैं, यथा- क्ष, त्र, ज्ञ। देवनागरी लिपि की इन त्रुटियों की ओर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इसमें सुधार की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कई व्यक्तिगत, संस्थागत एवं प्रशासकीय प्रयत्न हुए हैं। लेकिन हमें देवनागरी लिपि की त्रुटियों की ओर ध्यान देकर इसके प्रचार, प्रसार में तत्पर रहना चाहिए।
लिपि में परिवर्तन करना सरल नहीं है, क्योंकि लिपि के माध्यम से साहित्य का संरक्षण और प्रसारण होता है। लिपि में परिवर्तन करने से साहित्य की अविच्छिन्न धारा खंडित होती है। अतः हमें हिन्दी की श्रीवृद्धि में लगना चाहिए, न कि लिपि के परिवर्तन में।
हिन्दी के वर्ण
वर्ण वह मूल ध्वनि है, जिसका खंड न हो सके यथा-अ, इ, क, च इत्यादि। वर्ण को अक्षर भी कहते हैं जो ‘क्षर’ न हो अर्थात् जो छार-छार न हो सके, उसे अक्षर कहते हैं। ‘सबेरा’ में तीन ध्वनियों में से प्रत्येक के खण्ड हो सकते हैं, अतः वह मूल ध्वनि नहीं है। ‘स’ में दो ध्वनियां हैं, स् और अ, जिनका खंड नहीं हो सकता, इसलिए स् और अ मूल ध्वनि हैं। ये मूल ध्वनियाँ ही वर्ण कहलाती हैं। इस प्रकार ‘सबेरा’ शब्द में छः मूल ध्वनियाँ हैं-स, अ, ब, ए, इ, आ।
वर्गों के समूह को वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी जिस वर्णमाला में लिखी जाती है उसे देवनागरी कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में छियालीस (46) वर्ण हैं। ये वर्ण दो प्रकार के हैं-स्वर और व्यंजन।
स्वर उन वर्णों को कहते हैं जिनका उच्चारण स्वतन्त्र रूप में होता है तथा जो व्यंजन वणों के उच्चारण में सहायक होते हैं, जैसे-अ, इ, उ आदि में हिन्दी ग्यारह स्वर है-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकत। व्यंजन तैतीस है- क, ख, ग, घ, ड़, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह। व्यंजनों में दो वर्ण और होते हैं जो अनुस्वार और विसर्ग कहलाते है। अनुस्वार का चिन्ह स्वर के ऊपर एक बिन्दी और विसर्ग का चिन्ह स्वर के आगे दो बिंदियाँ हैं, जैसे अं, अः इसके उच्चारण में भी व्यंजनों के ही समान स्वर की जसरत होती है।
इन स्वर, व्यंजनों के अतिरिक्त कुछ और स्वर, व्यंजन भी है। संस्कृत में ऋ, ल, लृ, ये तीन स्वर और हैं लेकिन हिन्दी में इनका प्रयोग नहीं होता है। ऋ (ह्रस्व) भी हिन्दी में आने वाले केवल तत्सम शब्दों में ही ऋ (ह्रस्व) का प्रयोग होता है। जैसे-ऋषि, कृपा, नृत्य आदि। ऊपर के तैंतीस व्यंजनों के अतिरिक्त वर्णमाला में तीन व्यंजन और मिला लिए जाते हैं। क्ष, त्र, ज्ञ। इन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं जो इस प्रकार बनते हैं- क् $ ष = क्ष, त् $ र = त्र, ज, $ ´ = ज्ञ।
हिन्दी में दो अक्षर और बना लिए जाते हैं जैसे ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर- ड़, ढ़। हिन्दी में इनका खूब प्रयोग होता है। इतना ही नहीं, अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने का प्रयास हुआ है । हिन्दी में व्यंजनों के नीचे बिन्दु लगाकर ऐसी ध्वनियाँ प्रयुक्त हो रही हैं, जैसे-कलम, खत आदि ।
वर्ण विभाग
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार द्वारा स्वीकृत संशोधित हिन्दी वर्णमाला।
स्वर-अ आ इ ई उ ऊ ऋ लृ ए ऐ ओ औ अं अः।
मात्राएँ- ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ :
व्यंजन- क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह ड ढ़ ल
क्ष त्र ज्ञ
अंक- १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, ०
द्वितीय खण्ड शब्द और शब्दों का वर्गीकरण
शब्द का भाषा में विशेष स्थान होता है। शब्द ही व्याकरण अथवा भाषा-विज्ञान का मूल साधन है। एक तरह से यह कहा जाय कि भाषा में हमारे अध्ययन का मूलाधार भी शब्द है। ध्वनियों के मेल से शब्द बनता है । इस प्रकार एक या एक से अधिक वर्षों से बनी स्वतंत्र सार्थक ध्वनि या ध्वनिसमूह को शब्द कहते हैं, जैसे लड़का, परन्तु, धीरे, जा आदि ।
एक या एक से अधिक ध्वनियों से शब्द बनता है तथा उसी प्रकार एक या से अधिक शब्दों से वाक्य का निर्माण होता है। वाक्य में प्रयुक्त होने वाले ये शब्द परस्पर सम्बद्ध रहते हैं। अतः वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद कहलाता है, जैसे-गोपाल पुस्तक पढ़ता है, में ‘पुस्तक’ शब्द पद है। अपने मूल रूप में ‘पुस्तक’ शब्द है, किन्तु वाक्य में प्रयुक्त हो जाने पर यह ‘पद’ बन जाता है। इस प्रकार एक या अधिक अक्षरों या वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द तथा एक पूर्ण विचार व्यक्त करने वाला शब्दसमूह वाक्य है। वाक्य में प्रयुक्त शब्द को ‘पद’ कहते हैं।
अनेक दृष्टियों से शब्दों के वर्गीकरण किये गये हैं, जैसे वाक्य में प्रयोग के अनुसार, रूपान्तर के अनुसार, व्युत्पत्ति के अनुसार, उद्गम के अनुसार आदि ।
वाक्य में प्रयोग के अनुसार शब्दों के आठ भेद होते हैं-संज्ञा, क्रिया, विशेषण, क्रियाविशेषण, सर्वनाम, सम्बन्धसूचक, समुच्चयबोधक, विस्मयादिबोधक शब्द। वस्तुओं के नाम बतलाने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं। वस्तुओं के विषय में विधान करने वाले शब्द क्रिया कहलाते हैं। जो शब्द वस्तुओं की विशेषता बतलाए वह विशेषण है। इसी प्रकार विधान करने वाले शब्दों (क्रिया) की विशेषता बताने वाले शब्द क्रियाविशेषण कहलाते हैं। संज्ञा के बदले आने वाले शब्द सर्वनाम हैं। क्रिया के नामार्थक शब्दों का सम्बन्ध सूचित करने वाले शब्द सम्बन्धसूचक शब्द कहलाते हैं। दो शब्दों या वाक्यों को मिलानेवाले शब्द समुच्चयबोधक कहलाते हैं। केवल मनोविकार सूचित करने वाले शब्द विस्यादिबोधक कहलाते हैं। उदाहरणार्थ यह वाक्य द्रष्टव्य है- ‘अरे ! सूरज डूब गया और तुम अभी इसी गाँव के पास फिर रहे हो, अरे-विस्मयादिबोधक, सूरज-्संज्ञा है, डूब गया-क्रिया है, और-समुच्चयबोधक है, तुम-सर्वनाम, अभी- क्रियाविशेषण है, इसी-विशेषण है जो गाँव की विशेषता बता रहा है, गाँव-संज्ञा, के-शब्दांश है, पास-सम्बन्धसूचक शब्द है, फिर रहे हो-क्रिया है।
रूपांतर की दृष्टि से शब्दों के दो भेद होते हैं- विकारी और अविकारी। जिस शब्द के रूप में कोई विकार होता है, उसे विकारी शब्द कहते है। जैसे लड़की, लड़कियाँ, लड़का, लड़कों। जिस शब्द के रूप में कोई विकार नहीं होता और जो अपने मूल रूप में बना रहता है, उसे अविकारी शब्द कहते हैं, जैसे-अचानक, बहुधा, परन्तु, अभी आदि। विकारी शब्दों के अन्तर्गत संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया है और अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धसूचक, समुच्चयबोधक, विस्मयादिबोधक शब्दों की गणना होती है। अविकारी शब्दों को अव्यय भी कहा जाता है।
व्युत्पत्ति के अनुसार शब्दों के दो भेद होते हैं-रूढ़ शब्द और यौगिक शब्द। रूढ़ शब्द दूसरे शब्दों के योग से नहीं बनते हैं, जैसे- नाक, पीला, पर, कान आदि । यौगिक शब्द उन्हें कहते हैं जो दूसरे शब्दों के योग से बनते हैं, जैसे- पीलापन, कतरनी, घुड़सवार ।
उद्गम के अनुसार शब्दों के छः प्रकार बताए गए हैं- (1) तत्सम, (2) अर्द्धतत्सम, (3) तद्भव, (4) अनुकरणवाचक, (5) देशज, (6) विदेशज।
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