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लटकती घाटी की विवेचना कीजिए Hanging Valley in hindi hanging valley is formed due to the action of

hanging valley is formed due to the action of definition in geography लटकती घाटी की विवेचना कीजिए Hanging Valley in hindi ?

हिमानी अपरदन से बनने वाले भू-रूपः-
(1) U आकार की घाटी (U shaped Valley) – पहाड़ी भागों की पूर्व निर्मित घाटियों में जल हिमानी बहती है तो घाटी को काट-छाँटकर U आकार में परिवर्तित कर देती है। ढाल पर तेज खडा ढ़ाल पाया जाता है व तली चपटी सपाट होती है। घाटी का आकार चट्टानों की संरचना व हिमानी के आकार पर निर्भर करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका की मोसोमाइट घाटी इसका श्रेष्ठ उदाहरण है ।
(2) लटकती घाटी (Hanging Valley) – हिमानी क्षेत्रों में लटकती घाटी का विशेष महत्व है। जब कोई छोटी सहायक हिमनद किसी बड़ी हिमानी से आकर मिलती है तो उसकी घाटी ऊँची रह जाती है एव लुढ़ककर बड़ी हिमनद में गिरता है। बड़ी हिमानी में चट्टानचूर्ण की अधिकता से चैड़ी गहरी घाटी बनता है। परन्तु छोटी हिमनद अपनी घाटी को उतना गहरा नहीं बना पाती इससे लटकती घाटी बन जाती है। मुख्या की घाटी पूर्व निर्मित है व सहायक हिमानी की घाटी का निर्माण अधिक ऊँचाई पर बाद में होता है।
(3) हिमग्वाहर या सर्क (Cirque) –  जब हिमानी उच्च पर्वतीय भागों से नीचे उतरती है तो पव ढालों पर उत्पादन द्वारा जगह-जगह गड्ढे बन जाते हैं। धीरे-धीरे ये गड्ढे गहरे गर्त में बदल जात है, जिसके पृष्ठ में पर्वतीय ढाल की ऊँची दीवार पायी जाती है। गर्त का चैड़ा होना शुरू हो जाता है व हिमनद का जन्म व पोषण होने लगता है। इसे हिम ग्वाहर कहा जाता है। स्कॉटलैण्ड में कोरी, जर्मनी में कारेन, फ्रांस में सर्क, स्कैण्डेनेविया में केसल नाम से इन्हें जाना जाता है। दूर से देखने पर ये अर्द्धगोलाकार व या आरामकुर्सी की तरह स्थल की बनावट दिखायी पड़ती है।
मात्थेज व जॉनसन ने (1904) इनकी उनकी उत्पत्ति व विकास पर प्रकाश डाला है। सर्क एक चैडी विटर या वर्गक्षेत्र के स्थान पर बनता है। विदर के मुख से सतह का पिघला जल व अपक्षय से प्राप्त चट्टान पूर्ण भीतर प्रवेश कर जाते हैं। जल से रासायनिक अपक्षय होता है, साथ में चट्टानों के टुकड़ों से यांत्रिक अपक्षय भी होता है, जिससे तली में गर्त का आकार बढ़ जाता है। जल के भीतर जाने व पुनः जमने से आयतन में परिवर्तन होता है, इससे भी चट्टानों पर दबाव बढ़ता है और व टूटने लगती है। टूटे हुए टुकड़े हिमनद द्वारा हटा दिये जाते हैं। इस क्रिया को हिम अद्यःखनन (Glacial sapping) कहते है। इस प्रकार सर्क चैडा होता जाता है। सर्क हिमालय आल्पस, रॉकीज पर्वतों पर देखे जा सकते है।
(4) टार्न (Tarn) – हिम ग्वाहर या सर्क जब अत्यधिक गहरा हो जाता है तब ग्वाहर को बनाने वाली हिमनद उस पर लटकी हुई प्रतीत होती है। ऐसा मालूम होता है कि ये हिम ग्वाहर हिमानी का स्रोत स्थल है। बाद में तापमान बढ़ने पर हिमनद पीछे हट जाता है व बर्फ पिघलने लगती है तथा सर्क में झील का निर्माण हो जाता है इसे टार्न कहते हैं।
(5) गिरीशृंग (Horm) – पर्वतों की चोटियों पर जो समान कोण पर मिलते हैं वो अपने शीर्ष दीवार का तेजी से कटाव करते जाते हैं। लम्बे समय बाद पर्वतीय शिखर की आकृति नुकीले सींग जैसी हो जाती है, जिसे हॉर्न या गिरीशृंग कहा जाता है। स्विट्जरलैण्ड का श्मेटर हार्नश् इसी प्रकार का शिखर है।
(6) भेड़ पीठ शिला (Sheep rock) – हिमनदियाँ बहुत अधिक टेढ़े-मेढ़े मार्गों का अनुसरण नहीं करती है, वरन् रास्ते में आने वाले अवरोधों को काट-छाँट कर चिकना बना देती हैं। जब कभी विशाल चट्टान मार्ग में अवरोध बनती है तब हिमनद जिस तरफ से आता है वहाँ बराबर रगड़ खाते रहने से मंद उन्नतोदर दाल की चिकनी आकति बनती है। जिस तरफ हिमनद उतरली है वहाँ ऊबड़-खाबड़ सतह रह जाती है व ढाल तीव्र रहता है। इस ढाल पर प्लकिंग की क्रिया होती है। ऐसे अनेक टीले नदी को तली में बन जाते है दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई भेड़ बैठी हो, इसी कारण इन्हें भेड़ पीठ शैलें माउन्टन (Roches Moutonme) कहा जाता है।
(7) शृंग एवं पुच्छ (Crag and tail) – जब हिमानी के प्रवाह में कोई बहत कठोर चट्टान खड़ी स्थिति में आ जाती है तो उसका अपरदन नहीं हो पाता, परन्तु आस-पास की कोमल चट्टान कट जाती है व अवसादें को हिमानी कठोर चट्टान के आगे निक्षेपित कर देती है। इस प्रकार हिमानी के सामने का ढ़ाल खड़ा व उबड़-खाबड़ बन जाता है तथा विमुख ढाल समतल एवं मंद ढाल का रहता है। बीच में कठोर चट्टान खड़ी रहती है, जिसके आगे अपरदित पदार्थों के निक्षेप पाया जाता है। इस प्रकार की आकृति को श्रृंग एवं पुच्छ कहा जाता है।
(8) ननाटक (Nunatak) – जब बर्फीले प्रदेशों में लम्बे समय तक हिमानी अपरदन होता है तो कुछ कठोर टीले बर्फ से अधिक ऊँचाई पर खड़े रहते हैं। ये टीले अपक्षय से अधिक प्रभावित होते है। इन्हें नूनाटक कहा जाता है।
(9) फिओर्ड तट (Fiord Coast) – उच्च अक्षांशों में हिमानी के अपरदन का प्रभाव सम ुद्र तट तक देखा जा सकता है। पूर्व हिमयुग काल में हिमनदियाँ समुद्र तट तक पहुँच गयी थीं। नार्वे, स्वीडन, अलास्कर व ध्रुवीय क्षेत्रों में जलमग्न न् घाटियाँ देखी जा सकती हैं। तटीय क्षेत्रों में हिमनदियों के कटाव से गहरी घाटियाँ बनीं। बाद में तापमान बढ़ने तथा बर्फ पिघलने एवं सागर तट के ऊपर उठने से ये समुद्र में डूब गयीं। इस प्रकार के तट को फिओर्ड तट कहा जाता है। इनके किनारे खड़े ढाल लिये होते हैं।
(10) हिम सोपान (Giant Stairs) – हिमानी की घाटी प्रायः सीधी लम्बी होती है। घाटी में काफी कर दूर तक तेज ढाल वाला या सीढ़ीनुमा भाग दिखायी देता है। ये काफी चैड़े व ऊँचे होते हैं। इन्हें हिमसोपन कहा जाता है। इसके निर्माण में भ्रंशन क्रिया से बनी कगारों का भी योगदान होता है।
हिमानी का परिवहन कार्य
(Transportation work of Glaciers)
यद्यपि हिमानी की गति बहुत मन्द होती है, परन्तु परिवहन क्षमता काफी अधिक होती है। इसके द्वारा विशाल भूखण्ड भी सैकड़ों कि.मी. तक हटा दिये जाते हैं। हिमानी के साथ चट्टान चूर्ण किनारों, मध्यभाग एवं मुख पर बर्फ के साथ फंस कर घिसटते हुए आगे बढ़ते हैं। इसके अवसाद बहुत बारीक नहीं होते हैं व छोटे-बड़े कण आपस में मिली-जुली अवस्था में पाये जाते हैं। हिमानी में अवसादों की मात्रा पर मार्ग की चट्टानों की संरचना, हिमानी का आकार एवं धरातल का ढाल विशेष प्रभाव डालते हैं। नीचे आने पर जब तापमान बढ़ने से बर्फ पिघलने लगती है तो हिमानी आगे नहीं बढ़ती व परिवहन का कार्य समाप्त हो जाता है।
हिमानी के निक्षेप से बनी भू-आकतियाँ
(Landforms made by depositional work of glaciers)
जब तापमान बढ़ने से हिमानी बर्फ पिघलने लगती है वहीं से हिमानी का अन्तिम भाग प्रारम्भ होता है। अतः हिमानी का जमाव का कार्य अलग प्रकार से होता है। हिमानी की गति रुकने पर उसके निक्षेपण कार्य प्रारम्भ होते है। हिमानी के निक्षेप बर्फ व पानी की सम्मिलित क्रिया से होता है। चट्टान चूर्ण हिमानी के नीचे नसों की भाँति बहने वाले बर्फीले पानी के सहयोग से विभिन्न क्षेत्रों में इकट्ठा हो जाता है। इससे बनने वाली आकृतियाँ निम्न हैं –
(1) विभिन्न प्रकार के मोरेन या हिमोढ (Moraines) – हिमनद के साथ बहने वाले समस्त शिलाखण्ड, कंकड, पत्थर, बालू, आदि के मलबे को हिमोढ़ कहा जाता है। हिमनदी जैसे ही जल में बदलने लगता है हिमनदी की गति रूकने लगती है व इनका निक्षेप कई स्थानों पर होता है। इसी आधार पर इन्हें कई भागों में बाँटा जाता है।
(1) पाशर््िवक हिमोढ़ (Lateral Moraines) – जब हिमनद पिघलने लगती है तब किनारों पर प्रभाव अधिक पड़ता है। अतः हिमनद के किनारों पर शिलाखण्डों के बोझ को छोड़ देता है। इन्हें पाशर््िवक हिमोढ कहा जाता है। यह जमाव किनारों पर कटक के समान होता है।
(2) मध्यस्थ हिमोढ़ (Medieval Moraines) – जब दो हिमनदियाँ मिलती हैं और मिलकर आगे बढती हैं तो उनके संगम पर किनारों के शिलाखण्ड मिलकर बीच में प्रवाहित होने लगते हैं इन्हें मध्यस्थ हिमोढ़ कहा जाता है।
(3) तलस्थ हिमोढ़ (Ground Moraines) – जब हिमनदियों में निचला भाग शिलाखण्डों की प्रचुरता से भारी हो जाता है, तब हिमनदियाँ उनको घसीटकर ले जाने में असमर्थ हो जाती हैं। वो अवसादों को मार्ग में ही छोड़ देती हैं। इन्हें तलस्थ हिमोढ़ कहा जाता है। इन शैलों के ऊपर बारीक धारीदार खरोंच पड़ जाती है, ऐसे शिलाखण्डों को गोलाश्म (Boulders) भी कहते हैं।
(4) अन्तस्थ हिमोढ़ (Terminal Moraines) – हिमनद के अन्तिम छोर पर हिम की मात्रा बहुत कम रह जाती है, तो हिमनद के साथ आये शिलाचूर्ण वहीं जमा हो जाते हैं। इन्हें अन्तस्थ हिमोढ़ कहा जाता है।
(5) ड्रमलिन (äumline) -इसे हिम डिब्बा, अण्डों की टोकरी आदि के नाम से जाना जाता है। इसमें हिमोढ़ के गोलाश्म तथा लसीली मिट्टी के टीले पूरी घाटी में जगह-जगह निक्षेपित हो जाते हैं। इनकी लम्बी पूँछ हिम प्रवाह के समानान्तर होती है। ऊपरी सतह ऊबड़-खाबड़ होती है। ढाल की सतह चिकनी होती है। अधिकतर ये (60) मीटर तक की ऊँचाई के होते हैं। इन टीलों का हिमनद के सम्मख वाला ढाल खड़ा व विमुख ढाल हल्का होता है। कुछ विद्वान ड्रमलिन की रचना हिमनद के आगे -पीछे होने के कारण मानते हैं, वहीं कुछ विद्वान हिमविदरों के अपक्षय से प्राप्त चूर्ण के तली में एकत्रित होने से इनके निर्माण की व्याख्या करते हैं।
(6) हिमनदियों से होने वाले निक्षेप जब असंगठित रूप से जमा हो जाते हैं, जिसमें बारीक चट्टान चूर्ण एवं बड़े-बड़े चट्टानी टुकड़े शामिल रहते हैं। इन्हें गोलाश्मी मृतिका (Till) कहा जाता है। इनके जमाव में पानी का योगदान नहीं होता है। इन गोलाश्म से निर्मित शैल टिलाइट (Tillite) कहलाती है। हिमनद के अन्तिम छोर पर तापमान की अधिकता से बर्फ पिघलने लगती है व जलधारायें प्रवाहित होने लगती हैं। हिमनद व उससे प्राप्त जल के सामूहिक प्रभाव से बहुत-सी निक्षेपात्मक आकृतियाँ बनती हैं।
(1) अवक्षेप मैदान (Outwash plain) -अन्तिम हिमोढ़ के बाद जब हिमनदियों से पिघला जल धाराओं में बह निकलता है तो बारीक कणों को अपने साथ बहा ले जाता है व ढाल पर दूर तक बिछा देता है इसे अवक्षेप मैदान कहा जाता है।
(2) एस्कर (Eskar)- हिमनद से निकली जल धारायें अपने साथ जो बारीक मिटी बहाकर ले जाती है वो मार्ग में मिट्टी को जरा-सा अवरोध पड़ने पर ही छोड़ती जाती है। इस प्रकार एक लहरदार निक्षेपित आकृति बनती है, जिसे एस्कार देखे जा सकते हैं।
(3) जब अवरोध के कारण जल धाराओं के साथ बहने वाले अवसाद टीले के रूप में जमा हो जाते हैं व ऊँचाई 30 से 60 मीटर तक हो जाती है तब इन्हें केम (Kame) कहा जाता है। हिमानी के मुख पर अनेक एस्कर बनते हैं व कई बार एस्कर मिलकर केम (Kame) का निर्माण करते हैं।
(4) अन्तिम हिमोढ़ क्षेत्र में विशेष जमावों के बीच छोटे-छोटे गड्ढे बन जाते हैं। इनमें बर्फ के पिघलने से पानी भर जाता है। इन्हें केतलीनुमा जमाव (Glacial Kettle) कहा जाता है, जब इनमें मोरेन जमा हो जाते हैं तो ऐसे विशेष जमाव को हमोक (Hammock) कहते हैं।
इस प्रकार हिमनदियों से प्रभावित क्षेत्रों में विभिन्न भू-आकृतियाँ बनती हैं। हिमानी के कार्यों की सीमा किसी आधारतल से निश्चित नहीं होती है। यह मख्यतः जलवाय विशेषकर तापमान व हिमपात की मात्रा से प्रभावित होता है। फिर भी कई विद्वानों ने हिम क्षेत्रों में हिमानी अपरदन में चक्रीय व्यवस्था को स्वीकार किया है।
युवावस्था में हिमनदियों का निर्माण होता है व ढाल के अनुरूप वह सरकना प्रारंभ करती है। इस काल में प्लकिंग (Plucking) द्वारा अपनी U-आकार की घाटी बनाती है। अपरदन द्वारा सर्क एवं कंघीनुमा पहाड़ियों का विकास होता है। प्रौढ़ावस्था में हिमदियों का विस्तार हो जाता है। रोशे माउण्टेन श्रृंग पुच्छ शिला आदि का निमार्ण तली मे होता है। इसी समय टार्न झील का निर्माण होता है। जगह-जगह नूनाटक दिखाई पड़ते है। जब वृदावस्था प्रारम्भ होती है, तब बार-बार हिमनदियों के आगे-पीछे बढ़ने से तली चिकनी व सपाट हो जाती है, हिमोढ़ों का निक्षेपण जगह-जगह होने लगता है। हिमानी के अन्तिम क्षेत्र में जल धाराओं से टिल का निक्षेप होता है।