हरे मेंढक की जीवन-प्रणाली और बाह्य लक्षण क्या है | मेंढक का वर्गीकरण एवं लक्षण green frog in hindi
green frog in hindi हरे मेंढक की जीवन-प्रणाली और बाह्य लक्षण क्या है | मेंढक का वर्गीकरण एवं लक्षण ?
जल-स्थलचर वर्ग
हरे मेंढ़क की जीवन-प्रणाली और बाह्य लक्षण
वासस्थान हरा मेंढ़क (आकृति ६०) गरमियों में नदियों और ताल तलैयों के किनारे पाया जाता है। खतरे की आहट पाते ही वह जोर से पानी में छलांग मारता है और छिप जाता है। कुछ देर बाद वह फिर पानी की सतह पर आने लगता है। इस समय उसकी उभड़ी हुई आंखें और नासा-द्वार जरा-से पानी के बाहर निकले हुए दिखाई देते हैं। यदि आसपास खतरे का कोई अंदेशा न हो तो वह कुछ देर बाद फिर किनारे पर चढ़ आता है।
शरद में जाड़ों के शुरू होने के साथ हरा मेंढ़क नदियों के तल में पहुंचता है और वहां की छाड़न में घुसकर सुषुप्तावस्था में लीन हो जाता है।
उष्ण देशों में , जहां साल के दौरान कम-अधिक बारिश होती है और धुआंधार बारिश और लंबे मन्त्रे के कालखंड बराबर एक दूसरे का स्थान लेते रहते हैं, मेंढ़क गरमियों में सुयुप्तावस्था में लीन हो जाते हैं।
इस प्रकार जल और थल , मेंढ़क के दोनों वासस्थान हैं।
दलदलों, चरागाहों और जंगलों में हमें अक्सर घास के मेंढ़क मिलते हैं जो भूरे रंग के होते हैं।
बाह्य लक्षण वाह्यतः मेंढ़क मछली से बहुत ही भिन्न होता है। धड़ और सिर सहित उसके छोटे और चैड़े से शरीर में पूंछ नहीं होती और दो जोड़े सुपरिवर्दि्धत अंग या अगली और पिछली टांगें होती हैं। मेंढ़क की टांगें मछली के सयुग्म मीन-पक्षों के समान होती हैं पर स्थलचर जीवन के कारण उनकी संरचना अधिक जटिल होती है।
मछली के मीन-पक्षों के विपरीत मेंढ़क के पश्चांग में ऊरु , पिंडली और पाद होते हैं। बाद में पांच अंगुलियां होती हैं। अग्रांग में बाहु, अग्रबाहु और हाथ होते हैं। हाथ में चार अंगुलियां होती हैं।
मेंढ़क जमीन पर छलांगें लगाता हुआ चलता है। छलांग मारने में मुख्य काम मजबूत पिछले पैर देते हैं। जब हरा मेंढ़क छलांग लगाता है तो अपनी पिछली टांगें तान लेता है जो बैठते समय घुटनों में मुड़ी रहती हैं। फिर बड़े जोर से वह जमीन से उछल पड़ता है। छलांग लगाने के बाद वह अपने अग्रपादों पर जमीन पर आता है। ये अग्रपाद जमीन से टकराने या धक्का खाने से उसका बचाव करते हैं।
पानी में भी मेंढ़क अपने पिछले पैरों के सहारे चलता है जिनकी लंबी लंबी अंगुलियों के बीच तरण-जाल तना रहता है। बिना गरदन का नुकीला-सा सिर सघन पानी को काफी आसानी से काटता जा सकता है। मछली की तरह मेंढक का शरीर भी त्वचा-ग्रंथियों से रसनेवाले श्लेष्मिल द्रव्य से ढंका रहता है और इससे तैरने में बड़ी सहायता मिलती है।
पीढ़ी दर पीढ़ी काम में आते आते पिछली टांगें अग्रपादों की अपेक्षा सुपरिवर्दि्धत हुई हैं।
मेंढ़क की शल्क रहित नंगी त्वचा हरे और भूरे रंग की विभिन्न झलकें लिये होती है। इस रंग-व्यवस्था के कारण मेंढ़क को पानी में और किनारे की घास में पहचान लेना मुश्किल होता है। त्वचा के सूख जाने से मेंढ़क मर जाता है, अतः वह हमेशा सूखे स्थानों में रह नहीं सकता।
शिकार की प्राप्ति
हरा मेंढ़क प्राणियों को खाकर जीता है। वह जमीन पर कीड़े-मकोड़े और पानी में मछली का फाई पकड़ लेता है। यद्यपि मेंढ़क कम चलनेवाला और दीखने में भद्दा-सा होता है फिर भी कीड़ों-मकोड़ों को पकड़ने का काम वह सफलता के साथ कर सकता है। शिकार के पास आते ही मेंढ़क आगे छलांग लगाता है, अपनी लंबी जबान झटके से फैलाता है और उसमें चिपकनेवाले कीड़े-मकोड़े को निगल जाता है। चैड़ी , चीकट जबान मुंह में अगले किनारे से चिपकी रहती है जबकि कांटेदार पिछला हिस्सा मुंह से बाहर फेंका जाता है।
मेंढ़क के केवल ऊपरवाले जबड़े और तालु पर नन्हे नन्हे दांत होते हैं। जबड़े पर वे मुश्किल से दिखाई देते हैं पर उसके किनारे पर हाथ फेरने से अनुभव किये जा सकते हैं। दांत मेंढ़क को केवल शिकार पकड़ रखने में मदद देते हैं।
ज्ञानेंद्रियां मेंढ़क के सिर में ऊपर की ओर दो बड़ी बड़ी उभड़ी हुई आंखें होती हैं। मछलियों के विपरीत , मेंढ़क के पलकें होती हैं। ऊपर की पलक अर्द्धचल होती जबकि निचली- चल , जिसका ऊपरवाला हिस्सा पारदर्शी होता है। पलकें सभी स्थलचर रीढ़धारियों की विशेषता है। ये धूल , गंदगी आदि से आंखों की रक्षा करती हैं।
आंखों के आगे , सिर की ठीक चोटी में, मुंह के ऊपर दो नासा-द्वार होते हैं। इनसे होकर हवा नासा-गुहा में पैठती है जहां से प्राण-तंत्रिका शाखाओं में बंटती है। मछली के विपरीत मेंढ़क की नासा-गुहा मुख-गुहा से संबद्ध होती है। यदि हम मेंढ़क का मुंह खोल दें तो उसके तालु पर अनु-नासा-छिद्र दिखाई देंगे। इनके जरिये हवा मुख-गुहा में प्रवेश करती है और वहां से श्वसनेंद्रियों में अर्थात् फुफ्फुसों या फेफड़ों में।
सिर के फूले हुए हिस्से में आंखों और नासा-द्वारों के होने के कारण मेंढक केवल अपने सिर के ऊपरी भाग को ही पानी से बाहर निकालकर सांस ले सकता है।
मेंढक की श्रवणेंद्रियां हवा से ध्वनियां सुनने की क्षमता रखती हैं। हर आंख के पीछे एक एक गोल कर्णपटह होता है। हवाई ध्वनि-तरंगें उसे कंपित कर देती हैं और ये कंपन खोपड़ी में स्थित अंदरूनी कान में पहुंचाये जाते हैं।
प्रश्न – १. मेंढ़क की टांगें किस प्रकार मछली के सयुग्म मीन-पक्षों से भिन्न है? 2. मेंढक अपना शिकार कैसे पकड़ लेता है ? ३. कौनसी संरचनात्मक विशेषताओं के कारण मेंडक की नेद्रियां और ब्राणेंद्रियां मछली की इन इंद्रियों से भिन्न हैं ?
व्यावहारिक अभ्यास – सजीव प्रकृति-संग्रह में मेंढ़क का निरीक्षण करो। देखो वह जमीन पर और पानी में किस प्रकार चलता है और किस प्रकार टैरेरियम में उसके पास छोड़ी गयी मक्खियां पकड़ लेता है ?
मत्स्य-संवर्द्धन
आईना कार्प-मछली मछली-पालन-केन्द्र में संवर्दि्धत फ्राई को नदियों में छोड़ने के अलावा तालाबों में मछलियों का संवर्द्धन कई देशों में सफलतापूर्वक विकसित हो रहा है। इस काम के लिए सबसे अधिक मात्रा में आईना कार्प-मछली (आकृति ७६) का उपयोग किया जाता है.। इस मछली के बड़े शल्क उसका शरीर पूरी तरह से नहीं ढंकते बल्कि हर बगल में उनकी तीन तीन खड़ी कतारें होती हैं। बाकी त्वचा नंगी होती है। उसके आईनानुमा बड़े बड़े शल्कों के कारण यह मछली आईना कार्प कहलाती है। शल्कों से पूरी तरह प्रावृत शल्की कार्प और शल्कों से लगभग खाली नंगे कार्प का भी संवर्द्धन किया जाता है।
तालाबों में मछली-पालन संपूर्ण मछली-पालन केंद्र में बहते पानी के तालाबों कीएक पूरी प्रणाली का समावेश होता है (आकृति ८६ )। इनमें से कुछ हैचरियां होती हैं। ये गरम पानी के छोटे छोटे जलाशयों के रूप में होती हैं। अंडे दिये जाने और सेये जाने के मौसम में केवल एक महीने के लिए इनमें पानी भर दिया जाता है। फिर पानी बाहर छोड़ दिया जाता है और जलाशय के तल में वनस्पतियों का उद्भेदन होता है। यदि हैचरी में घास न हो तो अगले वर्ष वहां कार्प-मछलियां अंडे नहीं देतीं। जब फ्राई कुछ बड़े होते हैं तो उन्हें संवर्द्धन-जलाशयों में स्थानांतरित किया जाता है। जाड़ों के लिए नन्हीं कार्प-मछलियों को जाड़ों के जलाशयों में रखा जाता है जहां जाड़ों में पानी तल तक जम नहीं जाता। अगले वसन्त में एक साल की उम्रवाली मछलियों को बड़े चराई-जलाशयों में ले जाया जाता है। यहां वे काफी मोटी-ताजी हो जाती हैं और फिर शरद में उन्हें पकड़ा जाता है। बड़ी बडी नस्ली मछलियों को अंडे देने के बाद नस्ली जलाशयों में रखा जाता है।
चराई-जलाशयों में कार्प-मछलियों को आम तौर पर कृत्रिम रीति से खिलाया जाता है। इस कृत्रिम भोजन में मटर , मक्का, खली , मछली का आटा, उबले आलू इत्यादि चीजें शामिल हैं। इस प्रकार के अतिरिक्त चारे के फलस्वरूप मछली जल्दी बड़ी होती है और प्राकृतिक चारे की अपेक्षा इससे उसका वजन कहीं अधिक होता है।
सोवियत संघ में कई बार केवल चराई-जलाशय होते हैं जहां वे खास है चंरियों से खरीदे गये मछलियों के इकसाला बच्चों का पालन करते हैं। आईना कार्य-मछली पानी से भरे धान के खेतों में भी पाली जाती है।
कार्प-मछली की प्रकृति में परिवर्तन आईना कार्प-मछली प्रकृति में नहीं मिलती। साधारण कार्प से कृत्रिम रीति से उसे परिवर्दि्धत किया गया है। मनुष्य ने अपनी आवश्यकता के अनुसार कार्प-मछली में सुधार कर दिये हैं। प्राईना कार्प-मछली से उसके जंगली पुरखों की अपेक्षा अधिक मोटा और स्वादिष्ट मांस मिलता है और वह जल्दी जल्दी बढ़ती भी है। इस मछली का बरताव भी बदल गया है। साधारण कार्प-मछली मावधान और कायर होती है जबकि आईना कार्प-मछली शांत रीति से चराई के स्थान तक तैर आती है।
आईना कार्प-मछली को साधारण कार्य से भिन्न दिखानेवाली विशेषताएं इस मछली को मनुष्य द्वारा प्राप्त करायी गयी अनुकूलतर जीवन-स्थितियों के प्रभाव के फलस्वरूप विकसित हुई हैं। संवर्दि्धत कार्प-मछलियों को मिलनेवाला चारा और संवर्द्धन के लिए सर्वोत्तम नमूनों का चुनाव इस दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण रहा है। मनुष्य द्वारा पाले जानेवाले अन्य अनेक प्राणियों की तरह आईना कार्प-मछली को भी पालतू या घरेलू प्राणी कहा जा सकता है।
प्रश्न – १. कौनसी विशेषताओं के कारण आईना कार्प-मछली साधारण कार्प से भिन्न है ? २. किन परिस्थितियों में कार्प-मछली की प्रकृति में . परिवर्तन हुआ? ३. आईना कार्प-मछली को घरेलू प्राणी क्यों मानना चाहिए? ४. मत्स्य-संवर्द्धन केंद्र में कौनसे जलाशय होते हैं और उनमें से प्रत्येक का उपयोग किस प्रकार किया जाता है ?
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