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जॉर्ज सिमेल कौन थे ? समाजशास्त्र जार्ज सिमेल का सिद्धांत क्या है ? Georg Simmel in hindi theory

Georg Simmel in hindi theory जॉर्ज सिमेल कौन थे ? समाजशास्त्र जार्ज सिमेल का सिद्धांत क्या है ?

जॉर्ज सिमेल (1858-1918)
जॉर्ज जिमेल जर्मनी का प्रसिद्ध समाजशास्त्री था। उसके माता-पिता यहूदी थे। समाज को समझने के लिए जिमेल ने एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान किया। उसने समाजशास्त्र को नए दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया। उसने इससे पूर्व के विद्वानों यथा कॉम्ट और स्पेंसर के जैविकीय सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिया। इन सिद्धांतों के बारे में आपने पिछली इकाई में पढ़ा है। उसने अपने ही देश जर्मनी की उस ऐतिहासिक परंपरा को भी अस्वीकार कर दिया जिसमें विशेष घटनाओं के ऐतिहासिक रूप से वर्णन को महत्व दिया जाता था। इसके विपरीत उसने एक ऐसे समाजशास्त्रीय सिद्धांत का विकास किया जिसके अनुसार समाज का गठन सुनिर्धारित अंतरूक्रियाओं के ताने-बाने से होता है। उसके मत में समाजशास्त्र का कार्य विभिन्न ऐतिहासिक कालों और विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में समाज में होने वाली अंतरूक्रियाओं के स्वरूप को समझना है।

आगे आने वाले उपभागों में हमने सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जिमेल का जीवन परिचय, उसके मुख्य विचार और उसके विचारों का समकालीन समाजशास्त्र पर प्रभाव का विवरण प्रस्तुत किया है।

जीवन परिचय
जॉर्ज जिमेल का जन्म 1 मार्च 1858 को बर्लिन के मध्य भाग में हुआ था। वह बर्लिन में ऐसे स्थान पर पैदा हुआ था जिसकी तुलना दिल्ली के कनॉट प्लेस या लखनऊ के अमीनाबाद से की जा सकती है। कोजर के अनुसार जिमेल का यह जन्मस्थान उसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही था जो कि जीवन पर्यंत कई बौद्धिक आंदोलनों के बीच जिया। जिमेल एक ऐसा शहरी व्यक्ति था जिसका परंपरागत लोक संस्कृति से कोई नाता नहीं था। जिमेल की पहली पुस्तक को पढ़ने के बाद विख्यात समाजशास्त्री टोनीज ने अपने एक मित्र को लिखा कि उसकी पुस्तक बुद्धिमत्तापूर्ण है, परंतु इसमें महानगरीय संस्कृति की झलक दिखाई देती है (कोजर 1967ः 194)। जिमेल के माता-पिता यहूदी थे। बाद में उन्होंने प्रोटेस्टैट धर्म स्वीकार कर लिया। जिमेल अपने माता-पिता के सात बच्चों में सबसे छोटा था और उसे प्रोटेस्टैंट धर्म की दीक्षा दी गई थी। जब वह बहुत छोटा था तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। एक संगीत-प्रकाशन गृह का मालिक जिमेल के परिवार का मित्र था। उसे जिमेल का अभिभावक नियुक्त किया गया। जिमेल को अपने अभिभावक की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग विरासत में मिला, इसलिए उसे जीवन भर किसी प्रकार की आर्थिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। उसका अपनी माँ के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध नहीं था क्योंकि वह बहुत दबंग (कवउपदंजपदह) महिला थीं। इस कारण उसकी पारिवारिक स्थिति बहुत सुरक्षित नहीं थी। उसकी अधिकांश रचनाओं में यही असुरक्षा की भावना दिखाई देती है।
जिमेल ने 1876 में बर्लिन विश्वविद्यालय में पूर्वस्नातक के रूप में प्रवेश लिया। उसने पहले इतिहास विषय लिया परंतु बाद में बदलकर दर्शन शास्त्र ले लिया। उसने 1881 में बर्लिन विश्वविद्यालय से कान्ट के प्रकृति दर्शन शोध विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि ली। इसी दौरान वह साइबेल मोमसेन, त्राइशके और द्रॉयसेन जैसे कुछ महत्वपूर्ण विद्वानों के संपर्क में आया।

सन् 1885 में जिमेल बर्लिन में अवैतनिक लेक्चरर (प्राध्यापक) नियुक्त हो गया उसने वहाँ तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र का इतिहास, नीतिशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र आदि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विषय पढ़ाए। उसने कान्ट, शॉपेनओ, डार्विन, और नीत्शे आदि के साथ अनेक अन्य दार्शनिकों के विचारों के बारे में भाषण दिए। उसके पढ़ाने के विषयों का विस्तार असाधारण था और वह बहुत ही लोकप्रिय प्राध्यापक था। उसके भाषण न केवल छात्रों के लिए बल्कि बर्लिन के सांस्कृतिक अभिजात वर्ग के लिए भी बौद्धिक महत्व वाले थे।

जिमेल की प्रवक्ता के रूप में अत्याधिक लोकप्रियता के बावजूद उसका शैक्षिक जीवन असफल रहा। इसका एक कारण यहूदी विरोधी भावना थी जिसका उसके जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। मैक्स वेबर, हाइनरिख रिकर्ट, एडमड हसलं आदि प्रमुख विद्वानों के समर्थन और प्रोत्साहन के बावजूद जर्मनी के शैक्षिक अधिकारियों ने उससे बहुत बुरा व्यवहार किया। उसने पंद्रह वर्ष तक अवैतनिक लेक्चरर के रूप में कार्य किया। सन् 1901 में, 43 वर्ष की आयु में उसे अंततः अवैतनिक प्रोफेसर का दर्जा प्राप्त हुआ जिसका बर्लिन के स्थायी शैक्षिक जगत में कोई विशेष महत्व नहीं था। वहाँ के जाने-माने शैक्षिक जगत की नजरों में वह बाहरी व्यक्ति ही बना रहा।

शैक्षिक अधिकारी जिमेल को इसलिए भी वस्तुतः अछूत समझते थे क्योंकि वह परंपरा का विरोधी था। परंपरावादी प्रोफेसरों की तरह जिमेल का विश्वास मात्र एक शास्त्र के विकास या केवल शैक्षिक समुदाय की आवश्यकता की पूर्ति नहीं था। अपनी मौलिकता और अद्भुत बौद्धिक क्षमता के कारण वह सहज ही एक विषय से बदल कर दूसरे विषय पर बोल सकता था। एक ही सत्र (ेमउमेजमत) में वह कान्ट की ज्ञान मीमांसा (मचपेजमउवसवहल) जैसे गंभीर विषय पर भाषण दे सकता था तो साथ ही वह ‘‘गंध का समाजशास्त्रीय अध्ययन‘‘ और ‘‘नाज नखरे और फैशन का समाजशास्त्र‘‘ जैसे हल्के-फुल्के विषयों पर भी निबंध प्रकाशित कर सकता था।

यद्यपि जिमेल वहाँ के शैक्षिक जगत के लिए बाहरी व्यक्ति था फिर भी वह अपने समय के महान बुद्धिजीवियों के निकट संपर्क में रहता था। सभी बुद्धिजीवी उसकी योग्यता को स्वीकार करते थे। वह वेबर और टोनीज के साथ ‘‘जर्मन सोसाइटी फॉर सोशियोलॉजी‘‘ का सह संस्थापक था। उसने अपनी पत्नी गरत्रुड के साथ, जिससे उसका विवाह 1890 में हुआ था, सुविधापूर्ण मध्यवर्गीय जीवन यापन किया।

जिमेल के भाषणों ने केवल शिक्षाशास्त्रियों को ही प्रभावित नहीं किया अपितु उसके भाषणों से अन्य विभिन्न वर्गों के लोग भी लाभान्वित हुए। शैक्षिक अधिकारियों के विरोध का एक यह भी कारण था। अंततः जिमेल ने अपना शैक्षिक लक्ष्य प्राप्त कर लिया और सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय ने उसे पूर्ण प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया। भाग्य की बड़ी विचित्र लीला है कि जब उसे शैक्षिक पद प्राप्त हुआ तभी से उसकी लेक्चरर की महत्वपूर्ण शैक्षिक भूमिका समाप्त हो गई क्योंकि जब वह स्ट्रॉसबर्ग आया तो वहाँ भाषण के लिए निर्धारित सभी स्थलों को सैनिक अस्पतालों में परिवर्तित कर दिया गया था। जिमेल की मृत्यु 28 सितम्बर 1918 को युद्ध समाप्त होने से पूर्व जिगर के कैंसर से हो गई।

 सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिमेल की युवावस्था के समय जर्मनी में संयुक्त जर्मन राइख का आरम्भ हुआ था। 1870 में फ्रांस के विरुद्ध युद्ध में विजय के उपरांत बिस्मार्क ने इस राइख की स्थापना की थी। इसी समय से जर्मनी में जबरदस्त परिवर्तन हुए। जर्मनी की राजधानी बर्लिन विश्व का एक प्रमुख नगर बन गई। इसके औद्योगीकरण और आर्थिक विकास की गति में तेजी आई। परंतु आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन के बावजूद राजनैतिक क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं आया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में अर्ध सामंतवादी राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत जर्मनी एक पूँजीवादी देश बन गया। बौद्धिक क्षेत्र में विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को सम्मान का दर्जा प्राप्त था। परंतु जिस तरह फ्रांस और इंग्लैंड के उदारवादी समाजों के बुद्धिजीवियों के विचारों ने उनके देश के लोगों के चिंतन को पूर्णरूपेण परिवर्तित कर दिया था, जर्मनी में इस प्रकार का कुछ नहीं हुआ। परिणामस्वरूप जर्मनी सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में पिछड़ गया। जर्मनी के मध्यम वर्ग के लोग कमजोर और निरुत्साहित बने रहे तथा वे विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के अनुशासित, व्यवस्थाबद्ध और विशेषीकृत्त ज्ञान से अत्यधिक त्रस्त थे।

बौद्धिक क्षेत्र में इस विरोध के बावजूद विशेष रूप से बर्लिन जैसे बड़े शहरों में ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग था जो इससे अलग था। यह बुद्धिजीवी वर्ग विश्वविद्यालयों में अपने प्रतिस्थानियों की तुलना में अत्याधिक सक्रिय, नवीनतावादी और स्थापित परंपराओं से असंबद्ध था। इस वर्ग में पत्रकार, नाटककार, लेखक और रूढ़िमुक्त कलाकर थे। इनके विचार शैक्षिक क्षेत्र या विश्वविद्यालयों में इससे पूर्व विद्यमान विचारों से कहीं अधिक क्रांतिकारी थे। इस वर्ग के लोग प्रायः आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते रहते थे (कोजर 1971ः 20)। जर्मनी की इस विरोधी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला यह वर्ग, राजनीतिक दृष्टि से अधिक सजग था। इस वर्ग में समाजवादी विचारों, भौतिकवाद, सामाजिक डार्विनवाद आदि के पर्याप्त अनुयायी थे जिन्हें विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हीन समझते थे।

जॉर्ज जिमेल शैक्षिक वर्ग के उत्पीड़न के कारण बाहरी व्यक्ति यानी अजनबी बना रहा। वह विश्वविद्यालयों की संस्कृति और बर्लिन की विरोधी संस्कृति दोनों से जुड़ा रहा। परंतु उसने दोनों ही संस्कृतियों में गैर सदस्य के रूप में ही भाग लिया। जिमेल अपनी इस वर्ग निरपेक्ष स्थिति के कारण ही ऐसी बौद्धिक दूरी बनाए रख सका कि वह समाज का निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन और विश्लेषण कर सका। वह किसी भी वर्ग से पूरी तरह जुड़ा हुआ नहीं था इसलिए उस पर किसी विशिष्ट बौद्धिक वर्ग के विचारों और मूल्यों का प्रभाव नहीं था। यह उस सामाजिक और ऐतिहासिक युग की रूपरेखा थी जिसमें जिमेल ने अपनी जीवन बिताया। आइए, अब हम उसके मुख्य विचारों का विश्लेषण करें।

 मुख्य विचार
इससे पूर्व हमने यह उल्लेख किया है कि जॉर्ज जिमेल ने जैवकीय परंपरा और जर्मनी की ऐतिहासिक परंपरा को अस्वीकार किया। कॉम्ट और स्पेंसर की तरह उसका यह विश्वास नहीं था कि समाज को एक वस्तु या जीव के रूप में समझा जा सकता है। उसकी दृष्टि में समाज व्यक्तियों के बीच बहुविध संबंधों का जटिल तंतुजाल है। समाज के घटक व्यक्ति एक दूसरे के साथ निरंतर अंतरूक्रिया में संलग्न हैं। समाज व्यक्तियों के समूह का ही नाम है जो एक दूसरे से अंतरूक्रियाओं द्वारा जुड़े हैं (कोजर 1971ः 178)।

जिमेल ने पहले-पहल ‘‘सामाजिकता‘‘ (ेवबपंजपवद) शब्द का प्रयोग किया। उसके विचार में समाज के विद्यार्थी के लिए सामाजिकता अध्ययन का एक प्रमुख क्षेत्र है। ‘‘सामाजिकता‘‘ से अभिप्राय समाज के ऐसे विशिष्ट विन्यास और स्वरूप से है जिसमें समाज के विभिन्न सदस्य एक दूसरे से संबंधित होते हैं और अंतरूक्रिया करते हैं। उसके अनुसार ‘‘समाज उसका निर्माण करने वाले सदस्यों के सिवाय कुछ भी नहीं है।‘‘ यहाँ उसने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया है कि समाज के विभिन्न संख्या वाले भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों में आपस में अंतरूक्रिया भी अलग-अलग प्रकार की होती है जैसे दो व्यक्तियों, तीन व्यक्तियों या तीन से अधिक व्यक्तियों के समूह में आपस में अंतरूक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। किसी वर्ग में संख्या वृद्धि के साथ उसके गठन के संदर्भ में गुणात्मक परिवर्तन होता है।

जिमेल के अनुसार ऐसा कोई संपूर्ण समाज विज्ञान नहीं हो सकता जिसमें सामाजिक घटनाओं के सभी पक्षों का अध्ययन किया जाता हो। प्राकृतिक विज्ञानों में भी ऐसा कोई एक पूर्ण विज्ञान नहीं है जिसमें संपूर्ण भौतिक द्रव्यों का अध्ययन हो। इसलिए जिमेल का मत है कि विज्ञान को संपूर्ण ब्रह्मांड या संपूर्णताओं के अध्ययन के स्थान पर उसके घटकों और आयामों का अध्ययन करना चाहिए। इस संदर्भ में उसका यह विश्वास है कि समाजशास्त्र का कार्य मानव अंतरूक्रिया के विशिष्ट रूपों का वर्णन और विश्लेषण करना है तथा राज्य, वंश, परिवार, शहर आदि समूहों के संदर्भ में उनकी विशेषताओं का निर्धारण करना है। उसके कथनानुसार संपूर्ण मानव व्यवहार, व्यक्तियों का व्यवहार है, लेकिन इस मानव व्यवहार के बहुत बड़े हिस्से को तभी समझा जा सकता है यदि हमें यह मालूम हो कि वे किस सामाजिक वर्ग से संबंधित हैं और किसी विशेष प्रकार की अंतरूक्रिया में उन्हें किन-किन प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। उसने अंतःक्रिया के तत्वों का अध्ययन करने पर बल दिया। इस पद्धति ने आग चलकर तात्विक समाजशास्त्र को बढ़ावा दिया। आइए, इस बिंदु पर थोड़ी और चर्चा करें।

 तात्विक समाजशास्त्र
कॉम्ट और स्पेंसर के समान जिमेल का भी यह विश्वास था कि सामाजिक जीवन की अंतर्निहित समानताओं को खोजकर निकाला जा सकता है। दूसरे शब्दों में सामाजिक नियम खोजे जा सकते हैं। ये समानताएं समाज में अंतरूक्रिया के रूप में विद्यमान हैं जैसे प्रभुता का संबंध यानी दूसरों पर प्रभुत्व जमाना और अधीनता अर्थात् दूसरों के प्रभुत्व में दबकर रहना। सभी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, यौन संबंधी गतिविधियों के पीछे इसी अंतरूक्रिया के विभिन्न रूप हैं। यह जिमेल का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण है। इसे तात्विक समाजशास्त्र (वितउंस ेवबपवसवहल) कहा जाता है। जिमेल के अनुसार हर विशिष्ट और कभी-कभी विरोधी घटनाओं में एक ही प्रकार की अंतरूक्रिया देखी जा सकती है। उदाहरण के तौर पर अपराधी गिरोह के सरदार और उसके गिरोह के सदस्यों के बीच तथा किसी स्काउट दल के कमांडर और उसके दल के सदस्यों के बीच अंतरूक्रिया का विन्यास लगभग समान होगा। इसी तरह अगर हम मध्यकालीन भारत में अकबर के दरबार और आज की ग्राम पंचायत में होने वाली अंतरूक्रिया के स्वरूप का विश्लेषण करें तो हमें वहाँ भी समानता दिखाई देगी।

इतिहास में या किसी व्यक्ति के जीवन में किसी विलक्षण घटना का विशेष महत्व नहीं होता बल्कि उसमें अंतर्निहित सामाजिक अंतःक्रिया के विन्यास का महत्व होता है जैसे अधीनता या प्रभुता, केंद्रीकरण या विकेंद्रीकरण सामाजिक अंतःक्रिया को प्रभावित करते हैं। जिमेल ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि सामाजिक अंतःक्रिया ही समाजशास्त्रीय जाँच का विशिष्ट क्षेत्र है। जिमेल का सामाजिक अंतःक्रिया के स्वरूपों को समझने का आग्रह इतिहासकारों और मानविकी के अन्य प्रतिनिधियों के विश्वासों के संदर्भ में था। इनका विश्वास था कि समाज से संबंधित विज्ञान की मदद से इतिहास की विलक्षण ऐतिहासिक अनुत्क्रमणीय फिर से घटित न होने वाली घटनाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती। जिमेल ने उन्हें ये भी दिखाया कि इतिहास की कुछ ऐसी विलक्षण घटनाएँ हैं जो दुबारा घटित नहीं होंगी जैसे जूलियस सीजर की हत्या, इंग्लैंड के हेनरी अष्टम का राज्यारोहण, वाटरलू में नेपोलियन की पराजय। यदि हम इन घटनाओं को समाजशास्त्र की दृष्टि से देखें तो हमें इन ऐतिहासिक घटनाओं में अंतर्निहित समानता दिखाई दे सकती है (कोजर 1971ः 179)।

जिमेल के विचार में किसी भी सामाजिक यथार्थ में ‘‘शुद्ध‘‘ रूप नाम की कोई चीज नहीं होती। सभी सामाजिक प्रक्रियाओं में कई तरह के तत्व होते हैं। ये तत्व हैं – सहयोग और संघर्ष, अधीनता और प्रभुता आदि। इस प्रकार समाज में ‘‘शुद्ध‘‘ संघर्ष या ष्शुद्धष् सहयोग नहीं होता। ‘‘शुद्ध‘‘ रूप केवल काल्पनिक विचार है जो वास्तविक समाज में नहीं पाया जाता परंतु जिमेल ने वास्तविक सामाजिक जीवन के अध्ययन के लिए शुद्ध रूप को अपनाया है। इसलिए जिमेल के ‘‘प्ररूप‘‘ और मैक्स वेबर के ‘‘आदर्श प्ररूप‘‘ की अवधारणा में पर्याप्त समानता है। इस विषय में आपको आगे चलकर इस पाठ्क्रम में जानकारी दी जाएगी।

 सामाजिक प्ररूप
समाज का अध्ययन करते हुए जिमेल ने सामाजिक प्ररूपों की पूरी श्रखला को समझने का प्रयास किया। उसके द्वारा उद्धश्त कुछ प्ररूप हैं-एक अजनबी (जीम ेजतंदहमत), मध्यस्थ (जीम उमकपंजवत), गरीब व्यक्ति (जीम चववत) आदि। उसके सामाजिक प्ररूप (ेवबपंस जलचम) उसके सामाजिक स्वरूप (ेवबपंस वितउ) की संकल्पना के पूरक थे। एक ‘‘सामाजिक प्ररूप‘‘ व्यक्ति विशेष के समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ संबंधों के कारण ‘‘प्ररूप‘‘ बन जाता है। ये व्यक्ति उस व्यक्ति विशेष को समाज में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करते हैं और उन्हें उससे कुछ अपेक्षाएं भी होती हैं। इसलिए इस सामाजिक प्ररूप की विशेषताओं को सामाजिक संरचना के अभिलक्षणों के रूप में देखा जाता है।

जिमेल ने सामाजिक प्ररूप की व्याख्या करने के लिए अपनी पुस्तक, द सोशियोलॉजी ऑफ जॉर्ज जिमेल (1950) में एक अजनबी (जीम ेजतंदहमत) को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। जिमेल ने अजनबी का वर्णन करते हुए कहा है कि वह ऐसा व्यक्ति है जो आज आता है और कल भी रहता है अर्थात् समाज में रहने के लिए बाहर से आता है। यह अजनबी ऐसा व्यक्ति है जिसका समाज के उस सामाजिक समूह में विशिष्ट स्थान है जिसमें आकर वह प्रविष्ट हुआ है। इस अजनबी की सामाजिक स्थिति का निर्धारण इस बात से होता है कि वह इस सामाजिक समूह का आरंभ से सदस्य नहीं था। ‘‘अजनबी‘‘ की समाज में इस स्थिति के द्वारा ही नए सामाजिक समूह में उसकी भूमिका और अंतःक्रिया का निर्धारण होता है।

एक अजनबी के रूप में कोई व्यक्ति साथ ही साथ किसी के निकट और दूर दोनों होता है। उस सामाजिक समूह का अंश न होने पर वह अजनबी उस समाज को पक्षपातरहित निष्पक्ष भाव से देख सकता है। इस प्रकार से वह अजनबी किसी भी प्रकार के विचारों या वस्तुओं के आदान-प्रदान में आदर्श मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है। इस तरह हर समाज विशेष में अजनबी की स्थिति नियत और सुनिर्धारित होती है। जिमेल के सामाजिक प्ररूपों का यह केवल एक उदाहरण है। उसने कई अन्य उदाहरणों की भी चर्चा की है जैसे ‘‘द पुअर‘‘ (एक गरीब व्यक्ति), ‘‘द रेनिगेड‘‘ (विश्वासघाती व्यक्ति), ‘‘द एडवेंचरर‘‘ (साहसी व्यक्ति) आदि (कोजर 1971ः 183)।

 जिमेल के समाजशास्त्र में संघर्ष की भूमिका
जिमेल ने अपनी सभी रचनाओं में व्यक्ति और समाज के बीच संबंधों और तनावों पर बल दिया है। उसकी राय में, व्यक्ति जहाँ एक ओर समाज से उत्पन्न होता है वहीं वह समाज में घटित होने वाली सामाजिक प्रक्रिया में एक कड़ी का काम भी करता है। इसलिए व्यक्ति और समाज के बीच दो प्रकार के संबंध हैं। व्यक्ति एक ही समय में समाज का अंग भी है और समाज से बाहर भी है। उसका अस्तित्व एक ही समय में समाज के लिए भी होता है और अपने लिए भी।

जिमेल ने इस बात की ओर भी संकेत किया है कि यह संभव नहीं है कि सामाजिक व्यक्ति अंशतरू सामाजिक हो और अंशतः व्यक्ति हो। वस्तुतः सामाजिक व्यक्ति का निर्माण आधारभूत एकता से हुआ है जिसमें हम तार्किक दृष्टि से परस्पर विरोधी तत्वों को मिला हुआ पाते हैं। इन तत्वों को इस प्रकार बताया जा सकता है कि एक तो व्यक्ति जीव रूप है और अपने आप में एक सामाजिक कड़ी भी है, इसके साथ वह समाज से उद्भूत होता है (कोजर 1971ः 184)।

जिमेल के समाजशास्त्र में हमें यह द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण दिखाई देता है जो समाज और सामाजिक इकाइयों के बीच सक्रिय अंतःसंबंधों और साथ ही साथ संघर्षों की विद्यमानता को भी स्पष्ट करता है। जिमेल के अनुभव के अनुसार कोई भी समाज पूर्ण सामंजस्य में नहीं रहता है। संघर्ष भी समाज का जरूरी हिस्सा है वह सामंजस्य और सहमति का पूरक होता है। जिमेल का यह भी कहना है कि सामाजिकता या समाज की अंतःक्रियाओं में सामांजस्य और संघर्ष, खिंचाव और दुराव तथा प्यार और घश्णा जैसे कई प्रकार के परस्पर विरोधी तत्वों का समावेश होता है।

उसने सामाजिक प्रत्यक्षता और सामाजिक वास्तविकता में भी अंतर किया है। कभी-कभी संघर्ष की स्थिति में संघर्ष से जुड़े हुए दोनों पक्षों को और बाहरी लोगों को भी उसका नकारात्मक पक्ष ही दिखाई देता है। परंतु यदि हम इन परस्पर विरोधी संबंधों का विश्लेषण करें तो हमें मालूम होगा कि उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है। इसका एक उदाहरण देखिए – अफ्रीका के कबीलों में कबीलाई दुश्मनी आम बात है। इन कबीलों में अगर ‘‘क‘‘ कबीले का कोई व्यक्ति ‘‘ख‘‘ कबीले के किसी सदस्य की हत्या कर दे तो ‘‘ख‘‘ कबीले के सभी लोग, विशेष रूप से उसके नजदीकी रिश्तेदार, ‘‘क‘‘ कबीले के किसी भी सदस्य की हत्या करके उसका बदला लेने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार के संबंधों का प्रभाव स्पष्ट ही पूरी तरह से नकारात्मक प्रतीत होता है। यदि हम इसका विश्लेषण करें तो हमें पता चलता है कि इसके कारण ‘‘क‘‘ और ‘‘ख‘‘ कबीले के सदस्य अपने-अपने कबीलों से और ज्यादा निकटता से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार नकारात्मक प्रतीत होने वाले सामाजिक संबंधों के कारण उनमें सामाजिक एकता दृढ़ होती है।

आधुनिक संस्कृति के संबंध में जिमेल के विचार जिमेल के अनुसार पूर्व आधुनिक समाजों में मालिक और नौकर के बीच तथा नियोक्ता और कर्मचारी के बीच अधीनता और प्रभुता के संबंध थे जिसमें व्यक्तियों का पूर्ण व्यक्तित्व शामिल होता था, उनकी स्थिति बंधुआ की सी रहती थी। इसके विपरीत आज के पूँजीवादी समाज में व्यक्तियों को उत्तरोत्तर अधिक स्वतंत्रता मिलती गई है। इससे स्वतंत्रता की संकल्पना उभर कर सामने आई और नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारी पर, मालिक द्वारा अपने नौकर पर प्रभुता आंशिक रूप से ही रह गई है। उदाहरण के तौर पर कारखाने का मजदूर कारखाने के समय के बाद कारखाने के मालिक के अधीन नहीं रहता। उस समय वह पूरी तरह अपने कामकाज में स्वतंत्र है।

आधुनिक समाजों में व्यक्तियों की भूमिकाएं और संबंध अलग-अलग हो गए है। व्यक्ति भिन्न-भिन्न भूमिकाएं अदा करता है। इस प्रक्रिया में वह पूर्व आधुनिक समाज में विद्यमान पूर्ण प्रभुत्व की स्थिति से मुक्त रहता है जैसे सामंती यूरोपीय समाज में मालिक और नौकर, जमींदार और खेतिहर मजदूर के बीच संबंध पाये जाते थे। इस प्रकार जिन समाजों में श्रम का स्पष्ट विभाजन है और वहाँ कई भिन्न-भिन्न सामाजिक क्षेत्र हैं, वहाँ व्यक्तिवाद उभर कर सामने आ रहा है। परंतु आधुनिक समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ मनुष्य के चारों ओर हजारों ऐसी वस्तुएँ हैं जिनसे उसका व्यवहार प्रभावित होता है और जो उसकी व्यक्तिगत इच्छाओं और आवश्यकताओं को नियंत्रित करती है। जिमेल के अनुसार आधुनिक समाज में व्यक्ति को कुछ दूसरे ही प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिमेल की भविष्यवाणी थी कि आधुनिक समाज में व्यक्तियों को उनके सामाजिक प्रकार्यों तक सीमित कर दिया जाएगा जिसमें विश्व की वस्तुगत परिपूर्णता की कीमत उसे मानव आत्मा के अपक्षय के रूप में चुकानी होगी (कोजर 1971ः 193)। जिमेल ने उपर्युक्त प्रमुख विचारों का विकास किया। अगले भाग में यह बताया जाएगा कि जिमेल के इन विचारों का समकालीन समाजशास्त्र पर क्या प्रभाव पड़ा।
सोचिए और करिए 1
आपने इस इकाई में जॉर्ज जिमेल की सामाजिक प्ररूप की अवधारणा के बारे में पढ़ा है कि व्यक्तिगत अंतःक्रिया के ढाँचे के पीछे एकरूपता निहित है जैसे पंचायत या निगम आदि के सदस्यों में अंतःक्रिया के पीछे अधीनता और प्रभुता, संघर्ष और सामंजस्य के तत्व विद्यमान होते हैं। अब आप अपने परिवार या कार्यदल के सदस्य के रूप में अपने परिवार या कार्यक्षेत्र या किसी अन्य सामाजिक, राजनीतिक, या आर्थिक स्थिति में व्यक्तिगत अंतरूक्रिया के पीछे निहित एकरूपता के किसी एक तत्व को मालूम कीजिए।

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 समकालीन समाजशास्त्र पर जिमेल के विचारों का प्रभाव
जिमेल समाजशास्त्र की विषय-वस्तु और समाजशास्त्र की अवधारणा को पहचानने और उसकी व्याख्या करने में इतना व्यस्त था कि उसने समाजशास्त्र पर व्यवस्थित रूप में कोई पुस्तक या निबंध नहीं लिखा। इस व्यस्तता के अलावा उसको यह भी विश्वास था कि इस विषय पर निबंध लिखने का अभी समय नहीं हुआ है। उसका यह भी विश्वास था कि समाजशास्त्र को एक विज्ञान बनने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सुनिश्चित विषय वस्तु हो जिसका अध्ययन वैज्ञानिक पद्धतियों से किया जा सके (टिमाशेफ 1967ः 162)। उसने समाज शास्त्र की सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयास भी किया और इसे दूसरे समाज विज्ञानों, यानी मनोविज्ञान, इतिहास, सामाजिक दर्शन आदि विषयों से अलग करने की कोशिश की।

कोजर (1971ः 215) के अनुसार विद्वता की दृष्टि से जिमेल की समाजशास्त्रीय पद्धति और अध्ययन कार्यक्रम की तुलना एमिल दर्खाइम से की जा सकती है। दर्खाइम ने अपना ध्यान सामाजिक संरचना के अध्ययन पर केंद्रित किया जिसके अंतर्गत उसने बृहत्तर सामाजिक संरचनाओं, धार्मिक और शैक्षिक पद्धतियों आदि का अध्ययन किया। जिमेल ने अंतरूक्रिया के स्वरूपों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। परंतु दर्खाइम की तुलना में उसका अध्ययन मुख्य रूप में समाज की सूक्ष्म व्यवस्थाओं पर केन्द्रित था। दूसरे शब्दों में, उसका बृहत्तर संस्थाओं के अध्ययन में विश्वास नहीं था। वह समाज के अणुभूत व्यक्तिओं की अंतरूक्रियाओं का अध्ययन करना चाहता था। उसने बुनियादी तौर पर बड़े सामाजिक संगठनों के पीछे विद्यमान व्यक्तियों की अंतरूक्रिया के मूल विन्यास का अध्ययन किया।

जिमेल के समाजशास्त्रीय योगदान से हमें यह स्पष्ट पता चलता है कि उसने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उसके अनुसार, समाजशास्त्र की विषय-वस्तु इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि की विषय-वस्तु से भिन्न है।

जिमेल के समाजशास्त्र में चाहे व्यवस्थित आधार का अभाव हो लेकिन उसके द्वारा समाजशास्त्र को दिए गए योगदान को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। वस्तुतः कोजर ने इसे बहुत अच्छी तरह संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हम जिमेल को चाहे सीधे उसकी रचनाओं के माध्यम से पढ़ें या उसके विचारों को रॉबर्ट पार्क, लुई वर्थ, ऐवरेट सी ह्यूज, टी कैपलॉ, थियोडोर मिल्स और रॉबर्ट के मर्टन आदि लेखकों के माध्यम से पढ़ें, वह हमारी समाजशास्त्रीय कल्पना को उसी तरह बलपूर्वक उत्तेजित करता है जैसे दर्खाइम या मैक्स वेबर करते हैं (कोजर 1971ः 215)।

इस भाग में आपने समाजशास्त्र में जर्मन समाजशास्त्री जॉर्ज जिमेल के योगदान के बारे में पढ़ा जिसने समाज के अध्ययन को एक नया परिप्रेक्ष्य दिया। अगले भाग में आपको समाजशास्त्र के एक और संस्थापक सदस्य विल्फ्रेडो परेटो के मुख्य विचारों के बारे में बताया जाएगा।