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भू आकृति विज्ञान किसे कहते है ? भू-आकृति विज्ञान की मौलिक अवधारणा geomorphology in hindi

geomorphology in hindi meaning definition भू आकृति विज्ञान किसे कहते है ? भू-आकृति विज्ञान की मौलिक अवधारणा ?

परिभाषा : विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की भू आकृतियों का और उनका बनने सम्बन्धी क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है उसे भू विज्ञान कहते है | अर्थात इस शाखा में भूमि पर पायी जाने वाली विभिन्न आकृतियों जैसे पहाड़ , पर्वत आदि का और ये किस प्रकार विकसित हुए या बनने की प्रक्रिया क्या रही होगी , इसका अध्ययन किया जाता है |

भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन के विकास का इतिहास
किसी भी विषय के अंग-उपांगों का स्वरूप जो वर्तमान समय में होता है, उसका स्वरूप एक दिन में प्राप्त नहीं होता, बल्कि उसके पीछे युगों का इतिहास छिपा होता है, जिसमें अनेक लेखकों, विचारकों एवं प्रणेताओं की लेखनी, विचार तथा त्याग का योगदान होता है। इसी प्रकार भू-आकृति विज्ञान का वर्तमान स्वरूप अतीतकाल के भ्वाकृतिक विचारों के संशोधन तथा अन्य विचारों के समावेश के कारण हुआ है। हम भू-आकृति विज्ञान के विकास के इतिहास का विश्लेषण विभिन्न युगों तथा उनके लेखकों के योगदान के आधार पर करेंगे।
1. भ्वाकृतिक विचारधारा का आदियुग
भू-आकृतिक विज्ञान का प्रारम्भिक स्वरूप दार्शनिकों के अध्ययनों से प्रारम्भ होता है, परन्तु इनके विचार बिखरे पड़े थे, जिनको सुव्यवस्थित स्वरूप नहीं दिया जा सका था। बाद में हटन (1726-1797 ई) ने इसकी प्रगति के लिए काफी प्रयास किया। परिणामस्वरूप 19 वीं शताब्दी के बाद यह स्वतन्त्र विषय के रूप में विकसित हो गया। इस युग में निम्न दार्शनिकों का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है-
हेरोडोटस (485-425 ई० पू०) – ये दार्शनिक, इतिहासकार भ्रमणशील थे। इन्होंने नील नदी का अध्ययन किया तथा बताया कि – ‘मिस्त्र नील नदी के देन है‘ तथा नील नदी अपरदन करने के बाद बहुत वड़ी मात्रा में मलवा का निक्षेप मुहाने पर किया है, जिसका आकार △ की भाँति है, जो ग्रीक भाषा के (डेल्टा) अक्षर की भाँति है। तभी से इनका नाम डेल्टा पड़ा। जमाव का स्वभाव देखकर अनुमान लगाया कि जमाव प्रतिवर्ष सागर की ओर बढ़ता जा रहा है। अवसाद के नीचे के जीवों के अध्ययन के बाद स्पष्ट किया कि – कभी थल पर सागर तथा सागर पर थल का विस्तार था। इस तरह सागरीय अतिक्रमण तथा अवतलन का ज्ञान परोक्षरूप से दिया। इनके अध्ययन से तीन बातें स्पष्ट होती हैं – नदी मुहाने पर डेल्टा का निर्माण करती है, डेल्टा का निरन्तर सागर की तरफ विस्तार होता है तथा कभी स्थल पर जल जल पर थल का विस्तार था।
अरस्तू (384-322 ई० पू०) – ये भी यूनानी दार्शनिक थे। इन्होंने भू-आकृति विज्ञान के प्रारम्भिक ज्ञान में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इनके द्वारा कई तथ्य स्पष्ट किये गये, जिनमें नदियों का प्रवाह, नदियों का अपरदन तथा निक्षेप कार्य, भूमिगत सरिता का कार्य, जल-स्रोत तथा सागर-तल की अनिश्चितता आदि प्रमुख हैं। इन्होंने सरिता-प्रवाह के विषय में बताया कि नदियाँ जल-स्रोतों तथा वर्षा से जल प्राप्त कर प्रवाहित होती हैं। ग्रीक के कुछ भागों के चूना-पत्थर की चट्टानों का अध्ययन करने के बाद बताया कि – कास्र्ट प्रदेशों में जल नीचे चला जाता है तथा अपरदनात्मक कार्य करता है। इन्होंने नदियों के अपरदन तथा निक्षेप के स्वभाव का भी वर्णन किया तथा जलस्रोतों के विषय में बताया कि – वर्षा के समय अधिक जल रिस कर नीचे चला जाता है तथा जलवाष्पों से कुछ प्राप्त हो जाता है। सागरीय किनारों का अध्ययन करने के बाद बताया कि – सागरीय किनारे अनिश्चित होते हैं। इन्होंने आगे व्याख्या की – जहाँ पर जल है, वहाँ पर थल रहा होगा तथा जहाँ स्थल है, वहाँ पर सागर रहा होगा।
स्ट्रेबो (51 ई० पूर्व से 25 ई०)- इन्होंने नदी के अपरदन तथा निक्षेप, डेल्टा आदि का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इनके अनुसार नदियाँ स्थलीय भाग का अपरदन करके मलवा सागरों तथा झीलों में जमा करती हैं, जिससे डेल्टा का निर्माण होता है। डेल्टा का आकार नादियों के अपरदनात्मक स्वभाव पर आधारित होता है। यदि शैल मुलायम है तो अपरदन अधिक होगा तथा डेल्टा का आकार बड़ा होगा, जब संरचना कठोर होगी तो नदियों द्वारा अपरदन कम होगा तथा डेल्टा का आकार छोटा होगा। डेल्टा का स्वरूप बनता-बिगड़ता रहता है। कभी-कभी नदियाँ जमाव के द्वारा निर्माण करती हैं, तो कभी अपरदन के द्वारा समाप्त कर देती हैं।
सेनका – इन्होंने नदियों के अपरदन का अवलोकन करने के बाद बताया कि – नदियाँ अपघर्षण द्वारा निम्नवर्ती कटाव करती हैं।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला जाता है कि इस समय नदियों के विषय में अध्ययन किया गया था।
2. अन्धयुग में भ्वाकृतिक अध्ययन का विकास
प्रथम शताब्दी ई० से लेकर चैदहवीं शताब्दी तक अध्ययन में शिथिलता रही। इक्के-दुक्के विद्वानों ने अपना अध्ययन प्रस्तुत किया था, जिस कारण इसे अन्धयुग की संज्ञा दी जाती है। 1400 वर्षों के बीच के अध्ययनों में अवीसेना (980-1037 ई०) का अध्ययन उल्लेखनीय है। इन्होंने पर्वतों की उत्पत्ति तथा उनका वर्गीकरण करने का प्रयास किया है। पर्वतों को दो भागों में बाटा था -(प) प्रथम वर्ग के अन्तर्गत वे पर्वत आते है, जिनका निमार्ण स्थलखण्ड के उत्थान के द्वारा होता हैं, तथा (पप) द्वितीय वर्ग के अन्तर्गत वे पर्वत आते हैं, जिनका निर्माण जल तथा पवन के अपरदन के कारण होता है। इन्होंने अपरदन की क्रिया तथा समय का भी ज्ञान प्रस्तुत किया है। आज अपरदन के द्वारा पर्वतों की उत्पत्ति की विचारधारा मान्य नही है, परन्तु इनका प्रथम प्रयास था, इसलिये सराहनीय है।
3. आकस्मिकवाद में भ्वाकृतिक अध्ययन का विकास
14वीं शताब्दी के बाद अनेक भूगर्भिक घटनायें घटी, जैसे- ज्वालामुखी, भूकम्प, वलन, भ्रंशन आदि । इसी कारण, इन्हीं आकस्मिक घटनाओं को महत्व दिया गया, जिस कारण इस काल को आकस्मिकवाद (बंजंेजतवचीपेउ) की संज्ञा दी जाती है तथा इसके मानने वाले को आकस्मिकवादी कहते हैं। इस काल के जितने भी विद्वान तथा दार्शनिक थे, सभी इसके प्रभावों से बच नहीं पाये थे। परिणामस्वरूप यही इनके अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु बन गया। केवल भूगोल के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् प्रत्येक विषय में आकस्मिकवाद का प्रभाव पड़ा।
4. आकस्मिकवाद के उपरान्त भ्वाकृतिक अध्ययन का विकास
इसके पूर्व, स्थलरूपों में स्थायित्व.का विश्लेषण किया गया था। परन्तु, 17वीं शताब्दी तक यह विचारधारा खण्डित हुई। इस समय, इस विचारधारा का उदय हुआ कि – अपरदन के परिणामस्वरूप स्थलरूपों का विनाश होता है तथा साथ-ही-साथ कुछ नवीन स्थलरूपों का विकास होता है। इसमें योगदान वाले प्रमुख निम्नांकित विद्वानों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है
1. लियोनार्दो (1452-1519 ई०) – लियोनार्दो (स्मवदंतकव कं टपदमप) ने नदी के अपरदनात्मक स्वरूप का अध्ययन करने के बाद बताया कि – नदियों उच्च भागों का अपरदन करके निम्न करती है तथा निक्षेप के द्वारा नवीन स्थलाकृतियों का निर्माण करती है।
2. बफन- बफन ने बताया कि अपरदनात्मक कारकों में नदियाँ सर्वाधिक सक्रिय होती है तथा उच्च भागों को अपरदित करके सागर-तल के बराबर कर देती हैं।
3. तारगोनी तोन्ती (ज्ंतहपवदप ज्व्रमजजप 1712-84) – इन्होंने नदी घाटी का अध्ययन करने के याद बताया कि – इनका मार्ग ऊबड़-खाबड़ होता है तथा ये कहीं पर तंग तथा कहीं पर फैली घाटियों के मध्य प्रवाहित होती हैं। नदियों के अपरदन पर चट्टानों का प्रभाव पड़ता है। यदि चट्टाने कठोर हैं, तो इनका अपरदन देर से तथा यदि चट्टानें मुलायम हैं, तो अपरदन शीघ्र कर लेती हैं।
4. गुटार्ड (1715-1786 ई०)- इन्होंने नदी के अपरदन तथा निक्षेप के स्वभाव का विश्लेषण किया है। इनके अनुसार नदियाँ धीरे-धीरे उच्च पर्वतीय भागों का अपरदन करती हैं तथा इसका जमाव सागर तथा मार्ग में करती हैं।
5. दिमारेस्त (1725-1815 ई०)- नदी स्वयं अपरदन करके अपनी घाटी का विकास करती है। इन्होंने एक महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट किया है कि – नदी के द्वारा स्थलरूपों का विकास विभिन्न अवस्थाओं में होता है।
6. स्विस डी सॉसर (1740-1799)- इन्होंने नदी-अपरदन तथा हिमानी-अपरदन का विश्लेषण प्रस्तुत किया है।