genetically engineered insulin in hindi , आनुवंशिकी द्वारा तैयार इंसुलिन बताइए
जाने genetically engineered insulin in hindi , आनुवंशिकी द्वारा तैयार इंसुलिन बताइए ?
राजस्थान में निम्नलिखित उद्योग लगाकर जैवतकनिकी विज्ञान की शाखा का लाभ लिया जा सकता है।
- आनुवंशिकी द्वारा तैयार इंसुलिन (Genetically engineerd insulin) : इंसुलिन का उपयोग मधुमेह (diabetes) के उपचार के लिए किया जाता है। प्रयोगशाला में इंसुलिन के जीन का कृत्रिम संश्लेषण किया गया है। इस संश्लेषित जीन को Escherichia coli जीवाणु के प्लाज्मिड में जोड़कर ह्यूमन इंसुलिन (human insulin) का निर्माण किया जा रहा है। सूक्ष्मजीवों से प्राप्त इंसुलिन से मनुष्य में ऐलर्जी-संबंधी प्रतिक्रियाएँ (allergic reactions) नहीं होती है। पूर्व में देखा गया कि मधुमेह रोगियों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाला इंसुलिन जानवरों खासकर सूअरों को मारकर उनके अग्नाशय (pancreas) से निकाला जाता था तथा मधुमेह रोगी द्वारा इस इंसुलिन के प्रयोग से रोगी को एलर्जी हो जाती थी ।
अग्नाशय की बीटा कोशिकाओं द्वारा इंसुलिन हॉरमोन का उत्पादन होता है। यदि ये कोशिकाएँ इंसुलिन हॉरमोन का निर्माण बंद कर दें तब मनुष्य में मधुमेह की बीमारी हो जाती है।
इंसुलिन एक प्रोटीन है जो दो छोटी पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं (short polypeptide chains) का बना होता है – श्रृंखला एक-दूसरे से डाइसल्फाइड बंधों (disulphide bridges) द्वारा जुड़ी होती है।
मानव सहित स्तनधारियों में इंसुलिन प्राक्- हॉर्मोन (pro-hormone) संश्लेषित होता है। इसमें एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे ‘C’ पेप्टाइड (C paptide ) कहा जाता है। यह C पेप्टाइड परिपक्व इंसुलिन में नही होता। इस परिपक्वता के दौरान यह इंसुलिन से अलग हो जाता है। प्राक् – एंजाइम की तरह प्राक्- हॉर्मोन को पूर्ण परिपक्व एवं क्रियाशील बनने के पहले संसाधित (processed) होने की आवश्यकता पड़ती है।
1970 में जीववैज्ञानिकों ने रिकॉम्बीनेंट DNA तकनीक का प्रयोग कर इंसुलिन का उत्पादन प्रारंभ किया। उन्होंने उस DNA खंड (जीन) को अलग किया जो इंसुलिन को कोड करता है। इस जीन को E coli के प्लाज्मिड में प्रवेश कराया गया। जिससे इंसुलिन का उत्पादन प्रारंभ हुआ। 1983 में एली तिली नामक एक अमेरिकन कंपनी ने दो DNA अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इंसुलिन की श्रृंखला ‘ए’ और ‘बी’ के अनुरूप होती है। जिन्हें ई. कोलाई के प्लाज्मिड में प्रवेश कराकर इंसुलिन श्रृंखलाओं का उत्पादन किया गया। वैज्ञानिकों ने ‘ए’ और ‘बी’ श्रृंखलाओं को निकालकर उसके साथ डाइसल्फाइड बंध बनाकर उन्हें आपस में संयोजित कर मानव इंसुलिन का निर्माण किया।
- जैव तकनिकी तथा प्रोटीन अभियांत्रिकी (Biotechnology and protein enginerring):- हमारे देश में एवं राजस्थान में प्रोटिन की कमी बच्चों एवं महिलाओं में पाई जाती है। प्रोटीन की कमी से कई रोग उत्पन्न होते हैं। ऐसे उद्योग लगा कर प्रोटोन का संश्लेषण बढ़ाया जा सकता है। संश्लेषिण जीन का निर्माण कर पादपों में उचित मात्रा में प्रोटीन का संश्लेषण किया जा सकता है। इच्छित प्रोटीन की संश्लेषण किया जा सकता है। एक अन्य इममोबाइल एंजाइम तकनिकी के द्वारा भी इच्छित प्रकार के प्रोटीन का संश्लेषण किया जा सकता है।
- इंटरफेरॉन (Interferon ) :- ये ग्लाइको प्रोटीन होते हैं जिसका आण्विक भार लगभग 20,000 होता है। इन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा गया है- IFNa, IFNB, तथा IFNY | इसका उपयोग फिर कैंसर विशेषकर हेयरी सेल ल्युकेमिया (hairy cell leukaemia) के उपचार के लिए किया जाता है। जैव प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर इंटरफेरॉन का उत्पादन किया जा रहा है।
- मानव वृद्धि हॉरमोन (Human growth hormone) :- इस हॉरमोन का उपयोग मनुष्य में बौनापन दूर करने के लिए किया जाता है। औद्योगिक स्तर पर इस हॉरमोन का उत्पादन बैक्टरीरिया Eacherichia coli में जीन क्लोनिंग द्वारा किया जा रहा है।
- टीका या वैक्सीजन-निर्माण (Vaccine preparation) :- जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से कई प्रकार के वैक्सीन बनाए गए हैं, जैसे हेपेटाइटिस B, मलेरिया, इंफ्लूएंजा, छोटी माता ( small pox), HIV (AIDS virus), हरपीज आदि के लिए। ऐसे खतरनाक बैक्टीरिया तथा वाइरस से आनुवंशिक अभियांत्रिकी द्वारा टीका बनाना, सस्ता तथा निरापद होता है । टीका निर्माण के उद्योग भी लगाये जा सकते हैं।
- मोनोक्लोनन एंटीबॉडीज (Monoclonal antibodies) :- इनका उत्पादन हाइब्रिडोमा प्रौद्योगिकी (a method of producing large amounts of normal, pure and uniform antibodies against is specific antigen resulting froma cloned cell line) का प्रयोग कर किया जा रहा है। इनका प्रयोग ऐलर्जी का पता लगाने, वाइरस – संबंधी बीमारियों का पता लगाने तथा कुछ विशेष प्रकार के कैंसर का पता लगाने के लिए किया जाता है। मोनोक्लोनल एंटीबॉडी प्रौद्योगिकी से इम्यून रिएंजेट्स (immune reagents) बनाने में मदद मिली है जिनसे पौधों में रोगों की पहचान तथा उनसे बचाव किया जा सकता है।
- एंटीबायोटिक्स (Antibiotics) :- ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जो सूक्ष्मजीवाणुओं द्वारा बनाए जाते हैं। एंटीबायोटिक्स का प्रयोग जीवाणुओं की वृद्धि को रोकने या उन्हें मारने के लिए किया जाता है। एंटीबायोटिक्स जो जैव प्रौद्योगिकी से बनाए जा रहे हैं, उनमे मुख्य हैं- पेनीसीलीन, इरिथ्रोमाइसीन, सिफैलोस्पोरिन, सिप्रोफ्लोक्सासिन, निओमाइसीन |
- पशुपालन उद्योग (Animal husbandry Industries) :- पशुपालन आदिकाल से मानव दूध प्राप्ति एवं मांस इत्यादि के लिये एवं सामान ढोने के काम में करता आ रहा है। आज पशुपालन, पशुप्रजनन तथा पशुधन वृद्धि की पादपों के समान ही एक कृषि पद्धति मानी गयी है जिसे किसान अपनी खेती के समान ही पशु सम्बन्धित व्यवसाय को भी उसी कार्यकुशलता से प्रबन्धन करता है । वैज्ञानिकों के लिये भी पशु सम्बन्धित विषय, इनमें अधिक दुग्ध उत्पादन क्षमता, इनकी नस्लों में सुधार हेतु प्रजनन कार्यक्रमों द्वारा नयी -2 किस्में विकसित करना एवं इनकी कार्य क्षमता में भी वृद्धि करना सदियों से प्रिय विषय रहा है। इनमें लगभग सभी पशुओं जैसे गाय, भैंस, घोड़ा, ऊंट, सूअर, बकरी, भेड़, इत्यादि में प्रजनन द्वारा विकसित किस्में व अधिक उत्पादन क्षमता के लिये तथा शक्तिशाली नस्लों को प्राप्त करने के लिये आदिकाल से ही सुधार होता आया है। प्राचीन काल में पारम्परिक विधियों से इनमें सुधार किया जाता था तो आजकल अत्याधुनिक तकनीक द्वारा इनमें नये-2 अनुसंधान करके सुधार हो रहे हैं जिससे सभी मनुष्यों को अधिक खाद्य उत्पाद प्राप्त हो सके। पशुपालन में मत्स्य (मछलियाँ) पालन, व कुक्कुट (मुर्गियाँ) पालन भी सम्मिलित है। मत्स्यकी के अन्तर्गत मत्स्य (Fishes), मृदुकवची मोलस्का तथा प्रॉन (Prawn ) व केकड़ा (Crab) का पालन भी किया जाता है। इसके अधीन इन्हें पकड़ना, शिकार करके बेचना तथा पालन करना सम्मिलित है ।
इन पशुओं जैसे मछलियों, ऊँट, गाय, भैंस, मधुमक्खी, रेशम का कीड़ा, झींगा, (प्रॉन) केकड़ा, मुर्गियाँ, भेड़, इत्यादि को मनुष्य आद्य काल से अनेक पशु जनित उत्पादों जैसे मांस, दूध, शहर, रेशम (Silk), भोज्य पदार्थ, अण्डे व ऊन इत्यादि को प्राप्त करने के लिये करता चला आ रहा है। इसमें भारत सदा से पेड़ पौधों व पशुधन के मामले में अग्रणी रहा है। विश्व का लगभग 70 से अधिक पशुधन भारत व चीन में विद्यमान है।
पशुधन अधिक होने पर भी इनका विश्व की तुलना में फार्म उत्पादों का योगदान मात्र 25 प्रतिशत ही है। यह इस कारण से है कि प्रति इकाई उत्पादकता की दर बहुत ही कम है । अतः आज भारत में भी पशु प्रजनन, पशुओं की देखभाल की पारम्परिक पद्धतियों, पशु उत्पाद की गुणवत्ता में अपेक्षित पर्याप्त सुधार हेतु नये-नये प्रौद्योगिकी को अपनाना आवश्यक हो गया है।
- मधुमक्खी पालन उद्योग ( Industries of Beed keeping ) :- मधुमक्खी पालन प्राचीन काल से प्रचलित एक कुटीर उद्योग है जिसके अन्तर्गत शहद के उत्पादन के लिये मधुमक्खियों के छत्तों के रख-रखाव द्वारा इनको पाला जाता है। शहद एक उच्च कोटि का पोषक खनिज युक्त महत्वपूर्ण आहार है जिसका महत्व औषधि के रूप में आयुर्वेद में भी माना गया है तथा दवाइयों में बहुतायत से प्रयोग होता है। शहद के अतिरिक्त मधुमक्खियां मोम का भी उत्पादन करती हैं। मोम व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है व आर्थिक महत्व का माना गया है। इससे कांतिवर्धक वस्तुओं की तैयारी तथा भिन्न-2 प्रकार के पॉलिशों वाले व्यवसायों में उपयोग किया जाता है। इनकी बढ़ती हुई मांग की पूर्ती हेतु अब अधिक बड़े पैमाने पर मधुमक्खियों को आज आयजनक व्यवसाय के रूप में लघु अथवा बड़े उद्योगों के अन्तर्गत माना जाता है।
मधुमक्खी पालन, व्यवसाय पेड़ पौधों अथवा बाग बगीचे वाले स्थान के लिये उपयुक्त है। यह ऐसे स्थान पर किया जाता है जहां जंगली झाड़ियाँ, फलों युक्त फसलों व चरागाह स्थित हो। इनकी अनेक प्रजातियां होती हैं जिन्हें पाला जाता है। मधुमक्खियों के छत्तों घरों के बरामदों, पिछवाड़ों व छतों में भी • पनप सकते हैं। इनमें ऐपिस इंडिका अत्यन्त ही साधारण प्रजाति है। यह ऐसा आसान व्यवसाय है जिसमें अधिक परश्रिम की आवश्यकता नहीं पड़ती परन्तु इसको चलाने लिये विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रशिक्षण देने का कार्य सामाजिक संगठन करते हैं। अतः सफलतापूर्वक मधुमक्खी पालन व्यवसाय को चलाने के लिये निम्न महत्वपूर्ण बिन्दु अत्यन्त महत्वपूर्ण है
(क) मधुमक्खियों के स्वभाव व प्रकृति का ज्ञान होना ।
(ख) मक्खी के छत्तों को पनपने के लिये उचित स्थान का चयन
(ग) मक्खियों के समूह ( दल को पकड़ कर उन्हें छत्ते में रखना)
(घ) बदलते मौसम अनुसार छत्तों के रखरखाव एवं प्रबन्धन
(ड़) शहद एवं मोम की देखभाल तथा एकत्र करके उनका संचयन
अनेक फसलों जैसे सूरजमुखी, सरसों, नाशपाती, सेब इत्यादि में मधुमक्खियां परागणक (Pollinator) का कार्य करती है तथा एक फूल से दूसरे फूल पर मंडरा कर इनमें परागण सम्पन्न करवाती है । ऐसा भी पाया गया है कि यदि इन फसलों के साथ ही मधुमक्खी पालन का व्यवसाय करवाया जाता है तो मधुमक्खियों की उपस्थिति से फसलों के उत्पादन की दर में वृद्धि हो जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुष्पीकरण के दौरान मधुमक्खियों के छत्तों को यदि खेतों के मध्य रख दिया जाते हैं तो पादपों में परागण क्षमता में वृद्धि मधुमक्खियों की क्रियाशीलता से हो जाती है जिससे फसल व शहद दोनों उत्पादों में आशातीत वृद्धि हो जाती है
- मत्स्य की उद्योग ( Industries of Fisheries) मछली अथवा जलीय जीवों को पकड़ना उनका संसाधन करना (प्रोसेसिंग) एवं बेचना मत्स्यकी कहलाता है। यह भी एक उद्योग है जिसके अन्तर्गत जलीय खाद्य जंतुओं जैसे मछली, झींगा (Prawn ), केकड़ा (Crab), बॉबस्टर, खाद्य आयस्टर इत्यादि का व्यापार किया जाता है। विश्व में एक बहुत बड़ी संख्या में लोग भोजन के रूप में मछली व अन्य जलीय जंतुओं को आहार के रूप में लेते हैं। मछलियों में अलवणीय जल में पायी जाने वाली मछलियां जैसे कतला, रोहू, तथा कॉमन कार्प है जबकि लवणीय समुद्रीय जल में पाये जाने वाली मछलियां हिलसा, सरडाइन, मैकैरल टूना तथा पाम फैट इत्यादि भी खायी जाती है। भारत में पेनिनसुलर भाग पूर्व से पश्चिमी तट तक समुद्र से घिरा है। अतः इन समुद्रीय तटीय राज्यों में लाखों की संख्या में मछुआरों व किसानों को मत्स्यकी उद्योग आय का साधन है व रोजगार प्रदान करती हैं। इसीलिये भारतीय अर्थव्यवस्था में मछली मत्स्यकी बहुत महत्वपूर्ण है। भारतीय मछुआरों के लिये यही एक मात्र जीविका का साधन है।
मछलियां प्राप्त करने की प्रक्रिया फिशिंग कहलती है। इनको प्राप्त करने के दो तरीके हैं। (i) प्राकृतिक स्त्रोत ( मछलियां पकड़ना मत्स्यकी) (ii) मछलियों की फॉर्मिंग अर्थात मछलियों का संवर्धन | प्राकृतिक स्त्रोत के रूप में समुद्र ( लवणीय), नदियां, केनाल, झील, टेंक, तालाब, (अलवणीय) इत्यादि । यदि मछलियों का संवर्धन अलग-थलग जलाशय में किया जाये तो इसे दिशीकल्चर यानि मत्स्य पालन तथा तटीय लवणीय जल में किया जाते तब मेरीकल्चर एवं जलीय पादप व जन्तु जल में कल्चर किये जाये तो इसे जलकृषि (Aqua Culture) कहते हैं । हरित क्रान्ति जहां गेंहू से सम्बन्धित थी वहीं नील क्रांति का उद्देश्य मछली उत्पादन से है ।
आजकल मछली उत्पादन की प्रमुख मांग देखते हुए विभिन्न प्रकार की नवीन तकनीकें इजात की जा रही हैं यही कारण है कि हम जलकृषि मत्स्य पालन में आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए लवणीय व अलवणीय दोनों प्रकार के पादपों व जंतुओं के उत्पादन में वृद्धि करने में सफल हुए हैं। वैसे तो राजस्थान में मत्स्य का उद्योग, उद्योग का रूप ले चुका है पर इसे और बड़े पैमाने पर विकसित किया जा सकता है। हमारे यहाँ यह उद्योग वर्षा पर निर्भर करता है। अतः राज्य सरकार को चाहिये की जल प्रबन्धन ऐसा हो की वर्षा के अभाव में भी यह उद्योग जारी रह सकें ।
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