माइटोकॉन्ड्रिया के कार्यों का वर्णन करें , functions of mitochondria in hindi works 5 कार्य लिखिए
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माइटोकॉन्ड्रिया के कार्य (Functions of Mitochondria)
(1) माइटोकॉन्ड्रीया में विभिन्न प्रकार की महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ, जैसे-ऑक्सीडेशन, डिहाइड्रोजिनेशन, ऑक्सीडेटिव फॉस्फोराइलेशन आदि सम्पन्न होती हैं। इन क्रियाओं के लिए आवश्यक एन्जाइम्स माइटोकॉन्ड्रीया में ही पाये जाते है । इनके अतिरिक्त फॉस्फेट व एडीनोसीन डाइ- फोस्फेट की ईंधन के रूप में तथा ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। इन क्रियाओं से उत्पादन के रूप में ATP, CO, तथा H2O निकलते हैं । अतः माइटोकॉन्ड्रीया कोशिका के श्वसन अंगों की तरह कार्य करते हैं। इस प्रकार इनका मुख्य कार्य (i) कोशिका में विघटित खाद्य पदार्थों से बनने वाले अन्तः पदार्थों, जैसे- शर्करा, अमीनो अम्ल व वसा अम्लों का ऑक्सीकरण करना है। इसके अतिरिक्त ATP संश्लेषण व संचय करना है । यह ATP कोशिका में होने वाली अन्य जैविक क्रियाओं में उपयोग में ले ली जाती है।
(2) बीज अंकुरण के समय माइटोकॉन्ड्रीया अधिक सक्रिय होकर श्वसन क्रिया की दर को बढ़ा देते है।
(3) स्पर्मेटिड्स से शुक्राणु बनने के समय माइटोकॉन्ड्रीया एक साथ जुड़कर अक्षीय तन्तु (axial filament) के चारों ओर माइटोकॉन्ड्रीय सर्पिल बनाते हैं ।
(4) अण्ड में पाये जाने वाले माइटोकॉन्ड्रीया अधिक मात्रा में योक प्रोटीन का संचय करते हैं। तथा उसे योक प्लेटलेट्स में बदलते रहते हैं ।
(5) माइटोकॉन्ड्रीयल झिल्लियाँ Cat”, Mg” तथा PO, आयन के सक्रिय स्थानान्तरण में सक्षम होती हैं।
माइटोकॉन्ड्रीया का जीवात जनन (Biogenesis of Mitochondria)
माइटोकॉन्ड्रीया की उत्पत्ति हेतु विभिन्न मत दिये गये हैं-
(1) अन्य कोशिकांगों से उत्पत्ति (Origin from other cell organelles )
(a) प्लाज्मा कला से (From plasma membrane) रॉबर्टसन (Robertson) झिल्ली बेलनाकार ( tubular ) संरचना बनाती हैं जो कि बाद में वक्र रूप धारण कर या बलित होक माइटोकॉन्ड्रीया प्लाज्मा झिल्ली के कोशिका द्रव्य में अन्तर्वलित होने से बनते हैं। प्रारम्भ में माइटोकॉन्ड्रीया का निर्माण करता है ( चित्र 2.23)।
उपरोक्त वर्णित क्रिया द्वारा माइटोकॉन्ड्रीया की उत्पत्ति अन्तः प्रद्रव्यी जालिका (Bade, 1964) केन्द्रक आवरण – ( Bell and Muhlethaler, 1962) तथा गाल्जीकाय उपकरण (Novikoff & Thread Gold, 1967) आदि को बनाने वाली कलाओं से भी होती है ।
(2) पूर्ववर्ती माइटोकॉन्ड्रिया से (From pre-existing Mitochondria)
लक तथा कलाडे (Luck & Claude, 1963, 1965) के अनुसार पूर्ववर्ती माइटोकॉन्ड्रीया से मुकुलन द्वारा दोहरी झिल्ली युक्त कलिकाएँ बनती हैं वे अंतत: विकसित होकर नये माइटोकॉन्ड्रिया बनाती हैं।
कई बार माइटोकॉन्ड्रिया लम्बाई में बढ़ जाते हैं। उनमें आंतर कला 2 या 3 पटों द्वारा माइटोकॉन्ड्रीया को खण्डों में तोड़ देती है। प्रत्येक खण्ड एक नये माइटोकॉन्ड्रीया में बदल जाता है। (3) प्रौकैरिओटिक उत्पत्ति (Prokaryotic origin)
ओल्टमैन (Altmann) ने माइटोकॉन्ड्रीया को स्वतः जनित इकाइयाँ माना । किन्तु सागर (Sagar, 1967) ने माइटोकॉन्ड्रीया की उत्पत्ति के लिए सिम्बायोन्ट सिद्धान्त (symbiont theory) दिया । उन्होंने माइटोकॉन्ड्रीया तथा जीवाणु में पायी जाने वाली विभिन्न समानताओं को देखा तथा बताया कि माइटोकॉन्ड्रीया की उत्पत्ति जीवाणु जैसे प्रोकैरिओट्स से हुई है। जो कि बहुत समय पूर्व यूकैरियोटिक कोशिकाओं में प्रवेश कर गए थे तथा सहजीवन यापन कर रहे थे। अतः यूकैरिओटिक कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रीया सहजीवी प्रकृति प्रदर्शित करते हैं, क्योंकि इनमें प्रोटीन संश्लेषण व DNA द्विगुणन की क्षमता होती है, इसलिए ये आंशिक रूप से यूकैरिओटिक कोशिका के केन्द्रक व कोशिकाद्रव्य पर निर्भर करते हैं।
- गाल्जी सम्मिश्र (Golgi complex or Lipochondrion or Dictyosome)
जीवों की कोशिकाओं में अन्तः प्रद्रव्यी जालिका (endoplasmic reticulum) से सम्बद्ध थैलीनुमा संरचनाएँ, जो समूहों में पायी जाती हैं तथा झिल्लियों द्वारा निर्मित होती हैं, जिनमें द्रव भरा रहता है, गाल्जीकाय ( Golgi body) अथवा गाल्जी सम्मिश्र कहलाती हैं ।
इन कोशिकांगों को सर्वप्रथम एल. सेन्ट. जोर्ज (L. St. George, 1867 ) ने खोजा किन्तु कैमिलो गाल्जी (C. Golgi, 1885) ने इन्हें तंत्रिका कोशिकाओं में देखा तथा उनके नाम पर ही इन्हें गाल्जी सम्मिश्र (Golgi complex) कहा गया।
उपस्थिति (Occurrence)
प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं को छोड़कर सभी यूकैरियोटिक कोशिकाओं में गाल्जी सम्मिश्र पाया जाता है, जैसे- परिपक्व लाल रक्त कणिकाएँ एवं शुक्राणु कोशिकाओं में इसके अलावा कुछ पादप समूहों की काशिकाओं में, जैसे- कवकों, ब्रायोफाइट्स, टैरिडाफाइट्स तथा संवहनी पादपों की चालनी नलिकाओं में। पादपों में इन संरचनाओं को डिक्टियोसोम (Dictyosome ) कहते हैं, क्योंकि ये चपटी थैलीनुमा संरचनाओं से बने जाल की तरह दिखाई देती हैं। कोशिका द्रव्य में इनका वितरण नियत स्थान पर हो सकता है, जैसे-कशेरूकी प्राणियों में, किन्तु अकशेरूकी प्राणियों तथा पादप कोशिकाओं में ये यह प्रायः कोशिका द्रव्य में विसरित है। तंत्रिका कोशिकाओं में ये केन्द्रक के चारों ओर पायी जाती हैं। कोशिका में इनकी उपस्थिति का सीधा सम्बन्ध केन्द्रक उपस्थिति से होता है । सामान्यतया सक्रिय कोशिका में ये कोशिकांग अत्यधिक विकसित होते हैं किन्तु परिपक्व कोशिकाओं अथवा जिन कोशिकाओं में पोषण की कमी होती है उनमें ये अपहासित हो जाते हैं । इनके पुनर्निर्माण के लिए प्रोटीन अन्तः प्रद्रव्यी जालिका (ER) द्वारा प्राप्त होता है ।
आकार एवं परिमाप (Size & Shape)
विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में, इनकी सक्रियता के आधार पर गाल्जी सम्मिश्र की संरचना व आकार बदलता रहता है। अधिक सक्रिय कोशिकाओं में जैसे स्रावित कोशिकाओं एवं तंत्रिका कोशिकाओं में गाल्जी सम्मिश्र पूर्ण रूप से विकसित होता है तथा जाल के समान दिखाई देता है जबकि पोषण रहित, असक्रिय कोशिकाओं में ये कम विकसित होता है। पादप कोशिकाओं में इनका परिमाप लगभग 1 से 3mp लम्बा तथा 0.5mp ऊँचा होता है ।
संरचना (Structure )
इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने पर एक पूर्ण विकसित गाल्जी सम्मिश्र तश्तरी की आकृति की संरचना दिखाई देती है जिसमें अग्र संरचनाएँ होती है ( चित्र 2.24)
(1) केन्द्रीय, चपटे कोश अथवा सिस्टर्नी (Flattened Sacs or cisternae)
(2) परिधीय नलिकाओं तथा पुटिकाओं के गुच्छे (Clusters of tubules and Vesicles)
( 3 ) अन्तस्थ, स्रावक पुटिकाएँ ( secretary Vesicles )
(4) बड़ी पुटिकाएँ अथवा गाल्जीयन रिक्तिकाएँ (Large Vesicles or
(1) चपटे कोश अथवा सिस्टर्नी (Flattened sacs or vacuoles)
ये थैलीनुमा चपटी, लम्बी नलिकाकार, द्रव से भरी हुई संरचनाएँ होती हैं। सामान्यतया प्रत्येक गाल्जीकाय में इनकी संख्या 4 से 7 तक हो सकती है किन्तु उच्च श्रेणी के जीवों में गाल्जीकाय में इनकी संख्या 30 तक हो सकती है। प्रत्येक सिस्टनी ( cisternae) दोहरी झिल्ली से आबद्ध लगभग 520 A चौड़े अवकाश युक्त संरचना होती है। दो सिस्टर्नी के बीच लगभग 200-300 A का अन्तर अवकाश (Inter cisternal space) होता है। सिस्टनी एक-दूसरे के ऊपर व्यवस्थित होकर सिस्टर्नी स्तम्भ (Stack) बनाती हैं। सिस्टन केन्द्रक आवरण या अन्तः प्रद्रव्यी जालिका के पास समानान्तर (Parallel) या संकेन्द्रित (concentric) रूप से व्यवस्थित रहती हैं। प्रत्येक सिस्टर्नी स्तम्भ की अग्र अथवा ऊत्तल (Convex) सतह की ओर छोटी, छिद्रित (Fenestrated) सिस्टर्नी, गाल्जीकाय का निर्माण मुख (forming face) बनाती है। अन्त: प्रद्रव्यी जालिका (ER) से अलग हुई ट्रांजिशन पुट्टिकाएँ एवं कोश यहाँ एकत्रित होकर नयी सिस्टर्नी बनाती हैं। सिस्टर्नी स्तम्भ की पश्च सतह अवतल होती है तथा गाल्जीकाय का परिपक्व मुख बनाती हैं। जिस पर स्रावक पुटिकाएँ (Secretory vesicles) या बड़ी रिक्तिकाएँ पायी जाती हैं। गाल्जी में बने स्राव सिस्टर्नी में एकत्रित हो जाते हैं। यह द्रव हायलोप्लाज्म कहलाता है। इसका घनत्व गाल्जी सम्मिश्र की सक्रियता पर निर्भर करता है। इस द्रव का सान्द्रण बढ़ जाने पर स्रावक पुटिकाओं का निर्माण होता रहता है। ये पुटिकाएँ अन्त में लाइसोसोम्स (Lysosomes) में रूपान्तरित हो जाती हैं।
इस प्रकार गाल्जीकाय को एक ध्रुवीय संरचना कह सकते हैं जिसके निर्माण मुख पर नयी सिस्टर्नी का निर्माण होता रहता है तथा परिपक्व मुख पर पुरानी सिस्टर्नी के टूटने से स्रावक पुटिकाओं तथा रिक्तिकाओं का निर्माण होता रहता है ।
(2) नलिकाओं व पुटिकाओं के गुच्छे (Clusters of tubules & Vesicles)
ये छोटी, बूँदों के समान संरचनाएँ होती हैं जिनका व्यास 600 À तक होता है। ये गॉल्जीकाय की उत्तल निर्माण सतह से सम्बद्ध होती हैं तथा चिकनी अन्तःप्रद्रव्यी जालिका (Smooth endoplasmic reticulum) तथा गाल्जी सिस्टर्नी के बीच पायी जाती हैं। इनका निर्माण सिस्टर्नी नलिकाओं में मुकुलन (budding) अथवा उनके सिरों पर संकुचन (constriction) उत्पन्न होने से भी होता है। बाद में ये स्वतन्त्र रूप से बाहरी हायलोप्लाज्म में बिखर जाती हैं। सिस्टर्नी नलिकाओं से दो प्रकार की पुटिकाएँ जुड़ी रहती हैं ।
(3) चिकनी स्त्रावक पुटिकाएँ (Smooth Secretory Vesicles)
(1) चिकनी पुटिकाएँ (Smooth vesicles ) — इनकी सतह चिकनी होती है। ये चपटी 20 से 80mp व्यास वाली पुटिकाएँ हैं। जिसमें स्रावी पदार्थ पाये जाते हैं इन्हें स्रावी पुटिकाएँ ( Secretary vesicles) कहते हैं।
(2) खुरदरी पुटिकाएँ (Rough vesicles) – ये गोलाकार अतिवृद्धियाँ होती हैं । जिनका व्यास 50 m ́ होता है। इनकी सतह खुरदरी होती है। ये सिस्टर्नी के सिरों पर पायी जाती है ।
(4) गाल्जीयन रिक्तिकाएँ ( Golgian Vacuoles)
ये बड़े थैले जैसी, अनियमित ग्रंथिल संरचनाएँ हैं जो गाल्जीबॉडी के परिपक्व मुख की तरफ पायी जाती हैं। इनका निर्माण सिस्टर्नी के विस्तार या स्रावी पुटिकाओं के संयुग्मन ( fusion ) से होता है। पैटेला बल्गेटा (Patella bulgata) में इनका व्यास लगभग 750 A से 6,000 A तक हो सकता है।
गाल्जी सम्मिश्र के प्रत्येक सिस्टर्नी स्तम्भ में ध्रुवीयता पाई जाती है। इसमें अग्र निर्माण मुख केन्द्रक कला (nuclear membrane) या अन्त: प्रद्रव्यी जालिका (endoplasmic reticulum) के पास होता है तथा पश्च परिपक्व मुख प्लाज्मा कला के पास होती है । निर्माण मुख पर नलिकाएँ एवं पुटिकाएँ होती हैं जबकि परिपक्व मुख पर विशिष्ट पुटिकाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें ‘ग्रेल’ (Grel golgi element, Smooth endoplasmic reticulum and Lysosome ) कहते हैं। कोशिका में प्लाज्मा कला (Plasma membrane) तथा गाल्जी के बीच पाए जाने वाले स्थल ‘ग्रेल’ में स्रावक पुटिकाएँ Vesicles) मिलती हैं। जिनमें अन्तः प्रद्रव्यी जालिका के सान्द्रित स्राव रहते हैं जो कि (Zymogen) कणिकाओं में परिवर्तित होते रहते हैं । अन्त में ये स्राव कोशिका से बाहर विसर्जित कर दिये जाते हैं या इन्हें लाइसोसोम्स में बन्द कर दिया जाता है।
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