जैन धर्म के संस्थापक कौन थे | जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक कौन थे अंतिम तीर्थंकर कौन थे Founder of Jainism in hindi
Founder of Jainism in hindi , jain religion जैन धर्म के संस्थापक कौन थे | जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक कौन थे अंतिम तीर्थंकर कौन थे ?
जैन धर्म: मूल शिक्षाएँ (Jainism : Basic Teachings)
जैन धर्म भारत में एक जीवंत धार्मिक विश्वास है। इस धर्म के अनुयायी सारे देश में पाये जाते हैं। लेकिन मुख्य रूप से पश्चिमी भारत, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में इनकी संख्या अधिक है। इतिहासकार रेखांकित कर चुके हैं कि बौद्ध और जैन दोनों धर्म गण-संघों से जुड़े क्षत्रियों के यहाँ से निकले हैं ये दोनों उस गैर परंपरावादी सोच से संबंधित थे जो वेदों की सत्ता, ब्राहमणों और जाति-व्यवस्था को अस्वीकार करते थे। उन्होंने उन भिक्खुओं (भिक्षुओं) जिन्होंने जीवन से संन्यास ले लिया था, को लेकर नये धर्म की शुरुआत की।
जैन धर्म के संस्थापक (The Founder of Jainism)
बौद्ध और जैन दोनों ही धर्म मूल रूप से प्राचीन हिन्दू धर्म की ही शाखाएं हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है। जैन धर्म के महान तीर्थकर महावीर (ईसा पूर्व 599-527), जो जैन तीर्थकारों की परंपरा में अंतिम थे और जिन्होंने जैन धर्म को वर्तमान रूप दिया, अपने समकालीन भगवान बुद्ध (ईसा पूर्व 560-480) से आयु में बड़े थे।
जैन धर्म के अनुसार समय को चैबीस महाचक्रों में विभाजित किया गया है और एक महाचक्र में एक तीर्थकर धरती पर अवतार लेता है। महावीर जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर थे। महावीर एक राजकुमार थे। जब वे 30 वर्ष के थे तभी आमोद-प्रमोद और भोग विलास का जीवन छोड़कर घुमक्कड़ तपस्वी बन गये थे। उनके पिता एक क्षत्रिय शासक एवं नत गोत्र के थे। संन्यास से पहले महावीर अपने माता-पिता की आज्ञाकारी संतान थे। उन्होंने मन ही मन शपथ ले रखी थी कि वे विश्व के मोक्षदाता बनेंगे। अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद वे संन्यास लेकर वन में चले गये। बारह वर्षों तक अत्यंत सादगी का जीवन जीते रहे ताकि अपने आपको समझ सकें और आत्मा को छोड़कर सभी सांसारिक वस्तुओं की व्यर्थता का अनुभव कर सके । तेरहवें वर्ष में उन्हें बोध की प्राप्ति हुई, आत्मा के प्रकाश से वे भर उठे और उन्हें परम ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने अविदया (अज्ञान) के बंधनों को तोड़ दिया और विश्व के शिक्षक बनकर बयालीस वर्ष तक उपदेश देते रहे (बेसेंट, 1968ः87)। उन्होंने गंगा की घाटी स्थित रजवाड़ों जो बुद्ध का भी कार्यक्षेत्र था, में आजीवन अपने दर्शन का उपदेश दिया। वे संघारा (अन्न-जल का त्याग कर शरीर का अंत करने की पद्धति), जो जैनियों के बीच जीवन का अंत करने का सर्वस्वीकृत मार्ग रहा है, के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गये । महावीर ने उपदेशों को बिल्कुल नया रूप देने के बजाय पहले से विद्यमान निरग्रंथ में ही कुछ और विशेषताओं को जोड़ दिया। जैन धर्म मूलतः आस्थावादी हैं जिसमें देवताओं के अस्तित्व को नहीं नकारा गया है, लेकिन उन्हें संसार की धारणा में कोई महत्व नहीं दिया जाता। जैनियों के लिए संसार की रचना, इसकी देखभाल और विनाश किसी देवता के लिए संभव नहीं है, वे मानते हैं कि सृष्टि के नियमों के अनुसार संसार चल रहा है।
मूल सिद्धांत (The Central Doctrine)
जैन धर्म में दो संप्रदाय हैं-दिगम्बर आसमान को अपना वस्त्र समझते थे। इसलिए नग्न रहते थे तथा श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र पहनते थे। (इन संप्रदायों की विवेचना हम अनुभाग 20.4 में करेंगे) इन दोनों संप्रदायों के अलग होने से पहले मूल शिक्षा समूचे समुदाय के लिए सुस्थिर हो चुकी थी। इसमें वे चीजें भी शामिल हैं जिस पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सहमत हैं। (केलियट, 1987ः507)। इस अनुभाग में हम जैन धर्म के केन्द्रीय सिद्धांत की विवेचना करेंगे जिसे दोनों संप्रदायों ने स्वीकारा है।
जैन धर्म के मूल सिद्धांत को एक पंक्ति में भी व्यक्त किया जा सकता है कि यदि मनुष्य किसी जीवित प्राणी को आहत नहीं करे तो उसे निर्वाण (जन्म-मरण से मुक्ति) प्राप्त हो सकती है। इसी पंक्ति में जैन धर्म की पूरी विचार-पद्धति शामिल है। दूसरा सिद्धांत ऐसे भी व्यक्त किया जा सकता हैरू मनुष्य और मनुष्य के बीच शान्ति, मनुष्य और पशु-पक्षी के बीच सर्वत्र और सबों के बीच शांति हो। सभी जीवों के बीच भाईचारा हो। (बेसेंट, 1966-83)
जैन धर्म का मूल सिद्धांत है कि पूरी प्रकृति जीवन्त है। चट्टान से लेकर कीट-पतंग तक में आत्मा का रूप होता है, जिसे जीव कहते हैं। आत्मा की सनातनी धारणा को इन उपदेशों में उच्चतम बिन्द तक ले जाया गया है। इस प्रकार जैन धर्म ने पदार्थ का भी आध्यात्मीकरण कर दिया है। आत्मा, परमात्मा (यानी आत्माओं का पुंज) का ही अंश है, उसे किसी देवी शक्ति ने नहीं रचा। आत्मा (हिन्दू धर्म) की तरह ही जीव भी शाश्वत है लेकिन उपनिषद में आई अवधारणा के विरुद्ध जाकर वे रहते हैं कि कोई अनंत ब्रह्म वाली आत्मा नहीं होती। जैनी कर्म तथा पुनर्जन्म दोनों को मानते हैं जिसमें कर्म के अनुसार जीव को नया शरीर प्राप्त होता है।
जीव की अवधारणा की तरह ही अहिंसा भी महत्वपूर्ण है। महावीर के अनुसार शुद्ध अपरिवर्तनीय शाश्वत नियम के अनुसार सभी वस्तुएं जीवंत हैं। इसलिए सभी जीवित वस्तुएं अस्तित्व में आई सभी वस्तुएं, और जिनमें भी प्राण बसे हैं, वे मारी नहीं जानी चाहिए और न ही उनके साथ हिंसक बर्ताव करना चाहिए। लेकिन मोक्ष के लिए आत्म शुद्धि तथा कठोर तपस्या का रास्ता सुझाया गया। इसके द्वारा ही काम, क्रोध, मद, लोभ आदि तथा सांसारिक संबंधों के प्रति विरक्ति आती है तब अस्तित्व निर्वेयक्तिक परम में मिल जाता है। जब तपस्या के जरिये यह स्थिति आती है तो पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है। केवल तपस्वी की ही आत्मा वास्तव में मोक्ष पा सकती है। यह इससे भी स्पष्ट है कि महावीर का नाम ‘‘जिन‘‘ (रपदं) भी है जिसका अर्थ होता है-वह जो जीतता है। यह विजय सांसारिक अनुभूतियों पर होती है और इसका मार्ग तपस्या ही है।
अहिंसा का एक आर्थिक परिणाम यह हुआ कि इस समुदाय के भोले-भाले लोगों ने भी खेती करना इसलिए बंद कर दिया कि हल चलाते कहीं वे जीव की हत्या न कर बैठें। इसलिए वे गैर अहिंसक पेशों तथा व्यापार तथा साहूकारी की ओर मुड़ गये।
20.4 जैन धर्म का उत्थान और विकास (ळतवूजी ंदक क्मअमसवचउमदज व िश्रंपदपेउ)
इस अनुभाग में हम एक बड़े काल-खंड में जैन धर्म के उत्थान तथा विकास का अध्ययन करेंगे। इसके अंतर्गत हम जैन धर्म के प्रसार, संप्रदायों, पंथों का विकास तथा जैन धर्मग्रंथों के बारे में चर्चा करेंगे।
जैन धर्म का उत्थान (Growth of Jainism)
थोड़े ही समय में जैन धर्म भारत के विभिन्न हिस्सों में फैल गया। प्रारंभ में जैन धर्म के अनुयायी मुख्यतः पूर्वी भारत के प्राचीन राज्यों, विदेह, मगध तथा अगा एवं पश्चिम में स्थित काशी तथा कौसल राज्यों में थे। जैन धर्म का प्रभाव दासपुर (आज का मंदसौर और उज्जैन) में फैला। इसका प्रचार नेपाल तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में भी हुआ। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में कलिंग (आज का ओड़िसा) के राजा ने जैन धर्म अपनाया । उसने कई जैन गुफाएं खुदवाई, जैन श्रमणों, मूर्तियों और स्मारकों की स्थापना की। (इंसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका,. 1985: 275)
जैन धर्म को सबसे बड़ा संरक्षण महान अशोक के पोते सम्राट सम्प्रति से मिला। ऐसे संरक्षण के चलते जैन धर्म दक्षिण भारत में भी फैल गया। तमिल साहित्य के महान ग्रंथ ‘‘माणेमकलाई‘‘ तथा ‘‘चिलप्पाजिकरम‘‘ से दक्षिण भारत में जैन धर्म के बड़े प्रभाव का पता चलता है। पांचवी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के गंग, कदम्ब, चालुक्य तथा राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया तथा इसके प्रसार में सहायता की।
गुप्त काल (320-6003 ई. पू. में जैन धर्म मध्य एवं पश्चिमी भारत में सुदृढ़ हुआ। सातवीं शताब्दी में जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा ने राजकीय संरक्षण के जरिये गुजरात और राजस्थान में अपने को सुदृढ़ किया। फिर सन् 1100 में गुजरात के चालुक्यों के दरबार में जैन धर्म ने महत्ता प्राप्त की। आज भी जैन धर्म भारत के इन भागों के लोगों के बीच धार्मिक आस्था के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। (इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, 1985ः276)
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