वनों की वर्तमान स्थिति पर निबंध | भारत में वन कितने प्रतिशत है आवरण forests in india essay in hindi
forests in india essay in hindi वनों की वर्तमान स्थिति पर निबंध | भारत में वन कितने प्रतिशत है आवरण ?
वनों की वर्तमान स्थिति
सन् 1952 और 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के 33 प्रतिशत भूभाग पर वृक्षों का आवरण होना चाहिए। इसमें से 60 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्रों पर और 20 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों पर होना चाहिए। परंतु, वास्तव में, देश के 770 लाख हैक्टेयर भूभाग में से केवल 22 प्रतिशत भूभाग पर राज्यों के वन विभागों को नियंत्रण है। इसमें से आधे से भी कम हिस्से पर पेड़ लगे हैं। बाकी हिस्से केवल नाममात्र के लिए वन क्षेत्र कहलाते हैं, परंतु वहाँ पेड़ नहीं है। सबसे दुरूख की बात यह है कि देश में प्रति वर्ष 13 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र कम हो रहा है और इसमें से केवल 5 लाख हैक्टेयर क्षेत्र पर दुबारा पेड़ लगाए जाते हैं। इस रफ्तार से अगले बीस वर्षों में देश के वन क्षेत्रों में अधिकांश वृक्षारोपण समाप्त हो जाएगा यानी सभी पेड़ कट जाएँगे।
इस इकाई में हम इस स्थिति के दूरगामी प्रभावों को समझने का प्रयास करेंगे। वनों के विस्तार में होने वाली इस कमी के निम्नलिखित कारण हैं:
ऽ वनवासियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि ।
ऽ झूम खेती (यानी आंशिक रूप से जंगल साफ करके खेती करता तथा फिर उस जमीन को बहुत समय तक छोड़कर अन्य जगह खेती करना ताकि पहली जगह में पुनः जंगल उग आएँ)। जलाऊ लकड़ी की खपत हर साल लगभग 10 करोड़ टन लकड़ी जलाने के काम आती है।
ऽ वन नीति का उद्योगोन्मुख होना।
यहाँ सबसे पहले देखा जाएगा कि वनों में रहने वाली जनजातियाँ परंपरागत रूप से कैसे वनों की देख-रेख करती हैं। उसके बाद यह विचार किया जाएगा। इसका लाभ यह होगा कि आपके लिए संभव होगा
प) वनों के नियंत्रण और प्रबंध के क्षेत्र में वर्तमान संकट की गंभीरता को समझना।
पप) भारत की वन नीति के रूप में अधिक कारगर विकल्पों की खोज की आवश्यकता को
परंपरागत वन-प्रबंध व्यवस्था
सन् 1984 में राष्ट्रीय सुदूर संवेदी अभिकरण (National Remote Sensing Agency) ने यह बताया कि भारत में हर साल 13 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र कम होता जा रहा है। उसके अनुमान के अनुसार सन् 1985 के अंत तक भारत का लगभग 34 प्रतिशत वन क्षेत्र क्षय हो चुका था। क्या इसका मतलब यह है कि भारत में अपने वन क्षेत्र को नष्ट करने की प्रबल परंपरा रही है? इसके विपरीत, सच तो यह है कि आज से 150 वर्ष पूर्व भारत के भूभाग का बड़ा हिस्सा बहुत हरा-भरा था और यहाँ पेड़ों का आवरण इतना अधिक था कि यह पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने और उद्योग तथा लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम था। आइए, अब हम वनों और लोगों के बीच परंपरागतसंबंध की परीक्षा करें।
वनों पर निर्भरता की व्यापकता
इतने व्यापक स्तर पर वनों का विनाश कभी भी भारत की परंपरा नहीं रही है। ऐसा अनुमान है कि 1854 में ब्रिटिश शासनकाल में जब पहली वन नीति लागू की गई, तब पूरे उपमहाद्वीप में, जिसमें उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश का क्षेत्र भी शामिल था, पूरे क्षेत्र का 40 प्रतिशत भाग वृक्षों से आच्छादित था। इसके नौ साल बाद जब 1952 में आजादी के बाद पहली वन नीति लागू की गई तब तक वृक्षारोपण घटकर 22 प्रतिशत रह गया था। दूसरे शब्दों में, एक शताब्दी के दौरान देश के लगभग 18 प्रतिशत भाग से वृक्षारोपण समाप्त हो गया यानी प्रतिवर्ष 0.18 प्रतिशत पेड़ों के आवरण में कमी हुई। छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के दौरान देश पर वृक्षावरण लगभग 10 प्रतिशत था, जो संभवतः अब लगभग 9 प्रतिशत ही है। अर्थात् योजनाबद्ध विकास के प्रथम 30 वर्षों के दौरान वृक्षावरण में यह कमी 12 प्रतिशत रही। प्रति वर्ष देश के भूभाग का 0.4 प्रतिशत वृक्ष-विहीन होता रहा। यह नहीं कहा जा सकता है कि वृक्षावरण में यह कमी केवल जनसंख्या में वृद्धि के कारण हुई है। इसके अलावा, संभवतः इसके कुछ अन्य इससे भी महत्त्वपूर्ण कारण है, जिनका समुचित रीति से उल्लेख किया जाना चाहिए। यदि हम भारत में वनों के इतिहास पर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि 1854 में भारत में पहली वन नीति के निर्माण से पूर्व सामान्य रूप से ग्रामीण भारत के वनवासियों ने, और विशेष रूप से जनजातीय लोगों ने, वनों और लोगों के बीच सहजीविता का संबंध विकसित कर लिया था। सहजीवी संबंध का मतलब है दो असमान जीवों का, निकट संपर्क में, साथ-साथ रहना। इस मामले में वन और जीव एक-दूसरे पर व्यापक रूप से निर्भर थे। इसी निर्भरता के कारण भारत की अधिकांश ग्रामीण जनता ने ऐसे रीति-रिवाजों को विकसित कर लिया जिनके माध्यम से वनों और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होता रहता था। परंपरागत धारणा यह थी कि वन, भूभाग और जल जैसे संसाधन किसी व्यक्ति विशेष के बजाए पूरे समुदाय की सम्पत्ति होते हैं। प्रत्येक परिवार को अपनी आवश्यकता के अनुसार इन संसाधनों के उपयोग की इजाजत थी। इन संसाधनों का आगामी पीढ़ी के उपयोग के लिए परिरक्षण उनका दायित्व था।
परंपरागत प्रबंध व्यवस्था में पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण
इस बात को पक्का करने के लिए वनों को समुदाय संसाधन समझा जाए, सामान्यतः सभी ग्रामीण और वनवासी समुदाय, विशेषतः जनजातीय समुदाय वनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित चार उपायों का अनुसरण करते थे:
1) पवित्र उपवनों का संरक्षण
अधिकांश जनजातीय और ग्रामीण समुदाय वन भूमि के कुछ हिस्सों को विशेष महत्त्व देते हैं और उनका संरक्षण करते हैं। कुछ जगहों को विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण समझा जाता था और उनकी सभी प्रकार के विनाश से रक्षा की जाती थी। भारत के पश्चिमी तट के किनारे बसे समुदायों के पास ऐसे वन थे। उन्हें महाराष्ट्र में ‘देवारण्य‘ (दवकुञ्ज), कर्नाटक में ‘नागारण्य‘ (सर्पकुज) और केरल में ‘सर्पक्काडु‘ (जंगल में साँप है) कहा जाता था। इन्हें पवित्र समझा जाता था। इस कारण से उन्हें काटने की सख्त मनाही थी और उन पर दरांती या कुल्हाड़ी से प्रहार नहीं किया जा सकता था। केवल उनके हाथ से तोड़े जा सकने वाले फलों, सूखी टहनियों या सूखे पत्तों आदि का उपयोग किया जा सकता था।
छोटानागपुर के जनजातीय लोग सरना, सासन और अखाड़ा तथा अन्य छेत्रों में कई अन्य कामों से विदित ऐसे इन तीन स्थलों का परिरक्षण करते थे (गुप्ता, बनर्जी तथा गुलेरिया 1981: 89)। सरना उस स्थल को कहते हैं जहाँ युवकों को वयस्कता का प्रशिक्षण देने के लिए भेजा जाता था। प्रशिक्षण के महीनों में उन्हें जंगल में रहना पड़ता था और अपने हाथ से काटी हुई लकड़ियों और अपने आप किए हुए शिकार पर निर्भर रहना पड़ता था। इन युवकों को उस जनजाति के भावी योद्धाओं के रूप में देखा जाता था और इस तरह उन पर अपनी जनजाति की सुरक्षा का भार था। जंगल में स्थित श्मशान भूमि या कब्रिस्तान को सासन कहते हैं। इन्हीं जगहों में उनके पुरखे दफनाए गए थे। सासन जनजाति विशेष द्वारा काफी समय से उस जगह रहने का प्रतीक था। बिहार के छोटानागपुर जैसे बहुत-से स्थानों में पुरखों की कब्र या समाधि का पत्थर ही एकमात्र ऐसा ‘दस्तावेज‘ होता था जिसके द्वारा परिवार के सदस्य यह सिद्ध करते थे कि उन्हें गाँव की जमीन पर कृषि करने का अधिकार है। वन के उस खाली स्थान को ‘अखाड़ा‘ कहते थे जहाँ युवा लड़के-लड़कियाँ मिलते थे। इसे नृत्यस्थली भी कहते थे। पश्चिमी उड़ीसा के कांड लोग अखाड़े में डोंगरा-डोंगरी नामक वार्षिक उत्सव मनाते हैं (दूसरे प्रदेशों में इन्हें अन्य नामों से जाना जाता है) इस अवसर पर वे अपने जीवन साथी चुनते थे। इस प्रकार, इस स्थान पर भावी युगलों का चुनाव होता था। इसके द्वारा भावी संतति के माध्यम से उस जनजाति की निरंतरता बनी रहती थी (फर्नाडिस, मेनन तथा वीगा 1988: 161-63)। इस प्रकार जनजातियों के लोग अपने पर्यावरण में स्थल विशेष को जनजाति की निरंतरता से जोड़कर और उसे अपने देवताओं का घर मानकर उस पारितंत्र (ecosystem) का परिरक्षण करते थे। ये रीति-रिवाज वास्तव में अधिकांश जनजातियों में उनके टोटमिक विश्वासों से जुड़े हैं। टोटम क्या होता है? अथवा टोटमिक विश्वास क्या है? इन प्रश्नों का समुचित उत्तर पाने के लिए आपको सलाह दी जाती है कि आप ई.एस.ओ.-03 का खंड 3 तथा ई.एस.ओ.-05 का खंड 1 पढ़ें। साथ में ई.एस.ओ.-05 के खंड 1 से सम्बद्ध दृश्य कार्यक्रम धार्मिक प्रतीक भी देखें। यहाँ यह कहना पर्याप्त होगा कि लगभग विश्वभर में अनेक जनजातियों में वनस्पति, पशु, पक्षी प्राकृतिक स्थल जैसे शिलाखंड, झरने, उपवनों इत्यादि की जाति-विशेष के माध्यम से सामाजिक संरचना को व्यक्त किया जाता है। इन वस्तु या स्थान विशेषों को पूजा भी जाता है। पूजनीय होने के नाते इनका परिरक्षण भी किया जाता है।
सोचिए और करिए 1
वनों से संबंधित पुराण कथाएँ प्रत्येक क्षेत्रीय लोककथा का भाग होती हैं। अपने क्षेत्र की वनों से संबंधित दो कहानियाँ एकत्र कीजिए और बताइए कि वे किस प्रकार वनों और लोगों के बीच निकट संपर्क को प्रकट करती हैं।
पप) महत्त्वपूर्ण वनस्पति और पशु-पक्षियों का संरक्षण दूसरी पद्धति में कुछ आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पेड़ों को पवित्र घोषित कर दिया जाता था और उनके काटने पर रोक लगा दी जाती थी। इसी तरह कुछ ऐसे प्राणियों को पवित्र घोषित कर दिया जाता था जिन्हें जनजाति के अस्तित्व के लिए महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। भारत के सभी ‘भागों में रहने वाले वनवासी और ग्रामीण लोग पीपल (जो महत्त्वपूर्ण औषध गुणों वाला पेड़ है), तुलसी, बरगद आदि को पवित्र मानते हैं और उनको परिरक्षित करते हैं। जनजातीय लोगों ने साल, महुआ, सलप आदि बहुत से आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पेड़ों को इस सूची में शामिल किया है। इसके अलावा, उन्होंने आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पेड़ों का अपनी जनजाति के उद्भव से जोड़ते हुए कुछ पुराण कथाएँ भी गढ़ ली हैं। उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र के कोंड जनजाति के लोगों का विश्वास है जब संपूर्ण संसार जल निमग्न था और सब लोग मर गए थे, उस समय पहाड़ पर केवल दो बच्चे से कोंड जनजाति का उद्भव हुआ। इसी कारण से सलप का संबंध सभी जनजाति के लोगों के उद्भव से है। कोरापुट के गोंडों के अनुसार उनके पुरखों का जन्म गाय के पैर (या देवता) से हुआ था। इसी से इस जनजाति का नाम गोंड पड़ा। गंजाम के गोंडों की मान्यता है कि उनके आदि पूर्वजों का जन्म बेल के फल, सरई के पेड़, करेला आदि से हुआ था। इसलिए इन सभी को पवित्र घोषित कर दिया गया क्योंकि उनका संबंध जनजाति के उद्भव से था। इस कारण से जनजातियों के लोगों में यह मान्यता है कि अगर उन्होंने उन पवित्र पेड़ों को काटने दिया तो उनकी जनजाति ही समाप्त हो जाएगी। यहाँ आदिम लोगों में धर्म के उद्भव से संबंधित सिद्धांतों का उल्लेख करना असंगत न होगा। इस संदर्भ में संभवतः आप ई.एस.ओ.-03 का खंड 3 ओर ई.एस.ओ.-05 का खंड 1 पढ़ना चाहें, जहाँ दर्खाइम द्वारा विकसित टोटेमवाद के सिद्धांत के अंतर्गत मनुष्यों और वनस्पतियों तथा अन्य प्राणियों के बीच संबंध के माध्यम से धर्म की उत्पत्ति को समझाया गया है।
पपप) वन उपज का न्याय-संगत वितरण वनों और दूसरे संसाधनों को परिरक्षित करने का तीसरा तरीका है न्यायसंगत नियमों के अनुसार संसाधनों के वितरण करना। उदाहरण के तौर पर, जलाऊ लकड़ी के उपयोग के बारे में कुछ निश्चित नियम बनाना तथा उनका पालन करना। उड़ीसा के धेनकनाल क्षेत्र की जनजातियों में प्रत्येक परिवार को सप्ताह में सिर पर एक फेरा जलाऊ लकड़ी ले जाने की अनुमति थी। इसी तरह पूर्वी मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में प्रत्येक परिवार को महीने में एक गाड़ीभर जलाऊ लकड़ी ले जाने की छूट थी। ऐसे ही नियम भारत के अन्य भागों में भी थे। वन उत्पाद के वितरण को सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र का अपना एक ऐसा तरीका था जिससे एक तो सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, दूसरे कुछ व्यक्ति अपने अंश से अधिक लेने की कोशिश में उपलब्ध संसाधनों को बरबाद न करें। महात्मा गाँधी ने इसी बात को निम्नलिखित शब्दों में कहा, “दुनिया में हर व्यक्ति की जरूरत के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन ये संसाधन व्यक्तियों के लालच की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं।‘‘
जनजातीय समुदायों में वनों तथा अन्य संसाधनों के उपयोग और उनके परिरक्षण में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वे पारिवारिक अर्थव्यवस्था, झूम खेती से संबंधित कार्यों और अन्य संसाधनों को नियंत्रित करती हैं। अतएव आपको यह कहने का पूरा अधिकार है कि पुरुषों की अपेक्षा इन संसाधनों के परिरक्षण में महिलाओं को अधिक रुचि है। यही बात है कि परिवार के मामलों में निर्णय करने का अधिकार भी ज्यादातर उनका ही होता है। इससे कुछ जनजातीय समाजों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की उच्च प्रस्थिति का संकेत भी मिलता है (फर्नाडिस तथा मेनन 1987: 72-80)।
पअ) उपयुक्त प्रौद्योगिकी अंततः वनवासी लोगों ने समुचित प्रौद्योगिकी के द्वारा वनों का भी परिरक्षण किया। उदाहरण के तौर पर इसे झूम खेती में देखा जा सकता है। इसे 20 डिग्री तक की ढलानों पर की जा सकने वाली खेती की सर्वोत्तम किस्म रह सकते हैं। ऐसे क्षेत्रों में आम प्रकार से खेती या सीढ़ीदार खेती नहीं की जा सकती। जनजातीय लोग वर्षा से पहले सबसे ऊपरी ढलान पर इस तरह खेती करते थे कि वहाँ जड़ें उग आएँ। इससे वर्षा के समय वहाँ की मिट्टी परिरक्षित रहती थी अर्थात् खिसकती नहीं थी। उसके बाद वे दूसरे फसलें इस तरह बोते थे कि झूम खेती से उन्हें अक्तूबर से मार्च तक प्रतिमास कुछ न कुछ खाद्य सामग्री मिल सके। इस विधि से उन्हें संतुलित भोजन मिलता रहता था। वे एक क्षेत्र में तीन साल तक खेती करते थे और उसके बाद उसे 18-20 साल तक परती पर छोड़ देते थे ताकि वहाँ फिर से वन उग आएँ इसी प्रकार की उपयुक्त प्रौद्योगिकी पेड़ों और बाँसों के काटने में भी दिखाई देती है जिसे वे कुछ इस प्रकार काटते थे कि आसपास के वातावरण को हानि न पहुँचे। साथ ही, पुराने अंकुरों से नए अंकुर भी निकल आएँ।
बोध प्रश्न 1
1) सन् 1854 में जब ब्रिटिश शासकों ने पहली वन नीति लागू की उस समय भारत में कितना क्षेत्र वृक्षों से आच्छादित था? अफ्ना उत्तर चार पंक्तियों में लिखिए।
2) सहजीवी संबंध किसे कहते हैं? दो पंक्तियों में उत्तर लिखिए।
3) सरना क्या है? एक पंक्ति में उत्तर लिखिए।
4) छोटानागपुर की जनजातियों में सासन का क्या उपयोग होता था? एक पंक्ति में उत्तर लिखिए।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) सन् 1854 के दौरान, भारत का (इसमें आज का पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल है) वृक्षारोपण इसके कुल भूभाग का 40 प्रतिशत था।
2) सहजीवी संबंध का मतलब दो असमान जीवों का निकट साहचर्य में साथ-साथ रहना।
3) सरना: छोटानागपुर के जनजातीय गाँवों में किसी पवित्र बिंदु या स्थल को कहते हैं। जनजाति के युवा लोगों को इस पवित्र स्थल पर वयस्कता में प्रवेश के प्रशिक्षण के लिए भेजा जाता था।
4) सासन: छोटानागपुर के जनजातीय लोगों के कब्रिस्तान या दफनाने के स्थान को कहते हैं। सासन का उपयोग पूर्वज का दफनाने के लिए किया जाता है। इसलिए किसी विशिष्ट क्षेत्र में जनजाति की निरंतरता के चिहन के रूप में इसका प्रयोग होता है।
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