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वन्य प्राणी या वन्य जीव संरक्षण (forest animals conservation in hindi) , वन्य जीवन का व्यापार , संरक्षण के उपाय 

(forest animals conservation in hindi) , वन्य प्राणी या वन्य जीव संरक्षण , वन्य जीवन का व्यापार , संरक्षण के उपाय ? आवश्यकता क्या है ? वन्य जीव संरक्षण अधिनियम कब लागू हुआ ?

वन्य प्राणी (forest animals) : विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के जीव जन्तु पाए जाते है। प्राणियों के वितरण का प्रमुख आधार होता है वातावरण। वनीय पशु से हमारा तात्पर्य ऐसे पशुओं से है जो कि प्राय: वनों में स्वतंत्र विचरण करते है। ये प्राणी शाकाहारी या माँसाहारी दोनों ही प्रकार के होते है। ये प्रकृति में स्वतंत्र रहते है और एक दुसरे पर निर्भर करते है।

समशीतोष्ण पर्णपाती वनों में हिरन , लोमड़ी , बीवर , रीछ , शेर , चिता आदि पाए जाते है जबकि उष्णकटिबंधीय वनों में प्रमुखता से पाए जाते है : गाय , बैल , हिरण , सूअर , जिराफ , नीलगाय , भेड़ , जेबरा , खरगोश आदि।

धरातल पर पाए जाने वाले क्षेत्रों की बात करे अथवा रेंगने वाले प्राणी अथवा ऊँचे पेड़ों पर विचरण करने वाले प्राणी जैसे – पक्षी , छिपकली , साँप , नदियों में घड़ियाल , हाथी आदि पाए जाते है। वनों की भांति वन्य प्राणी भी मानव पर्यावरण के एक महत्वपूर्ण अंग है लेकिन आधुनिकीकरण प्रक्रिया में विद्युत उत्पादन के लिए बाँध निर्माण , सड़कों या रेलों के जाल तथा विशाल गृह निर्माण योजनाओं ने अनेकों वन्य प्राणियों के प्राकृतिक निवास समाप्त कर दिए है। परिणामस्वरूप आज अनेकों वन्य प्राणी जातियाँ अथवा तो लुप्त हो गयी है या विलुप्तिकरण के कगार पर खड़ी है।

जलीय कछुएँ : जलीय कछुओं के प्रजनन के लिए प्रजनन के लिए विश्व में सबसे बड़ा सुरक्षित स्थान माने जाने वाले उड़ीसा तट पर मछली पालन तथा एक नयी सडक के बन जाने से लुप्तप्राय: इस जीव का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। उड़ीसा के प्रसिद्द गहीरमाथा तट से मात्र दस किलोमीटर दूर मछली बंदरगाह है जिससे जलीय कछुओं का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। इस प्रजाति को पहले ही वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन लुप्तप्राय: प्रजाति घोषित कर चुकी है। गहीरमाथा तट पर प्रत्येक वर्ष हजारों मादा कचुएँ अंडे देते है। वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन के सदस्य जी.एम. ओझा के अनुसार बंदरगाह पर मशीनों से मछली पकड़ने आदि के कारण कछुओं के बड़ी संख्या में मारे जाने की आशंका है। इसके अलावा इस क्षेत्र के पास ही एक नयी सडक बन जाने से कछुओं के भोजन क्षेत्र के प्रभावित होने की आशंका है।

गहीरमाथा विश्व के चार कछुआ प्रजनन क्षेत्रों में से एक है। उड़ीसा का तट ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ सबसे अधिक मादा कचुएँ अंडे देते है। मार्च 1991 में एक सप्ताह में करीब छह लाख मादा कछुओं ने अंडे दिए थे।

गंगा की डाल्फिन : गंगा की डाल्फिनों के अस्तित्व के लिए संकट पैदा हो गया है क्योंकि उनका अंधाधुंध शिकार किया जा रहा है। पहली बार बिहार के छात्रों/नौजवानों के एक नए पर्यावरण संगठन ने गंगा डाल्फिनो के बढ़ते हुए शिकार तथा सम्बन्धित कानून की अवहेलना की तथा सबका ध्यान आकर्षित किया है।

1990 में सुल्तानगंज से कहलगाँव तक गंगा का 50 किलोमीटर तक बहता हुआ क्षेत्र डाल्फिन अभयारण्य घोषित किया गया था। डाल्फिन भारतीय वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम 1972 की पहली श्रेणी में शामिल किया गया है जिसके अनुसार डाल्फिन का शिकार करने वालों को छ: माह के लिए जेल अथवा दो हजार रुपये जुर्माना हो सकता है।

अधिनियम तथा अभयारण्य के बावजूद इस दुर्लभ प्रजाति को आज तक अभयदान नहीं मिला है। स्थानीय मछुआरे शिकार करते है तथा इसे बाजार में बेचते है। डाल्फिन स्थानीय लोगों के मध्य सौंस मछली के नाम से पहचानी जाती है।

हाल के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि हर गर्मी में गिलनेटों में (तंग जाल) कोई 100 गंगा डाल्फिन मारे जाते है। नवजात डाल्फिनों को मार दिया जाता है। तथा उनका तेल मछलियों को प्रलोभन देकर फांसने के काम आता है। डॉ. लालमोहन केरल के केन्द्रीय मछली अनुसन्धान संस्थान कोजीकोड में वैज्ञानिक है। डाल्फिन डूगौंग मछलियों तथा समुद्री प्रजातियों पर उनके 100 से अधिक प्रकाशन है। उनके अनुसार गंगा और ब्रह्मपुत्र के डाल्फिनो की दशा बेहद गंभीर है। उनका प्राकृतिक वास अब प्रदूषित गाद भरा है। गाद तथा पानी के अधिक निवास के कारण उनके विचरण का क्षेत्र संकुचित हो गया है। गंगा अब उथली हो रही है तथा गर्मियों में कानपुर में गंगा का जल स्तर केवल 40 सेंटीमीटर रह जाता है। यहाँ फरक्का बाँध जैसे विशाल बाँध के निर्माण से डाल्फिन तथा मछलियों की गति और भी नियंत्रित हो गई है एवं भविष्य में बाँध के कारण भी गंगा डाल्फिनों की आबादी कम हो जाएगी।

बिहार में मुंगेर से कहलगाँव तक गंगा नदी का विस्तृत जैविक सर्वेक्षण (जनवरी 1990 से दिसम्बर 1992) करने वाले भागलपुर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो. के. एस. बिलग्रामी कहते है कि गंगा के क्षेत्र की कई अनमोल प्रजातियाँ जैसे स्टहींग रे डाल्फिन तथा मछलियों के अस्तित्व पर गहरा संकट है। यहाँ समय समय  पर गंगा के विभिन्न मुकामों पर डाल्फिनों तथा मछलियों की सामूहिक मौत हुई है। इसका कारण खतरनाक औद्योगिक तथा रासायनिक प्रदुषण है। प्रोफेसर बिलग्रामी के अनुसार सर्वेक्षण से पता चलता है कि डाल्फिन गंगा नदी के जल की शुद्धता की माप का एक पैमाना है। वे जल में भारी धातु तथा रासायनिक प्रदुषण के प्रति बेहद संवेदनशील है।

वन्य जीवन का व्यापार

1. कैमन : ब्राजील ने 1967 में ही वन्य जीवों के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया था , इसके बावजूद पैटेनाल से केमन , जैगुआर , बन्दरों , तोतों तथा अन्य पशुओं का निर्बाध रूप से निर्यात हो रहा है। फिर इसे रोक पाना भी किसी के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। चोर शिकारी प्रतिवर्ष दस लाख से भी अधिक ही केमनों का सफाया कर डालते है। इन की खाल को पराग्वे तथा बोलीविया जैसे पडोसी देशों के जरिये चोरी छिपे ब्राजील से बाहर भेज दिया जाता है। वहां से ये खाले मुख्यतः जापान , फ़्रांस तथा इटली के चमडा विनिर्माताओं के पास भेज दी जाती है। इन खालों से सुन्दर जूते , बटुए या ब्रीफकेस बना कर इन्हें टोक्यो , पेरिस अथवा फिर रोम तथा न्युयोर्क की सडकों पर बेचा जाता है।

2. पैटेनोल : ब्राजील तथा अन्य देशो से अमेरिका , यूरोप तथा जापान के बाजारों की मांग पूरी करने के लिए होने वाले जंगली जीवों के अवैध व्यापार का एक उदाहरण मात्र है पैटेनोल। प्रतिवर्ष इस प्रकार के विश्वव्यापी अवैध निर्यात व्यापार के जरिये (बंदी अवस्था में प्रजनित कुछ जीवों सहित) अनुमानत: 40 हजार प्रधान स्तनपायी जीवों , 40 लाख पक्षियों , 10 लाख गोधिका जैसे रेंगने वाले जीवों तथा सर्वोय और 35 करोड़ सजावटी मछलियाँ इधर उधर को जाती है। इसके अतिरिक्त 50 करोड़ फर , 500 टन तक हाथीदांत , 10 करोड़ सरीसृपों की खाले और 300 लाख चमड़े की निर्मित सुन्दर वस्तुएं भी अवैध रूप से बेचीं और खरीदी जाती है। इस वन्य जीव व्यापार को घोषित अंश ही कुछ और नहीं तो 5 अरब डॉलर वार्षिक का है तथा इसके अंतर्गत लगभग 20 हजार विभिन्न प्रकार के जीव आते है। पर सच पूछे तो इसी माल का खुदरा मूल्य 20 अरब डॉलर से भी अधिक ही होगा।

3. काले गैंडे :  हाल ही के वर्षो में अफ्रीका में ही अवैध शिकारियों ने काले गैंडो की लगभग 90 प्रतिशत आबादी का उनके सींगो के लिए संहार कर डाला है .एशिया की स्थिति भी ऐसी विकट ही है।

4. हाथी : केवल पिछले छ: वर्षो में ही अफ्रीका के एक तिहाई हाथियों का संहार हो चूका है। तथा वह भी कोई 3 हजार टन हाथी दांत के लिए। फिर पहले से ही विलुप्ति के कगार पर पहुँच कई जीव भी पालतू पशु होने के नाम पर लोगो के निजी संग्रह में तस्करी से पहुंचाएं जा रहे है।

5. कछुए : अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करती जीव प्रजातियों के लिए विश्व का सबसे बड़ा व्यापारी जापान है। 1970 तथा 1986 के मध्य ही 29 लाख से अधिक ही मझोले किस्म के ऊष्ण जल के कचुएँ और हरे तथा जैतूनी कचुएँ जापानी बाजार की बली चढ़ गए।

6. कस्तूरी मृग : फ़्रांस की थोड़ी सी सहायता के सहारे जापान ने नेपाल के दुर्लभ कस्तूरी मृग का एक बड़ा भाग साफ़ कर दिया। कामोद्दीपक सामग्री के रूप में जापानी बाजार ने 1987 के प्रथम नौ महीनो में ही 818 किलोग्राम कस्तूरी का आयात किया था। एक किलो कस्तूरी पाने के लिए लगभग 80 कस्तूरी मृग मारने पड़ते है , अत: इसका अर्थ यह हुआ कि इस अवधि में लगभग 80 हजार मृगों का संहार किया गया। यह संख्या शेष बची कस्तूरी मृगों की कुल आबादी का एक बड़ा भाग भी है।

संरक्षण के उपाय

कुछ विशेषज्ञ ही ऐसी राय रखते होंगे कि इस समस्या का समाधान सभी प्रकार के अन्तराष्ट्रीय वन्य जीव व्यापार पर पूर्ण प्रतिबन्ध द्वारा ही संभव है। इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को लागू करना असंभव है , वही कोई भी देश उस मूल्यवान निर्यात आय से भी वंचित हो जाता है जो तेजी से प्रजनन करते जीवों का निर्यात कर वह प्राप्त कर सकता है।
इससे बेहतर उपाय तो यह हो सकता है कि जीव व्यापार को इस सावधानी से विनियमित इया जाए कि व्यापार के इस जिंस का ठोस उत्पादन भी सम्बन्धित देश में होता रहे। व्यापक रूप में इसके लिए “छोटे बच्चो से लेकर दादा दादियों तक” को इस बारे में शिक्षित करना होगा तथा उन्हें बताना होगा कि यह विनिमयन उनके ही आर्थिक हित में है। साथ ही सभी देशो को उपरोक्त संधि का सदस्य बनाना होगा तथा उसकी व्यवस्थाओं के विवेकपूर्ण ढंग से पालन करते के लिए तैयार रहना होगा।
उदाहरण : 1973 में ही बेहद शिकार किये जाने के कारण अमरीकी मगरमच्छो की संख्या एकदम से कम हो गयी थी। परिणामस्वरूप विलुप्ति ग्रस्त प्रजाति अधिनियम के द्वारा उन्हें संरक्षण प्रदान करना पड़ा। प्रभावशाली राजकीय प्रबंध , कानून को सख्ती से लागू किये जाने तथा संरक्षण के कारण इनकी संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई तथा फिर से उनका निर्यात प्रारंभ कर दिया गया। आज अमेरिका इस क्षेत्र में प्रति वर्ष कम से कम 50 लाख डॉलर मूल्य का निर्यात करता है तथा इससे शिकारियों तथा निर्यातकों को आय का एक महत्वपूर्ण साधन मिल गया है और विश्व में श्रेष्ठ प्रकार के चमड़े की अबाध आपूर्ति भी सुनिश्चित हो गयी है।
पशु उत्पादों की उपलब्धि को सुरक्षित रखना है तो पशुओं की भी सावधानीपूर्वक सुरक्षा करनी होगी। केवल चुने हुए बूढ़े तथा अपाहिज प्राणियों को ही मारा जाना चाहिए। चोर शिकारियों को कड़ा दंड दिया जाना चाहिए। हर दो से लेकर चार साल पर ही पशुओं का ऊन उतारते है तथा फिर उन्हें छोड़ देते है। यही कारण है कि उन्हें पशुओं की हानि कम होती है तथा स्थानीय समुदाय को निरंतर लाभ मिलता रहता है।