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चीन की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत | चीन की विदेश नीति की विशेषताएं की विवेचना कीजिए foreign policy of china in hindi

foreign policy of china in hindi चीन की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत | चीन की विदेश नीति की विशेषताएं की विवेचना कीजिए ?

चीन की विदेश नीति संरचना
उद्देश्य
प्रस्तावना
चीन की विदेश नीति के निर्धारक कारक
दक्षिण एशियाई पड़ौसियों के साथ संबन्ध
भारत के साथ संबन्ध
पाकिस्तान के साथ संबन्ध
बंगला देश एवं नेपाल के साथ संबन्ध
आसियान (ए.एस.ई.ए.एन.) देशों के साथ संबन्ध
माहशक्तियों एवं पश्चिम योरोपीय देशों के साथ संबन्ध
सोवियत संघ के साथ संबन्ध
संयुक्त राज्य अमरीका के साथ संबन्ध
पश्चिम योरोपीय देशों के साथ संबन्ध
संयुक्त राष्ट्र संघ में भूमिका
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई का उद्देश्य, चीन की विदेश नीति एवं पड़ोसियों समेत अन्य देशों के साथ उसके आपसी सम्बन्धों का विवरण प्रस्तुत करना है। इस इकाई का अध्ययन कर लेने के पश्चात् आप निम्नलिखित बातों में सक्षम हो जायेगें।

ऽ चीन की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताओं को पहचानने में,
ऽ अर्न्तराष्ट्रीय सम्बन्धों में चीन के आचरण का निर्धारण करने वाली शक्तियों एवं घटकों का स्पष्टीकरण करने में,
ऽ निकट पड़ौसियों एवं महाशक्तियों के साथ कठिनाइयों एवं समस्याओं को उत्पन्न करने वाले कारणों की जानकारी प्राप्त करने में,
ऽ राष्ट्रो की समिति में चीन के स्थान एवं स्तर का मूल्यांकन करने में ।

प्रस्तावना
चीन एशियाई उपमाहद्वीप का सबसे अधिक बृहत एवं विश्व का सबसे अधिक सघन आबादी वाला देश हैं। भौगोलिक आकार की दृष्टि से यह केवल कनाडा के बाद दूसरे नम्बर पर हैं एवं भारत से करीब तीन गुना अधिक बृहत हैं। चीन, विश्व के सबसे अधिक बृहत उपमहाद्वीप के केन्द्र में स्थित हैं एवं एशियाई उपमहाद्वीप की बहुमात्रा चीन संस्कृति के प्रभाव क्षेत्र में आती हैं। चीन के परिसर पर स्थित देश दुर्बल एवं छोटे हैं एवं उन पर चीनी प्रभाव पड़ने की सम्भावनायें बहुत अधिक हैं। चीन के उल्लेखनीय सामाजिक-राजनीतिक स्तर को यू.एस. एवं अन्य बड़ी ताकतों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है।

करीब चार हजार वर्षों से भी अधिक काल का, चीन का संकलित किया गया इतिहास एक ऐसे महान देश का इतिहास हैं, जो सभ्यता के सबसे प्रारंभिक काल में भी, आर्थिक एवं सांस्कृति रूप से काफी संपन्न था। इसके इतिहास के अधिकाँश काल में, चीन स्वेच्छाकृत रूप से अलगाववादी बना रहा है और बाहरी दुनिया से इसके संम्पर्क नाम मात्र का रहा है। चीन की जनता को समकालीन चीनी सम्राटों द्वारा यह विश्वास दिलाया गया था कि चीन एक दिव्य(स्वर्ग) साम्राज्य है जहाँ सब वस्तुऐं भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं एवं बाहरी दुनिया से इसको कुछ भी प्राप्त करने की कोई इच्छा नहीं हैं।

उन्नीसवीं सदी के काल में चीन के सामीप्य में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विकास एवं लड़ाकू जापान के उद्गमन ने इस क्षेत्र में चीन की स्थिति को खतरा उत्पन्न कर दिया था। ब्रिटेन एवं जापान के साथ हुए युद्धों द्वारा चीन में हुए विध्वसों के फलस्वरूप चीन के प्रभाव क्षेत्र में गिरावट आई थी। सन् 1911 में राजतंत्र का तख्ता उलट जाने के फलस्वरूप, सुन-यात-सेन के नेतृत्व में चीनी गणतंत्र की स्थापना की गई थी। अक्टूबर, सन् 1917 में रूस में हुई बोल्शेविक क्रॉन्ति का प्रभाव चीन पर भी पड़ा था जिसके पराकाष्टा पर पहुँच जाने पर माओ के नेतृत्व के अधीन चीन के साम्यवादी दल द्वारा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन का विकास एवं उत्थान किया गया था। सन् 1927 में अलग होते समय तक कुओमिन्टौंन्ग एवं साम्यवादी दल के कार्यकर्ता मिलकर कार्य करते रहे थे। उसके बाद उस समय के सत्ताधारी, चियाँन्ग-कोई-शेक के नेतृत्व वाले कुओमिन्टॉन्ग दल के विरुद्ध, चीन के साम्यवादी दल ने सैनिक संघर्ष शुरू कर दिया था। शेष में इस संघर्ष के पराकाष्टा पर पहुँचने पर अक्टूबर, 1949 में चीन के साम्यवादी दल के आधीन चीन में जनवादी गणतंत्र स्थापित किया गया एवं माओ को इसका अध्यक्ष बनाया गया।

चीन की विदेश नीति के निर्धारक कारक
किसी देश की विदेश नीति, उसके घरेलू एवं बाहरी, दोनों प्रकार के कारकों की समाविष्ट रूप की प्रतिक्रिया होती है। वैदेशिक परिमंडल में विदेश नीति का तीन स्तरों पर सुगमीकरण किया जाता है विश्वव्यापी, क्षेत्रीय एवं द्विपक्षीय। किसी देश की विदेश नीति को रिक्त या निर्वात स्थिति में सूत्रित एवं कार्यान्वित नहीं किया जाता। बल्कि, यह कुछ ऐसे मूलरूप के कारकों का वास्तविक परिणाम होती है, जैसे उस क्षेत्र की भू-राजनीतिक यथार्थतायें, जहाँ यह देश स्थित है, सुरक्षा के लिये उसका संघर्ष, उसकी घरेलू किस्म की आवश्यकतायें एवं आर्थिक विकास हेतु उसके द्वारा किये जाने वाले, प्रयास एवं सिद्धान्तों के प्रति उसका समर्पण। इसी प्रकार चीन की विदेश नीति कुछ ऐसे मूल सिद्धान्तों द्वारा नियंत्रित की जाती है, जो उनकी उपलब्धि प्राप्त करने के तरीकों एवं साधनों में । विभिन्नता होने के बावजद भी अडिग रूप धारण किये रहे हैं। देश एवं विदेश. दोनों की बदलती हई परिस्थितियों द्वारा ये विभिन्नतायें प्रभावित हुई हैं।

अक्टूबर, सन् 1949 में चीन के जनवादी गणतंत्र में साम्यवादी शासन स्थापित हो जाने के बाद से सुरक्षा के प्रति चिन्ता, चीन की विदेश नीति का प्रमुख कार्य बना हुआ है। पिछले चार दशकों में चीन के नेताओं ने बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल अपने आप को ढालने एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के लक्ष्य को हासिल करने हेतु अनेक प्रकार की रणनीतियों का उपयोग करने की, अभूतपूर्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। जिन कारकों द्वारा चीन की विदेश नीति प्रभावित हुई हैं, वे इस प्रकार है: राष्ट्रीय हित, राष्ट्रवादिता, ऐतिहासिक अनुभव एवं सांस्कृतिक सिद्धान्त, (क्रान्तिकारी रणनीति, प्रतिवादिता का सिद्धान्त एवं तीन विश्वों का सिद्धान्त) एवं नेतृत्व और निर्णय करने के अधिकार। सन् 1949 में साम्यवादी शासन लागू हो जाने के बाद एवं उसके पूर्व से भी चीन की नीति, प्रभुत्वशाली विश्व रूझानों के बारे में चीनियों की समझ के आधार पर बने एक ढाँचे में कार्य कर रही है। पिछले चार दशकों के काल की चीन की विदेश नीति का विश्लेषण करने से यह देखने को मिलता है कि सन् 1950 के बाद से प्रत्येक दशक के अन्त में इस ढाँचे में स्पष्ट रूप के रूपांतरण किये जाते रहे हैं।

सन् 1950 के दशक में चीन की विदेश नीति एक द्विपक्षीय ढाँचे के अन्र्तगत चलाया गया था, जिसमें बीजिंग का झुकाव स्पष्ट रूप से सोवियत यूनियन के प्राधिकार क्षेत्र वाले समाजवादी शिविर के प्रति था। सन् 1960 में हुए चीन-सोवियत संघ मतभेद ने चीन को शिविर राजनीति का बहिष्कार करने हेत प्रेरित किया था। चीनियों के दष्टिकोण से सन् 1960 के काल में सोवियत यूनियन संशोधनवादी हो गया था इसलिये चीन के विचार से समाजवाद की रक्षा का भार उसके कन्धों पर आ पड़ा है,

हुआ था। सन् 1970 के दशक में चीन का यू.एस. के प्रति रणनीतिक झुकाव देखने को मिला, यह संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो गया एवं इसने तीन विश्वों के सिद्धान्त का सूत्रीकरण भी किया रू पहला विश्व महाशक्तियों का, तीसरा विश्व, एशिया, अफ्रिका एवं लेटिन अमरीका के विकासशील देशों की विशाल बहुसंख्या का एवं दूसरा विश्व जो इन दोनों के मध्य संस्थित है जिसमें मूल रूप से जापान एवं योरोप आते हैं। चीन को तीसरे विश्व के एक भाग के रूप में देखा गया था।

सन् 1980 के दशक में क्षेत्रीय एवं विश्वव्यापी दृष्यपटल पर अभिघातन रूप के परिवर्तन हुए थे एवं इस काल में राजनीतिक के बजाय आर्थिक एवं तकनीकि मुद्दों पर अधिक बल देने का बदलाव देखने में आया था। जापान एवं पश्चिमी योरोप की विकसित होती हुई शक्ति एवं यू.एस.-सोवियत की। बढ़ती हुई वैमनस्यता ने एक नये बहुधवी आकार की सत्ता हेतु ढाँचा प्रस्तुत कर दिया था। सन् । 1980 के दशक की समाप्ति होने तक चीनी नेताओं ने यह विश्वास करना शुरू कर दिया था कि किसी देश की श्रेष्ठता या दुर्बलता का निर्णय उसकी सैनिक शक्ति कारक द्वारा नहीं बल्कि उसकी आर्थिक एवं तकनीकि क्षमताओं द्वारा किया जायगा। इसलिये उसके बाद से चीनियों ने विश्व के ऐसे दृश्यचित्र को सूत्रित करने के दृष्टिकोण से विश्वव्यापी रूझानों एवं अन्तराष्ट्रीय स्थिति का विश्लेषण करना शुरू कर दिया था, जो तदनुसार उनकी रणनीति को आकार प्रदान करेगा एवं उनकी विदेश नीति को निर्धारित करेगा।

सन् 1990 के दशक का आरम्भ कुछ अभूतपूर्व रूप की घटनाओं की विशेषताओ से परिपूर्ण रहा है, जैसे दो जर्मनियों का एकीकरण, पूर्व सोवियत यूनियन का ढह जाना, रूसी संघ का उद्गम, बालटिक स्टेट्स, एवं पांच मध्य एशियाई गणतंत्रों का प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र देशों के रूप में उभर कर आना, चैक एवं स्लोवाक गणतंत्रों के रूप में चैकोस्लेवेकिया का विभाजन, खाड़ी युद्ध, एवं मास्ट्रिट संधि पर हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात और एक नई विश्व व्यवस्था के संघर्ष में योरोप के संयुक्त राज्यों के निर्माण हेतु प्रयास। इन विकासों के प्रति चीन की प्रतिक्रिया का उसकी विदेश नीति के साथ निकट रूप का सम्बन्ध है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये गये स्थान का उपयोग अपना उत्तर देने हेतु कीजिये।
2) इस इकाई के अन्त में दिये गये उत्तर के साथ अपने उत्तर की पड़ताल कीजिये।
2) चीन की विदेश नीति में बल को बदले जाने की मुख्य अवस्थाऐं क्या रही हैं ?

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) चीन की विदेश नीति में अवधारणा का बदलाव चार प्रक्रमों में हुआ है। सन् 1950 के दशक में पहले प्रक्रम में चीन की विदेश नीति सोवियत यूनियन के नेतृत्व वाले समाजवादी शिविर के अर्न्तगत परिचालित की जाती थी। सन् 1960 के दशक में दूसरे प्रक्रम में चीन द्वारा गुट राजनीति का त्याग किया गया एवं वह अपनी घरेलू राजनीति में उलझ गया था। 1970 के दशक में तीसरे प्रक्रम में चीन अलगाववाद से बाहर निकल कर आया था एवं पश्चिम के और अधिक निकट हो गया था। सन् 1980 के दशक में चैथे प्रक्रम के काल में चीन द्वारा अपनी स्वतंत्र भूमिका का दावा किया था एवं चार आधुनिकीकरणों को अधिक महत्व प्रदान किया था।

दक्षिण एशियाई पड़ौसियों के साथ सम्बन्ध
यू.एस. एवं सोवियत यूनियन के बीच शीत युद्ध की प्रतिद्वन्दिता के काल में विश्वव्यापी राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिण एशिया की स्थिति में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई हैं। सोवियत यूनियन के ढह जाने के। साथ ही दक्षिण एशिया के सामरिक महत्व में कोई कमी नहीं हुई है। सोवियत यूनियन के उत्तरवर्ती, यू.एस., चीन एवं रूस के राज्यों द्वारा किये जाने वाले सामरिक महत्व के परिकलनों में इस क्षेत्र को और अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है। चीन की सीमा रेखायें भूटान, नेपाल, भारत एवं पाकिस्तान के साथ जुड़ी हुई हैं। इससे चीन को इस क्षेत्र की एक पूर्व घोषित उत्कृष्ट सत्ता का स्थान प्राप्त हो गया है।

भारत एवं पाकिस्तान दक्षिण एशिया की दो प्रमुख ताकतें हैं। यहाँ के क्षेत्रीय घटना विकास के प्रति चीन का ध्यान आकर्षित होता है एवं इसी प्रकार चीन द्वारा उठाये जाने वाले कदमों का इस क्षेत्र
बढ़ाने हेतु भारत से प्रति-स्पर्धा की थी एवं इस क्षेत्र को भारत-केन्द्रिक एवं चीन-केन्द्रीक, दो भागों में विभाजित कर दिया था। अक्टूबर, सन् 1962 में भारत एवं चीन के बीच युद्ध से भारत की सैनिक पराजय के फलस्वरूप इस क्षेत्र में चीनी प्रभाव में वृद्धि हुई थी। इसके परिणामस्वरूप उस काल में चीन के पाकिस्तान, नेपाल एवं श्रीलंका के साथ सम्बन्धों में सुधार हुआ था।

सन् 1980 के दशक के आरंम्भिक काल से भारत एवं चीन के सम्बन्धों में सुधार आने के बाद से, चीन ने दक्षिण एशिया के सभी देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की नींव का पालन किया है एवं बहुत लम्बे काल से चले आ रहे सीमा के मुद्दों का, विशेष तौर से भारत के साथ, शान्तिपूर्वक हल खोजने हेतु वचनबद्ध है।

भारत के साथ सम्बन्ध
भारत के साथ चीन के सम्बन्धों में अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव आये हैं। यद्यपि दोनों देशों के साँस्कृतिक एवं आर्थिक ऐतिहासिक संपर्क सूत्र सदियों से एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं। फिर भी कुछ उत्तेजक घटनायें घटित हुई हैं, विशेष तौर से सीमा-विवाद जिसके कारण दोनों देशों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को क्षति पहुंची है। सन् 1949 में बीजिंग में स्थापित किये गये साम्यवादी शासन को मान्यता प्रदान करने वाले गैर-साम्यवादी देशों में भारत का दूसरा स्थान था। चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश दिलवाने में भी भारत ने पर्याप्त उत्साह प्रदर्शित किया था।

सन् 1950 के दशक के काल में, जब शीत युद्ध शिखर पर था, तो चीन ने माओ के दो शिविरों के सिद्धान्त का अनुमोदन किया था और बीजिंग जिसका सैद्धान्तिक रूप से सोवियत यूनियन के प्रति अधिक झुकाव था द्वारा भारत की गुट निरपेक्षता की नीति को पसन्द नहीं किया गया था। सन् 1950 में कोरिया के संकट काल के समय भारत द्वारा अमरीकन नीति की निन्दा करने एवं चीन को समर्थन प्रदान करने से भारत एवं चीन एक दूसरे के और अधिक निकट आ गये थे। फिर भी, आपस के अच्छे पड़ौसियों जैसे सम्बन्धों में तिब्बत के मुद्दे को लेकर बाधा पड़ गई थी। तिब्बत का मुद्दा अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई एक विरासत के रूप में था, जिसके द्वारा भारत को कुछ विश्राम स्थलों का स्वामित्व, अपने कुछ सैनिक दलों को वहाँ तैनात करने एवं कुछ स्थानों पर अपनी डाक एवं संचार व्यवस्था स्थापित करने जैसे कुछ विशेष राजनैतिक हित एवं अतिरिक्त राज्य क्षेत्रीय विशेष अधिकार विरासत के रूप में प्राप्त हुए थे। इसलिये अक्टूबर सन् 1950 में चीन द्वारा तिब्बत में की गई सैनिक कार्यवाही ने भारत को सतर्क कर दिया था।

फिर भी, अप्रैल, सन् 1950 में पंचशील (शान्तिपूर्वक सह आस्तित्व हेतु पाँच सिद्धांतों) के आधार पर दोनों देशों ने अपने मतभेदों को कम करने हेतु प्रयास किये थे। उसके बाद चीन-भारत मित्रता के एक अल्पकालीन (1954-1958) चरण की शुरूआत हुई थी। इस चरण के काल में चीन के प्रधानमंत्री, चाऊ-एन-लाई ने भारत का दौरा किया था। यह प्रावस्था अधिक काल तक नहीं चली थी एवं सन् 1959 के अन्त तक सीमा विवादों एवं सैनिक मुठभेड़ों की उत्तेजना के फलस्वरूप दोनों । एशियाई महाशक्तियाँ युद्ध की तरफ प्रवाहित हो उठी थी, जो मूलभूत रूप से अक्टूबर, सन् 1962 में शुरू हो गया था।

अक्टूबर, सन् 1962 के चीन-भारत युद्ध में भारत की सैनिक पराजय हुई थी और हालांकि अक्टूबर 1962 के अन्त में चीन द्वारा एकपक्षीय रूप से युद्ध विराम घोषित कर देने से सैनिक संघर्ष प्रायरू समाप्त हो गये थे परन्तु दोनों देशों के बीच एक शीत युद्ध प्रारंभ हो गया था। इसके परिणामस्वरूप भारत-चीन मित्रता एकदम समाप्त हो गई थी एवं पंचशील के युग का स्थान टकराव के युग ने ले लिया था। इस काल में भारत को यू.एस. एवं सोवियत यूनियन द्वारा सैनिक एवं आर्थिक रूप की सहायता प्रदान की गई थी। फिर भी, भारत एवं अमरीका की मित्रता की प्रावस्था काफी अल्पकालीन साबित हुई थी जब कि उसके बाद के काल में सोवियत यूनियन के साथ भारत के सम्बन्धों ने स्थायी रूप ग्रहण कर लिया था। चीन के सम्बन्ध पाकिस्तान के साथ कुछ अधिक घनिष्ट हो गये थे, जिसके भारत के साथ पहले से ही तनावपूर्ण सम्बन्ध थे।

(1966-68) साँस्कृतिक क्रांति के बाद के काल से चीन ने एशिया एवं अफ्रीका के देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को स्थापित कर के अन्तराष्ट्रीय रूप के अलगाववाद को समाप्त करने की नीति
समर्थन प्रदान करके चीन-भारत सम्बन्धों के द्रवित होने की सभी प्रकार की सम्भावनाओं को कम कर दिया था। 1960 के दशक के अन्तिम काल एवं 1970 के दशक के आरंभिक काल तक भारत में। नक्सलवादियों एवं भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में होने वाले विप्लवो का चीन द्वारा खुला समर्थन प्रदान करने से दोनों देशों के सम्बन्धों को सामान्य रूप प्रदान करने की प्रक्रिया को भी क्षति पहुँची।
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सन् 1970 के दशक के मध्य काल तक दोनों देशों के बीच सामान्य रूप के सम्बन्ध स्थापित होने की सम्भावनाओं के किसी प्रकार के सहायक संकेत नहीं दिखाई पड़ते थे। परन्तु सन् 1975-76 तक । दोनों देश सामान्य सम्बन्ध पुनः स्थापित करने हेतु उत्साहित प्रतीत होने लगे थे। सन् 1976 में चीन एवं भारत, दोनों देशों ने राजदूत स्तर पर राजनयिक सम्बन्धों को पुनः स्थापित किया था। इसके बाद से व्यापार, बैन्किग एवं जहाजरानी पर लगे प्रतिबन्धों को हटा लिया गया था एवं कार्यमूलक सम्पर्कों को पुर्नराम्भ हो गया था। फरवरी, सन् 1979 में भारत का विदेश मंत्री चीन के दौरे पर गया था।

दोनो देशों के बीच, अपने सामान्य सम्बन्धों को समान स्तर पर लाने की तीव्र इच्छा होते हुए भी एक पेचीदा रूप की सीमा समस्या अकेले उत्तेजक के रूप में आड़े आ रही थी। सन् 1981 तक दोनों देश सीमा के मुद्दे को सुलझाने हेतु. इच्छुक प्रतीत- होने लगे थे जिसके फलस्वरूप दिसम्बर, सन् 1981 में दोनों देशों के विशेषज्ञों के बीच पहले दौर की बातचीत भारत द्वारा पहल करने पर हुई थी। इस संयोजन में चीन “यथापूर्व स्थिति’’ बनाये रखने के पक्ष में प्रतीत होता था। चीन ने कुछ शों का प्रस्ताव रखा जिनमें अम्य बातों के साथ-साथ चीन द्वारा पूर्व में मैकमोहन लाइन को भारत द्वारा अक्साई चीन को चीन के एक भाग के रूप में मान्यता प्रदान करना शामिल था।

दिसम्बर सन् 1981 के काल में सीमा के मुद्दे पर चीन एवं भारत के मध्य हुई बातचीत के पहले दौर पर दोनों पक्ष अपनी-अपनी स्थितियों पर अडिग बने रहे थे। जब कि चीन ‘‘यथास्थिति’’ को स्वीकार किये जाने के पक्ष में था, वहाँ भारत द्वारा किसी प्रकार के तुलनीय धुबो के अभाव में इस स्वीकृति के प्रति अपना कड़ा विरोध प्रकट किया गया था। मई, सन् 1982 में हुई दूसरे दौर की। बातचीत में सीमा के प्रश्न पर कोई प्रशंसनीय रूप की प्रगति नहीं हुई थी। इसके बाद, चीन एवं भारत के मध्य बातचीत के अनेक दौर हुए हैं परन्तु सीमा विवाद पर कोई समझौता नहीं हो सका है। फिर भी, दोनों देशों के मध्य व्यापार, वाणिज्य, विज्ञान एवं तकनीक तथा संस्कृति के क्षेत्रों में अनेकों समझौते हुए हैं। सन् 1988 में भारत के प्रधानमंत्री, राजीव गाँधी चीन के दौरे पर गये थे एवं दिसम्बर, 1991 में चीन के प्रधानमंत्री, ली.पेन्ग ने भारत का दौरा किया था।
सन् 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा चीन के दौरे के काल में, दोनों देशों ने सीमा के प्रश्न पर विचार विमर्श करने हेतु एक संयुक्त कार्यकारी दल स्थापित किये जाने पर सहमति व्यक्त की थी। दोनों देशों द्वारा व्यापार एवं विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में सहयोग करने के अलावा बाकी द्विपक्षीय मुद्दों का समाधान करने पर भी सहमति व्यक्त की गई थी। चीन के प्रधानमंत्री ली.पेन्ग द्वार भारत में सन् 1991 से किये गये दौरे के समय दोनों देशों ने संयुक्त कार्यकारी दल के बैठक शीघ्र बुलाने एवं दोनों देशों के मध्य आर्थिक सहयोग को बढ़ाने के प्रति पुनरू पुष्टीकरण किया गया था। चीन-भारत सीमा पर सैनिक बलों की संख्या कम किये जाने के प्रस्ताव समेत एक-दूसरे के प्रति विश्वास जागृत करने जैसे प्रस्तावों (सी.बी.एम.एस.) पर प्रशासनिक स्तर पर परिचर्या की जा रही हैं। इसलिये सीमा के मुद्दे के समाधान की सम्भावनायें सुस्पष्ट हो गई हैं।

पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध
पाकिस्तान के साथ चीन के सम्बन्धों में विकास गरत-चीन सीमा विवाद के बाद के काल में हुआ था, जब दोनों देशों ने सन् 1963 में सीमा के समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। कशमीर के प्रश्न के लेकर भारत के साथ पाकिस्तान के सम्बन्ध पहले से ही तनावपूर्ण थे। इस प्रकार यह सम्बन्ध एक पुरानी कहावत पर आधारित था ‘‘दुश्मन का दुश्मन, दोस्त होता हैं।‘‘। पाकिस्तान के साथ चीन द्वार सम्बन्धों को बढ़ाने का एक अन्य उद्देश्य, एस.ई.ए.टी.ओ. एवं सी.ई.एन.टी.ओ., जैसे शीत युद्ध के सैनिक संघों के प्रभाव को मिटाना था, जिनका पाकिस्तान एक सदस्य था और इस्लामिक विश्व में अपनी छवि बढ़ाने हेतु पाकिस्तान को चीनी प्रभाव क्षेत्र के अन्र्तगत लाना था।

सन् 1965 एवं 1992 के बीच के काल में पाकिस्तान को चीन द्वारा विशाल रूप से सैनिक एवं आर्थिक सहायता प्रदान की गई हैं। अत्याधुनिक हथियारों की आपूर्ति द्वारा पाकिस्तान की सुरक्षा का आधुनिकीकरण करने में चीन का उल्लेखनीय योगदान रहा हैं। पाकिस्तान के आणविक कार्यक्रम में भी चीन का समुचित योगदान रहा है। सन् 1980 के अन्तिम काल में पाकिस्तान को परिष्कृत परम्परागत हथियारों की और अधिक आपूर्ति किये जाने पर यू.एस. द्वारा प्रतिबन्ध लगाया गया था तो चीन द्वारा इस कमी को पूरा किया गया था। भारत के साथ अपने सम्बन्धों को सामान्य बनाने की उत्सुकता के बावजूद भी चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने विशेष सम्बन्धों को शिथिलता प्रदान करने के प्रति कोई विचार नहीं किया हैं।

बंगला देश एवं नेपाल के साथ सम्बन्ध
बंगला देश के अस्तित्व में आने के आरंभिक वर्षों (सन् 1971-74) में ढाका एवं बीजिंग के मध्य किसी प्रकार के राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हुए थे, जिसका प्रमुख कारण चीन द्वारा नव-स्थापित बंगला देश को मान्यता प्रदान करने से मना करना था। फिर भी, सन् 1975 में चीन एवं बंगला देश के मध्य राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद से उनके आपसी सम्बन्धों में प्रायः सभी क्षेत्रों में स्थायी रूप का सुधार देखने को मिला है। चीन द्वारा बंगला देश को आर्थिक सहायता एवं कुछ सैनिक सहायता भी उपलब्ध कराई गई है। दोनों देशों में, सर्वोच्च स्तर पर, आपस में अक्सर दौरों का आदान-प्रदान होता रहता है। फिर भी चीन एवं बंगला देश के सम्बन्ध सहृदयता के उस स्तर पर नहीं पहुँच सके हैं जिस पर चीन एवं पाकिस्तान के सम्बन्ध हैं और इसका कारण शायद भारत के ऊपर बंगला देश की निर्भरता को देखते हुए उसकी चीन के प्रति नीति की अनिश्चतता हो सकती है। बीजिंग के साथ व्यवहार करते समय बंगला देश इस विषय में पूर्ण सतर्कता बरतता है, कि कहीं वह भारत एवं सोवियत यूनियन को अप्रसन्न न कर दे। चूंकि अनेक अवसरों पर चीन ने, दक्षिण एशियाई क्षेत्र के देशों के साथ अपने सम्बन्धों को बढ़ावा देने की, अपनी इच्छा को दुहराया है इसलिये चीन एवं बंगला देश के सम्बन्धों में भी स्थायी रूप से प्रगति हुई है।

नेपाल के साथ चीन के सम्बन्धों की शुरूआत केवल 1960 के दशक के प्रारंम्भिक काल में हुई थी। दूसरे विश्व युद्ध के पूर्व विश्व के बाहरी देशों के साथ नेपाल के सम्बन्ध केवल ब्रिटिश अधीन भारत एवं तिब्बत तक सीमित थे। विश्व के बाहरी देशों के साथ नेपाल के सम्बन्ध स्थापित होने की शुरूआत केवल दूसरे विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के पश्चात हुई थी। सन् 1950 के दशक में नेपाल के सम्बन्ध प्रमुख रूप से भारत के साथ थे एवं चीन के साथ इसने अपने सम्बन्धों को निम्न स्तर पर बनाया हुआ था। सन् 1960 के दशक के प्रारंम्भिक काल में नेपाल ने चीन के साथ और अधिक निकटतम सम्बन्ध स्थापित किये थे परन्तु चीन के साथ नेपाल के सम्बन्धों का निर्णय करने में भारत की भूमिका एक विशिष्ट कारक के रूप में रही थी।
नेपाल को आर्थिक सहायता प्रदान करके एवं नेपाल द्वारा प्रेशित शान्ति क्षेत्र के प्रस्ताव को समर्थन प्रदान करके चीन ने नेपाल को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने के प्रयास किये थे। परन्तु भारत-चीन सम्बन्ध सामान्य हो जाने के बाद से चीन ने नेपाल से सम्बन्धित भारत की विशिष्ट स्थिति के प्रति समझौता कर लिया है। फिर भी, भारत एवं नेपाल के सम्बन्धों में किसी प्रकार का विघ्न पड़ने की स्थिति में नेपाल द्वारा चीन के और अधिक निकट आ जाने की सम्भावना है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे उपलब्ध स्थान का उपयोग अपना उत्तर देने हेतु कीजिये।
2) इस इकाई के अन्त में दिये उत्तर के साथ अपने उत्तर की पड़ताल कीजिये।
1) चीन एवं भारत के सम्बन्धों में कब एवं क्यों गिरावट आई थी ?
2) दक्षिण एशिया के अन्य पड़ौसी देशों से चीन ने मित्रतापूर्ण सम्बन्ध क्यों बनाये गा हैं ?

बोध प्रश्न 2
1) चीन एवं भारत के सम्बन्धों में अवनति, प्रमुख रूप से तिब्बत के प्रश्न एवं भारत-चीन की सीमा के मुद्दे को लेकर हुई थी।
2) अक्टूबर, सन् 1962 के पश्चात चीन-भारत सम्बन्धों में व्याप्त विरोधाभासों को दृष्टिगत रखते हुए, भारत के विरूद्ध राजनयिक लाभ एवं सद्भावना प्राप्त करने के लिये चीन ने नेपाल, पाकिस्तान एवं दक्षिण एशिया के अन्य देशों के साथ अपने सम्बन्धों में सुधार किया था।

आसियान (ए.एस.ई.ए.एन.) देशों के साथ सम्बन्ध
इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपाइन्स, सिंगापुर एवं थाईलेन्ड को मिलाकर 8 अगस्त, सन् 1967 को दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रो के संगठन (ए.एस.ई.ए.एन.) का गठन किया गया था। आसियान देशों के साथ चीन के सम्बन्धों में सन् 1960 के दशक में शत्रुतापूर्ण की जगह सन् 1970 के दशक के अन्तिम काल के बाद से पुनरू मित्रतापूर्ण होने का बदलाव आया है। सन् 1950 एवं 1960 के दशकों में, जिन वर्षों में शीत युद्ध अपने शिखर पर था, उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया में अमरीका के अधिक रूप से संबद्ध होने, दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन (एस.ई.ए.वी.ओ.) के गठित होने, एवं थाईलेन्ड और फिलिपाइन्स में अमरीकी सेना के आधार क्षेत्रों के स्थापित होने के कारण, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों का बहिष्कार करना चीन का मुख्य राजनीतिक का क्रम बन गया था। आसियान के गठन की चीन द्वारा कट आलोचना की गई थी। इसके अलावा आसियान का सूत्रपाल चीन की सांस्कृतिक क्राँन्ति एवं वियतनाम युद्ध में अमरीका की सक्रिय भागीदारी ये घटनायें सब एक साथ घटित हुई थी।

भौगोलिक रूप से थाईलेन्ड की चीन के साथ निकटता एवं थाईलेन्ड के अमरीका के साथ निकटतम सैनिक सम्बन्ध, चीन के लिये चिन्ता का एक कारण बना रहा है। तदनुसार, थाईलन्ड के प्रति चीन का रवैया उसके इस पूर्वआभास पर निर्भर करता रहा है कि उसकी सुरक्षा को थाईलन्ड से किस हद तक खतरा उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार और अधिक विस्तृत संदर्भ में, आसियान के प्रारंभ को चीन द्वारा एक ऐसे संगठन के रूप में माना गया था जो वियतनाम में ‘‘अपने युद्ध प्रयासो की पर्ति करने हेत अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा पल्लवित किया गया हो’’। सन् 1971 में चीन के संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो जाने एवं सन् 1972 में चीन एवं अमरीका के मध्य घनिष्टता हो जाने के बाद से आसियान के प्रति चीन के रवैये में भी परिवर्तन हुआ था। सन् 1974-75 के काल में मलेशिया, थाईलेन्ड एवं फिलिपाइन्स द्वारा चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किय गये थे। इन्डोनेशिया. एवं सिंगापुर के चीन के साथ राजनयिक सम्बन्धों की स्थापना 1980 के दशक के अन्तिम काल में हुई थी।

सन् 1970 के दशक के अन्तिम काल से 1980 के दशक तक, सोवियत-वियतनाम मैत्रीभाव के विरूद्ध आसियान देशों के साथ चीन एक मूक संधि बनाये रहा था, जिसे आसियान देशों के सदस्यों द्वारा एक मिश्रित उपहार स्वरूप माना गया था। फिर भी, चीन एवं वियतनाम के मध्य युद्ध स्थिति के प्रति आसियान देशों के विविध प्रकार के संदेहास्पद दृष्टिकोण थे। थाईलेन्ड के लिये, चीन द्वारा दोबारा अचानक आक्रमण किये जाने की आशंका के कारण, चीन एवं वियतनाम के मध्य युद्ध स्थिति लाभदायक थी क्योंकि इस स्थिति में चीन को वियतनाम की सेना के एक विशाल भाग का सामना, थाईलेन्ड की सीमाओं से काफी दूर पर करना पड़ेगा। इसके विपरीत, वियतनाम में चीन द्वारा हस्तक्षेप करने की, उसकी इच्छा को, इन्डोनेशिया एवं मलेशिया द्वारा शंका की दृष्टि से देखा गया था। इस आशंका का आधार इस क्षेत्र में साम्यवादी के पुनरुत्थान को चीन द्वारा समर्थन का परित्याग कर देने के प्रति चीन का अविरोध था क्योंकि साम्यवाद के चीन के साथ परंम्परागत सम्बन्ध बने हुए थे।

इसके अलावा इन्डोनेशिया एवं मलेशिया का यह भी अनुमान था कि खुमेर रूग को थाईलेन्ड द्वारा लगातार सहायता प्रदान किये जाने से थाईलेन्ड पर वियतनाम द्वारा फिर से अचानक आक्रमण किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप, इस क्षेत्र में चीन का प्रभाव सदैव बढ़ता जाएगा। तदनुसार, मार्च सन् 1980 में कुआन्टन में हुई एक बैठक में मलेशिया एवं इन्डोनेशिया ने इन सम्भावनाओं का निवाकरण करने हेतु एक योजना बनाई, जिसमें सोवियत यूनियन के साथ वियतनाम की निकटता को कम किये जाने के बदले में चीन से वियतनाम के ऊपर दबाव कम करने के लिये कहा गया। सन् 1980 के दशक के अन्तिम काल तक, चीन एवं आसियान देशों के मध्य सम्बन्धों की यथापूर्व स्थिति की पुष्टि करने हेतु कुआन्टन सिद्धान्त का अकेला युक्ति संगत विकल्प बना रहा था। फिर भी, चीन एवं अमरीका के मध्य बढ़ते हुए मैत्रीभाव के कारण अमरीका द्वारा कुआन्टन में किये गये प्रस्ताव को समर्थन प्रदान नहीं किया था। सोवियत यूनियन के खंडित हो जाने के बाद और उसके पूर्व कम्बोडिया से वियतनाम के सैनिक बलों को वापस बुला लिये जाने एवं उस देश में लोकतंत्र की पुनः स्थापना । हो जाने के बाद से, चीन एवं आसियान के सदस्य देशों के मध्य के सम्बन्धों के और अधिक सामान्य हो जाने की सम्भावनायें उज्ज्वल हो गई है।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: 1) नीचे दिए स्थान पर उत्तर लिखिए।
2) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) सन् 1960 के दशक में चीन एवं आसियान देशों के मध्य सम्बन्ध तनावपूर्ण क्यों हो गये थे?
2) कुआन्टन प्रस्ताव क्या है ?

बोध प्रश्न 3 के उत्तर 
1) दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों के ऊपर यू.एस. के असाधारण रूप के प्रभाव के कारण एवं आसियान के कुछ सदस्य देशों के यू.एस. के प्रति मैत्रीभाव के कारण चीन एवं आसियन देशों के मध्य सम्बन्धों का विच्छेद हुआ था।
2) मई, सन् 1980 में अन्टाव में मलेशिया एवं इन्डोनेशिया के मध्य हुई गोष्टी में कुआन्टन प्रस्ताव प्रेषित किया गया था, जिसके अन्र्तगत सोवियत यूनियन पर वियतनाम द्वारा अपनी निर्भरता कम करने के बदले में चीन से वियतनाम के ऊपर दबाव कम करने हेतु आवाहन किया गया था।

महाशक्तियों एवं पश्चिम योरोपीय देशों के साथ सम्बन्ध
दक्षिण एशिया के महत्वपूर्ण पड़ोसी देशों एवं आसियान देशों के साथ चीन के सम्बन्धों की परीक्षा कर लेने के पश्चात्, अब हम चीन एवं महाशक्तियों और पश्चिम योरोपीय देशों के मध्य संबधों का परीक्षण करेंगे।

सोवियत संघ के साथ सम्बन्ध
सन् 1949 में चीन के जनवादी गणतंत्र का उद्गमन एवं अन्तराष्ट्रीय स्थिति में कुछ उल्लेखनीय परिवर्तनों की घटनायें एक साथ घटित हुई थी। यू.एस. एवं सोवियत यूनियन के मध्य शीत युद्ध की प्रतिद्वन्दिता, इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय घटना थी, जिसने सारे भूमण्डल को प्रभावित किया था। अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तनों में, पहले एशिया में और तत्पश्चात अफ्रीका में कुछ स्वतंत्र देशों का उद्गमन होना था। आरनोल्ड टायनबी के अनुसार, सन् 1940 के दशक के अन्तिम काल की अन्तराष्ट्रीय व्यवस्था को निर्धारित करने हेतु प्रमुख कारक यह था कि दूसरे विश्व युद्ध के विजेता अपना युद्ध कालीन सहयोग बनाये रखने हेतु असफल रहे थे जिसके फलस्वरूप विश्व दो विरोधी शिविरों में, पुनरू विभाजित हो गया था।

विदेश नीति को सूत्रित किये जाने के काल में, इन दो शिविरों में से किसी एक का चयन करने हेतु, चीन के पास शायद ही कोई राजनयिक विकल्प था। यू.एस. द्वारा ताईवान को समर्थन प्रदान किये जाने की दलि से एवं साम्यवाद को विश्वव्यापी रूप प्रदान करने की नीति के पीछे लगे रहने की दृष्टि से चीन का जनवादी गणतंत्र वाशिन्गटन के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में असमर्थ रहा था। और इसलिये सहायता एवं समर्थन प्राप्त करने के लिये चीन, सोवियत यूनियन की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ा सकता था। तदनुसार, चीन ने सोवियत यूनियन के नेतृत्व के अधीन समाजवादी शिविर के साथ पक्ष ग्रहण करने का चयन किया था। इस काल में चीन की विदेश नीति का मूल परिसर, माओ की सर्व-विदित प्रतिज्ञा “एक पक्ष के प्रति झुकाव’’ पर आधारित थी, जो सोवियत नेतृत्व के अधीन समाजवादी शिविर में राजनयिक हितों की स्वाभाविक एकरूपता की द्योतक थी। जैसा कि माओ ने जुलाई, सन् 1949 में कहा था।

“साम्यवादी दल द्वारा पूर्व में किये गये अनुभवों ने हमें एक पक्ष के प्रति झुकाव रखने का शिक्षण प्रदान किया है, और हम इस बात से पूर्ण रूप से सहमत है कि विजय प्राप्त करने एवं उसको दृढ़ स्वरूप प्रदान करने के लिये हमको एक पक्ष के प्रति झुकाव रखना आवश्यक है…..। सब चीनियों के लिये, बिना किसी उपवाद के, या तो आवश्यक रूप से साम्राज्यवाद के प्रति झुकाव है या फिर आवश्यक रूप से सामाजवाद के पक्ष के प्रति झुकना है। चार दीवारी में बंद रहने से कोई लाभ नहीं होगा और न ही कोई तीसरा मार्ग है……। हम सोवियत यूनियन की अध्यक्षता वाले साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के साथ सम्बन्धित है, इसलिये किसी प्रकार की स्वाभाविक एवं मैत्रीपूर्ण सहायता के लिये हम केवल इस पक्ष की तरफ हाथ बढ़ा सकते हैं, न कि साम्राज्यवादी मोर्चे की तरफ’’।

15 फरवरी, सन् 1950 को मित्रता, संघत्व एवं भौतिक सहायता पर एक सन्धि पर हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात, चीन एवं सोवियत यूनियन के बीच और अधिक निकटतम सम्बन्ध हो गये थे। चीन को सोवियत यूनियन द्वारा दीर्घ-कालीन ऋण देने के एक अन्य समझौते पर भी हस्ताक्षर किये गये थे। चीन को किसी प्रकार के खतरे, विशेषरूप से जापान द्वारा, की स्थिति में सोवियत यूनियन द्वारा समर्थन प्रदान करने का वायदा किया गया था। चीन की पूर्वी रेलवे का नियंत्रण चीन के अधिकार क्षेत्र में दे दिया गया था। सन् 1950-59 के मध्य में, संगठन का आधुनिकीकरण करने, एवं चीनी सशस्त्र बलों को प्रशिक्षण प्रदान करने और सैनिक सामग्री प्रदान करने में सोवियत यूनियन द्वारा सहायता प्रदान की गई थी। सैनिक सहायता उपलब्ध कराने के अलावा, मास्को, द्वारा चीन को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता भी समुचित रूप में उपलब्ध कराई गई थी।

सन् 1959 के बाद से, चीन एवं सोवियत यूनियन के मध्य सम्बन्ध खराब होने शुरू हो गये और सन् 1962 में, पराकाष्टा पर पहुँच कर, करीब-करीब पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। दोनों देशों के मध्य सैद्धान्तिक रूप के मतभेदों के कारण सम्बन्ध बिगड़ने की शुरूआत हुई थी। सन् 1953 में स्टालिन के निधन के पश्चात् जिन नेताओं ने सत्ता सम्भाली थी, उन्होने युद्ध से सम्बन्धित, लेनिन के सिद्धान्तों में परिशोधन किया था। नये सोवियत दृष्टिकोण के निष्कर्ष रूप में यह मान्यता थी कि आणविक हथियारों की उपस्थिति से युद्ध के खतरे की सम्भावनाओं की स्वीकार्यता कम हो गई है। परन्तु चीन ने सोवियत यूनियन द्वारा दी गई, लेनिन के सिद्धान्तों की नई व्याख्या को स्वीकार करने से मना कर दिया और सोवियतों को “संशोधनवादी’’ कहने लगे। इसके विपरीत, “राष्ट्रीय मुक्ति के युद्धों में’’ चीन ने आणविक हथियारों समेत बल प्रयोग करने का समर्थन किया था।

सैद्धान्तिक समस्याओं, एवं प्रादेशिक अधिकार के झगड़ो के अलावा, सोवियत द्वारा चीन को आणविक जानकारी उपलब्ध कराने की अनिच्छा एवं चीन को तकनीकी सहायता प्रदान करने हेतु सन् 1959 में किये गये समझौते को सोवियत यूनियन द्वारा निरस्त किये जाने से दोनों देशों के मध्य की दरार और अधिक चैड़ी हो गई थी। चीन एवं सोवियत यूनियन, दोनों को अलग-अलग होना निश्चित प्रतीत होने लगा था। सन् 1959 में सोवियत नेता, निकिटा खुश्चेव द्वारा यू.एस. का दौरा करने के बाद के काल में मास्को द्वारा वाशिन्गटन से किये गये संधि प्रस्तावों एवं सन् 1960 में चीन-रूस सीमा पर होने वाले छिट पुट रूप की सैनिक मुठभेड़ों द्वारा दोनों देशों के मध्य की अनबन को और अधिक तीव्र रूप प्रदान कर दिया गया था, जिसको अक्टूबर, सन् 1962 में क्यूबन पक्षेपास्त्र संकट को देखते हुए सरकारी स्तर पर औपचारिक रूप प्रदान कर दिया गया था। उसके बाद से चीन द्वारा सोवियत यूनियन की कुछ आलोचना और प्रबल रूप से की जाने लगी थी।

चीन एवं सोवियत यूनियन के सम्बन्ध विच्छेद को औपचारिक रूप प्रदान किये जाने के पश्चात, यू. एस.-सोवियत मैत्रीभाव को चीन द्वारा चीन की घेराबन्दी एवं नेतृत्व हेतु संघर्ष, के एक साधन के रूप में देखा जाने लगा। वियतनाम युद्ध में तेजी आ जाने के बाद से सोवियत एवं अमरीकी सम्बन्धों के बारे में चीन की निर्मूल आशंकाओ में और अधिक वृद्धि हो गई। भारत, मंगोलिया एवं एशिया के अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को सधारने हेतु सोवियत यूनियन द्वारा किये गये प्रयासों को बीजिन्ग में, चीन की घेराबन्दी हेतु, दायें-बांये स्थित सैनिक टुकड़ियों के रूप में देखा गया था। सन्। 1960 के दशक के अन्तिम काल में उत्तर वियतनाम के प्रति सोवियत यूनियन की नीति को चीन द्वारा ‘‘बनावटी रूप का समर्थन एवं यथार्थ रूप में विश्वासघात’’ के रूप में देखा जाता था। इसने . सोवियत यूनियन पर यह भी आरोप लगाया कि उत्तर वियतनाम को नियंत्रित करने हेतु उसने “संयुक्त कार्यवाहीष् का उपयोग किया है एवं चीन और वियतनाम की सैनिक एकता की जड़ खोदने हेतु उसने, चीन एवं वियतनाम की जनता में मतभेदों को उत्पन्न किया है।

सन् 1970 के दशक के आरंम्भिक काल में चीन एवं यू.एस. के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद से, वियतनाम युद्ध के बारे में चीन के रवैये में भी परिवर्तन हुआ और सोवियत यूनियन पर उसने इस आरोप को भी लगाना समाप्त कर दिया कि इस युद्ध में उसने यू.एस. का साथ दिया था। यद्यपि चीन द्वारा यू.एस. की आलोचना में काफी कमी आ गई थी परन्तु उसने सोवियत यूनियन पर ‘‘समाजवादी नेतृत्व हेतु संघर्ष‘‘ करने का आरोप लगाया था। इसलिये, दिसम्बर, सन् 1979 में अफगानिस्तान पर रूस द्वारा किये गये आक्रमण को बीजिंग द्वारा, चीन के लिये खतरा एवं अर्न्तराष्ट्रीय सुरक्षा एवं शान्ति के लिये खतरे के रूप में देखा गया था और मंगोलिया में सोवियत सेना की उपस्थिति की भी व्याख्या, चीन के लिये खतरे, के रूप में की गई थी।

सन् 1980 के दशक में, विशेष तौर से दोनों देशों के नेतृत्व में परिवर्तन हो जाने के संदर्भ में, चीन एवं सोवियत सम्बन्धों में कुछ सुस्पष्ट परिवर्तन हुए थे। सम्बन्धों को सामान्य बनाने हेतु मध्यम स्तर की बातचीतो की शुरूआत अक्टूबर, सन् 1982 में हुई थी और उसके पश्चात से छः माह के अन्तराल पर निरन्तर रूप से होती रही थी। सन् 1984-85 के दौरान दोनों देशों द्वारा अनेक आर्थिक समझौतों पर हस्तक्षर किये गये थे। मार्च, सन् 1985 में सोवियत साम्यवादी दल के महासचिव मिखाईल गौरबचेव द्वारा चीन के साथ सम्बन्धों में गम्भीर सुधार करने हेतु आव्हान किया गया था। सन् 1987 में सीमा के प्रश्न पर दोनों देशों के मध्य आपसी बातचीत के दो दौर कराये गये थे, जिनके फलस्वरूप दोनों के आपसी सम्बन्धों में कुछ सुधार हो गया था।

संयुक्त राज्य अमरीका के साथ सम्बन्ध
माओ के “एक पक्ष के प्रति झुकाव’’ के सिद्धान्त के अनुसार सोवियत यूनियन के नेतृत्व में समाजवादी शिविर के साथ संधि करने की नीति एवं टूमेन सिद्धान्त के अर्न्तगत साम्यवाद के विश्वव्यापी प्रभाव को अंतर्वेशन करने की यू.एस. की नीति को ध्यान में रखते हुए, चीन के जनवादी गणतंत्र एवं यू.एस. के मध्य किसी प्रकार के राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हुए थे। दोनों देशों के मध्य एक दूसरा उत्तेजक विषय, यू.एस. द्वारा चियाँग काई शेक के ताईवान को समर्थन प्रदान करने को लेकर था। सन् 1949 में, जब माओ के नेतृत्व में साम्यवादी सैनिक बलों द्वारा चियाँग काई शेक के कुआमिन्टौंना सैनिक बलों के ऊपर विजय प्राप्त की गई थी, तब चियाँग काई शेक ने भाग कर ताईवान में शरण ली थी। इसलिए दो चीन उभर कर आये थेकृमुख्य भूमि वाला चीन या चीन का जनवादी गणतंत्र एवं ताईवान या चीनी गणतंत्र राज्य। बीजिंग में साम्यवादी नेतृत्व द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि ताईवान कोई स्वतंत्र राज्य प्रदेश नहीं है बल्कि चीन की मुख्य भूमि का एक भाग है। बीजिंग ने दो चीन के मत का सफाया कर दिया और स्वयं को असली चीन मानना शुरू कर दिया। यू.एस. द्वारा ताईवान को केवल मान्यता ही प्रदान नहीं की गई थी बल्कि उसके साथ राजनीतिक, आर्थिक एवं सुरक्षा सम्बन्धी सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये गये थे। वाशिन्गटन द्वारा बीजिंग के साम्यवादी शासन को मान्यता प्रदान नहीं की गई थी और संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा समिति में अपनी विशेषाधिकार (वीटो) के उपयोग द्वारा चीन के संयुक्त राष्ट्र में सम्मिलित किये जाने का विरोध तक किया था। वाशिन्गटन में यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि प्रशान्त महासागर में यू.एस. की सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने में ताईवान एक आवश्यक कड़ी के रूप में है। सन् 1962 में यू.एस. एवं चीन के मध्य मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जाने के तुरन्त बाद से एवं अक्टूबर, सन् 1971 में चीन के जनवादी गणतंत्र के संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो जाने के बाद बीजिंग एवं वाशिन्गटन के मध्य सम्बन्धों में काफी सुधार हुआ है। परन्तु ताईवान का मुद्दा अभी भी दोनों देशों के लिये उत्तेजना का विषय बना हुआ है।

जून, सन् 1950 में उत्तरी कोरिया एवं दक्षिण कोरिया के मध्य हुए सशस्त्र संघर्षों ने, चीन के प्रति, अमरीका के रवैये को और अधिक कड़ा रूख प्रदान कर दिया था। उत्तरी कोरिया को सोवियत यूनियन एवं चीन का समर्थन प्राप्त था, जबकि यू.एस.ए., इस युद्ध में, दक्षिण कोरिया की सहायता हेतु आया था। तीन वर्षों तक चले कोरियन युद्ध में करीब 50,000 अमरीकन हताहत हुए थे, जिसके परिणामस्वरूप चीन के सम्बन्ध में वाशिन्गटन को अपनी निष्क्रिय तटस्थता की स्थिति में परिवर्तन करके चीन को दुर्बल करने एवं अलग करने की सक्रिय नीति को अपनाना पड़ा था। कोरियन युद्ध में चीन के द्वारा हस्तक्षेप किये जाने के फलस्वरूप साम्यवादी विश्व में उसकी छवि काफी बढ़ गई थी एवं उसको एक बड़ी शक्ति का स्तर भी प्राप्त हो गया था। हालांकि, संयुक्त राष्ट्रो में अमरीका द्वारा चीन के ऊपर ‘‘आक्रमणकारी’’ के रूप में छाप लगाने में सफलता प्राप्त हो गई थी, परन्तु एशिया के अनेक देशों द्वारा चीन के प्रति सहानुभूति एवं प्रशंसनीय भाव व्यक्त किये गये थे। फिलिपाइन्स, थाईलेन्ड एवं पाकिस्तान को चीन के विरूद्ध एक संघ के रूप में दक्षिण एशिया संन्धि संगठन (एस.ई. ए.टी.ओ.), में शामिल होने के लिये राजी करने में यू.एस. सफल हो गया था, जिसको औपचारिक रूप से 8 सितम्बर, सन् 1954 को आरंम्भ किया गया था। फिलिपाइन्स एवं थाईलेन्ड द्वारा पहले से ही यू.एस, को सैनिक आधार क्षेत्र उपलब्ध करवा रखे थे, इसलिये उनको तो एस.ई.ए.टी.ओ. में सम्मिलित होना ही था परन्तु पाकिस्तान इसमें, चीत से किसी खतरे के कारण नहीं बल्कि भारत के साथ अपनी क्षेत्रीय समस्याओं के कारण, सम्मिलित हुआ था।

सन् 1960 के दशक में चीन अधिकांश रूप से सोवियत यूनियन की समस्या ले कर उलझा रहा था, विशेष तौर से चीन-सोवियत सम्बन्ध विच्छेद हो जाने के बाद की परिस्थितियों को लेकर एवं सोवियत-यू.एस. के बढ़ते हुए मैत्रीभाव को लेकर, जिसे चीन की घेराबन्दी करने हेतु, महाशक्तियों द्वारा की जाने वाली दुस्संधि के रूप में देखा जा रहा था। 1960 के दशक के दूसरे भाग में, चीन अपनी आन्तरिक राजनीतिक समस्याओं में उलझ गया था, जो सन् 1966 में चीन में हुई सांस्कृतिक क्रॉन्ति के कारण उत्पन्न हो गई थी और इस प्रकार चीन, विश्व के मामलों में, किसी प्रकार की भूमिका निभाने से स्वेच्छापूर्वक अलग हो गया था। फिर भी 1960 के दशक के अन्तिम काल में वाशिन्गटन द्वारा, चीन को मित्रतापूर्ण संन्धि प्रस्ताव भेजे जाने लगे थे, जिनको शुरू में चीन द्वारा शंका की दृष्टि से देखा गया था। चीन एवं सोवियत संघ के औपचारिक रूप से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से चीन को यह महसूस होने लगा था कि ऐतिहासिक भू-राजनीतिक एवं अन्य दृष्टि-कोणों से चीन को यू.एस. की अपेक्षा सोवियत यूनियन का खतरा अधिक सन्निकट है। इसके अलावा, बीजिंग में यह भी महसूस किया जाने लगा था कि यू.एस. के साथ किसी रूप में समझौता कर लेने से ताईवान की समस्या हल की जा सकती है।

पाकिस्तान की सहायता से, यू.एस. एवं चीन के मध्य आपसी सम्बन्धों को सामान्य बनाने हेतु बातचीत की शुरूआत हुई थी। अप्रैल, सन् 1971 में चीन के टेबिल टेनिस के खिलाड़ियों द्वार यू.एस. के दौरे ने, जिसे बाद में “पिन्गपोन्ग’’ राजनयकता का नाम दिया गया था, इस प्रक्रिया हेतु मार्ग प्रशस्त किया। था। 15 जुलाई, सन् 1971 को वाशिन्गटन में एक घोषणा की गई थी कि सन् 1972 की बसंत में । यू.एस. राष्ट्रपति, रिचार्ड निक्सन चीन के दौरे पर जायेगे। फरवरी सन् 1972 में राष्ट्रपति निक्सन के चीन के दौरे ने यू.एस. एवं चीन के मध्य सामान्य मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने हेतु मार्ग प्रशस्त कर दिया था। निक्सन द्वारा चीन का दौरा किये जाने के पश्चात जारी की गई संयुक्त सरकारी विज्ञप्ति, जिसे शंघाई विज्ञप्ति के नाम से भी जाना जाता हैं, मे यू.एस. की इस अभिरूचि की पुष्टि की गई थी कि ताईवान के मसले का शान्तिपूर्ण समाधान स्वयं चीन द्वारा किया जायेगा एवं वहाँ से यू.एस. सैनिक बलो को शीघ्र उत्तरोतर रूप में वापस बुला लिया जायेगा। चीन के लिये यह एक बहुत बड़ी राजनयिक उपलब्धि थी ।

1 जनवरी, 1979 को चीन एवं अमरीका के बीच के सम्बन्ध औपचारिक रूप से सामान्य हो गये थे, जब दोनों देशों के मध्य राजदुत्तों का आदान प्रदान हुआ था और उसके बाद से उनके आपसी सम्बन्धों में कोई गिरावट नहीं आई हैं।

सामान्य हो जाने के बाद से यू.एस. एवं चीन के सम्बन्धों के दो विशेष पहलू रहे हैं: सोवियत विरोधी संयुक्त मोर्चा (1972-81) एवं स्वतंत्र विदेश नीति (1982-89)। 1970 के दशक के आरंभिक काल में, अपनी विदेश नीति की घोषणाओं में चीन अभी भी “यू.एस. द्वारा नेतृत्व के संघर्ष’’ का वर्णन करता था। परन्तु, सन् 1976 में माओ एवं जाऊ एन लाई के निधन के पश्चात्, अमरीकी विदेश नीति पर चीन द्वारा आक्रमण किया जाना समाप्त हो गया था क्योंकि चीन विश्व की किसी सोवियत विरोधी सरकार एवं आन्दोलन के साथ सन्धि करने का इच्छुक था।

माओ के शासन काल के बाद एवं ‘‘चार के गिरोह’’ का विलोपन हो जाने के पश्चात, सन 1978 में चीन के साम्यवादी दल द्वारा “चार आधुनिकीकरण’’ के कार्यक्रम को अपनाया गया था। विदेश नीति के इन “चार आधुनिकीकरण’’ के कार्यक्रम को अपनाया गया था। विदेश नीति के इस “चार आधुनिकीकरण’’ के स्तरो का तात्पर्य निम्नलिखित था:

अ) तीव्रता से आर्थिक निर्माण एवं चीन का आधुनिकीकरण,
ब) विकास एवं आधुनिकीकरण के प्रकार्यो को अनुशलिन करने हेतु शान्तिपूर्ण विदेशी पर्यावरणय
स) सुरक्षा समस्याओं में कमी लाना-सर्वप्रथम पश्चिमी देशों के साथ, उसके बाद पड़ौसी देशों के साथ एवं शेष में सोवियत यूनियन और समाजवादी गुट के साथय एवं
द) ताईवान, हांगकांग एवं मकाओ का चीन के साथ एक सूत्रीकरण एवं बीजिंग को राजधानी के रूप में मानते हुए चीन का दृढतापूर्वक एक स्वरूप में स्थापति करना।

इस उद्देश्यों को लक्ष्य के रूप से उपलब्ध कराने हेतु यह अति आवश्यक था कि यू.एस. के नेतृत्व वाले पूँजीवाद विश्व के साथ चीन के निकटतम सम्बन्ध हों। आधुनिकीकरण हेतु चीन के अभियान, उसके मास्को के साथ सम्बन्ध विच्छेद एवं वियतनाम के साथ उसके स्पष्ट रूपी संघर्ष ने यू.एस. एवं उसके मित्र राष्ट्रों के साथ मिल कर “संयुक्त मोर्चाश्श् गठित करने हेतु और अधिक प्रेरणा प्रदान की थी। चीन ने यू.एस. एवं उत्तरी कोरिया के मध्य स्पष्ट वार्ता हेतु सुविधा प्रदान की थी। संयुक्त राष्ट्र में, इसने नाम्बिया से लेकर दो खाड़ी युद्धोकृपहला ईराक एवं ईरान के मध्य एवं दूसरा ईराक एवं यू.एस. के नेतृत्व में मित्र राष्ट्रों के सैनिक बलों के साथ के मुद्दो पर यू.एस. को सहयोग प्रदान किया था। इसके बदले में, यू.एस. ने चीन द्वारा हाल में अपनाये गये विकासात्मक लक्ष्यों का समर्थन किया हैं, उसको तकनीक एवं पूँजी की कमी महसूस नहीं होने दी हैं एवं व्यापार और ताईवान की समस्याओं पर काबू पाने में चीन को सहायता प्रदान की हैं।

सन् 1980 में यू.एस. के सुरक्षा सचिव, हेरोल्ड ब्राउन द्वारा बीजिंग का दौरा किये जाने के पश्चात चीन एवं यू.एस. के मध्य सुरक्षा सहयोग का विकास होना शुरू हुआ था। इस सहयोग का धीरे-धीरे तीन दिशाओं में विकास हुआ: उच्च स्तर के दौरो का आदान-प्रदान, सैनिक स्तरो पर कार्यमूलक आदान-प्रदान एवं तकनीकों का आदान-प्रदान। सन् 1985 में अप्रैल, सन् 1989 के बीच दीर्घकालीन कार्यक्रमों के अर्न्तगत यू.एस द्वारा चीन को केवल सैनिक हथियारों की बिक्री बढ कर 800 मिलियन यू.एस. डालर तक पहुँच गई थी।

चीन एवं यू.एस. के मध्य आपसी व्यापार के क्षेत्र में कई गुना वृद्धि हुई हैं। सन् 1972 में मैत्री सम्बन्ध स्थापित होते समय दोनो पक्षों द्वारा किये जाने वाले व्यापार का मूल्य केवल 96 मिलियन यू. – एस. डालर था, जो सन् 1979 में बढ़कर 2.3 बिलियन यू.एस. डालर तक पहुँच गई थी। सन् 1989 में चीन एवं अमरीका के बीच व्यापार की मूल्य संख्या बढ़कर 17.8 बिलियन यू.एस. डॉलर तक पहुंच गई थी और इस प्रकार, पिछले दो दशकों में, इसमें 700 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। चीन का स्थान उभर कर यू.एस. के दसवें सबसे बड़े व्यापार सहभागी के रूप में हो गया है और बदले में हांगकांग के बाद, यू.एस. का स्थान चीन के सबसे बड़े व्यापारी सहभागी एवं पूंजी विदेशी पूंजी। निवेषक के रूप में दूसरा हो गया है। सन् 1988 में चीन में अमरीकी पूंजी निवेश 400 परियोजनाओं से बढ़कर 630 परियोजनाओं तक पहुंच गया था, जिनमें 3500 यू.एस. डॉलर निवेष किये जाने की वचन-वद्धता थी। चीन को यू.एस. द्वारा सबसे अधिक कृपा पात्र राष्ट्र (एम.एफ.एन.) होने की प्रतिष्ठा भी प्राप्त हौ। जून, सन् 1989 में हुई घटनाओं के बाद के काल में जब चीनी अधिकारियों द्वारा बीजिंग के तियांनमान स्क्वायर में विद्यार्थियों के एक प्रदर्शन को कुचल दिया था एवं दमनकारी नीतियों को अपनाया था, तब चीन एवं यू.एस. के निकटतम एवं सुगम सम्बन्धों में सूक्ष्म रूप का व्यवधान पड़ने की परिकल्पना की गई थी।

(जी-7) सात के गुट के अन्य सदस्य देशों के साथ जिनमें यू.एस. फ्रान्स, पश्चिम जर्मनी, ब्रिटेन, जापान, कनाडा एवं इटली शामिल थे। यू.एस. द्वारा, इस दमन को लेकर, चीन की भर्त्सना की गई थी एवं बीजिंग के साथ द्विपक्षीय सहायता, व्यापार एवं सुरक्षा सहयोग को बंद कर दिया गया था। फिर भी, अपने आन्तरिक मामलों में चीन द्वारा समाधान किये जाने की नीति अपनाये जाने के तुरन्त बाद यू.एस. द्वारा समाधान किये जाने की नीति अपनाये जाने के तुरन्त बाद यू.एस. द्वारा कुछ प्रतिबंधों को नवम्बर, 1990 तक हटा लिया गया था। चीन में मानव अधिकारों की स्थिति, एक प्रमुख कारक हैं। चीन के प्रति यू.एस. की नीतियों में इस समय, यह सबसे अधिक अलंकृत रूप का विकास प्रतीत होता है।

 पश्चिम योरोपीय देशों के साथ सम्बन्ध
द्विपक्षीय आधार पर एवं योरोपीय समुदाय के विस्तृत ढाँचे के अर्न्तगत, अभी हाल के वर्षों में चीन एवं पश्चिमी योरोप के राष्ट्रो के बीच सम्बन्धों में समुचित विकास हुआ है। शीत युद्ध के काल में, चीन एवं पश्चिमी योरोप के देशों के साथ करीब करीब नगन्य रूप के आपसी सम्बन्धों की विशेषता प्रायः एक-दूसरे को आशंका की दृष्टि से देखने की थी। अपने विदेशी सम्बन्धों का चीन द्वारा व्यवहारिक रूप से स्थिति निर्धारण करने के प्रयासों में चीन की विदेश नीति में पश्चिमी योरोपको ले कर समय-समय पर परिवर्तन किये जाते थे। सन् 1950 में, जब चीन ‘‘दो शिविरो की धारणा‘‘ से चिपका हुआ था, तब पश्चिम योरोप को यू.एस. द्वारा नियंत्रित “साम्राज्यवादी शिविर’’ का एक अधीनस्थ भाग माना जाता था। इसलिये चीन द्वारा, पश्चिमी योरोप के प्रति किसी स्वतंत्र विदेश नीति बनाने के प्रयासों, को अस्वीकार कर दिया गया था।

सन् 1960 में चीन एवं सोवियत सम्बन्धों में स्पष्ट रूप से विच्छेद हो जाने के पश्चात, सन् 1964 में चीन द्वारा, अर्न्तराष्ट्रीय व्यवस्था की एक नई व्याख्या “तीन मंडलोंश् के रूप में की गई थी जिसमें पश्चिमी योरोप को “दूसरे मध्यवर्ती मंडल’’ के एक भाग के रूप में चित्रित किया गया था। सन् 1974 में, जब अपनी इस धारणा में सुधार कर के चीन ने यह अभिधारणा प्रस्तुत की, कि अन्तराष्ट्रीय व्यवस्था अब “तीन विश्वोंश् की बनी हुई है, तो जापान के साथ पश्चिमी योरोप को दूसरे विश्व में स्थित किया गया था, जिनकी कथित रूप से विश्व के मामलों में एक स्वतंत्र रूप की भूमिका थी।

सन् 1972 में चीन एवं अमरीका के मध्य सामान्तया आ जाने के बाद, चीन ने पश्चिमी योरोप के साथ सम्पर्क स्थापित करना शुरू कर दिया था। सन् 1970 के दशक में समस्त योरोपीय देशों में चीन के दूतावासों को विस्तृत कर के उनका कोटि-उन्नियन किया गया था एवं सन् 1975 में बेल्जियम स्थित चीनी राजदूत बु्रसेल्स में योरोपीय समुदाय के सामने चीन के हितों को प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्रदान किया गया था।

चीन के सैनिक बलों का आधुनिकीकरण करने हेतु आवश्यक सुरक्षा सम्बन्धी आपूर्ति करने के लिये, पश्चिम योरोपीय देश एक शक्तिशाली साधन स्वरूप हैं। यू.एस. या अब वर्तमान रूसी संघ की तुलना में चीन सैनिक रूप से दुर्बल पड़ता है। इस मूल चिन्ता से प्रेरित होकर, चीन के राजनीतिक एवं सैनिक नेतृत्व ने एक साथ दो मुखी नीति को अपनाया है रू सत्ता के संतुलन में बदलाव लाने हेतु कौशल पूर्ण हथकन्डों को उपयोग करना एवं हथियारों के उद्योग और सैनिक बलों का स्थायी रूप से विकास करना।

चीन की सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, योरोपीय समुदाय के प्रमुख देश अपने आधुनिक हथियार उद्योग के कारण चीन के लिये बहुत उपयुक्त हैं। हालांकि चीन एवं यू.एस के बीच सुरक्षा सहयोग के सम्बन्ध हैं, परन्तु सुरक्षा सम्बन्धी आपूर्ति के क्षेत्र में चीन एवं योरोपीय देशों के बीच विस्तृत सहयोग स्थापित हो जाने से यू.एस. के ऊपर चीन की निर्भरता बहुत कम हो जायगी।

1970 के दशक के अन्तिम काल में, योरोपीय समुदाय के देश बीजिंग की सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं के अनुरूप तकनीकि जानकारी एवं हथियारों, दोनो की आपूर्ति कर सकते थे। परन्तु चीन को हथियारों की बिक्री का प्रश्न सी.ओ.सी.ओ.एम., के अधिकर क्षेत्र के अन्तर्गत आता है, जो एन.ए.टी.ओ. के अन्तर्गत बनी एक संयोजक समिति हैं और जिसका उत्तरदायित्व, साम्यवादी देशों को ए.टी.ओ. का एक प्रभावशाली सदस्य है, बीजिन्ग को हथियारों की बिक्री को स्वीकृति प्रदान करने का विरोध किया गया था। चूंकि योरोपीय समुदाय के सदस्य भी एन.ए.टी.ओ. के सदस्य थे, इसलिये वे वाशिन्गटन की अवज्ञा करने हेतु अनिच्छुक थे।

चीन एवं यू.एस. के मध्य सम्बन्धों के सामान्यीकरण हो जाने के कारण एवं अफगानिस्तान के ऊपर सोवियत आक्रमण के तुरन्त बाद यू.एस.-सोवियत सम्बन्धों में तेजी से गिरावट को दृष्टिगत रहते हुए यू.एस. के स्वैये में परिवर्तन हुआ था, जिसके फलस्वरूप यू.एस. के साथ-साथ योरोपीय देशों द्वारा चीन को सैनिक सम्बन्धी सामानों एवं तकनीको की बिक्री का मार्ग खुल गया। इस समय चीन को हथियारों के निर्यात करने वाले प्रमुख देश यू.के., फ्रान्स, एवं पश्चिमी जर्मनी हैं।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: 1) नीचे दिए स्थान पर उत्तर लिखिए।
2) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) चीन-सोवियत सम्बन्धों में दरार पड़ने के प्रमुख कारणों का स्पष्टीकरण कीजिये।
2) संयुक्त राष्ट्र में चीन द्वारा प्रवेश किये जाने के प्रति यू.एस. का विरोध क्यों था ?

बोध प्रश्न 4 के उत्तर 
1) अ) सैद्धान्तिक रूप के मतभेद ।
ब) दोनों देशों के मध्य सीमा विवाद।
2) अपने दो चीन के सिद्धान्त एवं ताईवान का समर्थन करने के कारण यू.एस. द्वारा चीन के यू. एन. में सम्मिलित किये जाने का विरोध किया गया था।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भूमिका
अक्टूबर, सन् 1949 में, बीजिंग में साम्यवादी दल के शासन की स्थापना होने के समय तक संयुक्त राष्ट्र को स्थापित हुए चार वर्ष हो चुके थे। चीन के नेता माओ अगस्त, सन् 1949 में दिये एक वक्तव्य में, सन् 1945 में सैन फ्रॉन्सिसकों में आयोजित ‘‘अर्न्तराष्ट्रीय संगठनों पर संयुक्त राष्ट्र के एक सम्मेलन‘‘, का स्वागत किया था। अपनी “दो चीन’’ की नीति, का अनुसरण करते हुए संयुक्त राष्ट्र में चीन को सदस्यता प्रदान करने का यू.एस. द्वारा प्रचंड रूप से विरोध किया गया था क्योंकि इस नीति के अन्तर्गत यह ताईवान का समर्थन करता था एवं चीन की मुक्ति हेतु कुओमिन्टॉन्ग को समर्थन प्रदान करने के कारण बीजिंग का विरोध करता था। चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता अक्टूबर, सन् 1971 में प्राप्त हो सकी थी।

अन्तराष्ट्रीय विवादों को हल करने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को लेकर एवं यू.एन. के शान्ति बनाये रखने हेतु कार्यवाहियों को लेकर चीन की अनुभूतियों में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। 1940 के दशक के अन्तिम काल से 1950 के दशक के आरंम्भिक काल तक, अर्न्तराष्ट्रीय विवादों का हल ढूंढ निकालने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका की चीन द्वारा सराहना की जाती रही है। 1950 के दशक के अन्तिम काल से 1980 के दशक के आरंम्भिक काल तक संयुक्त राष्ट्र की भूमिका की चीन आलोचना करता रहा है।

परन्तु सन् 1985 के अन्तिम काल में एक नये चीनी रवैये का उद्गमन हुआ था, जिसके प्रभाव स्वरूप अर्न्तराष्ट्रीय विवादों का निबटारा करने हेतु संयुक्त राष्ट्र को एक सक्रिय रूप की भूमिका निभाने के लिये चीन द्वारा प्रोत्साहित ही नहीं किया था बल्कि यह निर्दिष्ट भी किया था कि इन प्रयासों में चीन भी अपना यथोचित योगदान कर सकता है जो उसे करना चाहिये।

1940 के दशक के अन्तिम काल से 1950 के दशक के आरंम्भिक काल तक, कोरियन युद्ध में संयुक्त राष्ट्र द्वारा हस्तक्षेप किये जाने के बावजूद भी यू.एन. के प्रति चीन द्वारा साकारात्मक रवैया बनाये रखने का कारण यह था कि चीन को यह आशा थी कि उसका मित्र राष्ट्र, सोवियत यूनियन इस विश्व संस्था पर यू.एस. के नेतृत्व वाली पश्चिमी ताकतों का नियंत्रण स्वीकार नहीं करेगा। परन्तु सन् 1950 के दशक के अन्तिम काल में चीन-सोवियत सम्बन्धों में अवनति होना, यू.एन. के प्रति चीन की अनुभूति में बदलाव लाने में, सहायक सिद्ध हुआ था, जो बाद में आलोचनात्मक रूप की हो गई थी। चीन की अनुभूति थी कि संयुक्त राष्ट्र सामान्य तौर से एवं सुरक्षा परिषद विशेष रूप से, साम्राज्यवाद एवं/या सामाजिक साम्राज्यवादियों के उपकरण स्वरूप हैं, जिनका उपयोग उनके द्वारा अपने हितों को बढाने एवं तीसरे विश्व के देशों और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों के खर्चे पर सामरिक, राजनीतिक, आर्थिक और यहाँ तक कि प्रादेशिक रूप के लाभ भोगने हेतु किया जाता है।

सन् 1960 के दशक में यू.एन. के प्रति चीन के रवैये का नियंत्रण, अर्न्तराष्ट्रीय व्यवस्था एवं दो महाशक्तियों के साथ उसके सम्बन्धों, की धारणा द्वारा होता था। इस विश्व संस्था को वह नव-उपनिवेशवाद एवं बड़ी सत्ताओं की राजनीति को आगे बढ़ाने हेतु, अमरीकी साम्राज्यवादी एवं सोवियत संशोधनवादियों का एक उपकरण स्वरूप मानता था। अक्टूबर, सन् 1971 में संयुक्त राष्ट्र में सम्मिलित हो जाने एवं सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन जाने के पश्चात यू.एन. के प्रति चीन के रवैये में आंशिक रूप का परिवर्तन हुआ था। यू.एन. की सदस्यता के अपने पहले दशक में 1971-81, चीन की क्रियात्मकता एवं प्रक्रिया एक पूर्णरूप के उत्तरदायी सदस्य के बजाय एक बाहरी परिवेक्षक के रूप की रही थी और यह इस विश्व संस्थान की कटु आलोचना करने का अवसर नहीं चूकता था।

माओ के निधन के पश्चात एवं “चार के गिरोह’’ के पतन के पश्चात और चीन में डेन्गु जियाओपोन्ग के अधिक खुले विचारों वाले एवं अधिक व्यवहारिक नेतृत्व के उद्गमन के पश्चात यह सम्भव हो सका था कि चीन ने यू.एन. बनाम स्वयं की भूमिका पर पुनर्विचार करना शुरू किया था। सन 1980 में चीन ने एक “स्वतंत्र विदेश नीति’’ को अपनाया था, जिसमें अमरीका के साथ अधिक निकटता का बचाव करने पर जोर दिया गया था, मास्कों के साथ समझौता करने की चेष्ठा का सुझाव दिया गया था एवं तीसरे विश्व के देशों के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करने के लिये कहा गया था। ऐसी नीति को कार्यान्वित रूप प्रदान करने के अपरिहार्य फलस्वरूप, उसके विदेशी सम्बन्धों में परिवर्तन होना एवं चीन के हितों को बढ़ावा देने हेतु उसके द्वारा विश्व के साथ और अधिक रूप से संबद्ध होना था। इसके लिये संयुक्त राष्ट्र में चीन की और अधिक सक्रिय रूप की भूमिका का होना भी आवश्यक था।

सन् 1985 से संयुक्त राष्ट्र के प्रति चीन का रवैया और अधिक सहयोगी रूप का हो गया है। चीनियों द्वारा संयुक्त राष्ट्र की भरपूर प्रशंसा की गई है। संयुक्त राष्ट्र के चालीसवें स्थापना दिवस के समारोह के अवसर पर भाषण देते हुए चीन के प्रधानमंत्री जाऊ जियाँन्ग ने कहा था ‘‘विश्व के इतिहास में किसी भी अन्तराष्ट्रीय राजनीतिक संगठन को संयुक्त राष्ट्र के समान चिरस्थायी रूप की सजीवता प्राप्त करना प्रायः दुर्लभ समान है, जिसकी विश्व व्यापकता एवं महत्व में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है’’ और उसके बाद से चीन, संयुक्त राष्ट्रो में और अधिक रचनात्मक एवं सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: 1) नीचे दिए स्थान पर उत्तर लिखिए।
2) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) संयुक्त राष्ट्र में चीन द्वारा, कब से और क्यों, सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया गया था

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 5
1) अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का परिचालन करने हेतु एवं अधिक से अधिक देशों के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करने हेतु सन् 1985 के बाद से चीन द्वारा यू.एन. के प्रचलनों में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया था।

सारांश
इस इकाई में हमने देखा है कि अक्टूबर, सन् 1949 में साम्यवादी शासन के आरंम्भ होने के बाद से, चीन की विदेश नीति भूमंडलीय एवं क्षेत्रीय विकासों के प्रति इसकी प्रतिक्रिया एवं चीन के राष्ट्रीय हितों का मिश्रण स्वरूप रही है। सन् 1950 में जब दो महाशक्तियों-ए.एस. एवं सोवियत यूनियन के बीच शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर था, तब सैद्धान्तिक रूप की विभिन्नताओं एवं यू.एस. द्वारा दो चीन की अभिधारणा पर अड़े रहने को भी ध्यान में रखते हुए, चीन एवं सोवियत यूनियन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे एवं यू.एस. के प्रति चीन का विरोधाभास था। संयुक्त राष्ट्र को चीन अमरीकी सम्राज्यवाद का एक उपकरण स्वरूप मानता था और वाशिन्गटन के साथ निकटतम सम्बन्ध रखने वाले दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित अपने पड़ोसी देशों को शंका की दृष्टि से देखता था।

960 के दशक में, सन् 1959-60 में चीन-सोवियत सम्बन्धों में दरार पड़ जाने के तुरन्त बाद चीन की विदेश नीति में प्रतिघातक रूप के परिवर्तन किये गये और इसके बाद वह सामाजिक साम्राज्यवाद से खतरा भी महसूस करने लगा। दक्षिण एशियाई देशों में, जब कि पाकिस्तान एवं नेपाल के साथ चीन के सम्बन्धों में सुधार हुआ था, वहीं अक्टूबर, 1962 में भारत-चीन युद्ध के तुरन्त बाद चीन एवं भारत के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये थे। 1960 के दशक के अन्तिम वर्षों के, काल में चीन सांस्कृतिक क्रॉन्ति में उलझा रहा था, जिसके फलस्वरूप चीन बाहरी विश्व से अलग थलग पड़ गया था।

1970 के दशक में यू.एस. के साथ चीन के सम्बन्धों में सुधार हुआ था और अक्टूबर, सन् 1971 में चीन संयुक्त राष्ट्र में सम्मिलित हो गया था। फिर भी, चीन-सोवियत सम्बन्ध तनावपूर्ण बने रहे थे। माओ एवं जाऊ एन लाई के निधन और चार के गिरोह के समाप्त हो जाने के पश्चात डेन्ग जियाओपिन्ग के नेतृत्व का उद्गमन हुआ था। 1970 के दशक के अन्तिम काल में चीन द्वारा, चार आधुनिकीकरणों के महत्वकांक्षी कार्य, को अपनाया गया था एवं आर्थिक और तकनीकि सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से, उसने जापान एवं पश्चिम के औद्योगिक देशों के साथ अपने सम्बन्धों को सुधार लिया था। आसियानं (ए.एस.ई.ए.एन.) देशों के साथ भी, इसने अपने सम्बन्धों में सुधार किया था।

1980 के दशक में, यू.एस., पश्चिमी योरोपीय देशों एवं जापान के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखते हुए, चीन द्वारा एक “स्वतंत्र विदेश नीति’’ को अपनाया गया था जिसका उद्देश्य, यू.एस. के साथ सम्बन्धों की अति-निकटता को कम करना एवं तीसरे विश्व के देशों के साथ अपने सम्बन्धों में सुधार करना था। 1980 के दशक के मध्य काल के बाद से, अपनी विदेश नीति के उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए चीन ने संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया है।

 शब्दावली
शीत युद्ध: तीसरे विश्व के देशों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों के अर्न्तगत लाने हेत, दो महाशक्तियों-यू.एस. एवं सोवियत यूनियन के बीच हुआ संघर्ष।
सांस्कृतिक: सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में क्रॉन्तिकारी उद्देश्यों के प्रति विश्वासघात किये जाने एवं संशोधनवाद के विरूद्ध, माओ के समर्थकों द्वारा सन् 1960 दशक के बीच काल में एक नवीन लोकप्रिय संघर्ष छेड़े जाने का संकेत।
पुनःमैत्री: कुछ काल के विरोधभास के पश्चात, विरोधी राज्यों द्वारा समझौता करने का प्रयास: राज्यों के बीच मैत्री सम्बन्धों का पुनरारंभ।
मित्रभाव: विरोधाभास समाप्त करके, समझौता करना।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
1) चैधरी जी.डब्लूः 1982, विश्व के सार्वजनिक मामलों में चीन, 1970 के बाद से पी.आर.सी. की विदेश नीति, वेस्ट व्यू प्रेस, बोल्डर, कोलोरेड।
2) हार्डिन्ग हैरी एंड, 1984, सन् 1980 के दशक में चीन के विदेशी सम्बन्ध, येल विश्वविद्यालय प्रेस, न्यू योर्क।
3) हसुयेह, जेम्स सी एवं किम सेमुअल एस. एंड 1980, भू-मंडलीय समुदाय में चीन का स्थान, प्रेजर न्यू योर्क।
4) हसुयेह चुन-टू. एंड. 1982 चीन के विदेशी सम्बन्ध: नये परिप्रेक्षय प्रेजर, न्यू योर्क।
5) याहुघ, मिचेल, 1983, अलगाववाद के समापन के करीब: मामो के पश्चात्, चीन की विदेश नीतिय मेकमिलियन, लन्दन ।