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भारत में राष्ट्रीय पत्रकारिता का जनक किसे कहा जाता है , father of indian national journalism in hindi

father of indian national journalism in hindi भारत में राष्ट्रीय पत्रकारिता का जनक किसे कहा जाता है ?

पत्रकारिता: राममोहन राय को ‘‘भारत में राष्ट्रीय पत्रकारिता का जनक‘‘ कहा जाता है। पत्रकारिता का उद्देश्य था राष्ट्रीय पुनर्जागरण। सर्वप्रथम साधन प्रेस को अपनाया। संवाद कौमुदी बंगला भाषा में तथा मिरात-उल-अखबार फारसी में निकाला। 1823 में प्रेस प्रतिबंध के विरुद्ध हाइकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट गए। सपरिषद सम्राट के पास लन्दन गए लेकिन असफल रहे।
प्रश्न: राष्ट्रीय चेतना के विकास में रामकृष्ण मिशन (स्वामी विवेकानन्द) की भूमिका पर विचार कीजिए।
उत्तर: रामकृष्ण मिशन 19वीं शताब्दी का एक धार्मिक सामाजिक सधार आंदोलन था। मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर की थी। 1899 में उनके द्वारा बेलूर मठ को स्थापित किया गया। भारत तथा हिन्दू धर्म के अध्यात्मवाद से पश्चिम जगत् को परिचित कराने का श्रेय स्वामी विवेकानन्द को ही जाता है। 1893 में शिकागो के धर्म सम्मेलन में उनके भाषण के तुदपरान्त 4 वर्ष तक अमरीका तथा यूरोप के देशों में उनके भ्रमण तथा आध्यात्म के संदेश ने गहरा प्रभाव छोड़ा, जो पेरिस धर्म सम्मेलन (1899) में उनकी भागीदारी से और अधिक पुष्ट हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने में योगदान दिया। ‘भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास‘ के लेखकों के शब्दों में ‘‘वे नए भारत की नवचेतना के प्रतीक थे। उन्होंने नैतिक राष्ट्रवाद का नवसृजन किया। भूले हुए अध्यात्मवाद को पुनर्जीवित किया और राजनीतिक देशभक्ति का परोक्ष रूप से मार्ग प्रशस्त किया‘‘। लेखकों के विचार में ‘‘विवेकानन्द व्यक्ति तथा राष्ट्र के मन से हीन भावना, भय, उदासीनता, और जड़ता को निकाल फेंकना चाहते थे‘‘।
विवेकानन्द ने आत्मा की मुक्ति का संदेश देते हुए कहा कि ‘‘जंजीरें भले ही सोने की हों, उतनी ही मजबूती से बाँधती है‘‘। इस संदेश में आध्यात्मिक मुक्ति के पीछे राजनीतिक परतंत्रता से मुक्ति पाने का संदेश छिपा था जिसे देश विशेषकर बंगाल की नवजवान पीढ़ी ने पहचाना। इसी तरह आत्मा की अमरता का संदेश देकर विवेकानन्द ने नौजवानों को निर्भीकता का पाठ पढ़ाया तथा उन्हें मानसिक रूप से देश के लिए प्राणोत्सर्ग हेतु प्रेरित किया। देश के जुझारू क्रान्तिकारी (डपसपजंदज छंजपवदंसपेज) विवेकानन्द की शिक्षाओं तथा संदेश से प्रेरित व प्रभावित थे।
स्वामी विवेकानन्द के विचार
1. रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी विवेदकानंद ने कहा मैं समाजवादी हूँ, उन्होंने ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग जैसी पुस्तकें लिखी। ये उच्च वर्ग को निम्न वर्ग के साथ मेलजोल बढ़ाने पर जोर देते थे।
2. इन्होंने कहा कि जब तक देश के लाखों लोग भूखे अज्ञानी हैं, मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जिन्होंने उनकी मेहतन की कमाई से शिक्षा ग्रहण की, परंतु वे उनकी परवाह नहीं करते।
3. स्वामीजी महिलाओं की शक्ति के बारे में पूर्ण आश्वस्त थे। वे कहा करते थे, ‘‘कि यदि मुझे 500 समर्पित पुरूष मिल जाए तो मुझे मेरे देश को सुधारने में 50 वर्ष लगेंगे। लेकिन यदि 50 समर्पित महिलाएं मिल जाएं तो इस कार्य को मैं कुछ ही वर्षों में संपन्न कर सकता हूँ।‘‘
4. स्वामीजी मूर्ति पूजा के विरोधी नहीं थे, लेकिन अंधविश्वास एवं रूढियों के सख्त खिलाफ थे, वे कहते थे कि हमारा धर्म रसोईघर में है, हमारा धर्म यह है कि मुझे छुओं मत नहीं तो मैं अपवित्र हो जाऊंगा। यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक शताब्दी के अंदर-अंदर सभी देशवासी पालगखाने में होंगे।
5. स्वामीजी गरीबों, असहायों व बेसहारा लोगों की सेवा करने में विश्वास करते थे। उन्होंने इन लोगों को दरिद्र नारायण की संज्ञा दी व कहा कि दरिद्र नारायण की सेवा ही भगवान की सेवा है।
6. उनके सिद्धांतों का मुख्य आधार वेदांत दर्शन था व इसी आधार पर उन्होंने अध्यात्मवाद दिया, जो मिशन का मूल मंत्र रहा।
प्रश्न: आर्य समाज ने एक ‘पुनरुत्थानवादी आन्दोलन‘ को जन्म देकर इसे व्यापक बनाया, लेकिन इसके साथ-ही-साथ इसने अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दू कट्टरपन्थिता एवं साम्प्रदायिकता को भी बढ़ावा दिया। दयानन्द सरस्वती के प्रयासों के आधार पर इस कथन की समीक्षा करें।
उत्तर: आर्य समाज आन्दोलन भारत में बढ़ते पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसके संस्थापक दयानन्द सरस्वती थे। इन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए धार्मिक आडम्बरों को दूर करने के लिए ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका‘ फहराई तथा -सत्यार्थ प्रकाश‘ की रचना की। इन्होंने ‘वेदों की और लौटो‘ का नारा देकर भारतीय जनमानस के मध्य वेदों की महत्ता की स्थापना की।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक में अपने धार्मिक सिद्धान्तों की व्याख्या की। वे वेदों की सर्वोच्चता, पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार पुराण स्वार्थी, अज्ञानी और दुष्ट व्यक्तियों की रचनाएँ हैं। उनकी धारणा थी कि संसार का समस्त ज्ञान वेदों में ही निहित हैं। इसलिए मुनष्य को वेदों की ओर लौटना चाहिए। उन्होंने हिन्दू धर्म और समाज की बुराइयों की भी आलोचना की। वे बहुदेववाद एवं मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने धार्मिक कर्मकाण्डों एवं पुरोहिती आधिपत्य की भी आलोचना की। इसी प्रकार दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू संस्कारों, तीर्थयात्रा, यज्ञ, बलि. जाति-प्रथा, छुआछूत एवं बाल-विवाह, पर्दा प्रथा की भी निन्दा की। इसके विपरीत उन्होंने विदेशी यात्रा, विधवा-विवाह और नारी-शिक्षा को अपना समर्थन दिया। वे पहले भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधारक थे, जिन्होंने सभी शूद्रों और स्त्रियों को भी वेदों के अध्ययन एवं इसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया। शुद्धि आन्दोलन द्वारा धर्म परिवर्तन और अन्य व्यक्तियों को हिन्दू समाज में पुनः वापस लेने की व्यवस्था थी।
स्वामीजी के सिद्धान्तों के अनुसार –
(ं) सभी सत्य विद्या का आदि मूल ईश्वर है।
(इ) ईश्वर सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और पवित्र है।
(ब) वेदों में सच्चा ज्ञान निहित है, अतः सभी आर्यों को वेदों का पाठ करना चाहिए।
(क) सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
(म) सभी कार्य धमानुसार ही होने चाहिए।
()ि आर्य समाज का प्रमुख उद्देश्य संसार का उपकार करना है।
(ह) सबसे प्रेमपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
(ी) अविद्या का नाश और विद्या का विकास करना चाहिए।
(प) सबको सभी की उन्नति के लिए प्रयास करना चाहिए।
(र) सभी मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियम का पालन करना चाहिए।
सामाजिक क्षेत्र में आर्य समाज की सबसे बड़ी देन यह है कि इसने जाति व्यवस्था की संकीर्णता को दूर करने का प्रयास किया। शुद्धिकरण द्वारा धर्मान्तरित हिन्दुओं को वापिस हिन्दू धर्म में वापस लाकर उन्हें हिन्दू धर्म और समाज का अंग बनाया गया। उन्होंने हिन्दू जाति के उत्थान एवं इसकी सुरक्षा के लिए इसे संगठित करने का प्रयास भी किया, शिक्षा के प्रसार हेतु डी.ए.वी. कॉलेजों की स्थापना की गई। पारम्परिक ज्ञान को प्रसारित करने हेतु गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई। आर्य समाज विदेशी दासता को एक अभिशाप मानता था और स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र का पक्षधर था। इसने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर हिन्दी भाषा और साहित्य का भी विकास किया। दयानन्द सरस्वती का उद्घोष ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान‘ प्रबल राष्ट्रवाद का उदाहरण है।
दयानन्द सरस्वती के उग्र राष्ट्रवाद ने कहीं-न-कहीं अलीगढ़ मुस्लिम आंदोलन को तीव्रता प्रदान की। क्योंकि इनके विचार मुख्यतः हिन्दू धर्म से संबंधित विचारों को ही प्रश्रय प्रदान करते थे। अतः अल्पसंख्यक मुस्लिमों को संगठित करने के लिए सर सैयद अहमद खाँ जैसे विचारकों ने प्रयास प्रारम्भ किये। धीमे-धीमे ये विचार इतने केन्द्रित होते गए कि अन्ततः साम्प्रदायिकता का विकास उत्तरोत्तर होता गया और आर्य समाज को मात्र हिन्दू संगठन ही स्वीकार किया गया। इससे संबंधित राष्ट्रवादियों के समूह और आर्य समाज के उग्र राष्ट्रवाद के आधार पर इसे वेलेन्टाइन शिरोल ने ‘भारतीय अशान्ति का जनक‘ कहा।