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Factors affecting stomatal opening in hindi , रन्ध्रीय गति को प्रभावित करने वाले कारक क्या है

जाने Factors affecting stomatal opening in hindi , रन्ध्रीय गति को प्रभावित करने वाले कारक क्या है ?

रन्ध्रीय गति को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting stomatal opening)

  1. वायुमण्डलीय आर्द्रता (Atmospheric humidity)

वायुमण्डल में अधिक आर्द्रता होने से रन्ध्र अधिक समय तक खुले रहते हैं। यह इसलिए होता है क्योकि वायुमण्डल के द्वारा पर्ण से जल अवशोषित नहीं होता है क्योंकि यहाँ पहले से ही बहुत आर्द्रता होती है।

  1. प्रकाश (Light)

रन्ध्र सामान्यतः प्रकाश में खुलते हैं परन्तु अन्धकार में बन्द हो जाते हैं। यह क्रिया नीले एवं लाल प्रकाश में सम्पन्न होती है। नीले प्रकाश में स्टार्च अथवा फास्फोइनोल पायरूविक अम्ल के जलापघटन से कार्बोक्सीकरण की क्रिया बढ़ जाती है।

  1. तापमान (Temperature)

जलअपघटनी (hydrolysing) विकरों की सक्रियता उच्च तापमान पर बढ़ जाती है इसलिए रात्रि में भी रन्ध्र खुले हुए पाये जाते हैं। परन्तु अत्यधिक उच्च तापमान पर दिन के समय में भी रन्ध्र बन्द पाये जाते हैं। इस प्रक्रिया को मध्याहन बन्द (mid day closure) कहते हैं। सामान्यतः 0°C अथवा इससे नीचे के तापमान पर सतत् प्रकाश में भी रन्ध्र बन्द हो जाते हैं।

  1. कार्बन डाई ऑक्साइड (Carbon dioxide)

बाह्य वातावरण में CO2 की सांद्रता बढ़ जाने से अन्धकार एवं प्रकाश दोनों में ही रन्ध्र बन्द हो जाते हैं। यह इसलिए होता है कि उच्च CO2  सान्द्रता से द्वार कोशिकाओं का pH घट जाता है जो शर्करा के स्टार्च में परिवर्तन को प्रेरित करता है।

  1. द्वार कोशिकाओं का pH (pH of gaurd cells)

द्वार कोशिकाओं के उच्च pH पर रन्ध्र खुल जाते हैं परन्तु निम्न pH पर बन्द हो जाते हैं।

  1. पत्तियों की जल मात्रा (Water content of leaves)

पत्तियों में जल की मात्रा अधिक होने पर रन्ध्र खुल जाते हैं यदि यह मात्रा कम होती है तो रन्ध्र आंशिक अथवा पूर्ण रूप से बन्द हो जाते हैं।

वाष्पोत्सर्जन की दर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting the rate of transpiration)

वाष्पोत्सजन की दर विभिन्न कारकों से प्रभावित होती है। जैसे वातावरणीय आर्द्रता, प्रकाश, तापमान, वायु एवं मृदा जल की उपलब्धता इत्यादि । इन बाह्य कारकों के अलावा भी कुछ आन्तरिक कारक जैसे पादपों की आकारिकी एवं शारीरिकी भी वाष्पोत्सर्जन की दर को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं।

  1. बाह्य कारक (External factors)
  2. वातावरणीय आर्द्रता (Atmospheric humidity)

वायु की आर्द्रता बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है। वाष्पोत्सर्जनी अंग की निकटतम वायु की आर्द्रता बढ़ने से वाष्प दाब प्रवणता कम हो जाती है। इस प्रकार विसरण के सिद्धान्त के अनुसार वाष्पोत्सर्जनी अंग से जल वाष्प का विसरण बाह्य वातावरण में कम हो जाता है। फलस्वरूप वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है। इसके विपरीत शुष्क वायु में उच्च वाप दाब प्रवणता की प्रतिक्रिया के अनुसार वाष्पोत्सर्जनी अंग से जल का वाष्पीकरण अधिक होता है अर्थात वाष्पोत्सजन की दर बढ़ जाती है।

  1. प्रकाश (Light)

प्रकाश में वाष्पोत्सर्जन की दर दो प्रकार से प्रभावित होती है। प्रथमतः यह रन्ध्रों के बन्द एवं खुलने की क्रियाविधि को नियन्त्रित करता है तथा बहुत अधिक मात्रा में प्रकाश ऊर्जा ऊष्मा ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। ऊष्मा ऊर्जा से पत्तियों का तापमान उनके वातावरण के तापमान से अधिक हो जाता है जिससे वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है। प्रकाश की तीव्रता एवं समय काल वाष्पोत्सर्जन की दर को नियंत्रित करते हैं। जितना अधिक प्रकाश काल एवं तीव्रता होगी उतना अधिक ही वाष्पोत्सजन की क्रिया होती है।

  1. तापमान (Temperature)

तापमान में 10 से 11°C तक वृद्धि से आर्द्र पर्ण कोशिका से वाष्पीकरण की दर दुगनी हो जाती है। इसे पर्ण में जल वाष्प सान्द्रता उत्पन्न हो जाती है जो जल वाष्प की जल प्रवणता को बढ़ाता है जिससे वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है।

यदि तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है तब इस स्थिति में वाष्पोत्सर्जन की दर अवशोषण की दर से अधिक हो जाती है तथा पौधे मुरझा जाते हैं। पतली पत्तियों वाले शाकीय पौधों में ग्लानि (wilting) स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। | यह क्रिया दोपहर के समय जब वाष्पोत्सर्जन अपनी चरम सीमा पर होता है तब स्पष्ट देखी जा सकती है। परन्तु सांयकाल | अथवा रात्रि में वाष्पोत्सर्जन बिल्कुल रूक जाता है अथवा कम हो जाता है पौधे स्वतः ही म्लानि से अपनी पूर्व स्थिति में पहुँच जाते हैं तथा सुबह तरोताजा दिखते हैं। इसमें पत्तियाँ फैली रहती हैं। इस प्रकार की म्लानि (wilting) को अस्थायी | (temporary or transient ) ग्लानि कहते हैं। यदि स्फीत ह्रास आंशिक एवं ग्लानि स्पष्ट (pronounced) नहीं होती है तब इस | प्रकार की ग्लानि को प्रारंभी म्लानि (incipient wilting) कहते हैं। इसके विपरीत यदि मृदा में जल की अत्यधिक कमी से मूल द्वारा जल अवशोषण नहीं हो पाता तथा जिससे पौधे की मृत्यु हो जाती है तो प्रकार की ग्लानि को स्थायी (permanent) म्लानि कहते हैं। इस स्थिति में म्लानित (wilted) पौधे की पुनः सामान्य स्थिति (recovery) मृदा में जल की पूर्ति करने पर भी नहीं होती हैं इस प्रकार की ग्लानि को चरम ग्लानि ( ultimate wilting) कहते हैं। स्थायी ग्लानि (permanent wilting) के समय मृदा में जल प्रतिशत को ग्लानि नियतांक (wilting coefficient) कहते हैं।

म्लानि नियतांक = जल/ मृदा x 100

(wilting coefficient)

  1. वायु (Wind)

रन्ध्र से जल वाष्प के विसरण से यह इन छिद्रों के ऊपर एकत्रित हो जाता है जिससे यह इसके निकट की आर्द्रता बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप सान्द्रता प्रवणता घट जाती है। हवा चलने से इस प्रकार जल का संचय नहीं हो पाता है। इससे इन छिद्रों तक शुष्क वायु आती है तो वाष्पोत्सर्जन बढ़ता है। तूफान जैसी स्थिति में तेज गति से चलती हवा से नये अणुओं द्वार पर्ण की अन्यथा गमन सतह पर शीतल प्रभाव पडता है। तेज चमकीली पर्ण के इस प्रकार शीतलन से वाष्पोत्सर्जन की दर घट जाती है।

  1. मृदा जल की उपलब्धता (Availability of soil water)

मृदा में जल की मात्रा कम होने से वाष्पोत्सर्जन की दर अवशोषण की दर से अधिक हो जाती है। इससे कुछ समय पौधे की स्फीत का ह्रास हो यह श्लथ हो जाता है जिससे पौधा मुरझा जाता है। इस प्रकार की श्लथ स्थिति में रन्ध्र छिद्र बन्द हो जाते हैं जिससे वाष्पोत्सर्जन घट जाता है।

II आन्तरिक कारक ( Internal factors)

  1. पत्ती की संरचना (Leaf structure )

पत्ती की सतह पर मोटी उपचर्म (cuticle), मोमी परत धंसे हुए रन्ध्र, मृत रोम की परत से वाष्पोत्सर्जन घट जाता है। इस प्रकार के अनुकूलन मरुद्भिद पौधों में पाये जाते हैं। पर्ण के आकार, नाप, विन्यास, वितरण, रन्ध्र की संरचना एव पत्ती में जल से भी वाष्पोत्सर्जन की दर प्रभावित होती है।

  1. पत्ती का क्षेत्रफल (Leaf area)

बड़ी पत्तियों में छोटी पत्तियों की तुलना में अधिक वाष्पोत्सर्जन होता है। मरुदभिद पौधों में पत्तियों का क्षेत्रफल कम होने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।

  1. पौधों की आयु (Age of plants)

वाष्पोत्सर्जन की दर नवोद्भिद पौधों में धीमी, परिपक्व पौधों में अत्यधिक एवं वृद्ध पौधों में बहुत कम हो जाती है।

  1. मूल-प्ररोह अनुपात (Root-shoot ratio)

अवशोषित जल की मात्रा मूल तंत्र पर एवं वाष्पोत्सर्जन में वाष्पित जल की मात्रा प्ररोह तंत्र पर आधारित होती है। यह मुख्यतः पत्तियों पर आधारित होता है। प्ररोह- अनुपात के बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है।