भारत में रोजगार की स्थिति पर प्रकाश डालिए | भारत में रोजगार के अवसर पर निबंध employment in india in hindi
employment in india in hindi भारत में रोजगार की स्थिति पर प्रकाश डालिए | भारत में रोजगार के अवसर पर निबंध ?
इस प्रवृत्ति (पैटर्न) के कारक
अब हम एक अधिक रोचक प्रश्न लेते हैं: औद्योगिक रोजगार की यह अत्यन्त ही विचित्र (न्-आकृति) प्रवृत्ति किन कारकों के कारण होती है? इस प्रश्न को हम तीन अलग-अलग समयावधियों के लिए कर सकते हैं: (1) वर्ष 1980 की प्रवृत्ति (2) अस्सी के दशक के दौरान प्रवृत्ति और (3) नब्बे के दशक में प्रवृत्ति।
पहले चरण (वर्ष 1960 से 1980 तक) में रोजगार की वृद्धि दर बढ़ रही थी (हालाँकि यह वृद्धि दर मामूली थी), जबकि सकल घरेलू उत्पाद अथवा औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आ रही थी। उस समय आयात प्रतिस्थापन्न उपायों पर बल दिया जा रहा था तथा पूँजी विनियतन में बाजार की भूमिका पर काफी नियंत्रण लगाया गया था। साथ ही साथ, सरकार ने अधिक से अधिक आर्थिक कार्यकलापों को अपने सीधे स्वामित्व और नियंत्रण में ले लिया जिसका स्पष्ट उद्देश्य रोजगार के सृजन पर बल था। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में रोजगार में तेजी से वृद्धि हुई। निजी क्षेत्र में पूँजी का स्थानापन्न श्रम था क्योंकि सरकारी नियंत्रण के कारण पूँजी दुर्लभ होती जा रही थी इसलिए, मुख्य रूप से सरकारी नीति के परिणामस्वरूप उत्पादन वृद्धि की अपेक्षा रोजगार में कहीं अधिक वृद्धि हुई।
लेकिन उसके बाद दूसरा चरण आया, जिसमें यह प्रवृत्ति बिल्कुल पलट गई। रोजगार में वृद्धि लगभग स्थिर हो गई और अचानक उत्पादन वृद्धि बढ़ गई। यह अत्यन्त ही भ्रामक स्थिति थी, क्योंकि आप इन दोनों के बीच सकारात्मक संबंध की अपेक्षा कर सकते हैं। यह वृद्धि नौकरी हीन क्यों थी? अर्थशास्त्री इसके लिए दो युक्ति संगत उत्तर देते हैं: (1) अत्यधिक क्षमता, (2) श्रम बाजार की अनम्यता। अस्सी के दशक तक, विभिन्न महत्त्वपूर्ण आदानों जैसे सीमेन्ट, इस्पात, रसायन और यहाँ तक कि वित्तीय पूँजी का वितरण सीधे सरकार के नियंत्रण में था। यहाँ तक कि नए संयंत्र की स्थापना, अथवा क्षमता के विस्तार के लिए भी सरकार की अनुमति की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिए इस वातावरण में, फर्मों ने सरकार से अनुमति प्राप्त करने की परेशानियों से बचने के लिए अत्यधिक क्षमता के निर्माण का प्रयास किया। अतएव बाद में, जब आर्थिक तेजी आई तो उन्होंने अपनी पूर्व निर्मित बेकार पड़ी हुई क्षमता का ही दोहन किया। इस रणनीति ने रोजगार वृद्धि की गुंजाइश को समाप्त कर दिया। क्षमता आधिक्य की दलील का निचोड़ यही है।
अनम्य श्रम बाजार तर्क में भी अनुरूप दृष्टिकोण पाया जाता है। वर्ष 1970 से शुरू होकर ट्रेड यूनियन धीरे-धीरे अपने सदस्यों की संख्या और नियोजकों के साथ अपने मोल-तोल की बढ़ी हुई क्षमता, दोनों रूपों में अधिक सुदृढ़ हो गए थे। इसके साथ ही सरकार ने भी कतिपय विधान बनाए जिससे नौकरी संबंधी सुरक्षा को पक्का किया गया। इस कानून ने काम बंदी, छंटनी और निजी क्षेत्रों (जिसमें 100 कर्मकार या अधिक नियोजित हैं) की बंदी पर प्रतिबंध का रूप ले लिया जो सार्वजनिक क्षेत्र के जीवन पर्यन्त नौकरी-सुरक्षा के सदृश था। इससे संभवतया कर्मकारों की मोल-तोल की शक्ति में वृद्धि होने लगी और इसके परिणामस्वरूप मजदूरी में वृद्धि हुई। इसने प्रत्यक्ष रूप से सभी प्रकार के रोजगार को प्रभावित किया तथा विशेषकर बड़ी फर्मों को अपने श्रम बल के प्रबन्धन में योजनाबद्ध रूप से कार्य करने को प्रेरित किया । अधोमुखी अनम्यता से विवश होकर उन्होंने स्थायी संवर्ग में कर्मकारों को रखना कम कर दिया और जहाँ कहीं भी संभव है इसके स्थान पर ठेका मजदूर रखना शुरू किया अथवा बाहर से कर्मकारों को बुलाना शुरू किया। इन सबका संचयी प्रभाव यह हुआ कि पंजीकृत विनिर्माण क्षेत्र के रोजगार में जड़ता आ गई।
अस्सी के दशक में, जब सरकार श्रम कानूनों को और अधिक कठोर बना रही थी, इसने उत्पाद बाजार के प्रति बिल्कुल ही अलग नीति अपनाई। अनेक क्षेत्रों में इसने नियंत्रण हटा लिया (जैसे सीमेन्ट और इस्पात के मूल्य निर्धारण पर से नियंत्रण हटाना), विदेशी कंपनियों के प्रवेश की अनुमति दी गई और कतिपय उद्योगों का आधुनिकीकरण भी शुरू किया गया। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में नियमों में क्रमशः ढील के संकेत, अधिक खुलापन और निवेश अनुकूलता आदि सब कुछ बिल्कुल साफ हो चुके थे और निजी क्षेत्र ने परिवर्तन के इस नए दौर में अत्यन्त ही सकारात्मक प्रतिक्रिया की। सकल घरेलू उत्पाद और औद्योगिक उत्पादन दोनों में भारी वृद्धि हुई और अंत्तः पिछले दशक की वृद्धि की ‘हिन्दू दर‘ जो मात्र 3 से 4 प्रतिशत थी, की सीमा को पार करने में सफल रहा। विशेषकर, निर्यात बढ़ना शुरू हुआ।
उसके बाद नब्बे का दशक आया जब 1991 में अभूतपूर्व भुगतान संतुलन के संकट ने सरकार को पूर्ण रूप से आर्थिक सुधार करने के लिए बाध्य कर दिया, इसमें से अधिकांश अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ऋण शर्ते थीं। हालाँकि अपना देश पहले से ही सुधार के पथ पर बढ़ रहा था किंतु 1991 के संकट ने अकस्मात ही सुधार की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया। घरेलू प्रतिस्पर्धा पर प्रायः सभी प्रत्यक्ष नियंत्रण (लाइसेन्स प्रणाली, प्रवेश की अनुमति के रूप में) जल्दी-जल्दी हटा लिए गए, निजी क्षेत्र का स्वागत पहले से कहीं अधिक बड़ी भूमिका निभाने के लिए किया गया और साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विस्तारवादी स्वरूप पर जानबूझ कर नियंत्रण लगाया गया। इसके अलावा, देश के विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ग्रहण करने से विदेश व्यापार पर से बहुत सारी पाबंदियाँ हटा ली गईं। बाजारोन्मुखी सुधार प्रक्रिया के अंग के रूप में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के निर्बाध आयातों की अनुमति दी गई।
सुधारों के इस परिदृश्य में, 1990 के दशक में रोजगार संबंधी प्रवृत्तियों को नई नीतियों की कसौटी पर परखा जाना स्वाभाविक है। अर्थशास्त्रियों ने दो प्रकार के विचार प्रकट किए हैं। एक तर्क यह है कि रोजगार के क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन अपने आप में ही सुधारों के सकारात्मक परिणाम के प्रमाण हैं । निर्यात का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सकारात्मक प्रभाव त्तकाल महसूस किया गया। नब्बे के दशक के आरम्भ में, निर्यात में तीव्र गति से वृद्धि हुई और इस निर्यात में लघु तथा मध्यम आकार के उद्योगों के श्रम-प्रधान वस्तुओं का बड़ा हिस्सा था। इसने निश्चित तौर से रोजगार वृद्धि में योगदान किया। किंतु नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में इस गति को नहीं बनाए रखा जा सका। यह चर्चा का एक अलग विषय है जिसका कारण निर्यात में कमी और सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट बताया जा सकता है।
दूसरी विचारधारा जो अधिक सतर्क है तथा कभी-कभी सुधार को शंका की दृष्टि से भी देखता है, इस सकारात्मक प्रभाव के चरण के स्थायित्व के संबंध में सचेत भी करता है। इस तथ्य के मद्देनजर कि 1997 के बाद से रोजगार में वृद्धि दर धीमी हुई है और मंदी की स्थिति बन रही है, इस विचारधारा के अनुसार सुधार की प्रक्रिया से कर्मकारों की दुर्दशा हुई है तथा भविष्य में सस्ती वस्तुओं के खुले आयात से उनकी दशा और खराब होगी।
बोध प्रश्न 6
1) अस्सी के दशक तक हमारी आर्थिक नीति की मुख्य विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
2) अर्थशास्त्रियों का अस्सी के दशक के नौकरीहीन विकास के संबंध में क्या कहना है?
3) वर्ष 1991 के बाद किस प्रकार के नीतिगत परिवर्तन हुए?
4) सही के लिए (हाँ) और गलत के लिए (नहीं) लिखिए।
क) आर्थिक सुधार का अभिप्राय अधिक सरकारी नियंत्रण है। ( )
ख) वर्ष 1991 के सुधारों के बाद से निर्यात में गिरावट आई है। ( )
ग) सुधारों के साथ रोजगार में वृद्धि हुई है। ( )
आगामी सांख्यिकीय प्रकाशन
उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण, उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार
इंडियन लेबर ईयर बुक, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।
बोध प्रश्नों के उत्तर अथवा संकेत
बोध प्रश्न 2
1) उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण और श्रम मंत्रालय
2) (क) हाँ, (ख) नहीं, (ग) नहीं।
बोध प्रश्न 4
1) तालिका 4 देखिए।
2) 1989 से हास आकृति 1 देखिए।
3) उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है; तालिका 6 देखिए।
4) (क) नहीं (ख) नहीं (ग) नहीं (घ) हाँ (ड.) हाँ
बोध प्रश्न 5
1) भाग 30.6 देखिए।
2) भाग 30.6 देखिए।
3) (क) नहीं (ख) हाँ (ग) नहीं।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics