एल निनो और ला नीना परिस्थितियाँ में अंतर क्या है (el nino and la nina weather conditions in hindi)
(el nino and la nina weather conditions in hindi) एल निनो और ला नीना परिस्थितियाँ में क्या अंतर क्या है ? के बीच अंतर बताइये |
एल-निनो शब्द का सम्बन्ध मूलरूप से प्रशांत महासागर में पेरू के तट के सहारे क्रिसमस के समय प्रवाहित होने वाली धारा से माना जाता है। स्पेनिश भाषा में एल निनो का शब्दार्थ चाइल्ड क्राइस्ट अथवा चाइल्ड जीसस से मानते है। सर्वप्रथम एल नीनो की खोज सन 1983 में हुई थी।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार एल निनों एक जल धारा है जो कभी कभी पूर्वी दक्षिणी प्रशांत महासागर में प्रवाहित होती है। यह 1891 , 1925 , 1941 , 1957 , 1958 , 1983 , 1984 और 1995 के वर्षो में वायुमंडल के प्रवाह के सामान्यतया दुर्बल होने तथा दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तटीय भाग में शक्तिशाली दक्षिणी पूर्वी हवाओं के कमजोर होने से सम्बन्धित है। यह स्थल से दूर ठंडी पेरू जलधारा के पश्चिमी प्रवाह के साथ होता है तथा ठन्डे जल के सागर तट पर रुकने से सम्बन्धित है। ये दशाएँ प्रशांत भूमध्य रेखीय विपरीत जलधारा के प्रवाह को प्रेरित करती है जो पनामा की खाड़ी से 2 से 3 डिग्री दक्षिणी अक्षांश (अर्थात ग्वायाक्विल , इक्वेडोर 2 से 10 डिग्री दक्षिणी अक्षांश) से लीमा के दक्षिण (पेरू) में 14 डिग्री दक्षिण अक्षांश तक बहती है। यह धारा कोष्ण , उच्च लवणीय जल से युक्त क्रिसमस के समय प्रवाहित होती है। अत: लोग इसे क्राइस्ट चाइल्ड या एल निनो कहते है।
यह धारा या तो सागरीय जीवों को मार देती है अथवा उन्हें गहराई में ले जाती है जिससे विशाल मत्स्य आखेटक जहाज मछलियाँ नहीं पकड़ पाते है। इसके फलस्वरूप इस क्षेत्र के पक्षी तथा टूना मछली इस भाग को छोड़ देती है या मर जाती है। मछलियाँ तथा पक्षियों के मरने से जो गैस बनती है वह इतनी शक्तिशाली होती है कि गुजरने वाले जयालन भी काले रंग के हो जाते है।
(1) एल निनो के आगमन से यह संकेत मिलता है कि दक्षिणी अमेरिकी के शुष्क तटीय भागों में घनघोर वर्षा होती है क्योंकि मरुस्थलीय तट वनस्पति विहीन होते है अत: यह घनघोर वर्षा भारी मात्रा में बाढ़ तथा मृदा अपरदन करता है। चूँकि एल निनो का सम्बन्ध मौसम क्रम से है अत: एक एल निनों मौसम में विश्वव्यापी परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।
(2) इस वर्ष भारत के दक्षिण पश्चिमी मानसून की कमजोर शुरुआत तथा तुलनात्मक उत्तरी पश्चिमी कमजोर मानसून के लिए एक एल निनो को ही उत्तरदायी माना जा रहा है। राष्ट्रीय सामुद्रिक तथा वायुमण्डलीय प्रशासन (national oceanic and atmospheric administration) के जलवायु अनुमान केंद्र , संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के अनुसार एल निनो अनुमानत: प्रति दो से सात वर्ष के अंतराल में आता है तथा सम्पूर्ण पृथ्वी के मौसम को प्रभावित करता है। एल निनो से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के दक्षिण में मौसम आद्र हो जाता है तथा दक्षिण अफ्रीका एवं ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया के कुछ भागों में सुखा पड़ जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एल निनो के पुनः उत्थान से पूर्वी प्रशांत महासागर में असामान्य रूप से सामुद्रिक तापक्रम उच्च हो जाता है। जिससे वायुमण्डलीय श्रृंखला की अभिक्रियाएँ (atmospheric chain reaction) स्फुलिंग हो गयी थी जो 1982 से 1983 के एल निनो के समान थी। वर्ष में पतझड़ , शीत तथा बसंत ऋतु के दौरान कैलीफोर्निया तथा दक्षिणी संयुक्त अमेरिका के अधिकांश क्षेत्र में मूसलाधार वर्षा से बाढ़ आ गयी।
इसके फलस्वरूप अमेरिकी के तटीय भागों में भूमि अपक्षय तथा भूस्खलन से भारी तबाही हुई। एल निनों के प्रभाव से ऑस्ट्रेलिया तथा इंडोनेशिया विध्वंसकारी सूखे की चपेट में आ गए। ऐसा ही दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका के क्षेत्रों में हुआ। इससे भारत में जीवनदायिनी मानसून हवाएँ भी कमजोर पड़ गयी और प्रशांत महासागर के तटीय भागों में मत्स्य पालन उजड़ गया।
(3) जलवायु वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है कि एल नीनो का वर्तमान स्वरूप इस शताब्दी में शक्तिशाली रहेगा। इसका प्रत्यक्ष रूप से मौसम पर प्रभाव पड़ता है। भूमध्य रेखा के चारों ओर प्रशांत महासागर का तापमान काफी बढ़ गया था। मई 1994 में न्यूयोर्क में सागरीय तापमान सामान्य से 5 सेंटीग्रेड अधिक था। ऑस्ट्रेलिया के मौसम वैज्ञानिकों को भय है कि एल निनो के इस सूखे से देश में गेहूं की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई होगी , क्योंकि गेहूं का उत्पादन गत वर्ष की तुलना में 10 से 40 प्रतिशत कम होने की सम्भावना है।
दक्षिण अमेरिका में नवीनतम स्थापित न्यूवो चुलीयांची नगर के लोग एल निनो की तबाही को अभी भूले नहीं है। 1983 में एल निनो के कारण यहाँ भयंकर तूफ़ान आया था तथा पुराना चुलीयांची नगर पूर्णतया समाप्त हो गया था। वर्तमान में यहाँ टूटे फूटे मकानों का भूतनगर खड़ा है। जहाँ की गलियों में बलखाती नदियाँ बह रही है।
(4) आजकल एल निनो का असामान्य रूप से सागर के गर्म होने को निदृष्ट करता है तथा पश्चिम की ओर फैलता हुआ अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा तक पहुँचता है। यह विश्वव्यापी जलवायु की एक असामान्य घटना है जो कुछ वर्षो बाद घटित होती है। एल निनो पूर्णतया केवल सामुद्रिक घटना नहीं है। बल्कि इसका सम्बन्ध वायुमण्डलीय संघटकों से है जिसे दक्षिणी दोलन अर्थात एन्सो (ENSO) कहते है।
ऐन्सो (ENSO) एक प्राकृतिक अद्भुत घटना है जो सहराद्री से होती प्रतीत हो रही है। वास्तव में ऊष्ण प्रशांत महासागर में यह दशाएँ कभी कभी औसत रहती है लेकिन इसके बदले कोष्ण एल निनो की दशा तथा ठंडी दशा में उतार चढ़ाव अनियमित होता है तो ला नीना (La nina) को प्रहार करता है। एक पूर्ण एन्सो चक्र तीन से छ: वर्ष तक चलता है जबकि सर्वाधिक तीव्र एल निनो की दशा एक वर्ष तक रहती है। यद्यपि दो एन्सो एक समान नहीं होते है। 1950 से अब तक 11 एन्सो की पहचान की जा चुकी है। सर्वाधिक नवीन चक्र की कोष्ण प्रावस्था (warm phase ) 1990 से मध्य 1995 तक रही थी। पिछले 114 वर्षो के यांत्रिक अभिलेखों के अनुसार एक गैर पूर्ववर्ती अवधि में अत्यधिक अप्रत्याशित घटनाओं के घटने के स्पष्ट संकेत मिलते है।
(5) ऊष्ण कटिबंधीय कोष्ण जल एन्सो चक्र के दौरान पुनः वितरित अवक्षित तथा प्रत्यानयति होता है जो वायुमण्डल के एक या दो पूर्व वर्षो में क्या होने वाला है , का अनुमान लगाने में सहायक होता है। तदनुसार , इससे आने वाले मौसम परिवर्तनों का भविष्यानुपात लगाया जा सकता है।
ला नीना (La nina ) : स्पेनिश भाषा में ला नीना का शब्दार्थ “छोटी बच्ची” से मानते है। ला नीना परिस्थिति एल नीनो की तुलना में प्रतिकूल होती है। सागर साधारण स्थिति से अधिक ठंडा हो जाता है। एलनीनो की तुलना में ला नीना के बारे में बहुत कम जानकारी मिल पायी है लेकिन वैज्ञानिकों का मत है कि ला नीना परिस्थिति तेज हवाओं के बढ़ने से होती है जिसके द्वारा ठंडे पानी की मात्रा बढती है जो दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट की तरफ बहता है तथा जल के तापमान को कम करता है। ला नीना का प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर एल नीनो की तुलना में प्रतिकूल होता है। ऊष्ण कटिबंधो में ला नीना में सागरीय तापमान में विभिन्नताएं एल नीनो की तुलना में एकदम प्रतिकूल होती है।
एल निनो और ला नीना परिस्थितियों का अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि है ये सूर्य की गर्मी के प्रभाव के उतार चढाव में अहम भूमिका अदा करती है तथा हमारी जलवायु को प्रभावित करती है। वैज्ञानिक इन परिस्थितियों के अध्ययन के द्वारा यह पता लगा सकेंगे कि पहले धरती की जलवायु कैसी थी , आज कैसे है तथा भविष्य में जलवायु में किस प्रकार के परिवर्तन आ सकते है।
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