(development of flower in hindi) पुष्प का परिवर्धन या विकास पुष्पीय विकास क्या है उत्तकजनन (histogenesis) किसे कहते है ?
पुष्प का परिवर्धन अथवा विकास (development of flower) : पुष्पीय पौधे में जनन अवस्था के आते ही , इसमें कुछ या लगभग सभी शीर्षस्थ विभाज्योतकों से , वास्तविक पर्णों की उत्पत्ति और प्रारम्भन क्रिया रुक जाती है। इसके स्थान पर ये अब पौधे की जनन संरचना अर्थात पुष्प का प्रारंभन और विकास का उत्तरदायित्व वहन करते है। इस अवस्था में अब पौधे के शीर्षस्थ विभाज्योतकों को पुष्पीय विभाज्योतक (floral meristems) कहते है।
ये पुष्पीय विभाज्योतक अब विशिष्ट क्रम में पुष्पीय घटकों का विकास करते है। इस पुष्प उत्पत्ति की प्रक्रिया में अब पुष्पीय विभाज्योतक की वृद्धि सुनिश्चित अथवा एक निर्धारित अवधि तक के लिए ही होती है , अनिश्चित अवधि के लिए नहीं होती। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि एकवर्षीय शाकों और घासों में पौधे के जीवन चक्र के अंत में पुष्पन होता है जबकि बहुवर्षीय पौधों में पुष्प , प्ररोह शीर्ष पर (असीमाक्षी पुष्प क्रम) या तने और शाखाओं अथवा पत्तियों के अक्ष (असीमाक्षी और ससीमाक्षी पुष्पक्रम) में विकसित हो सकते है।
पुष्पन का अभिप्रेरण (induction of flowering )
पौधों में पुष्पीय विकास और प्रारंभन का क्रम अनेक बाहरी कारकों द्वारा नियंत्रित होता है। विभिन्न पौधे तापक्रम और दीप्ति कालिता के प्रति विशेष अनुक्रिया प्रदर्शित करते है और इन कारकों के संयुक्त प्रभाव के कारण पौधों में जनन प्रावस्था का अवतरण होता है। प्रदीप्तिकाल (photoperiod length of the day) के आधार पर सभी पुष्पीय पौधों को तीन वर्गों में क्रमशः दीर्घदिवसीय , लघु दिवसीय और दिवस उदासीन पौधों की श्रेणी में बाँटा जा सकता है। पौधों में पुष्पन के पूर्व कुछ आवश्यक विकास और परिवर्तन होता है , जिसके परिणामस्वरूप पौधे पुष्पन के लिए परिपक्व अवस्था में पहुँच कर प्रदीप्तिकाल के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित करते है। इसी प्रकार अधिकांश पौधे तापक्रम के प्रति पुष्पन हेतु अनुक्रिया प्रदर्शित करते है। यहाँ पुष्पन के लिए शीतउपचार अथवा पौधों का निम्न तापक्रम पर उद्भासित होना (exposure to low temperatures) आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया को वासन्तीकरण कहते है। यह अवधारणा सर्वप्रथम एक रुसी वनस्पति शास्त्री लाइसेंको द्वारा प्रस्तुत की गयी थी।
पुष्पन के लिए पौधों में अभिप्रेरण अनुक्रिया पत्तियों द्वारा एक अज्ञात संकेत के रूप में प्रेषित किया जाता है। इसे दीप्तिकालिक प्रेरण (photoperiodic induction) कहते है। यह प्रेरण प्ररोह शीर्ष पर पुष्पन के संक्रमण को संचालित करता है। चेलेक्यान (1937) ने इस प्रेरण के लिए उत्तरदायी पदार्थ को पुष्पीय हार्मोन फ्लोरीजन का नाम दिया।
एक अवधारणा के अनुसार यह एक जटिल हार्मोन है जिसका गठन पत्तियों में बनने वाले दो पदार्थो जिबरेलिन्स और एंथेसिन्स से मिलकर होता है। इस हार्मोन का उद्दीपन फाइटोक्रोम द्वारा प्रारंभ किया जाता है। अभिप्रेरण क्रिया के दौरान पौधे के शीर्षस्थ विभाज्योतकों में नए राइबोसोम्स के निर्माण में वृद्धि होती है , समग्र प्रोटीन मात्रा भी बढ़ जाती है और RNA संश्लेषण में वृद्धि होती है। कोशिकीय श्वसन क्रिया की दर भी बढ़ जाती है। इसके बाद डीएनए संश्लेषण अभिप्रेरित होता है और समसूत्री विभाजन भी तीव्र हो जाता है। परिणामस्वरूप नवीन संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है जिससे आगे चलकर पुष्पी आधक बनते है। इन परिघटनाओं के कारण पौधा पुष्पीय संरचना उद्भव की अवस्था प्राप्त कर लेता है और अब पुष्प का निर्माण सुनिश्चित हो जाता है।
विभाज्योतकी परिवर्तन (meristematic changes)
पुष्पन के समय पुष्प अक्ष के शीर्ष विभाज्योतक में अनेकों परिवर्तन देखने को मिलते है। बाह्य परिवर्तनों में पर्वो का दीर्घन और कक्षीय कलिकाओं का कालपूर्व विकास महत्वपूर्ण है।
पुष्पन प्रेरित होने पर या कायिक शीर्ष के पुष्पीय शीर्ष में परिवर्तन होने पर इसका दीर्घन होता है और उपरोक्त रुपान्तरण के समय शीर्ष की दोनों तलों (उधर्व और क्षैतिज) में वृद्धि होती है। इस प्रकार शीर्ष के पृष्ठीय क्षेत्र में कई गुना वृद्धि होती है। इसी प्रकार पुष्पीय प्रावस्था में रुपान्तरण के समय प्ररोह शीर्ष के ट्यूनिका कार्पस संगठन में परिवर्तन होता है और मेन्टल कोर प्रकार का संगठन उत्पन्न होता है। इसकी कोर कोशिकाएँ बड़ी और रिक्तिकायुक्त होती है जो तुलनात्मक रूप से छोटी और संघन जीवद्रव्य युक्त मेंटल कोशिकाओं की परतों से घिरी रहती है।
अनेक पौधों में प्ररोहशीर्ष के केन्द्रीय भाग की निष्क्रिय कोशिकाएँ भी पुष्पन के समय सक्रीय हो जाती है।
पुष्पीय घटकों के प्रारंभन के साथ ही कोशिकाओं में समसूत्री विभाजन की दर में भी वृद्धि हो जाती है। अलग अलग क्षेत्रों में विभाजन की दर भिन्न होती है। इस दौरान कायिक क्षेत्र के निश्चित अनुक्षेत्र (characteristic zonation) विलुप्त हो जाते है और इनके स्थान पर विभाज्योतकी कोशिकाओं की एकसमान सतह निर्मित हो जाती है। उपर्युक्त सभी परिवर्तन आनुवांशिक और भिन्न भिन्न पर्यावरणि कारकों द्वारा नियंत्रित होते है।
उत्तकजनन (histogenesis)
पत्ती के समान ही पुष्पीय अवयवों का विकास भी पुष्प शीर्ष की दूसरी या निचे की परतों की कोशिकाओं में परिनतिक विभाजन से प्रारंभ होता है। एक ही पुष्प के विभिन्न अंगों की उत्पत्ति के लिए परिनतिक विभाजन शीर्ष की अलग अलग परतों में हो सकते है। शुरू के परिनतिक विभाजनों के पश्चात् इन विभाज्योतक कोशिकाओं में लगभग सभी तलों में विभाजन होते है। इनके परिणामस्वरूप इन अंगों के आद्यक पुष्प शीर्ष पर उभार अथवा अतिवृद्धि के रूप में विकसित होते है।
दल और बाह्यदल आद्यकों की प्रारंभिक वृद्धि शीर्षस्थ मेटिस्टेम से ही होती है लेकिन बाद में ये अंतर्वेशी वृद्धि दर्शाते है। सीमान्त मेरिस्टेम की सक्रियता के फलस्वरूप ये अंग पृष्ठाधर आकृति ग्रहण करते है।
पुंकेसर आद्यक में भी शुरू की वृद्धि शीर्षस्थ मेरिस्टेम की सक्रियता से होती है लेकिन इनकी लम्बाई में वृद्धि मुख्यतः अन्तर्वेशी मेरिस्टेम द्वारा ही होती है जिसके फलस्वरूप पुतन्तु का विभेदन होता है। पुंकेसर के सीमान्त मेरिस्टेम की सक्रियता से द्विपालित परागकोश का विभेदन होता है।
अंडप का विकास शीर्षस्थ और सीमान्त मेरिस्टेम की सक्रियता से होता है और इनकी मोटाई में वृद्धि अभ्यक्ष मेरिस्टेम द्वारा होती है। वियुक्ता अंडपी जायांग में अंडपों के आद्यक पृथक इकाइयों के रूप में एक वलय में उत्पन्न होते है।
युक्तांडपी अवस्था जायांग में विकास के दौरान अंडपों की पृथक इकाइयों में व्यक्तिवृतीय संलयन के फलस्वरूप स्थापित होती है।
अंगजनन (organogenesis in plants)
पुष्पी अंगों के उत्तरोत्तर चक्रों का विकास एक सुनिश्चित और पूर्ण निर्धारित प्रावस्थाओं के क्रम में होता है। यह विकास सम्भवतः विशिष्ट प्रकार की जीनों और पर्यावरणी कारकों द्वारा नियंत्रित होता है। विभिन्न अंगों के विकास के लिए विभज्योतक उत्तकों के उभार अथवा अतिवृद्धियाँ उत्पन्न होती है जिन्हें आद्यक (primordia) कहते है।
इन आद्यकों की वृद्धि , विभेदन और परिपक्वन के परिणामस्वरूप विभिन्न पुष्पी अंगों का निर्माण होता है। पुष्पासन पर अंडप की स्थिति अग्रस्थ होती है , जबकि अन्य अवयवों की स्थिति पाशर्विय होती है।
पुष्पासन पर अंडप / जायांग के विकसित होने पर पुष्पीय अक्ष की वृद्धि रुक जाती है और पुष्पासन का संकरा डंठल पुष्पवृंत में रूपान्तरित हो जाता है। पुष्पासन पर विभिन्न पुष्पी आद्यक क्रमशः चक्रीय स्थिति में अपनी उपस्थिति दर्शाते है।
सामान्यतया पुष्पी अंगों की उत्पत्ति पुष्पासन पर अभिकेन्द्री क्रम में होती है अर्थात युवा अंग शीर्ष के सबसे पास होते है। इस प्रकार पुष्पी उपांगों का विकास क्रम परिधि से केंद्र की तरफ होता है। उदाहरण के लिए ब्युटोमस में क्रमशः बाह्य और भितरी परिदल , पुंकेसर और अंडप निरन्तर उत्तरोतर क्रम में उत्पन्न होते है। विभिन्न वंशों में पुष्पांगो के विकास के इस क्रम में कुछ अंतर हो सकता है।
उदाहरण के लिए ब्रेसीकेसी कुल में सबसे पहले बाह्यदलपुंज के आद्यक विकसित होते है। तत्पश्चात पुंकेसर आद्यक और इसके पश्चात् पुष्पीय अक्ष के अग्र सिरे पर स्त्रीकेसर आद्यक का विकास होता है।
यहाँ पुष्प के विभिन्न चक्रों में दल आद्यकों की उत्पत्ति सबसे अंत में होती है। इसी प्रकार अम्बेलीफोरी कुल के पुष्पों में पहले पुंकेसर , तत्पश्चात दल , बाह्यदल और अंत में अंडप के आद्यक प्रकट होते है।