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Cytoplasmic Inheritance or Maternal Inheritance in hindi , कोशिका द्रव्यी वंशागति या मातृक वंशागति

कोशिका द्रव्यी वंशागति या मातृक वंशागति (Cytoplasmic Inheritance or Maternal Inheritance in hindi)

वंशागति के गुणसूत्र सिद्धान्त के अनुसार प्राय: सजीवों में विभिन्न लक्षणों की वंशागति के लिए उत्तरदायी मेण्डेलियन कारक या जीन्स, केन्द्रक में गुणसूत्रों (Nuclear Chromosomal genes) पाये जाते हैं। क्योंकि एक ही जीन से प्राप्त नर एवं मादा युग्मकों में गुणसूत्रों की समानता होता है एवं उनके क्रॉस (Reciprocal Cross, A × BOA × BO) के परिणाम भी एक जैसे होते हैं। लेकिन सन् 1950 में सेंगर द्वारा किये गये अध्ययनों से यह जानकारी प्राप्त हुई कि कोशिका द्रव्य में भी व्युत्क्रम आनुवंशिक सामग्री पाई जाती है, एवं कुछ जीवों में विशेष लक्षण गुणसूत्र स्थित जीनों के प्रभाव से स्वतन्त्र, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागति करते हैं। इससे प्रमाणित होता हैं कि कोशिका द्रव्य में पाई जाने वाली आनुवंशिक सूचनाएँ, अगली पीढ़ी में संचारित करने में, यहाँ उपस्थित कोशिका द्रव्यी जीन्स (Cytoplasmic genes) की मुख्य भूमिका होती है ।

विभिन्न पादप कोशिकाओं के माइटोकोण्ड्रिया, लवक, एवं कोशिका द्रव्य में उपस्थित DNA या जीन्स कोशिका द्रव्यी वंशागति के उदाहरण हैं । इसके अतिरिक्त लिम्निया नामक घोंघे में कवच के कुण्डलन (Shell Coiling in Liminea Snail) की वंशागति में मातृक प्रभाव (Maternal influence) स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है, जैसे कि निम्न प्रकार से स्पष्ट है-

लिम्निया के विभिन्न लक्षण प्ररूपों (Phenotypes) में कवच की कुण्डलन या तो दक्षिणावर्त (Dextral) अर्थात् दाहिनी ओर होती है, अथवा वामावर्त (Sinistral) या बायीं ओर हो सकती है। कुण्डलन की यह दाईं एवं बाईं दिशा आनुवंशिक रूप से नियन्त्रित होती है । जब जीन ‘D’ का प्रभावी युग्मविकल्पी उपस्थित हो तो दक्षिणावर्त एवं ‘d’ मौजूद हो तो वामावर्त कुण्डलन प्रकट होता है, अर्थात् सामान्य अवधारणा के अनुसार दक्षिणावत् कुण्डलन का जीन – प्ररूप ‘DD’ एवं वामावर्त का जीन प्ररूप ‘dd’ होता है ।

लिम्निया के वयुत्क्रम क्रॉस (DD xddf एवं DDA x dd9) से प्राप्त संतति पीढ़ी में लक्षण प्ररूप (Phenotype) का निर्धारण मातृ जनक के जीन प्ररूप द्वारा होता है, इसके लक्षण प्ररूप द्वारा होता है, इसके लक्षण प्ररूप द्वारा नहीं होता, जैसा कि अग्र संकरणों से स्पष्ट है-

उपरोक्त व्युत्क्रम संकरणों से जानकारी मिलती है कि मादा जनक के जीन प्ररूप ( Genotype) पर निर्भर होने के कारण जीन प्ररूप Dd दक्षिणावर्त एवं वामावर्त दोनों प्रकार का हो सकता है। इसी क्रम में यदि मादा घोंघे का जीन प्ररूप प्रभावी (Dd) हो तो अगली पीढ़ी में (dd) भी दक्षिणावर्त कुण्डलन प्रदर्शित कर सकता है। अतः हमारे लिए यह समझना आवश्यक है कि मादा जनक के लक्षण प्ररूप (phenotype) का संतति के लक्षण प्ररूप ( कवच कुण्डलन की दिशा ) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता,

अपितु यहाँ मादा जनक का जीन प्ररूप ही संतति के लक्षण प्ररूप ( कवच कुण्डलन की दिशा ) को निर्धारित करता है, जैसे-व्युत्क्रम क्रॉस में F, पीढ़ी में मादा जनक के जीन प्ररूप ‘Dd’ के अनुरूप संतति का कवच कुण्डलन लक्षण प्ररूप दक्षिणावर्त होता है । यह जीन प्ररूप के विलम्बित प्रभाव का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

मिराबिलिस जलापा ( गुल अब्बास Mirabilis jalapa) में लवक के रंग की वंशागति (Plastid inheritance in Mirabilis jalapa)– स्वपोषी पौधों में विभिन्न प्रकार के लवकों (Plastids), जैसे-क्लोरोप्लास्ट, क्रोमोप्लास्ट व ल्यूकोप्लास्ट (Chloroplast, Chromoplast and Leucoplast, inheritance) की वंशागति का क्रम अतिरिक्त केन्द्रकीय जीन प्लास्टिड या लवक में ही उपस्थित होते हैं। इस प्रक्रिया को लवक वंशागति (Plastid inheritence) कहते हैं । विभिन्न पौधों में कोशिका विभाजन की साइटोकाइनेसिस प्रक्रिया के दौरान कोशिका द्रव्य का विभाजन होता है एवं इस प्रकार से विभाजित कोशिका द्रव्य नव निर्मित संतति कोशिकाओं में पहुँच जाता है। इस कोशिका द्रव्य के साथ लवक (Plastid) भी इन कोशिकाओं में स्थानान्तरित हो जाते हैं लेकिन नवनिर्मित कोशिकाओं में लवकों की संख्या सदैव ही समान नहीं होती तथा इनमें सभी प्रकार के लवक भी नहीं पाये जाते ( चित्र 9.1 ) ।

मिराबिलिस जलापा (Mirabilis jalapa ) में प्लास्टिड वंशागति (Plastid inheritance) का अध्ययन सर्वप्रथम कोरेन्स (Correns, 1909) नामक वैज्ञानिक द्वारा किया गया था। उसने यह भी बताया कि प्लाज़्मोजीन्स (Plasmogenes) की इस प्रकार वंशागति मातृक प्रभाव (Matternal effect) या मातृक वंशागति (Matternal inheritance) के कारण होती है। मिराबिलिस जलापा (Mirabilis jalapa) पादप के विभिन्न भागों में अलग प्रकार के प्लास्टिड्स की उपस्थिति के परिप्रेक्ष्य में तीन प्रकार की शाखाएँ पाई जाती हैं जिनमें क्रमशः हरे, हल्के हरे एवं चित्तीदार (Variegated) पत्तियाँ उपस्थित होती हैं। जैसा कि पहले बताया गया है, इन शाखाओं में विभिन्न प्रकार के लवकों (Plastids ) की उपस्थिति के कारण होता है । ये प्लास्टिड (1) पूर्णतया हरे (हरित लवक) (2) पूर्णतया हल्के हरे (Completely

pale green) एवं (3) चित्तीदार या विभिन्न प्रकार के (Variegated) हो सकते हैं। इस प्रकार उदाहरणों में संतति (Progeny) का लक्षण प्ररूप (Phenotype), शाखा के लक्षण प्रारूप (Phenotype) पर निर्भर करता है, विशेषकर वह शाखा जिस पर पुष्प विकसित होते हैं (Flowering branch) तथा इनका परागण (Pollination) होता है। जैसा कि विभिन्न प्रकार के क्रास के निम्न उदाहरणों से स्पष्ट है-

उपरोक्त तीनों प्रकार के क्रास (Crosses) के परिणामों को चित्र 9.2 में निरूपित किया गया है।

अपने प्रयोगों के आधार पर कोरेन्स ने प्रतिपादित किया एवं समझाया कि जब हरी शाखाओं पर उपस्थित पुष्पों को मातृक जनक (Female source) के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो इसके परिणामस्वरूप केवल हरे रंग की पत्तियों से युक्त पादप संतति (Progeny) के रूप में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार जब हल्की हरी (Pale green) शाखाओं को मातृक स्रोत (Female source) के रूप में काम में लिया जाता है तो केवल हल्की हरी पत्तियों युक्त संतति (Progeny or offsprings) उत्पन्न होती है। जबकि तीसरे उदाहरण में जहाँ चित्तीदार शाखाओं (Branches with variegated leaves) को माता जनक (Female source) के रूप में प्रयुक्त करते हैं तो अगली पीढ़ी में तीनों प्रकार की पत्तियों वाली पादप संतति (Offsprings) प्राप्त होती है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मादा जनक में दोनों प्रकार क्रमशः हरे एवं हल्के रंग के लवक (Green and Pale plastids ) मौजूद होते हैं, अतः मादा युग्मक में हरे या हल्के रंग के या दोनों प्रकार के लवक (Plastids ) उपस्थित हो सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप तीनों प्रकार के पौधे क्रमश: हरी, हल्की हरी एवं चित्तीदार पत्तियों (Gree, pale and variegated leaves) वाले संतति पीढ़ी (Progeny) में उत्पन्न होते हैं । यहाँ पत्तियों के रंग का संतति पीढ़ी में (Progeny) में निर्धारण पितृ पीढ़ी या नर जनक (Pollen yielding parent) द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है। अतः उपरोक्त लक्षण का संतति में निर्धारण केवल मादा जनक के प्रभाव से ही होता है।

पैरामीसियम में कप्पा कण (Kappa particles in Paramecium) :

कप्पा कणों की पैरामीसियम की कुछ प्रजातियों में उपस्थिति एवं इनका आगामी पीढ़ी में संचरण, मातृक वंशागति या कोशिका द्रव्यीय वंशागति (Maternal cytoplasmic inheritance) कुछ एक अत्यधिक उपयुक्त एवं सुन्दर उदाहरण है । पेरामीसियम नामक प्रोटोजोअन प्राणी के कुछ मारक विभेदों (killer strains) में कप्पा कण पाये जाते हैं तथा ये इस एककोशीय जन्तु के मारक विभेदों में पैरामीसिन (Paramecin) नामक पदार्थ की उत्पत्ति हेतु उत्तरदायी होते हैं। यह पैरामीसिन पदार्थ कप्पा कणों के अभाव वाले संवेदी विभेदों के लिए घातक एवं दुष्प्रभावी होता है। कोशिका में कप्पा कणों की उत्पत्ति एक प्रभावी युग्मविकल्पी (Dominent allele) K की उपस्थिति पर निर्भर करती है। इस प्रकार KK या kk जीन प्ररूप वाले (Genotype) पैरामीसियम प्रभेद, मारक विभेद (killer strain) एवं साधारण kk जीन प्ररूप वाले जीव संवेदी विभेद (Sensitive strain) होते हैं। पैरामीसियम के विभिन्न प्रभेदों में प्रभावी युग्मविकल्पी K यदि अनुपस्थित हो तो इसके अभाव में कप्पा कणों की संख्या में वृद्धि नहीं हो सकती और कप्पा कणों के कोशिका में नहीं होने की अवस्था में भी प्रभावी युग्मविकल्पी K इनका निर्माण नहीं कर सकता। अतः ऐसी अवस्था में जीन प्ररूप KK या kk वाले संवेदी विभेद भी प्राप्त किये जा सकते हैं, जिनमें कप्पा कणों का पूर्णतया अभाव होता है तथा कप्पा कणों की अनुपस्थिति में युग्मविकल्पी K भी नये कप्पा कणों का निर्माण नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप ऐसे विभेद संवेदी प्ररूपों के रूप में ही रह जाते हैं। वहीं दूसरी ओर जीन प्ररूप kk की संरचना वाला मारक विभेद कभी भी नहीं मिलेगा क्योंकि इस प्रकार के विभेद में यदि कप्पा कण उपस्थित भी हों तो ये एक प्रभावी युग्मविकल्पी k के अभाव में स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त यदि KK या kk जीन प्ररूप युक्त पैरामीसियम के क्लोनों (clones) को वर्धी जनन या कोशिका विभाजन (Binary fission) की प्रक्रिया द्वारा इतनी तेजी से परिगुणित होने दियाजाये कि कप्पा कणों का विभाजन, कोशिका विभाजन की जितनी तेज गति से नहीं हो सके, तो नवनिर्मित एवं विभाजित संतति कोशिकाओं में कुछ समय के बाद कप्पा कण समाप्त हो जावेंगे। इसके परिणामस्वरूप प्रभावी जीन प्ररूप (KK या kk) धारित करने वाले ऐसे संवेदी विभेद प्राप्त होंगे जिनमें कप्पा कणों का अभाव होगा।

यदि मारक (KK) और संवेदी (kk) के विभेदों में संयुग्मन (Conjugation) होने दिया जाता है तो सभी पूर्वसंयुग्मी (exconjugants) अर्थात् संयुग्मन (conjugation) की प्रक्रिया के पूर्ण होने के बाद पृथक होने वाली कोशिकाओं का जीन प्ररूप (Genotype) एक ही प्रकार का (kk) होगा, लेकिन इन पूर्व संयुग्मियों के लक्षण प्ररूपों (Phenotypes) का निर्धारण संयुग्मन प्रक्रिया की समयावधि के आधार पर होगा। यदि संयुग्मन केवल इतनी सी देर के लिए ही हो कि इस अवधि में कोशिकाद्रव्य का विनिमय सम्भव नहीं हो सके तो इस परिस्थिति में विषमयुग्मजी (kk) पूर्व संयुग्मी केवल पैतृक लक्षण प्ररूपों (Paternal Phenotypes) के ही होंगे। इस प्रकार संयुग्मन के पश्चात् मारक प्रभेद पहले के समान ही मारक बने रहेंगे और इसके साथ पूर्ववर्ती संवेदी विभेद भी केवल संवेदी ही रहेंगे (चित्र 9.3) । वहीं दूसरी ओर यदि संयुग्मन की प्रक्रिया अधिक अवधि या समय के लिए संचालित होती है तो ऐसी अवस्था में संवेदी विभेदों में भी कप्पा कण आ जावेंगे परिणामस्वरूप ये संवेदी विभेद भी मारक बन जावान, जिसकी वजह से सभी पूर्व संयुग्मी (exconjugants) मारक होंगे तथा उनका सबका जीन प्ररूप (kik) होगा (चित्र 9.4)।

बहुलक एलील्स ( Multiple alleles ) — वे ऐलील जो एक ही जीन पर विभिन्न स्थानों (sites) पर उपस्थित हों तथा उनके बीच क्रासिंग ओवर या विनिमय (Crossing over) सम्भव हो तो इनको बहुलक एलील (Multiple alleles) कहते हैं। इस तथ्य को भली-भांति समझने के लिए हम सबसे उपयुक्त उदाहरण का अध्ययन करेंगे-

मनुष्यों में ABO रक्त समूह ( ABO blood groups in humans) – प्रख्यात वैज्ञानिक एवं चिकित्सक के. लेन्डस्टीनर (K. Landsteiner, 1927 ) ने सर्वप्रथम कुछ एंटीजन पदार्थों (Antigens) की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति के आधार पर मनुष्यों में ABO रक्त समूहों (ABO blood groups ) का अभिनिर्धारण किया था। उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर यह बताया कि मनुष्यों के रक्त में अलग एंटीजन क्रमश: A व B उपस्थित होते हैं तथा इनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर चार प्रकार के रक्त समूह (four blood groups ) होते हैं। इनको ABO रक्त समूह ( ABO blood groups ) अथवा इनके आविष्कारक के नाम पर उसके सम्मान में लेंडस्टीनर रक्त समूह (Landsteiner blood groups ) कहते हैं ।

उपरोक्त एन्टीजन पदार्थों क्रमश: A व B के साथ ही मनुष्यों के रक्त सीरम (blood serum) में प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली कुछ और एन्टीबोडीज (naturally occurring antibodies) भी उपस्थित होती हैं। एन्टीबाडी एवं एन्टीजन के आपसी सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में सामान्य सिद्धान्त यह है कि किसी एक मनुष्य के रक्त में उपस्थित एंटीबाडी केवल उसी प्रकार के एंटीजन्स के लिए पाई जाती हैं, जो एंटीजन उस मनुष्य के रक्त में अनुपस्थित होते हैं । इस प्रकार से एन्टीजन व एंटीबाडी का अभिनिर्धारण एवं इनकी आपक्षेक अवस्थिति (status ) निम्न तालिका में प्रदर्शित की गई।

उपरोक्त तालिका से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि रक्त समूह A में उपस्थित एंटीबाडीज में B रक्त समूह के रक्त का थक्का बनाने (agglutinize) की क्षमता होती है एवं यही कार्य B रक्त समूह में उपस्थित एंटीबाडीज A समूह के रक्त में कर सकती हैं, अर्थात् A समूह के रक्त का थक्का बना सकती हैं। वहीं दूसरी ओर AB समूह का रक्त किसी अन्य समूह के रक्त का थक्का नहीं जमा (agglutinize) सकता क्योंकि इस समूह के रक्त में किसी भी प्रकार की एन्टीबाडीज उपस्थित नहीं होती। इसी प्रकार O समूह का रक्त, स्वयं के अतिरिक्त उपरोक्त अन्य तीनों समूहों के रक्त (अर्थात् A, B व AB तीनों) का थक्का जमाने (agglutinize) में सक्षम होता है क्योंकि इसमें A व B दोनों प्रकार की ही एन्टीबाडीज पाई जाती हैं । उपरोक्त समूहों के रक्त के ऐसे आपसी सम्बन्धों के आधार पर ही इस तथ्य का परीक्षण किया जाता है कि किसी समूह विशेष के रक्त वाले मनुष्य का रक्त, किसी को चढ़ाया जा सकता है अथवा नहीं या इस प्रकार का रक्तदान कौन-कौन से रक्त समूह के लिए सम्भावित हो सकता है, जैसा कि निम्न तालिका में प्रदर्शित किया गया है-

उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है कि दाता (donor) के रक्त रक्त के विरुद्ध एंटीबाडीज मौजूद होती हैं, हालांकि तनु (dilute) हो जाने के कारण इनका कोई प्रभाव ग्राही (recipient) के नहीं होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर ग्राही (recipient) के रक्त में दाता (donor) के रक्त के विरुद्ध एंटीबाडीज बिल्कुल नहीं होनी चाहिए क्योंकि इनकी मौजूदगी से दाता द्वारा दिये जाने वाले रक्त का थक्का बन (agglutinization) जायेगा एवं इस प्रक्रिया से ग्राही पर घातक प्रभाव पड़ेगा। यह भी स्पष्ट है कि AB रक्त समूह सार्वत्रिक ग्राही (universal recipient) है तथा इस समूह के व्यक्ति में खून चढ़ाने से पहले या रक्तदान से पहले किसी प्रकार का रक्त समूह परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार से 0 रक्त समूह सार्वत्रिक दाता ( universal donor) है, इनका रक्त संचरण (blood transfusion) या रक्तदान किसी भी रक्त समूह के सदस्य में किया जा सकता है।

उपरिवर्णित ABO रक्त समूहों के रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) ही एंटीजन ( एग्लूटीनोजन) उपस्थित होते हैं, जबकि एंटीबाडीज ( एग्लूटीनिन ) सीरम (serum) में मौजूद होती हैं । तद्नुरूप, रक्त समूहों की अनुरूपता (compatibilities) का उचित परीक्षण कर लेने के पश्चात् ही दाता से ग्राही में रक्त संचरण (blood transfusion) की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है, जिससे कि ग्राही को संचरित रक्त (चढ़ाये जाने वाले खून का थक्का नहीं जमे तथा ग्राही का जीवन सुरक्षित रह सके। जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है। रक्त समूह A में एन्टी-B सीरम (अर्थात् एंटीजन B के लिए एंटीबाडीज) तथा रक्त समूह B में एन्टी – B सीरम मौजूद रहता है । उपरोक्त एन्टी – A सीरम व एन्टी-B सीरम के विभिन्न समूहों के रक्त का थक्काकरण में प्रभाव को चित्र में बताया गया है। इसी प्रकार से विभिन्न रक्त समूहों के जीन प्ररूपों (genotypes) का अभिनिर्धारण भी निम्न तालिका के अनुसार किया जा सकता है-

उपरोक्त रक्त समूहों की आनुवंशिकी इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि मनुष्य के रक्त में तीन प्रकार के एलील्स (1) I° या i या ( 2 ) I^ या A एवं (3) IB या B। इनमें से I^ या IB उत्परिवर्तक (mutant) एलील्स हैं तथा ये वन्य या प्राकृतिक एलील (wild allele) I° या i या + के ऊपर प्रभावी हैं। यह तथ्य इस अवधारणा पर आधारित है कि वन्य ऐलील वह माना जाता है जिसकी उपस्थिति अधिक से अधिक या बारम्बार देखी जावे। इस आधार पर एलील को वन्य एलील माना जाता है एवं इस आधार पर रक्त समूहों का निर्धारण अत्यन्त सुविधाजनक होता है ।

रक्त समूह एवं विवादास्पद जन्मदाता (माता, पिता) का निष्पादन (Blood groups and disputed parentage)—– कभी – कभी रक्त समूहों (blood groups ) की जानकारी से माता, पिता तथा उनकी सन्तानों के निर्धारण में बहुत सहायता मिलती है। फौजदारी न्यायालयों (criminal courts) में अनेक इस प्रकार के मुकदमे आते हैं, जहाँ माता व पिता के बीच अपनी सन्तान को लेकर यह विवाद होते हैं कि कोई सन्तान, आरोपी पुरुष या तथाकथित पिता से उत्पन्न हुई है अथवा नहीं, ऐसा इस तरह सम्भव हो सकता है कि विशेष रक्त समूह के माता-पिता (अर्थात् स्त्री व पुरुष) से उत्पन्न सन्तान के | कुछ सीमित एवं विशेष रक्त समूह ही हो सकते हैं, सभी प्रकार के रक्त समूह नहीं होते । अतः किसी बालक का रक्त समूह ऐसा है, जो कि माता व पिता दोनों के संयोग के परिणामस्वरूप सम्भव नहीं हो तो ऐसी सन्तान को अवैध (IIlegitimate) समझा जाता है, उदाहरण के तौर पर यदि माता व पिता दोनों का रक्त समूह O है तो उनकी वैध सन्तान का रक्त समूह भी केवल O ही होगा, A, B या AB नहीं। इसी प्रकार अन्य रक्त समूहों के संयोग से उत्पन्न वैध सन्तानों के सम्भावित रक्त समूह (possible blood groups) एवं असम्भावित रक्त समूह ( impossible blood groups ) की जानकारी निम्न तालिका में दी गई है-

अभ्यास-प्रश्न

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न अथवा रिक्त स्थानों की पूर्ति

(Very Short answer questions / Fill in the blanks) :

  1. मातृक वंशागति किसे कहते हैं?
  2. लिम्निया नामक घोंघे में कवच के कुण्डलन की वंशागति
  3. मिराबिलिस में प्लास्टिड वंशागति का अध्ययन सर्वप्रथम………………उदाहरण है। ने किया।

4……………………….पैरामीसिन नामक पदार्थ की उत्पत्ति हेतु उत्तरदायी होते हैं ।

  1. मनुष्यों में ABO रक्त समूहों का निर्धारण……………… वैज्ञानिकों ने किया ।
  2. यदि एक बच्चे का रुधिर वर्ग हो तो उसके माता-पिता में कौनसा रुधिर वर्ग सम्भव नहीं होगा ?

लघुत्तरात्मक प्रश्न

  1. प्लाज्मा जीन्स क्या होते हैं ?
  2. मातृक वंशागति के दो उदाहरण लिखिए ।
  3. कप्पा कण क्या होते हैं? इनका महत्त्व लिखिए।
  4. एन्टीजन व एन्टीबॉडीज क्या होते हैं? समझाइए ।
  5. रक्त समूहों की जानकारी का महत्त्व लिखिए । निबन्धात्मक प्रश्न
  6. कोशिकाद्रव्यी वंशागति का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
  7. मनुष्यों में रक्त समूह व उनकी वंशागति के निर्धारण को समझाइए ।

उत्तरमाला (Answers)

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न / रिक्त स्थानों की पूर्ति :

  1. मादा जनक के जीन द्वारा निर्धारित वंशागति
  2. मातृक वंशागति
  3. कोरेन्स (1909)

4.कप्पा कण

  1. के. लेन्डस्टीनर (1927)
  2. AB AB