(cork or phellem in hindi) कॉर्क क्या है | कार्क | काग केंबियम क्या है | कोशिका में क्या पाया जाता है किसे कहते है , कार्य और प्रकार |
बाह्यरम्भीय द्वितीयक वृद्धि (extrastelar secondary growth) : संवहनी पौधों में रम्भीय क्षेत्र के बाहर होने वाली द्वितीयक वृद्धि को बाह्य रम्भीय द्वितीयक वृद्धि कहते है। जिसमें कॉर्क कैम्बियम द्वारा द्वितीयक वृद्धि के फलस्वरूप परित्वक का निर्माण होता है।
रंभीय द्वितीयक वृद्धि के अन्तर्गत द्वितीयक संवहन ऊतकों के निर्माण से तने में उपस्थित मज्जा , वल्कुट , अधोत्वचा और बाह्यत्वचा पर निरंतर दबाव और तनाव बढ़ता जाता है। बढ़ते हुए तनाव के कारण बाह्यत्वचा जो कि एक सुरक्षात्मक परत है , विभिन्न स्थानों पर फटने लगती है अथवा टूटने लगती है। परिणामस्वरूप इसके नीचे स्थित अन्दर वाले ऊतकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए नवीन सुरक्षात्मक परत अथवा संरक्षी परत परित्वक का निर्माण प्रारंभ हो जाता है।
परित्वक का विकास (development of periderm)
परित्वक का निर्माण बाह्यरंभीय क्षेत्र में होता है। इसका निर्माण रम्भीय क्षेत्र के बाहर स्थित ऊतक अधोत्वचना अथवा वल्कुट कोशिकाओं के द्वारा होता है। यह स्थायी ऊतक परतें अर्थात वल्कुट या अधोत्वचा विभाज्योतकी हो जाती है और सक्रीय रूप से विभाजित होकर द्वितीयक पाशर्व विभाज्योतक बनाती है। इन विभाज्योतिकी कोशिकाओं को कॉर्क कैम्बियम अथवा कागजन कहते है। कॉर्क कैम्बियम की यह कोशिकाएँ परिनतिक रूप से विभाजित होती है और अपने अन्दर और बाहर की तरफ नयी कोशिकाओं का निर्माण करती है।
कॉर्क केम्बियम से बाहर की तरफ जो कोशिकाएं बनती है , वे कॉर्क के रूप में विकसित होती है। इसी प्रकार कॉर्क कैम्बियम के अन्दर की तरफ बनने वाले मृदुतकी कोशिकाएँ द्वितीयक वल्कुट के रूप में विकसित होती है। इस प्रकार कॉर्क कैम्बियम और इसके द्वारा निर्मित ऊतकों (कार्क + द्वितीयक वल्कुट) को संयुक्त रूप से परित्वक कहते है।
परित्वक की संरचना (structure of periderm)
परित्वक प्राय: काष्ठीय झाड़ियो और वृक्षों के तनों और पुरानी शाखाओं और जड़ों की सतह पर पाया जाता है। मुख्यतः यह तीन प्रकार के ऊतकों से मिलकर बना होता है। यह निम्नलिखित है –
(1) कागजन अथवा कॉर्क कैम्बियम
(2) काग या कॉर्क
(3) काग अस्तर अथवा द्वितीयक वल्कुट
(1) कागजन या कॉर्क केम्बियम (phellogen or cork cambium) : यह कोशिकाएँ द्वितीयक पाशर्वीय विभाज्योतिकी की प्रकृति की होती है। जो मुख्यतः प्राथमिक स्थायी ऊतकों जैसे वल्कुट और अधोत्वचा के रूपांतरण और इनकी विभाज्योतिकी क्षमता धारण कर लेने से विकसित होती है। कॉर्क कैम्बियम मुख्यतः पौधे की परिधीय मोटाई अथवा व्यास में वृद्धि के लिए उत्तरदायी होता है।
कॉर्क कैम्बियम की कोशिकाएं समरूपी अथवा एक ही प्रकार की होती है और तने की अनुप्रस्थ काट में यह आयताकार और लम्बवत काट में इनकी आकृति बहुभुजीय अथवा अनियमित प्रकार की दिखाई देती है। कॉर्क कैम्बियम की कोशिकाएं पतली भित्ति वाली होती है और इनके मध्य अंर्तकोशिकीय स्थान अनुपस्थित होते है।
कॉर्क कैम्बियम परत संवहन कैम्बियम के समान ही विभाजित होकर अन्दर और बाहर की तरफ नयी सन्तति कोशिकाओं का निर्माण करती है। यह बाहर की तरफ अत्यधिक मात्रा में असंख्य मोटी भित्ति वाली सुबेरिनयुक्त कोशिकाओं की सुरक्षात्मक परत कॉर्क का निर्माण करती है। जबकि अन्दर की ओर कॉर्क केम्बियम के द्वारा पतली भित्ति वाली सजीव मृदुतकी कोशिकाएँ निर्मित होती है जिनको द्वितीय वल्कुट कहते है। प्रत्येक संवहनी पौधे में विशेषकर द्विबीजपत्री और अनावृतबीजी वृक्षों में कॉर्क केम्बियम के निर्माण का समय अलग अलग होता है। यही नहीं कॉर्क कैम्बियम का निर्माण रम्भ के बाहर अवस्थित कौनसी ऊतक परत से होगा यह भी विभिन्न पौधों में पूर्व निर्धारित होता है जैसे –
(i) नेरियम में यह बाह्यत्वचा से बनता है।
(ii) प्रनूस में अधोत्वचा से बनता है।
(iii) एरिस्टोलोकिया में वल्कुट से बनता है।
इसके अतिरिक्त कुछ पौधों में कॉर्क कैम्बियम का निर्माण रभीय ऊतकों से भी होता है , जैसे – बरबेरिस में फ्लोयम से और वाइटिस की जड़ में परिरंभ से।
कॉर्क कैम्बियम की यदि एक सम्पूर्ण सतह अथवा परत समान रूप से तने की गोलाई में निर्मित होती है तो इससे बनने वाली छाल को वलय छाल कहते है। लेकिन यदि कॉर्क कैम्बियम तने की परिधि में कुछ स्थानों पर अनुपस्थित रहता है (अर्थात असतत होता है ) तो इससे बनने वाली छाल छोटे छोटे टुकड़ों में अथवा खण्डो में होगी अर्थात पूरी परिधि में नहीं होगी। इस प्रकार की छाल को शल्की छाल कहते है , जैसे – अमरुद , नीम और अर्जुन के वृक्षों में।
कुछ एकबीजपत्री पौधों जैसे खजूर और एलोय आदि में जिनमें द्वितीयक वृद्धि नहीं होती है उनमें एक विशेष प्रकार की कॉर्क बनती है जिसे स्तरित कॉर्क कहते है। यह कॉर्क कैम्बियम द्वारा निर्मित नहीं होता अपितु यह मृदुतकी कोशिकाओं के परिनत विभाजनों द्वारा बनता है। इस कॉर्क की कोशिकाएं भी सुबेरिनयुक्त होती है और यह सुरक्षात्मक परत के रूप में कार्य करती है।
2. द्वितीयक वल्कुट अथवा फेलोडर्म (secondary cortex or phelloderm)
कॉर्क कैम्बियम अथवा फेलोजन द्वारा अन्दर की तरफ बनने वाली पतली भित्तियुक्त सजीव मृदुतकी कोशिकाएँ द्वितीयक वल्कुट कहलाती है। यह कोशिकाएँ भी अरीय पंक्तियों में व्यवस्थित होती है और इनकी संख्या कॉर्क कोशिकाओं की तुलना में कम होती है। प्राय: द्वितीयक वल्कुट की कोशिकाएँ संचयी ऊतक के रूप में कार्य करती है। यही नहीं कुछ पादप प्रजातियों में तो कभी कभी इन कोशिकाओं में हरितलवक भी पाए जाते है। यहाँ तक कि कुछ पौधों में फेलोडर्म की कोशिकाओं के मध्य दृढ कोशिकाएँ भी उपस्थित होती है।
क्षत परित्वक अथवा घाव का भरना (healing of wood) – जब किसी पौधे का कोई हिस्सा विशेषकर तना किसी कारणवश क्षतिग्रस्त हो जाता है तो इससे घाव हो जाता है तो इस स्थान की कोशिकाएँ सुरक्षात्मक परत बनाने के लिए फैलोजन अथवा कॉर्क कैम्बियम का निर्माण करती है , यह फेलोजन उत्पत्ति , वृद्धि और कोशिकीय संरचना में सामान्य प्राकृतिक रूप से बनने वाले फेलोजन के समान ही होता है लेकिन यह विशेष रूप से पौधे के क्षतिग्रस्त हिस्से में ही निर्मित होता है। इस फेलोजन के द्वारा बाहर की तरफ सामान्य रूप से कॉर्क कोशिकाएं बनती है। इस प्रकार घाव के भरने की प्रक्रिया पूरी होती है।
3. कॉर्क (cork or phellem)
कॉर्क कैम्बियम के निरंतर विभाजन द्वारा बाहर की तरफ विकसित कोशिकाएं कॉर्क का निर्माण करती है। ये भी कॉर्क कैम्बियम के समान ही बहुभुजीय होती है लेकिन अनुप्रस्थ काट में आयताकार आकृति की प्रतीत होती है। इसके साथ ही ये सूसंहत रूप से व्यवस्थित होती है। इनके मध्य अन्तरकोशिकीय स्थान अनुपस्थित होते है। इनकी भित्तियों पर सुबेरित का जमाव पाया जाता है। ये मृत कोशिकाएँ होती है।
पौधे की कॉर्क बनाने की क्षमता का व्यवसायिक उपयोग क्यूरकस रूबर नामक पौधे से उच्च कोटि का व्यापारिक कॉर्क प्राप्त किया जाता है। प्रारंभ में पौधे में बनने वाला कॉर्क अच्छी श्रेणी का नहीं होता। अत: इसे फेलोजन के साथ हटा दिया जाता है। इसके बाद घाव को भरने के लिए जो फेलोजन परत निर्मित होती है इससे उच्च कोटि का कॉर्क प्राप्त होता है।
पोलीडर्म (polyderm in hindi) : मिरटेसी और रोजेसी के सदस्यों में और कुछ पौधों के भूमिगत भागों में एक विशेष प्रकार की सुरक्षात्मक परत पायी जाती है जिसे पोलीडर्म कहते है। इसमें दो प्रकार की कोशिकीय परतें उपस्थित होती है। प्रथम परत में सुबेरित युक्त मोटी भित्ति वाली कोशिकाओं की एक पंक्ति पायी जाती है। दूसरी परत में कोशिकाओं की अनेक पंक्तियाँ पायी जाती है लेकिन इनकी भित्तियाँ सुबेरिन युक्त नहीं होती है। इस प्रकार यहाँ एकान्तरित परतें उपस्थित होती है जिसे पोलीडर्म कहते है। सामान्यतया पोलीडर्म में कोशिकाओं की 20 परतें एकान्तरित क्रम में मौजूद हो सकती है लेकिन सबसे बाहरी कोशिका परत हमेशा मृत कोशिकाओं की बनी होती है।
वातरन्ध्र (lenticels in hindi) : बाह्यरम्भीय द्वितीयक वृद्धि के परिणामस्वरूप बनने वाली कॉर्क कैम्बियम सामान्यतया बाहर की तरफ सुबेरिनयुक्त मोटी भित्ति वाली मृत कॉर्क कोशिकाएँ बनाती है जो कि हवा , पानी और अम्ल आदि के लिए अपारगम्य होती है और सुरक्षात्मक परत के रूप में कार्य करती है लेकिन कॉर्क कोशिकाओं के अतिरिक्त पौधे में कुछ स्थानों पर कॉर्क कैम्बियम के द्वारा पतली भित्तियुक्त ऐसी कोशिकाएं भी बनती है जिनकी सहायता से पौधे की आंतरिक संरचना का बाहरी वातावरण से सम्पर्क स्थापित होता है और यहाँ से बाहरी वातावरण में जल और हवा के आसानी से आदान प्रदान का कार्य होता है। इस स्थान पर कॉर्क के क्षेत्रों में कुछ खुली हुई अथवा बड़े छिद्र जैसी संरचनाएँ होती है और इनके निचे विशेष प्रकार की पतली भित्तियुक्त अपेक्षाकृत दूर दूर अथवा शिथिलतापूर्वक व्यवस्थित मृदुतकी कोशिकाएँ पायी जाती है। इन छिद्रों को वातरन्ध्र कहते है। और इनके बीच व्यवस्थित मृदुतकी कोशिकाओं को सम्पूरक कोशिकाएँ कहते है।
वार्टज के अनुसार वातरन्ध्र पेरीडर्म का एक छोटा सा हिस्सा होता है। जहाँ कॉर्क कैम्बियम की सक्रियता बाकी स्थानों की तुलना में अधिक होती है और यहाँ कॉर्क केम्बियम से बनने वाली कोशिकाएँ अनियमित आकृति की एक पतली भित्ति वाली होती है। इनके बीच अन्तरकोशिकीय स्थान पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है। इनको ही सम्पूरक कोशिकाएँ कहते है। इन कोशिकाओं की सहायता से पौधे और बाहरी वातावरण के मध्य गैसीय विनिमय आसानी से हो जाता है। विशेष रूप से जब पौधे की पत्तियों में रन्ध्र बंद होते है तब इनका कार्य गैसीय विनिमय के क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय होता है। वातरन्ध्रों की संख्या और इनके प्राप्ति स्थान दोनों ही अनियमित होते है। यहाँ तक कि कुछ पौधों की जड़ों में और कुछ फलों की बाहरी सतह पर भी वातरंध्र पाए जाते है। पेरीडर्म के बनने के साथ साथ ही वातरंध्र का निर्माण भी प्रारंभ होता है। जिस समय वातरन्ध्र का निर्माण हो रहा होता है तो ठीक उसी समय कोमल शाखाओं और पत्तियों की अंध्रोरन्ध्री गुहा की मृदुतकी कोशिकाओं से हरितलवक समाप्त होने लगता है और यह कोशिकाएँ तेजी से वृद्धि करके पतली भित्ति वाली अनियमित अथवा गोलाकार संपूरक कोशिकाओं के रूप में कार्य करने लगती है।
इस प्रकार सम्पूरक कोशिकाओं का निर्माण दो अलग अलग प्रक्रियाओं से होता है। पहले तो कॉर्क कैम्बियम के विभाजन से वातरन्ध्रों के नीचे और दूसरा अधोरंध्री गुहा की मृदुतकी कोशिकाओं के द्वारा।
जैसे जैसे पूरक कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि होती है तो पौधे के उसे विशेष हिस्से से बाह्यत्वचा पर एक विशेष प्रकार का दबाव पड़ता है और यह ऊपर से फट जाती है और इस प्रकार से एक छिद्र जैसी संरचना अथवा वातरन्ध्र बन जाता है। कई बार सबसे पहले बनी हुई संपूरक कोशिकाएं मृत हो जाती है। ऐसी स्थिति में कॉर्क केम्बियम की कोशिकाएं पुनः नयी सम्पूरक कोशिकाओं का निर्माण करती है। इन संपूरक कोशिकाओं के दोनों तरफ कुछ मोटी भित्तियुक्त कोशिकायें भी पायी जाती है जिनको क्लोजिंग कोशिकाएँ कहते है और इनकी परत क्लोजिंग परत कहलाती है। कुछ समय के बाद पूरक कोशिकाएं लगातार बनने से यह क्लोजिंग परत भी टूट जाती है और छिद्र अथवा वातरन्ध्र स्पष्ट दिखाई देने लगते है।
प्राय: वातरन्ध्र , स्टोमेटा के नीचे नहीं बनते लेकिन यह कॉर्क कैम्बियम की सक्रियता के कारण पौधे में कही भी बन सकते है। आरोही पौधों में वातरन्ध्र नहीं पाए जाते है।