(contact process of sulphuric acid in hindi) संपर्क विधि से सल्फ्यूरिक अम्ल का निर्माण , संपर्क विधि h2so4 चित्र , क्रिया प्रक्रम : औद्योगिक क्षेत्र में सल्फ्यूरिक अम्ल बनाने की यह एक विधि है , इस विधि के अन्य प्रचलित विधियों जैसे चैम्बर विधि और लेड चैम्बर विधि का स्थान भी ले लिया है।
इस विधि में गर्म उत्प्रेरक में
सल्फर डाइऑक्साइड और
ऑक्सीजन को प्रवाहित किया जाता है जिससे सल्फर ट्राईऑक्साइड का निर्माण होता है। फिर यह सल्फर ट्राईऑक्साइड , जल के साथ क्रिया करके
सल्फ्यूरिक अम्ल बनाती है।
संपर्क विधि से सल्फ्यूरिक अम्ल का निर्माण में अभिक्रियाएँ
इसमें तीन मुख्य पद होते है अर्थात सम्पर्क विधि प्रक्रम द्वारा सल्फ्यूरिक अम्ल के निर्माण में तीन मुख्य पद होते है जो निम्न प्रकार है –
प्रथम पद : सल्फर डाइऑक्साइड का निर्माण होता है –
जब सल्फर सल्फाइड अयस्क जैसे आयरन पायराईट को वायु की अधिकता में गर्म किया जाता है तो इसके फलस्वरूप सल्फर डाइऑक्साइड बनता है।
सल्फर को वायु की अधिकता में गर्म करने पर निम्न क्रिया द्वारा सल्फर डाइऑक्साइड का निर्माण होता है –
S (सल्फर) + O2(ऑक्सीजन) + Δ(गर्म) → SO2(सल्फर डाइऑक्साइड)
आयरन पाइराइट्स को वायु की अधिकता में गर्म करने से भी सल्फर डाइ ऑक्साइड बनता है , यह क्रिया निम्न प्रकार संपन्न होती है –
4FeS + 7O2 + Δ(heating) → 2Fe2O3 + 4SO2
द्वितीय पद : सल्फर ट्राइऑक्साइड का निर्माण होता है –
इसमें V2O5 को उत्प्रेरक के रूप में काम में लिया जाता है और वायुमंडलीय ऑक्सीजन के साथ सल्फर डाइऑक्साइड को सल्फर ट्राइऑक्साइड में ऑक्सीकृत किया जाता है , यह क्रिया निम्न प्रकार संपन्न होती है –
2SO2 + O2 + V2O5 → SO3
तृतीय पद : इस पद में सल्फर ट्राइऑक्साइड को सल्फ्यूरिक अम्ल में परिवर्तित किया जाता है –
ऊपर वाले पद में प्राप्त सल्फर ट्राइऑक्साइड को 98% सल्फ्यूरिक अम्ल में डाला जाता है जिससे सल्फर ट्राइऑक्साइड इसमें अवशोषित होकर पायरोसल्फ्यूरिक एसिड (H2SO4) या ओलियम का निर्माण करता है , यह अभिक्रिया निम्न प्रकार संपन्न होती है –
SO3(सल्फर ट्राइऑक्साइड) + H2SO4(98% सल्फ्यूरिक अम्ल) → H2S2O7
इसके बाद ऊपर पद में प्राप्त ओलियम का तनुकरण किया जाता है , जिससे हमें इच्छित सांद्रता का सल्फ्यूरिक अम्ल प्राप्त हो जाता है –
H2S2O7 + H2O → 2H2SO4(Sulphuric acid)
संपर्क विधि की संरचना , वर्णन , क्रियाविधि व्याख्या
सम्पर्क विधि में काम आने वाला यन्त्र का चित्र नीचे दर्शाया गया है तथा इसके भागों को आगे विस्तार से समझाया गया है –
इसके समस्त भाग को अलग अलग आगे वर्णन किया जा रहा है।
1. पायराइटज या सल्फर बर्नर : इसे चित्र में a द्वारा दर्शाया गया है , यहाँ पर सल्फर या आयरन पायराइटज को वायु की अधिकता में जलाया जाता है जिससे सल्फर डाइऑक्साइड बनता है।
S + O2 èSO2
4FeS2 + 11O2 è2Fe2O3 + 8SO2
2. शोधक इकाई : सल्फर बर्नर में प्राप्त सल्फर डाइऑक्साइड में विभिन्न प्रकार की अशुद्धियाँ होती है जैसे धुल के कण , आर्सेनिक ऑक्साइड, वाष्प, सल्फर आदि। हमें इस सल्फर डाइऑक्साइड में से इन अशुद्धियों को अलग करना जरुरी होता है अन्यथा काम में लिए जाने जाने वाले
उत्प्रेरक की क्रियाशीलता का मान कम हो जाता है।
इसमें से अशुद्धियों को हटाने के लिए निम्न पद काम में लिए जाते है –
- धूल कक्ष : SO2 को सबसे पहले धुल चैम्बर से गुजारा जाता है , इस चैम्बर में गैस के ऊपर से भाप को गुजारा जाता है जिससे धूल के कण हट जाते है। इस क्रिया में धुल के कण भाप के कारण स्थिर हो जाते है और नीचे बैठ जाते है जिससे SO2 गैस से धुल के कण हट जाते है।
- शीतलक : इस चैम्बर से जब SO2 गैस को गुजारा जाता है तो गैस का ताप बहुत कम हो जाता है।
- स्क्रबर : शीतलन क्रिया के बाद SO2 को स्क्रबर चैम्बर से गुजारा जाता है इस चैम्बर को वाशिंग मीनार भी कहते है , इस मीनार में जब SO2 को गुजारा जाता है , यहाँ पानी का फव्वारा चलता है जिससे यहाँ पानी में विलेय होने वाली अशुद्धियाँ दूर हो जाती है।
- शुष्कन मीनार : इसके बाद इसको शुष्क करने के लिए अर्थात सुखाने के लिए शुष्कन मीनार से गुजारा जाता है जिसमें सान्द्र H2SO4 का फव्वारा चलाया जाता है , यह एक शुष्क निर्जलीकरण कारक होता है जिससे नमी दूर हो जाती है और SO2 शुष्क हो जाता है।
- आर्सेनिक शोधक : जैसा की हम जानते है कि आर्सेनिक ऑक्साइड एक उत्प्रेरक विष की तरह कार्य करता है इसलिए इसको हटाना आवश्यक होता है , इसे हटाने के लिए ताजा अवक्षेपित फेरिक हाइड्रोक्साइड के साथ गुजारा जाता है जिससे फेरिक हाइड्रोक्साइड , आर्सेनिक ऑक्साइड की अशुद्धि को अवशोषित कर लेता है , या क्रिया निम्न प्रकार संपन्न होती है –
As2O3 + 2Fe(OH)3 è 2FeAsO3 + 3H2O
3. परिरक्षण बक्सा : इस चैम्बर में यह पता लगाया जाता है कि SO
2 गैस से अशुद्धियाँ दूर हुई या नहीं अर्थात इसमें गैस की शुद्धता का पता लगाया जाता है , इसके लिए इस चैम्बर में इस गैस को गुजारने के बाद कक्ष के दाए कोण से प्रकाश की एक तीव्र किरण भेजी जाती है , यदि ये गैसे शुद्ध अवस्था में है तो यह प्रकाश का पथ अदृश्य रहता है और यदि इस गैस में अभी भी कोई अशुद्धि जैसे धुल के कण आदि उपस्थित हो तो यह
प्रकाश का पथ और धूल के कण दोनों स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है , यदि गैस में अशुद्धि पायी जाती है तो गैस को पुन: शोधक इकाई से गुजारना पड़ता है।
इसको टेस्ट बॉक्स या टिंडल बक्सा भी कहा जाता है।
4. संपर्क मीनार या रुपान्तरक : इसमें SO2 गैस का ऑक्सीकरण किया जाता है , इस सम्पर्क मीनार में विभिन्न पाइप में V2O5 को भरा जाता है , यहाँ SO2 गैस , ऑक्सीजन के साथ क्रिया करती है और क्रिया के फलस्वरूप SO3 बनाती है।
ऊपर की शर्तो के अनुसार 98% सांद्रता वाली SO2 गैस , SO3 में परिवर्तित हो जाती है और इस क्रिया में ऊष्मा बाहर निकलती है इसलिए इसे प्री हीटिंग की आवश्यकता नहीं होती है।
यह क्रिया निम्न प्रकार समपन्न होती है –
2SO2 + O2 è 2SO3 + 45Kcal
4. अवशोषण मीनार : संपर्क मीनार से प्राप्त SO3 को अब अवशोषण मीनार में प्रवाहित किया जाता है , इस अवशोषण मीनार में अम्ल अभेध फ्लिंट के टुकड़े होते है।
सल्फर ट्राई ऑक्साइड के अवशोषण के लिए इस मीनार के ऊपर से शुद्ध सान्द्र H2SO4 का फव्वारा चलाया जाता है जिसके फलस्वरूप ओलियम सल्फ्यूरिक अम्ल (H2S2O7) का निर्माण होता है –
यह अभिक्रिया निम्न प्रकार होती है –
SO3 + H2SO4 è H2S2O7 (OLEUM)
इसके बाद
अवशोषण मीनार में बने ओलियम सल्फ्यूरिक अम्ल का जल के साथ तनुकरण किया जाता है जिससे हमें सल्फ्यूरिक अम्ल प्राप्त होता है , यह निम्न प्रकार होता है –
H2S2O7 + H2O è 2H2SO4
यह प्राप्त सल्फ्यूरिक अम्ल हमें हमारी आवश्यकता के हिसाब से
सांद्रता के आधार पर प्राप्त होता है।