स्थलाकृति की संकल्पना क्या है (Concept of Landscapes in hindi) , स्थलाकृति की परिभाषाएँ किसे कहते हैं
स्थलाकृति की परिभाषाएँ किसे कहते हैं (Concept of Landscapes in hindi) स्थलाकृति की संकल्पना क्या है ?
स्थलाकृतियों की संकल्पना
(CONCEPT OF PHYSICAL LANDSCAPES)
19 वीं शताब्दी के पूर्व भूआकृतिक विज्ञान विषय ही नहीं था परंतु 1950 के बाद भौतिक भूगोल की स्वंत्रत शाखा के रूपा में भूआकृति विज्ञान का विकास हुआ। भूआकृतिक विज्ञान मुख्य रूपा से स्थलाकृतियों का विस्तृत अध्ययन है। भौतिक स्थलाकृति का अध्ययन विशेषकर भूगर्भशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता था तथा स्तर शैल विज्ञान एवं पुरा वनस्पतिशास्त्र के क्रमिक विकास के फलस्वरूपा भौतिक स्थलाकृतियों का अध्ययन भूगर्भशास्त्र के क्षेत्र में शनैः शनैः छूटता गया। सन् 1930 ई. के लगभग भूगर्भशास्त्र एवं भौतिक भूगोल के मध्यस्थ भूदृश्य का अध्ययन करने के लिए ज्ञान की एक नई शाखा निकल पड़ी जो अपने शैशव काल में प्राकृतिक भूवृत्त के नाम से पुकारी जाने लगी। परन्तु बाद में मानव ज्ञान की प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्टीकरण की प्रवृत्ति के फलस्वरूपा भूद्दश्यों के अध्ययन की भी विशिष्ट प्रणाली चल पड़ी जिसके फलस्वरूपा भूस्वरुप विज्ञान का अभ्युदय हुआ और स्थलाकृतियों का अध्ययन इसकी विषय सामग्री आंकी गई।
स्थलाकृति की संकल्पना (Concept of Landscapes)
भौगोलिक विचारधारा के अन्तर्गत स्थलाकृति शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता रहा तथा इंग्लैण्ड में रचनात्मक रूपा से इसका प्रयोग किसी क्षेत्र का विशिष्ट अध्ययन के लिए किया गया। अब यहां जर्मन, अमेरिका व ब्रिटिश विचारधारा के अन्तर्गत भौतिक स्थलाकृतियों का अध्ययन करेंगे।
भौतिक स्थलाकृतियों की जर्मन विचारधारा (German Concept of Physical Landscapes)
स्थलाकृति शब्द का सबसे प्रथम प्रयोग जर्मनी के विद्वान ने अपनी जर्मन भाषा लैण्डशाफ्ट के रूपा में किया तथा जिन विद्वानों ने इस शब्द का प्रयोग किया यह रूढ़िवादी या स्थलाकृति विचारधारा के नाम से पुकारे जाने लगे। जर्मनी में स्थलाकृति शब्द का प्रयोग दो रूपाों में किया गया-
(i) पृथ्वी का वह भूभाग जो सामान्यतया दृष्टिगोचर हो वह स्थलाकृति के रूपा में आंका गया है।
(ii) पृथ्वी का कुछ सीमित क्षेत्र स्थलाकृति के रूपा में आंका गया, प्रथम व्याख्या पृथ्वी का वह भूभाग जो दृष्टिगोचर हो वह स्थलाकृतियों का द्योतक माना जा सकता है तथा दूसरी परिभाषा आंग्ल भाषा के क्षेत्र की पर्यायवाची मानी जा सकती है।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जर्मनी के भौगोलिक साहित्य में स्थलाकृति की उपर्युक्त द्वैत भावना का प्रबल प्रचार रहा। होमेयर नामक विद्वान ने स्थलाकृति का प्रयोग विशेषकर प्रदेश जो किसी भूभाग के मध्यस्थ में स्थिर हो-के लिए किया। होम्बोल्ट ने स्थलाकृति का प्रयोग विशेषकर सौन्दर्य कला के सिद्धांत के लिए माना परन्तु कभी-कभी इसको भिन्न अर्थ में भी उपयोग किया। इस प्रकार औपल एवं बीमर नामक विद्वानों ने भी प्राकृतिक सौन्दर्य के रूपा में इसका प्रयोग किया। जर्मनी के बहुत से विद्वानों जिनमें, होडील, फ्रोबिल तथा वेन्स मुख्य हैं उन्होंने जर्मनी के भौगोलिक साहित्य में स्थलाकृति का प्रयोग प्रदेश के अर्थ में किया है।
स्थलाकृति की परिभाषाएँ –
(1) बेविल नामक जर्मन विद्वान ने स्थलाकृति की परिभाषा देते हुए यह स्पष्ट किया कि आकाश एवं पृथ्वी के धरातल का वह भाग जो प्रत्यक्ष रूपा से दृष्टिगोचर हो वह स्थलाकति का द्योतक है।
(2) ग्रेनों के अनुसार दृष्टिकोण क्षेत्र को स्थलाकृति के अन्र्तगत माना है। कुछ जर्मन विद्धानों ने भौगोलिक क्षेत्र को स्थलाकृति के रूपा में माना है।
(3) लाउन्टीसेच नामक विद्वान ने अभौतिक तत्वों जैसे, जातिय एवं भाषा सम्बन्धी तत्वों को भी इसके क्षेत्र के अन्तर्गत सम्मिलित किया है।
(4) मेउल नामक विद्वान ने स्थलाकति के अंतर्गत राजनीतिक तत्वों को भी सम्मिलित किया है तथा यह स्पष्ट किया कि कोई भी राजनीतिक इकाई क्यों न हो परन्तु उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उस प्रदेश की स्थलाकृति से आंका जा सकता है।
(5) क्रीव ने भमि एवं स्थलाकति में विभिन्नता व्यक्त करते हुए यह स्पष्ट किया कि स्थलाकतिमा में भूमि के वे भाग है जिनमें एक समान विशेषताएँ लक्षित होते हैं।
रिचथोफन की विचारधारा – रिचथोफन ने 1886 ई. में अपनी पुस्तक में क्षेत्रीय अध्ययन से भौतिक भूगोल एवं भगर्भशास्त्र की सुयोग्यता पर प्रकाश डालते हुए उन प्रक्रमों का वर्णन किया जिसे पृथ्वी के धरातल पर भूदृश्यों की उत्पत्ति हुई है। रिचथोफन ने प्रक्रम के आधार पर भूदृश्यों को निम्नलिखि वर्गों में बाँटा है –
1. भौगर्भिक शक्तियों से निर्मित स्थलाकृतियाँ: इसके अंतर्गत
(अ) अवरोधी पर्वत जिसमें
(प) समतल पर्वत
(पप) घर्षित अवरोधी पर्वत
(प) अविषमविन्यास वाले अवरोधी पर्वत
(पअ) मोड़दार पर्वत
(अ) सममोड़ अवरोधी पर्वत
(ब) मोड़दार पर्वत (प) सममोड़दार पर्वत, (पप) विषम मोड़दार पर्वत का समावेश है।
2. घर्षित पर्वत
3. ज्वालामुखी पर्वत
4. संचित पर्वत
5. पठार: पठारों के अंतर्गत घर्षित पठार, जलीय क्षरण से निर्मित समतल मैदान, क्षैतिजाकार पर्तदार उच्च भाग, लावा मैदान, जलोढ़ मैदान आदि का समावेश होता है।
6. वायु निक्षेपों से निर्मित मैदान
7. क्षरण से निर्मित पर्वत इस प्रकार रिचथोफेन ने अपने विचारों को 7 भागों में वर्गीकृत किया है
पेंक की विचारधारा: पेंक ने स्थलाकृतियों का अध्ययन करने से पूर्व सर्वप्रथम तृतीय कल्प के हिमानियों एवं भूगर्भशास्त्र का विस्तृत अध्ययन किया तथा तृतीय कल्प के हिमयुग के जो चार विभागगंज मिंडल, रिस तथा वर्म हैं, उनका प्रतिपादन करने का श्रेय पेंक को ही है।
पेंक ने सबसे पहले पृथ्वी की मीमांसा नामक ग्रन्थ लिखकर भूस्वरूपा विज्ञान का प्रतिपादन किया है। इसके प्रथम खण्ड में पृथ्वी के स्वरूपा, आकार तथा प्रक्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। परन्तु द्वितीय खण्ड में उन्होंने विशेषकर क्षरण के अभिकर्ताओं के फलस्वरूपा जनित स्थलाकृति के वर्गीकरण पर प्रकाश डाला है। अपक्षय एवं क्षरण से उत्पादित स्थलाकृतियों जैसे हिमानीजनित, चूने के क्षेत्रों, ज्वालामुखी से उत्पादित संचयात्मक स्थलाकृतियों का विशद विवेचन किया है। पेंक ने छः प्रकार की धरातलीय आकृतियाँ गिनाई हैं।
1. समतल मैदान – जिसका धरातल अपेक्षाकृत एक समान हो।
2. खड़ी ढाल वाली पहाड़ियाँ – जिसका ढाल तीव्र हो।
3. घाटियाँ – जिसमें दो तरफ से पार्श्व ढाल किसी निचले क्षेत्र में आकार मिल जाये तथा जो खुद भी अपनी लम्बाई की तरफ झुकी रहे।
4. पर्वत – जिसके धरातल का विस्तार किसी भी दिशा में हो सकता है तथा इसका कोई उच्च शिखर होना आवश्यक है।
5. गर्त – चारों तरफ से जिसमें ढाल हो।
6. कन्दरा – वह भाग जो चारों तरफ से धरातल से घिरा हो।
ऊपर वर्णित छः प्रकार की संरचनाओं पर क्षरण एवं अपक्षय के प्रभाव से 6 प्रकार की धरातलीय आकृतियों का उद्भव पेंक ने स्पष्ट किया है।
पासर्गी की विचारधारा: पासर्गी ने अपने स्थलाकृतियों के क्षेत्र ष्टमतहसमपबीमदकम स्ंदकमेबींपिान दकमष् नामक ग्रन्थ में जलवायु, जलाशय, भूमि, वनस्पति तथा सांस्कृतिक तत्वों को आधार मानकर एक स्थल स्वरूपा को दूसरे से पृथक् किया तथा इस प्रकार के क्षेत्र को उन्होंने श्इकाई क्षेत्रश् नाम से पुकारा और ढाल, चरागाह, घाटियों, रेतीले टीलों को स्थल स्वरूपा के तत्वों के अन्तर्गत मानकर एक वर्ग को दूसरे वर्ग से पृथक किया तथा जहाँ पर एक वर्ग के तत्व दूसरे वर्ग के तत्वों से सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं उसके एक क्षेत्रश् की संज्ञा दी जैसे मध्य यूरोपीय क्षेत्र, जो वास्तव में जलवायु विभाग का द्योतक है। स्थलाकृतियों की अमरीकी विचारधारा (American Concept of Physical Landscapes)
अमरीका के भौगोलिक साहित्य में सर्वप्रथम स्थलाकृतियों का अध्ययन का श्रेय जे.डब्लू. पौउल नामक भूगर्भशास्त्री को है जिन्होंने कोलोरेडो नदी की घाटी का विस्तृत अध्ययन करने के उपरान्त स्थलाकृतियों के तीन मुख्य नियमों का प्रतिपादन किया जो क्रमशः इस प्रकार हैं-
(1) आधार तल का नियम जिसका प्रबल समर्थन बाद के भौगोलिक तथा भूगर्भिक साहित्य में किया गया।
(2) क्षरण के नियम की प्रकृति एवं उसी सापेक्षिता क्षमता, तथा
(3) स्थलाकृतियों का ऐतिहासिक वर्गीकरण।
उपर्युक्त तीनों नियम स्थलाकृतियों के विकास में एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। जब नदियाँ आधार तल की तरफ प्रवाहित होती हैं तो क्षरण की क्रिया की प्रबलता एवं न्यूनता के फलस्वरूपा स्थलाकृतियों का विकास होता है। जिनका अध्ययन हमें श्आधुनिकता को प्राचीन की कुंजीश् समझ कर करना चाहिए। शुष्क जलवायु वाले भागों में नमी की न्यूनता के फलस्वरूपा वनस्पति की कमी होने से धरातल वीरान रहता है। जिसके फलस्वरूपा अपक्षय क्रिया से क्षयात्मक तत्वों से स्थलाकृति का स्वरूपा बदलता रहता है।
ग्रौवकार्ल गिलबर्ट के विचारः ग्रीव काले गिलबर्ट नामक भूगर्भशास्त्री जो कि पौउल के सहायक थे, ने स्थलाकृतियों की विवेचना की। सन् 1875-76 ई. में गिलबर्ट ने हेनरी पर्वत का भौगोलिक सर्वेक्षण किया जिसके आधार पर उन्होंने निम्न शीर्षको का विशद क्रिया-संरचना एवं क्षयात्मक प्रक्रम, जलवायु का स्थलाकृतियों पर प्रभाव, ढाल निरूपाण एवं उसकर क्रमशः घटना तथा जल-प्रभाव की स्थिरता। गिलबर्ट ने पौउल के द्वारा वर्णित पूर्वारोपित, पूर्वगामी तथा अनुगामी प्रवाह प्रणाली का प्रयोग तो अपने वृतान्त में किया है परन्तु आधार तल का कहीं भी विवचेन नहीं किया है। गिलबर्ट ने स्थलाकृतियों के विकास एवं विनाश में जलोढ़ किया को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए अपक्षय, स्थानान्तरण एवं अपघर्षा का विशेष तत्वों में स्थान देते हुए यह स्पष्ट किया कि घोलीकरण, ताप की विषमता, वर्षा की मात्रा, गुरुत्वाकर्षण एवं वनस्पति के वितरण पर अपक्षय क्रिया आधारित रहती है।
सन् 1884 ई. में फेरल के द्वारा प्रतिपादित नियम का प्रयोग गिलबर्ट ने नदियों के मोड़ों को समझाने के लिए किया तथा यह बतलाया कि उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते हुए पिण्ड के कारण नदियों के मार्ग में जो है विसंगति उत्पन्न होती है उसके द्वारा नदियों के मार्ग में दाहिनी तरफ मोड़ों की उत्पत्ति होती है जिसके फलस्वरूपा पाव कटाव होने से नदियों का अधिकांश जल दाहिने किनारे पर बहता है और उत्तरी गोलार्द्ध में नदियाँ दाहिने तट तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायें तट का अधिक क्षरण करती हैं। गिलवर्ट के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में जो नदी 45° उत्तरी अक्षांश रेखा में 3 मीटर प्रति सेकण्ड की दर से बहती है वह अपने भार का 1/63,539 दबाव पूर्वी किनारे पर डालती है अन्यथा नदियों की घाटियों का जल का प्रवाह रूक जाता तथा घाटी का विकास नहीं हो पाता।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जब नदी दाहिने किनारे पर कटाव करती है उसके कारण जो पदार्थ च्ी के जल में सम्मिलित होता है उसके वेग में दुगुनी शक्ति उत्पन्न होने से वहीं जल बायें किनारे की अपेक्षाकृत दुगुनी शक्ति से काटता है।
गिलबर्ट के द्वारा वर्णित प्रवाह तन्त्र स्थलाकृति की व्याख्या को बीसवीं शताब्दी में परिणामात्मक भूस्वरूपा विज्ञान का रूपा दिया गया। गिलबर्ट ने जिन सूत्रों तथा तथ्यों का प्रतिपादन भूस्वरूपा विज्ञान के विज्ञान के अन्तर्गत किया था उन्हीं के आधार पर पिछले पचास सालों से यह विज्ञान विभिन्न स्वरूपाों में आगे बढ़ रहा है। परन्तु इनके द्वारा प्रतिपादित अर्द्धशुष्क एवं शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में अपक्षय के द्वारा धरातलीय चट्टानों का पार्श्व समतलन की विचारधारा को बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक समर्थन नहीं मिल पाया। वास्तव में यह गिलबर्ट के द्वारा वर्णित क्रमानुक्रम या प्रवणतावस्था की विचारधारा थी जिसका मुख्य तात्पर्य भौगर्भिक शक्ति एवं उससे जनित धरातल के मध्य की सन्तोलन का अनुपात था जिसके द्वारा प्रक्रम एवं संरचना का समायोजन स्थापित हो सके अर्थात् एक निश्चित भूभाग पर प्रक्रम की शक्तियों से धरातल में जो भी ऊर्ध्वगति या अवतलन होता है उसे ऊर्ध्वगति या अवतलन का पारस्परिक सम्बन्ध क्या है? प्रक्रम की क्रिया से मौलिक भूभाग में कितना परिवर्तन हुआ, तथा जो परिवर्तन हुआ उसका समायोजन किन-किन परिस्थितियों में सम्भव हो पायेगा? यही गिलबर्ट का मुख्य विषय रहा।
डेविस की विचारधारा: डेविस ने स्थलाकृतियों के विवरण में क्षयात्मक तत्वों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया। क्षयात्मक तत्वों में जल के कार्यो के आधार पर डेविस ने आधार तल एवं परिच्छेदिका का प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करते हुए स्पष्ट किया है कि युवावस्था में नदी के द्वारा बहते हए पदार्थ की मात्रा एवं वेग में सन्तुलन न होने से गहरी घाटियों, जलप्रपातों एवं गर्त की उत्पत्ति होती है। डेविस का विश्वास था कि स्थलाकृतियों के उद्भव एवं विकास में संरचना की अपेक्षा क्षरण को अभिकर्ता मुख्य रूपा से प्रभाव डालते हैं। इसी प्रकार डेविस ने क्षरण के आधार पर स्थलाकृतियों का वर्गीकरण किया और भौगोलिक बत्त की संकल्पना का प्रतिपादन किया। भौगोलिक वृत्त का क्षरण की मात्रा एवं वेग भार की अपेक्षा अधिक होने पर यवावस्था, वेग एवं भार में सन्तुलन होने पर प्रौढावस्था तथा वेग की अपेक्षा भार की मात्रा कई गुना अधिक होने पर वृद्धावस्था की कल्पना डेविस महोदय ने की है तथा विभिन्न स्थितियों में स्थलाकृतिया का उदभव मुख्यकर सरचना प्रक्रम एव अवस्था को द्योतक मानी गयी है अर्थात किसी भी क्षेत्र में या प्रदेश या जलवायु के अन्तर्गत चाहे जो भी स्थलाकृतियाँ हमें देखने को मिलती हैं वह उस भाग की संरचना या हम कह सकते हैं कि किस प्रकार की चट्टान उस भाग का निर्माण करती है, या किन-किन चट्टानों से मिलकर यह भाग निर्मित हुआ है, तथा इन पर किन-किन प्रक्रम या क्षयात्मक कार्य प्रभाव डालते हैं और उस भाग की स्थलाकृतियाँ वहाँ की संरचना एवं क्षयात्मक तत्वों के आधार पर किस अवस्था में स्थित है जिसको डेविस ने संरचना प्रक्रम एवं अवस्थाओं की प्रतीक मानी है।
कार्लसावर की विचारधाराः कार्लसावर के अनुसार भौतिक स्थलाकृति वास्तव में वह मौलिक स्थलखण्ड है जो मानव के आगमन से पूर्व रहा हो या भौतिक स्थलाकृति भू भाग का वह क्षेत्र है जो मानवीय क्रियाओं से अप्रभावित रहा हो तथा मानवीय क्रिया-कलापों का उसकी मौलिकता पर कोई प्रभाव लक्षित नहीं होता है। वह स्थलखण्ड अपनी मौलिकता रखता है। इसके विपरीत सांस्कृतिक स्थलाकृति वास्तव में मानव के द्वारा रूपाान्तरित क्षेत्र होता है जिसमें मानवीय क्रिया-कलापों का प्रभाव लक्षित होता है। कार्ल सावर के द्वारा वर्णित उन विधियों का प्रयोग हम सांस्कृतिक स्थलाकृतियों के विवेचना में भी कर सकते हैं जिनके द्वारा हम भौतिक स्थलाकृतियों का वर्णन करते हैं। कार्ल सावर ने अपने बाद के ग्रन्थों में स्थलाकृति के आकार को प्रभावित करने में निम्नलिखित तथ्यों को सम्मिलित किया-
(1) किसी भी क्षेत्र की प्राकृतिक अवस्था,
(2) सांस्कृतिक स्थलाकृति या मानवीय क्रिया-कलापों का उस क्षेत्र पर प्रभाव।
इस प्रकार प्राकृतिक क्षेत्र एवं प्राकृतिक स्थलाकृति ये दोनों ही एक ही अर्थ के द्योतक माने गये हैं तथा भौतिक भूदृश्यों में मनुष्य कुछ न कुछ परिवर्तन कर डालता है। इस प्रकार की विचारधारा का समर्थक कार्ल सावर के अनुयायियों ने भी किया है, जबकि सावर स्थलाकृति को श्क्षेत्र की एक विशिष्ट इकाईश् मानते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि भौगोलिक क्षेत्र एक भौतिक वस्तु है जिसके स्वरूपाों को हम उसकी उत्पत्ति, विकास संरचना एवं कार्य से पहचान सकते हैं।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमेरिका के भूगोल विशारदों का अध्ययन का क्षेत्र प्राकृतिक भृवृत्त से हटकर विशेषकर प्राकृतिक वातावरण के तत्वों एवं मानवीय क्रियाओं की तरफ आकर्षित हआ। क्रीव का अनुकरण करते हुए अमेरिका के भूगोल विशारदों ने यह स्पष्ट किया कि स्थलाकृति का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि मानवीय क्रिया-कलाप से पूर्व प्राकृतिक स्थलाकृति का स्वरूपा क्या था, उसकी उत्पत्ति में किन-किन तत्वों या शक्तियों का हाथ रहा तथा अपनी प्रथम अवस्था से लेकर अपनी अन्तिम अवस्था में पहुंचने तक उसको विकास की किन-किन सोपानों से होकर गुजरना पड़ा। इतनी ही नहीं बल्कि प्राकृतिक स्थलाकृति या भूदृश्य का सांस्कृतिक रूपाान्तरण किस प्रकार सम्भव हो पाया। इन सब तथ्यों का सम्मिलित अध्ययन स्थलाकृति के अन्तर्गत कर सकते है क्योंकि इन दोनों का एक दूसरे पर पारस्परिक सम्बन्ध एवं प्रभाव पड़ता है।
उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व स्थलाकृतियों का अध्ययन विशेषकर भूगर्भशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता था परन्तु ज्यों-ज्यों भूगर्भशास्त्र का विशिष्टीकरण होता गया त्यों-त्यों स्तर-शैल विज्ञान एवं पुरालुप्त विज्ञान के साथ ही साथ स्थलाकृतियों का अध्ययन किया जाने लगा, परन्तु स्थलाकृतियों का अध्ययन करने के लिए भूगर्भशास्त्र का प्रारम्भिक ज्ञान अति आवश्यक है। कालान्तर में स्थलाकृतियों का अध्ययन प्राकृतिक भूगोल के अन्तर्गत किया जाने लगा।
स्थलाकृति की ब्रिटिश विचारधारा (British Concept of Physical Landscape)
मध्यकालीन समय में इंगलैंड में जब कोई विशिष्ट वर्ग के लोग किसी निश्चित क्षेत्र में निवास करते थे या किसी जिले पर जब कोई लार्ड शासन करता था तो उसके लिए भूक्षेत्र का प्रयोग करते थे। परन्तु डच चित्रकला का प्रभाव आंग्ल भाषा पर पड़ने के फलस्वरूपा ‘भूक्षेत्र‘ शब्द स्थलाकृति के रूपा में प्रयोग किया जाने लगा अर्थात् स्थलाकृति की व्युत्पत्ति अंग्रेजी के संदकेबपचम शब्द से हुई। इस शब्द को स्वीडिश भाषा में लैण्डस्काप डच में लैण्डस्चेप तथा जर्मन में लैण्डस्चैफ्ट नाम से पुकारते है। डच भाषा में इसका प्रयोग विशेषकर प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये किया गया। अब हम यहाँ कुछ ब्रिटिश विद्धवानों के विचारधाराओं का अध्ययन करेंगे।
हैमरटन के विचारः स्थलाकृति शब्द का सबसे अधिक प्रयोग उन्नीसवी शताब्दी में फिलिप गिलबर्न हैमरटन नामक विद्धान् ने किया जिन्होंने 1885 ई. में संदकेबंचम पुस्तक लिखकर यह स्पष्ट किया कि स्थलाकृति शब्द का प्रयोग रूदो पों में किया जा सकता है, एक सामान्य तथा दूसरा विशिष्ट रूपा मे। सामान्य रूपा में स्थलाकृति का आशय पृथ्वी के धरातल के उस दृश्य भाग से है जिसकों सर्वसाधारण मनुष्य आसानी से देख सकता है तथा विशिष्ट रूपाा में स्थलाकृति पृथ्वी का वह भूभाग है जो सरलता से दृष्टिगोचर हो सकता है परन्तु इस दृष्टिगत क्षेत्र की कुछ सौन्दर्यात्मक एकता होनी चाहिए।
लायल के विचारः- सन् 1797 ई. में लायल का जन्म हुआ तथा इन्होंने भूगर्भशास्त्री में नवीन कई की तथ्यों के योगदान से स्थलस्वरूपाों की उत्पत्ति समझाई। उन्होंने यह माना है कि पृथ्वी के धरातल पर हमें जो भी स्थलाकृति आज देखने को मिलती है वह कई प्रक्रमों का फल है। रायल सोसाइटी के द्वारा जो ब्ंजंसवहें व िैबपमदजपपिब च्ंचमत के 76 ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें लायल ने स्थलाकृतियों की उत्पत्ति में विभंज क्रिया का हाथ माना है। लायल ने महाद्वीपीय झीलों के समाप्त होने से स्थलाकृतियों पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी स्पष्ट किया है। इन्होंने नदियों से पदार्थ का जो हस्तान्तरण होता है उसका सम्बन्ध क्षरण की मात्र से आंका जो कि आज के वैज्ञानिक युग में स्थलस्वरूपाों की उत्पत्ति में मुख्य स्थान रखती है तथा इसक समर्थन सभी वैज्ञानिक करते है। लायल ने भूदृश्यों की उत्पत्ति में समुद्र के कार्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया।
परन्तु जब लायल, हुटन एवं प्लेफियर के लेखों से प्रभावित हुए तो उन्होंने यह स्पष्ट किया कि पर्वत या उच्च भूभागों से नदियाँ जब अपनी आधार तल का निर्माण करती हैं तो अपने साथ जो पदार्थ बहाकर लाती है उसको अपने तल में जमा करती रहती है। तथा पदार्थ की अधिकता से नदी का तल ऊँचा हो जाता है। जिससे आकस्मिक बाढ़ या अत्यधिक प्रवाह के कारण नवीन क्षेत्रों का क्षरण होने से यात स्थलाकृतियों की उत्पत्ति होती है या विनाश होता है। जब क्षरण होता है तो नदी की परिच्छेदिका लम्ब होती है और ढाल सीधा हो जाता है परन्तु जब निक्षेपण होता है तो जलोढ़ या बाढ़ मैदानों की उत्पति होती है। परन्तु यदि नदी का वेग और निक्षेपण की मात्रा- समान हुई तो नदियों के किनारे एक विशिष्ट प्रक की संरचना होती है जो सीढ़ीनुमा ढाल कहलाते हैं। इस प्रकार लायल के अनुसार भूस्वरूपाों के निर्माण ए उनके रूपाान्तरण में नदी का क्षरण मुख्य तत्व माना गया है।
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