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cocci bacteria in hindi , gram-positive cocci treatment in hindi कोकस बैक्टीरिया क्या है , रोग उपचार

पढेंगे cocci bacteria in hindi , gram-positive cocci treatment in hindi कोकस बैक्टीरिया क्या है , रोग उपचार ?

चिकित्सा महत्त्व के जीवाणु (Bacteria of Medical Importance)

सूक्ष्मजीवों में से अनेक जीवाणु रोगजनक (pathogen) होते हैं। इनमें से अनेक जीवाणु मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। हमारे समाज व आर्थिक व्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में जब पूरा विश्व एक साथ जुड़ सा गया है, कोई भी नया रोग पूरे विश्व में तहलका सा मचा देता हैं। हाल ही में चीन, जापान एवं हागकांग में सार्स (SARS) रोग उत्पन्न हो गया जो अन्य देशों में भी फैलने लगा, अनेक व्यक्ति इसके शिकार हो गये, हवाई उड़ाने रोक दी गयीं, परीक्षण तकनीकें, रोग के उपचार एवं बचने के उपाय खोजे जाने लगे। आदिकाल से अनेक रोग हमारी जनसंख्या को प्रभावित करते आये हैं। इसमें से अधिकतर रोग भयंकर संक्रामक प्रकृति के हैं जो महामारी के रूप में फैलकर समय-समय पर जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करते आये है। ये रोग जीवाणुओं, कवक, विषाणुओं, प्रोटोजाओं व सूक्ष्म हैलमिन्थ द्वारा उत्पन्न होते हैं। बीसवीं सदी के आरम्भ से सूक्ष्मजीवी विज्ञान में हुई प्रगति के कारण लगभग सभी रोगों के बारे में इतनी जानकारी उपलब्ध है कि अब अनेक व्यापक रूप धारण करने से पूर्व ही इन पर नियंत्रण कर लिया जाता है। इसका श्रेय पोषक – परजीवी ( host parasite) सम्बन्धों पर किये गये शोधकार्यों को हैं जिनके आधार पर टीकों की ख़ोज कर आज अनेक रोगों पर विजय प्राप्त की जा चुकी है। जीवाणु कार्यिकी, आनुवंशिकी, रोधक क्षमता आदि क्षेत्रों में किये गये विस्तृत अध्ययन के फलस्वरूप आज चिकित्सा सूक्ष्म विज्ञान (medical microbiology) के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति हो चुकी है। चिकित्सा सूक्ष्मजैविकी के अन्तर्गत उन सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है जो मनुष्य में व अन्य प्राणियों में रोग उत्पन्न करते हैं। इस अध्याय में कुछ मानव रोगजनक सूक्ष्मजीवों का वर्णन किया जा रहा है।

ग्रैम ग्राही जीवाणु (Gram positive bacteria)

कोकॉई, स्टेफिलोकोकॉई, स्ट्रेप्टोकोकॉई (Cocci, Staphylococei, Streptococci) जीवाणुओं के आकार एवं परिमाण के आधार पर वर्गीकरण अध्याय-8 में जीवाणुओं का आकृतियों के आधार पर नामकरण किया गया है। जीवाणुओं के आरम्भिक वर्गीकरण में जीवाणु कोशिका की आकृतियों को कोकॉई, बैसिलाई एवं स्पाइरेल्स नाम दिये गये हैं। ये रसायन विषमपोषी (chemoheterotrophic) प्रकृति के वास्तविक जीवाणु हैं जो ग्रैम अभिरंजन ग्रहण करते हैं।

  1. कोकॉई (Cocci)

ये जीवाणु गोलाकार आकृति के होते हैं इनका व्यास लगभग 0.1um होता है ये वायुवीय प्रकार का अथवा विकल्पी वायुवीय श्वसन या अवायुवीय श्वसन करते हैं। जब प्रत्येक जीवाणु कोशिका अलग-अलग पायी जाती है इन्हें कोकॉई (एक वचन कॉकस ) कहते हैं, गोलाकार जीवाणु-कोशिकाओं के साथ-साथ रहकर शृंखला बना लेने पर इनका श्रृंखला में भाग लेने वाली कोशिका की संख्या के अनुसार नामकरण किया गया है। जब दो कोशिकाएँ (एक युग्म) श्रृंखला बनाती है डिप्लोकोकॉई (diplococci) कहते हैं। दो युग्म गोलाकार अर्थात् 4 कोशिकाओं के साथ लेने पर बनी आकृति को टेट्राकोकॉई (tetracocci) अर्थात् चर्तुफलांशकी कहा जाता है। गोलाकार कोशिकाओं के मोतियों या मानकों की माला के समान श्रृंखला बना लेने वाली आकृति को स्ट्रेप्टोकोकॉई (streptococci) कहते हैं। आठ कोशिकाओं के घनाकार (cuboidal) आकृति के रूप में व्यवस्थित हुए जीवाणु स्टेफिलोकोकाई (staphylococci) कहलाते हैं।

कोकॉई (cocci) को ग्रैम के अभिरंजन ग्रहण करने या ग्रहण न करने के आधार पर दो प्रभागों में विभक्त किया गया है। वे कोकॉई जो ग्रैम के अभिरंजन ग्रहण करते हैं ग्रैम ग्राही कोकॉई (Gram positive cocci) कहलाते हैं।

  1. ग्रैम ग्राही कोकॉई (Gram positive cocci)

इस प्रभाव में माइक्रोकोकेसी (Micrococcaceae) कुल के सदस्य माइक्रोकोकॉई (एक वचन माइक्रोकॉक्स) जिसका व्यास 0.5-3.5 pm के लगभग होता है सम्मिलित किये गये हैं। ये एक या अधिक तलों (planes) पर विभाजन कर नियमित या अनियमित छल्लों या समूहों के रूप में पाये जाते हैं। ये गतिशील या अगतिशील तथा वायुवीय या विकल्पी अवायुवीय होते हैं। ये रसायन कार्बनिक पदार्थ संश्लेषी ( chemo-organotrophs) प्रकार का पोषण करते हैं। इनमें निम्न लक्षण पाये जाते हैं-

(i) इनमें साइट्रोक्रोम्स उपस्थित होते हैं।

(ii) ये ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन हेतु करते हैं या कर सकते हैं अर्थात् इनमें उपापचय ऑक्सीकारी प्रकार का होता है।

(iii) कुछ जीवों में अवायवीय परिस्थितियों में किण्वन द्वारा ऊर्जा प्राप्त की जाती है।

(iv) कुछ जीवाणु बनाने वाले व कुछ बीजाणु न बनाने वाले जीवाणु इसमें सम्मिलित किये गये हैं।

सभी प्रभेद 5% NaCl के घोल में वृद्धि कर सकते हैं। इनमें DNA के क्षारकों G+C की मात्रा 30-35 आणविक प्रतिशत होती है। यह कुल तीन वंशों माइक्रोकोकॅस, स्टेफाइलोकोकॅस और प्लेनोकोकॅस द्वारा बना है।

माइक्रोकोकॉई समूह के जीवाणु मृदा, स्वच्छ जल तथा मनुष्य एवं अन्य जन्तुओं की में रहते हैं। ये वायवीय, अचल, आक्सीकारी प्रकृति के होते हैं। इनमें केटेलेज किण्वक बनता है। इनकी निवह लाल, नारंगी, पीली या अपर्णी हो सकती है। ये अहानिकारक मृतोपजीवी है। स्टेफालोकोकाई के सदस्य 15% NaCl के घोल या 40% पित्तरस में वृद्धि करते हैं। यह मुख्यतः त्वचा, त्वक, ग्रंथियों तथा नियततापी रक्त वाले जन्तुओं की श्लेष्म कलाओं में पाये जाते हैं।

कुछ स्ट्रेप्टोकोकेसी (streptococcaceae) में गोलाकार या अण्डाकार जीवाणु जो युग्मं अथवा श्रृंखला के रूप में पाये जाते हैं। ये अगतिशील, केटेलेज धनात्मक, विकल्पी अनाक्सीजीव हैं जो ऑक्सीकारी एवं किण्वकी उपापचय रखते हैं। ये भोजन विषाक्तन व संक्रमण हेतु उत्तरदायी होते हैं। स्टे. आरियस श्वेत, स्वर्ण के रंग की निवाह बनाता है। इनकी अनेक जातियाँ घावों एवं मूत्र वाहिनियों में संक्रमण उत्पन्न करती हैं। इनकी पोषणीय आवश्यकताएँ जटिल प्रकार की होती हैं। इनमें G+ C मात्रा 33-34 आण्विक प्रतिशत होती है। इस कुल को ग्लूकोज किण्वन (fermentation) के आधार पर पाँच वंशों में विभक्त किया गया है जो निम्न प्रकार से है-स्ट्रेप्टोकोकॅस, ल्यूकोनोस्टाक (Leuconostoc), पेडियोकोकॅस (Pediococcus), एयरोकोकस (Aerococcus), एवं जेमेला (Gemella) |

प्लोनोकॉकस पूर्णतः वायुवीय, ऑक्सीकारी, केटेलेज धनात्मक होते हैं। ये चल (mobile) प्रकृति के होते हैं इनकी देह पर 1-3 कशाभ पाये जाते हैं। इसके द्वारा बनायी गयी निवह पीली-भूरी होती है। ये अहानिकारक मृतोपजीवी है जो समुद्री या अलवणीय जल में पाये जाते हैं।

कुल पेप्टोकोकेसी (peptococcaceae) में 0.5-2.5 pm व्यास की कोशिकाओं वाले जीवाणु रखे गये हैं। ये अवायुवीय, रसायन कार्बसंश्लेषी, जटिल पोषणीय आवश्यकताएँ रखने वाले जीवाणु हैं। ये मनुष्यों तथा अन्य जन्तुओं के मुख, आन्त्र तथा श्वसन – नाल आदि अंगों में पाये जाते हैं। ये मादा मूत्र जनन नलिकाओं में उपस्थित होने पर रोग उत्पन्न करते हैं। इनकी कुछ जातियाँ मृदा एवं अनाजों पर भी पायी जाती हैं। इस कुल में चार वंश रखे गये हैं। जो निम्न प्रकार से हैं-

(a) पेप्टोकॉकस (Peptococcus)

(b) पेप्टोस्ट्रेप्टोकॉकस (Peptostreptococcus)

(c) रयूमिनोकोकॅस (Ruminococcus)

(d) सार्सीना (Sarcina)

(a) स्टेफिलोकोकॅस (Stayphylococcus) – स्टेफिलोकोकॅस वंश के जीवाणु ग्रैमग्राही प्रकार के कोकॉई है जो अंगूर के समान गुच्छों में पाये जाते हैं। इनके द्वारा बनाये गये निव्रहों में वर्णक उपस्थित होते हैं। ये निवह ठोस आधार वाले माध्यमों (media) में बनाये जाते हैं। इस वंश के जीवाणु मनुष्य में रोग उत्पन्न करते हैं। ये बहुव्यापी ( ubiquitous) जीव हैं जो देह सतह पर सूजन, मवाद युक्त घाव, फोड़े आदि उत्पन्न करते हैं। अत: पायाजेनिक (pyogenic) कोकाई अर्थात् मवाद उत्पन्न (pus-formation) करने वाले कोकॉई भी कहलाते हैं। यह अस्पताल के वातावरण में पेनिसिलीन व अन्य प्रतिजैविक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त करने का गुण रखते हैं। अतः इनका चिकित्सा जगत् में विशेष महत्त्व है।

वान रेकलिघॉसन (Van Recklinghausen) ने 1871 में सर्वप्रथम मनुष्य के मवाद युक्त घावों में इनकी खोज की तथा पास्तेर ने 1880 में घावों में उपस्थित मवाद (pus) से इसको प्राप्त कर खरहें की देह में प्रवेश करने तथा इनसे जन्तुओं की देह में फोड़े उत्पन्न कराने के प्रयोग किये। 1880 में स्काटिश सर्जन सर एलेक्जेन्डर ऑस्ट्न (Sir Alexander Ogston) ने काकॅस जीवाणु द्वारा फोड़ एवं मवाद युक्त घावों को उत्पन्न किये जाने के कारणों का पता लगाया। इन्होंने ही इस वंश को स्टेफिलोकोकॅस (staphyle= अंगूरों का गुच्छा; Kokkos = सरसफल Berry) का नाम प्रदान किया। मवाद में अंगूर के गुच्छे के समान कोकॉई के वृद्धि तथा संवर्धन करने के गुण के कारण उपरोक्त नाम दिया गया। ऑस्टन ने त्वचा पर अनुग्र (non virulent) स्टेफिलोकोकॅस विभेद भी देखें जो रोग उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होते हैं। अधिकतर स्टेफिलोकोकॅस विभेद जो मवाद युक्त घावों से प्राप्त किये जाते हैं सुनहरी पीले रंग के निवह बनाते हैं। सामान्य त्वचा से प्राप्त विभेद ठोस सतह पर श्वेत रंग की निवह बनाते हैं। रोजेनबेक (Rossenback ; 1884) ने तथा पेसट (Passet ; 1885) ने स्टे. औरियस, स्टे. एब्स एवं स्टे. सिट्रियस उपजातियों की खोज की। स्टे. सिट्रियस नींबू के समान पीले रंग की निवह बनाते हैं।

इन जीवाणुओं के द्वारा रोग उत्पन्न करने, वर्णक बनाने की क्रियाओं हेतु विभिन्न परिस्थितियाँ एवं कारकों की उपस्थिति आवश्यक होती है। रोगजनकता एवं अरोगजनकता उत्पन्न करने वाले स्टेफाइलोकोकॉई की पहचान ऊत्तकों में इनका परीक्षण करना तथा उन कारकों का पता लगाना जो अनुग्र (non virulent) विभेदों को उग्र (virulent) बनाते हैं आदि अनेक प्रश्न हैं जिनका कारण खोजने के प्रयास किये गये हैं। अधिकतर वैज्ञानिक उग्रता एवं कोएगुलेज (coagulase) एन्जाइम उत्पन्न होने के कारण मध्य संतुलन पाये जाने के पक्ष में हैं। अतः स्टेफिलोकोकाई द्वारा एंजाइम कोएले उत्पन्न करने के आधार को लेकर इसे दो संवर्गी में विभक्त किया गया है-

(I) स्टे. औरियस ( Staphylococcus aureus) अर्थात् स्टे. पायोजेन्स (Staphylococcus pyogens) कोएगुलेज +ve (cagulase positive), मैन्नीटाल किण्वनी (mannitol fermenting) प्रकार के रोगजनक जीवाणु हैं। यह हानिकारक पदार्थों का स्त्रावण करते हैं। सुनहरी पीले, श्वेत या हल्के पीले रंग के निवह बनाते हैं।

(II) स्टे. एपीडर्मीडिस (Staphylococcus epidermidis) अर्थात् स्टे. एब्स (Staphylococcus abbs) कोएगुलेज –ve (coagulase nagative) मैन्नीटाल किण्वन ने करने वाले व अरोगंजनक प्रकार के जीवाणु हैं। ये हानिकारक पदार्थों को उत्पन्न नहीं करते तथा अधिकतर विभेद श्वेत रंग की निवह बनाते हैं जिनमें वर्णक भी उपस्थित हो सकते हैं।

स्वभाव (Habitat)

नासाछिद्रों स्टेफाइलोकोकॉई बहुव्यापी (ubiquitous) प्रकार के जीवाणु है जो मनुष्य की त्वचा, तथा आहार नाल आदि भागों में उपस्थित रहते हैं। कुछ स्टेफाइलोकोकाई, मृदा, वायु, मल, दुग्ध, जल आदि पदार्थों में पाये जाते हैं। ये मनुष्य के कपड़ों आदि में भी उपस्थित रहते हैं।

आकार एवं अभिरंजन क्रिया (Morphology and staining reaction)

स्टेफिलोकोकॉई गोलाकार आकृति के जीवाणु हैं जिनका व्यास 0.7-1.2 pm होता है। जीवाणु कोशिका का आमाप, जीवाणु की उम्र, सवंर्धन माध्यम एवं जाति तथा विभेदों में परिवर्तनशील रहता है। पुराने संवर्धन में जीवाणुओं का आमाप सामान्य जीवाणु कोशिकाओं से बड़ा होता है। इस समूह के जीवाणुओं का आकार कोकॉई के अंगूर के समान गुच्छों द्वारा बना होता है। गुच्छे बनने की क्रिया अधिकतर ठोस माध्यम में वृद्धि के दौरान पायी जाती है। तरल माध्यम ( रस, सूप) आदि में कोकॉई तीन या चार कोशिकाओं की श्रृंखला द्वारा बने होते हैं।

इस समूह के जीवाणुओं में कशाभिका अनुपस्थित होती है अत: यह अचल प्रकृति के होते हैं। इनमें सम्पुट (capsule) नहीं पाया जाता तथा ये बीजाणु भी उत्पन्न नहीं करते हैं ।

ये एनिलिन अभिरंजन द्वारा अभिरंजित किये जाते हैं। स्टेफिलोकोकॉई ग्रैम की अभिरंजन तकनीक द्वारा अभिरंजित किये जाते हैं अतः ये ग्रैम ग्राही होते हैं। कुछ जीवाणु जो पुराने संवर्धन माध्यम से प्राप्त होते हैं या भक्षानुक (phagocytosed) स्थिति में पाये जाते हैं ग्रैम अग्राही प्रकार के होते हैं।

संवर्धन क्रियाएँ (Cultural reactions)

स्टेफिलोकोकॉई द्रुत गति से सामान्य माध्यम में वृद्धि करते हैं तथा 12-44°C तक सक्रिय रहते हैं। इनके लिए आदर्श तापक्रम 37°C है जिस पर मनुष्य की देह में अधिकतर विभेद पाये जाते हैं। ये वायुवीय तथा अवायुवीय प्रकार के श्वसन करते हैं स्टेफिलोकोकॉई हल्के क्षारीय माध्यम में अधिक सफलतापूर्वक वृद्धि करते हैं। इनके लिये आदर्श pH 7.4-7.6 हैं। अनछने सूप जैसे द्रवीय माध्यम में वृद्धि द्रुत गति से होती है तथा 24 घण्टे के भीतर माध्यम में आविलता (turbidty) के रूप में तथा सेंये जाने के उपरान्त मुद्रिका रूपी परखनली की सतह पर दिखाई देते हैं। ठोस माध्यम जैसे एगार (agar) में समष्टि तेजी के साथ वृद्धि करती है जिसमें वर्णन भी उपस्थित होते हैं। वर्णन की उपस्थिति अनुकूल माध्यमों जैसे एगार, आलू पर उचित तामक्रम, ऑक्सीजन की उपलब्धता आदि निर्भर करती है।

प्रतिरोधकता (Resistance)

स्टेफिलोकोकॉई को 60°C तापक्रम 1/2 से 1 घण्टे तक रखने पर तथा 1% लाइसॉल (lysol) में 10 मिनट तक रखने पर नष्ट हो जाते हैं। ये एनिलिन अभिरंजकों जैसे जैन्शिन वायलट, क्रिस्टल वायलट तथा कुछ पदार्थों के प्रति संवेदनशील होते हैं। स्टेफिलोकोकॉई कम तापक्रम, द्रवीय वायु तथा शुष्क मौसम के प्रति प्रतिरोधकता रखते हैं।

जैव रसायनिक क्रियाएँ (Biochemical activity)

शर्करा का किण्वन स्टेफिलोकोकाई द्वारा विभिन्न अवस्थाओं में हो सकता है अतः इसे गुण का उपयोग करके वर्गीकरण भी किया जाता है। यह लेक्टोज, ग्लूकोज, माल्टोज, सूक्रोज तथा मैन्नाइट शर्कराओं का किण्वन अम्ल उत्पादन के साथ करते हैं, गैस उत्पादन नहीं होता है। स्टे. औरियस मैन्नाइट शर्करा का किण्वन करने के समर्थ होते हैं जबकि अन्य स्टेफिलोकोकस में यह गुण अनुपस्थित होता है। इसी प्रकार स्टे. औरियस विभेद के जीवाणु जिलेटिन को अन्य विभेदों की अपेक्षा तीव्रता के साथ तरल बना देने में समक्ष होते हैं। इस समूह के जीवाणु केटेलेज एन्जाइम उत्पन्न करते हैं यह परीक्षण H2O2 द्वारा किया जा सकता है।

सीरम विज्ञान (Serology)

रोगजनक विभेदों में समूहन तथा अवक्षेपण (agglutination and precipitation) का गुण पाया है ये सीरम में उपरोक्त क्रियाएँ करने में सक्षम होते हैं। स्टे, औरियस को इस आधार पर तीन संवर्गों में विभाजित किया गया है। अरोगजनक विभेदों में यह गुण नहीं पाया जाता।

विषैले पदार्थों का उत्पादन (Toxin production)

वैज्ञानिकों के अनुसार स्टेफिलोकोकस समूह के जीवाणुओं द्वारा ल्यूकोसिडीन (leuocidine), हीमोलाइसिन (heamolysine), डर्मोटॉक्सिन (dermotoxine), एन्टेरोटॉक्सिन (enterotoxine), नेफोटॉक्सिन (nephotoxine) घातक विष जैसे पदार्थों का संश्लेषण किया जाता है। इसके अतिरिक्त स्टेफिलोकोआगुलेज (staphylocoagulase) का भी संश्लेषण होता है जो प्लाज्मा का स्कंधन (cloting) कर देता है। ल्यूकोसिडीन श्वेत रक्त कणिकाओं को नष्ट करता है, अन्य विषैले पदार्थ भी विभिन्न स्तरों पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

रोगजनकता (Pathogenicity)

प्रकृति में विस्तृत रूप से विपरित इस समूह के जीवाणु विशेषत: स्टे. औरियस (St. aureus) विभेद महत्त्वपूर्ण रोगजनक माने जाते हैं। इनके द्वारा साइकोसिस, कार्बर्कल, निमोनिया, ऑस्टियोमाइलाइटिस रोग फोड़े एवं मवाद युक्त घाव उत्पन्न किये जाते हैं। विभिन्न प्रकार के घातक विषों में रक्त कणिकाओं को नष्ट करने की क्षमता होती है। स्टेफाइलोलाइसिन a, B, y व 8 प्रकार के होते हैं। मानव में रोग उत्पन्न करने वाले उपभेद एल्फा व डेल्टा प्रकार के होते हैं। ∝ व 8 हीमोलाइसिन के साथ ल्यूकोसीडिन मिलकर श्वेत रक्त कणिकाओं एवं त्वक ऊत्तकों को नष्ट करते हैं। B – हीमोलाइसीन भेड़ व मवेशियों में लाल रक्ताणुओं का एवं y – हीमोलाइसिन, मनुष्य, भेड़, खरहे व बन्दर की लाल रक्त कणिकाओं को नष्ट करने के साथ आन्त्रीय व्याधि भी उत्पन्न करते हैं। हीमोलाइसिन के साथ कोएगुलेज भी स्त्रावित होता है जो फाइब्रिन के थक्के बनाता है। ये एक्सफोलियेटिन (exfoliatin) नामक जैव विष उत्पन्न कर शिशुओं में त्वचा पर धब्बे या चक्कते उत्पन्न करता है।

स्टे. औरियस त्वचा एवं अन्य ऊत्तकों में वृद्धि कर मवाद युक्त विकृतियाँ उत्पन्न करता है। कार्बन्कल (carbuncles) अर्थात् बालतोड़, चर्मपूय जैसे चर्मरोग उत्पन्न करता है। ये रोगाणु नासा मार्ग से प्रवेश कर सानुसाइटिस (sinusitis) नाक के रोग जुकाम एवं मध्यकर्ण विकार, निमोनिया के · कारण बनते हैं। घावों से ये प्रवेश कर इन्हें पका कर सेप्टीसेमिया (septicemia) अर्थात् संक्रमणित कर देते हैं।

निदान (Diagnosis)

ये जीवाणु अपने आकार द्वारा पहचाने जाते हैं, घावों से प्राप्त जीवाणुओं का स्लाइड पर लेपन करने के उपरान्त उपयुक्त अभिरंजनों से स्लाइड तैयार कर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से इनकी गोलाकार अंगूर के गुच्छों के समान आकृति स्पष्ट दिखाई देती हैं इन्हें संवर्धन क्रियाओं द्वारा तथा जैव रसायनिक क्रियाओं द्वारा पहचाना जाता है। फॉस्फेट परीक्षण ( phosphate test) के द्वारा स्टे. औरियस जीवाणुओं को बहुत सुगमता के साथ पहचाना जाता है। इस परीक्षण में जीवाणु का एगार माध्यम पर संवर्धन कराया जाता है जिसमें फिनाप्थेलिन मुक्त होती है। अमोनिया गैस के ऊपर से प्रवाहित कराये जाने पर निवह का रंग गहरा गुलाबी हो जाता है।

उपचार (Therapy)

कुछ स्टेफिलोकोकॅस जातियाँ टीके लगाकर नियंत्रित की जाती है। सलफोनेमाइड्स का उपयोग अधिकतर सफल रहता है। कुछ विभेदों के नियंत्रण हेतु पेनिसिलिन का उपयोग किया जाता है किन्तु कुछ विभेद पेनिसिलिन के प्रति संवदेनशील होते हैं। आजकल स्ट्रेप्ट्रोमाइसिन तथा टेट्रासाइक्लीन क उपयोग भी करते हैं किन्तु शीघ्र ही जीवाणु इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर लेता है। मेथिसिलीन, इरिथ्रोमाइसिन, नोवोबायोसिन का उपयोग भी रोगी के उपचार हेतु किया जाता है।