समुद्र तटीय स्थलाकृतियाँ क्या होती है (Coastal Landforms in hindi) , सन्निघर्षण किसे कहते हैं ? अपघर्षण क्रिया
सन्निघर्षण किसे कहते हैं ? अपघर्षण क्रिया समुद्र तटीय स्थलाकृतियाँ क्या होती है (Coastal Landforms in hindi) ?
समुद्र तटीय स्थलाकृतियाँ
(Coastal Landforms)
भू-आकृति के विकास एवं धरातल पर परिवर्तन लाने वाले कारकों में सागर भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सागर का कार्य क्षेत्र तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित पाया जाता है, परन्तु विश्व में कुल तटीय क्षेत्र काफी बड़ा स्थल है। समुद्र का जल इन क्षेत्रों में अपरदन, निक्षेप एवं परिवहन से कई भू-रूपों का निर्माण काता है।
समुद्र तटीय स्थलाकृतियों का निर्माण लहरों, ज्वारभाटा व धाराओं के सम्मिलित प्रभाव से होता है।
लहरें – समुद्र के जल में निरन्तर हलचल होती रहती है। समुद्री जलकणों का हवा के घर्षण के कारण लम्बवत् रूप से ऊपर उठना व नीचे गिरना लहर कहलाता है। लहरों में जल जा प्रवाह नहीं होता है। वह अपने स्थान पर ही ऊपर उठता है, नीचे गिरता है व पीछे चला जाता है। लहर का सबसे उठा ऊँचा भाग तरंग श्रृंग या शीर्ष (Crest) व सबसे नीचा भाग गर्त (Trough) कहलाता है। शीर्ष व गर्त के मध्य की ऊँचाई एवं शीर्ष से शीर्ष तक की लम्बाई वाय की गति पर निर्भर करता है। महासागरों में लहरों की लम्बाई । 180 मीटर से 250 मीटर एवं ऊंचाई 6 ऊँचाई बहत बढ़ जाती है। प्रचंड आँधियों या तूफान में लहरो की ऊँचाई बहुत बढ़ जाती है। सर्वाधिक ऊँची लहरें खले विस्तृत महासागरों में मिलती है।
हवाये जितनी समुद्री क्षेत्र से होती हुई आती है वह दूरी फेच (Fetch) कहलाती है – The exist of water over which the wind can flow is Fetch. जिन स्थानों पर फेच अधिक होता है, वहाँ लहरें बड़ी व शक्तिशाली पायी जाती है। लहरों में जल का वृत्ताकार उछाल दोलन (Oscillation) कहलाता है। इसी कारण लहरों से समुद्री जल में बहाव पैदा नहीं होता। लहर में पानी ऊपर उछलता है तब व नीचे के जल से आगे हवा की दिशा में चढ़ा हुआ प्रतीत होता है। इस आकृति को मग्नोर्भि (Breakers) कहा जाता है।
जब जल की ऊंचाई व गहराई बराबर हो जाती है तो तरंगें टूट जाती हैं। इसी कारण तट पर तरंगे छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। समुद्री तरंगों द्वारा निम्न क्रियायें होती हैंः-
(1) संक्षारण क्रिया (Corrosion Action) – समुद्री जल में घुले रासायनिक पदार्थ तटीय शैलों पर रासायनिक क्रिया करते हैं। विशेष कर चूना, डोलोमाइट व जिप्सम जैसे चट्टानों पर। इससे चट्टाने में संधियाँ व दरारें पड़ती हैं व चट्टान कमजोर होकर टूट जाती है।
(2) अपघर्षण क्रिया (Abrasion) – समुद्री लहरें वेग के साथ-साथ बालू, रेत, बजरी आदि पदार्थों को तटवर्ती क्षेत्रों पर पटकती हैं, जिससे तटीय चट्टानों में तोड़-फोड़ होती है। इसे अपघर्षण क्रिया कहते हैं।
(3) सन्निघर्षण (Attriction) – लहरों के साथ बहने वाले कंकड. पत्थर व बजरी के कण आपस में रगड़ कर टूटकर बारीक होते रहते हैं। इस कार्य को सन्निघर्षण कहा जाता है।
(4) जलगति क्रिया (Hydraulic Action) – स्वयं जल की आघाती क्रिया के फलस्वरूप लहरें तटीय क्षेत्रों की चट्टानों को जीर्ण-क्षीण कर देती हैं। जल के दाब से चट्टानें टूट जाती हैं।
(5) दबाव क्रिया (Pressure Action) – लहरों की ऊँचाई एवं जल की मात्रा तटीय क्षेत्रों की चट्टानों पर दबाव डालती हैं। इससे चट्टानों की संधियाँ व दरारें चैड़ी होने लगती हैं व शैल का विखण्डन हो जाता है।
लहरों का अपरदन कार्य कई बातों पर निर्भर करता हैः-
(1) भूरूपों के स्वरूप एवं अपरदन की मात्रा तटीय चट्टानों की संरचना पर निर्भर करती है। जब चट्टाने अवसादी व कोमल होती हैं, तब टूट-फूट ज्यादा होती है व वात छिद्र प्लेटफार्म आदि का निर्माण होता है। तट पर कठोर चट्टानों का अपरदन मंद गति से होता है व क्लिफ या स्टाॅक के रूप् में दिखायी पड़ते है। साथ ही चट्टानों की परतों, उनके रासायनिक गुण उनमें पायी जाने वाली संधियाँ, दरारे आदि अनेक तत्व अपरदन को प्रभावित करते है।
(2) जिन तटों पर तट रेखा स्थित रहती है वह वहाँ विभिन्न भू-रूपों बनते है। अगर सागर तल में बार-बार परिवर्तन होता है तो भू-रूपों का निर्माण नहीं होता। ऐसे स्थानों पर तट पर डूबे प्लेटफार्म, कगार या छिन्न-छिन्न तट रेखा पायी जाती है।
(3) लहरों की गति अपरदन की मात्रा व स्वरूप को निर्धारित करती है। जिन तटों पर ऊँची लहरे आती है, वहाँ कटाव अधिक होता है। जो लहरें तीव्रता से तट पर आकर टूटती हैं उनका Backwash तीव्र होता है। अतः वे तट से अवसादों को दूर तक बहा ले जाती है। कई बार ये विनाशकारी भी हो जाती है। लहरों का प्रहार जल की मात्रा व लहरों की ऊंचाई पर निर्भर करता है। इसमें मिले चट्टानों के कण औजार का काम करते है, जिसमें तटीय चट्टानों में अपरदन होता है। महासागरों का विस्तार व वायु की गति इसे निश्चित करती है।
(4) तटीय क्षेत्रों की जलवाय लहरों की अपरदन क्षमता को प्रभावित करती है। जिन तटों पर वर्षा अधिक होती है, वहाँ स्थल से तट पर अवसादों का बहाव अधिक होता है, जिससे तटीय क्षेत्र में समुद्र उथले हो जाते है वह लहरें कम शक्तिशाली हो जाती हैं। जिन तटों पर चक्रवातों व तीव्र वायु का प्रभाव अधिक होता है वहाँ लहरों का कार्य अधिक देखने को मिलता है।
(5) लहरों का कटाव 60 मीटर गहराई तक ही प्रभावकारी होता है।
लहरों का अपरदन कार्य एवं स्थलाकृतियाँ
(Erosive work of Waves and Landforms)
समद्री लहरों के अपरदन से अनेक भू-रूप तटीय क्षेत्रों में विकसित होते हैं ।
इनमें प्रमुख हैंः-
(1) खाडियाँ और समुद्राभिमुख कगार (Bays and Promontaries) -जब तट पर कोमल व कठोर चट्टानें क्रम से पायी जाती हैं व ये लम्बवत रूप में स्थित हों तब लहरों के थपेड़ों से कोमल चट्टानें शीघ्रता से कट जाती है व कठोर चट्टानें कम घिसती हैं। ये कगार की तरह समुद्र की और निकले रह जाते है। कामल शैल स्तर में खाड़ियाँ बन जाती हैं। इन्हें ही खाड़ी कगार कहा जाता है।
(2) समुद्रतटीय गुफायें (Coastal Caves) – जब तट पर कठोर चट्टानों के नीेचे कोमल चट्टानों की क्षैतिज परतें पायी जाती है. उन तटों पर ऊपर की चट्टान कट नहीं पाती, परन्तु लहरों की कटान क्षमता 60 मीटर की गहराई तक प्रभावी होती है। अतः नीचे की कोमल चट्टानें कट जाती हैं। तरंगों के प्रहार के समय दरारों व खोखले भाग में वाय दब जाती है और तरंगों के पीछे हटने पर वायु फैलती है। इस प्रकार बार-बार हवा के संकुचन व प्रसारण द्वारा चद्राने टूटकर गिर जाती है व गुफा का रूप ले लेती है। इन्हें ही समुद्री गुफायें कहा जाता है।
(3) कोव (Cove) – कठोर व कोमल चट्टानें जब समुद्र तट के समानान्तर होती हैं तब कठोर चट्टानों की दरारों से जल अन्दर को कोमल चट्टानों को काट देता है, जिससे चट्टानें खोखली हो जाती है। ये अण्डाकार आकार के होते हैं. इन्हें कोव कहा जाता है।
(4) भृगु (Clim) – तरंगों के प्रहार से समुद्र तटों पर निर्मित खड़े किनारों को भृग कहा जाता है। जब आधार की कोमल चट्टाने लहरों से कट जाती हैं व ऊपरी चट्टान लटकी हुई रह जाती है तब कुछ समय बाद आधार न होने के कारण वह टूटकर गिर जाती है व खड़े किनारे की चट्टान तट पर रह जाती है जिसे क्लिफ कहते हैं।
(5) मेहरांव (Coastal Arch) – किसी समुद्र तट की शैली का कुछ भाग समुद्र के भीतर तक फैला रहता है, जिसके मध्य किसी निर्बल शैल का अंश होता है। पाश्र्व से तरंगों के निरन्तर प्रदान से शैल का कोमल भाग टूट जाता है व आर-पार छिद्र बन जाता है, इसे मेरांव कहते है।
(6) तटीय स्तम्भ (Stack) – जब मेहरांव कुछ समय बाद टूट जाती है तो उसका एक भाग समुद्र में स्तम्भ की तरह खड़ा रह जाता है। कई बार ये बहुत संकरे होते है वह निरन्तर लहरों के प्रहार से टूट कर नष्ट हो जाते है। अगर यह चैड़ा व कठोर चट्टानों में बना होता है तो द्वीप या टापू में बदल जाता है।
(7) तरंग घर्षित महावेदी एवं शैल मीति (Wave cut plateforms and Rock) – समुद्री लहरे तटीय कगार पर जब निरन्तर प्रहार करती रहती हैं तो निचले भाग में समतल सीढ़ी बन जाती है। धीरे-धीरे निरन्तर कटाव से यह बड़ी हो जाती है व कगार का आधार नष्ट हो जाता है। तब कगार का उपरी भाग टूटकर गिर जाता है। तो क्लिप पीछे की तरफ सकर जाता है। इस प्रकार एक प्लेटफार्म का निर्माण हो जाता है। लहरों के निरन्तर प्रहार से यह कई पर बहुत चैड़ा हो जाता है तब इसे अपरदन जनित मैदान कहते है। इसी मैदान पर कठोर शैल चबूतरे के रूप् में खड़ी रह जाती है, इन्हें शैलमीति कहहा जाता है। कैलिफोर्निया व पीरू में तटीय प्लेटफार्म 2 किमी से अधिक चैड़े है।
(8) अपतटीय सोपान (offshore Benches or Terraces) – कभी-कभी समुद्र तट के उथले भागों पर लहरों द्वारा समानान्तर कटाव होता रहता है। धीरे-धीरे यह कटाव बढ़ता जाता है व सीढ़ीनुमा आकृति ले लेता है, इसे अपतटीय मैदान कहा जाता है।
सामुद्रिक परिवहन
(Marine Transport)
तटीय क्षेत्रों से बालू, कंकड़, पत्थर व चट्टान चूर्ण का परिवहन लहरे, धारायें व ज्वारभाटा के द्वारा होता है। लहरें जब तट पर आकर टूटती है व उनका जल पीछे लौटता है (जिसे प्रतिपादन कहा जाता है। तब उसके साथ तट से अवसाद भी समुद्र की तरफ लुढ़क जाते हैं। इसी प्रकार लहरों के जल के साथ तट के ऊपर तटीय क्षेत्र के अवसाद ऊपर भी चढ जाते हैं। ज्वार के समय जब जल स्तर बढ़ता है तब पानी तटों पर ऊपर तक आ जाता है। बाद में जब यह पनः अपने प्रारम्भिक स्तर पर लौटता है तब अपने साथ तटीय क्षेत्रों से बहुत सारा पदार्थ बहा ले जाता है। जल धाराये भी पदार्थों के परिवहन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जलधारा जिस तट के निकट से गुजरती है, वहाँ के भानतटों में निक्षेपित अवसादो को अपने साथ दर तक बहाकर ले जाती है।
सामुद्रिक निक्षेप
(Marine Deposition)
समुद्री लहरों के द्वारा अपरदित पदार्थों का निक्षेपण भी किया जाता है। जो पदार्च अपरदन से प्राप्त होता है। लहरें उसे शांत खाड़ियों में जमा कर देती हैं। मोटा पदार्थ लहरों के सहारे इधर-उबर डालता है, अंत में सन्निघर्षण से बारीक शिलाचर्ण में बदल जाता है। यह चूर्ण महाद्वीपीय निमग्न तटों पर जमा हो जाता है। तट के सहारे मोटे कंकड, पत्थर, बाल बजरी निक्षेपित मिलते हैं व बारीक अवसाद 100 फैदम की गहराई तक भग्नतटों पर जमा पाये जाते हैं। लहरों की दिशा व गति में परिवर्तन से निक्षेपों की कई भू-आकृतियाँ बनती है।
(1) तरंग निक्षेपित प्लेटफार्म – जिस प्रकार लहरें चट्टानों को काटकर प्लेटफर्मा बनाती है, उसी प्रकार भानतटों पर निरन्तर अवसादों का निक्षेप कर उसे निरन्तर उथला करती रहती है। उथले तट पर वेदिकायें बन जाती है। भाटा के समय यह सतह पर दिखायी पड़ती है। इस प्रकार जमाव से भी प्लेटफर्मा व सोपान बनते हैं।
(2) पुलिन (Beache) – गिलबर्ट के अनुसार लहरों से अपरदित पदार्थ सागरों में दूर तक प्रवाहित नहीं होता। वह भग्नतटों में ही निक्षेपित रहता है, जिससे तटीय सागर उथला होता जाता है। यह तट से लगा भाग पुलिन कहलाता है। इस निक्षेपित पदार्थ पर लहरों के द्वारा कई अन्य भू-रूप् भी बनते है। लहरें मोटे पदार्थ को दूर तक बहा नहीं पाती, ये तट के ठीक पास कगार के रूप में निक्षेपित होते रहते है। इनकी आकृति अर्द्धचक्राकार होती है। धीरे-धीरे ये परस्पर मिलकर समुद्र तट के समानान्तर बनती है तब इन्हें रोधी पुलिन (ठंततपमत ठमंबी) कहते हैं। ये इस प्रकार की दीवारें संयुक्त राज्य अमेरिका के समूह तट पर पायी जाती है। यह बालू समुद्र में गिरने वाली छोटी-छोटी नदियों द्वारा लायी जाती है व लहरों द्वारा एकत्र की जाती है। जब पुलिन स्थायी हो जाती है, तब तट व पुलिन के बीच समुद्र का जल भरा रह जाता है, इसे लैगून (स्ंहववद) कहा जाता है।
(3) बलुई रोधिका (Sand bar) – कभी-कभी समुद्री तरंगें तट के अपरदित पदार्थों की एक लम्बी सँकरी पट्टी, लहरों द्वारा समुद्र तट से दूर जमा की जाती है। इसका कुछ हिस्सा जल के ऊपर दिखायी पड़ता है। इस प्रकार की रचना उन्हीं तटों पर होती है, जहाँ अपरदित पदार्थ की मात्रा बहुत अधिक होती है। लहरे उन्हें दूर तक बहा ले जाती हैं। इसे बलुई रोधिका कहा जाता है। कभी-कभी इस रोधिका का एक सिरा स्थल से जुड़ जाता है व दूसरा सिरा समुद्र में निकला रहता है। इस प्रकार की आकृति को भूजिह्वा (Spit) कहते हैं। जब लहरों की दिशा तिरछी हो जाती है तब ये निक्षेप तट पर लम्बवत् हो जाते हैं, इसे बार (Bar) कहा जाता है। कभी-कभी लहरों व हवा के दिशा परिवर्तन से रोधिका घुमावदार हो जाती है, इसे कुण्डल रोधिका (Tooped Bar) कहा जाता है। जब ये चैड़ी हो जाती हैं तो टापू में परिवर्तित हो जाती हैं। अलास्का का शपका टापू इसका उदाहरण है। अत्यधिक वलित रोधिका को भूजिह्वा कुश (Hook) कहा जाता है। टढा मेड़ी आकृति वाली बहुमुखी भूजिह्वा कुश (Compound Hooks) कहलाती है। इंग्लैंड के तट पर क्राइस्ट चर्च खाड़ी का हर्स्ट कैसिल स्पिट (Hurst Castle Spit) अपनी अनुपम आकृति के लिये विश्व प्रसिद्ध हा जब संयोजक रोधिका किसी द्वीप को स्थल से मिलाती है तब इसे टोम्बोलो (Tombolo) कहते हैं।
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