असम का शास्त्रीय नृत्य कौनसा है | classical dance of assam in hindi सत्तरिया नृत्य का इतिहास क्या है
सत्तरिया नृत्य का इतिहास क्या है असम का शास्त्रीय नृत्य कौनसा है | classical dance of assam in hindi ?
सत्तरिया नृत्य
वर्ष 2000 में असम के सत्तरिया नृत्य को संगीत नाटक अकादमी द्वारा भारत के आठवें शास्त्रीय नृत्य के तौर पर मान्यता प्रदान की गई। अन्य सात शास्त्रीय नृत्य हैं भरतनाट्यम, कथकली, मोहिनीअट्टम, कुचिपुडी, ओडिसी, कथक, और मणिपुरी।
सत्तरिया नृत्य का उद्गम सोलहवीं शताब्दी में, जब इस क्षेत्र में शंकरदेव (1449-1568) द्वारा वैष्णव आंदोलन पूरे उफान पर था, असम में स्थापित सत्तरस या वैष्णव मठों के व्यापक नेटवर्क में से हुआ। नाटककार और संगीता और साथ ही साथ सामाजिक एवं धार्मिक सुधारक शंकरदेव ने कई गीतों और नृत्य-नाटकों को तैयार किया। मठों से बाहर आज सत्तरिया नृत्य को मुख्य रूप से लेट्टी समुदाय ने बचाकर रखा हुआ है।
सत्तरिया नृत्य के अंदर मुख्य नृत्य हैं सूत्रधारी नाच, कृष्ण और राम नाच, और गोपी नाच। सत्तरिया नृत्य के चरित्रों की अपनी विशेष वेश-भूषा है। नृत्य संगीत की धुनों के साथ होता है जिन्हें ‘बोरगीत’ कहा जाता है और जो शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। इसमें ढोलक, सिम्बल, और बांसुरी जैसे वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
सत्तरिया नृत्य से सम्बद्ध मुख्य समूह हैं नरेन चंद्र बरुआ, और घनाकांत बोरा बोरबायन समूह।
छाउ
छाउ नृत्य है तो प्राचीन, लेकिन इसकी उत्पत्ति के संबंध में ज्ञात नहीं है। छाउ शब्द ‘छाया’ से लिया गया है और इससे ‘मुखौटा’ या ‘छाया’ का संकेत मिलता है। एक अन्य व्याख्या के अनुसार यह उरांव भाषा का देशी शब्द है और इसका प्रयोग युद्ध नृत्य के लिए होता था, न कि मुखौटा नृत्य के लिए। इसकी कई मुद्राएं परंपराग्त युद्ध की मुद्राओं से मिलती हैं।
छाउ नृत्य की तीन धाराएं हैं सरइकला (बिहार, हालांकि पहले यह ओडिशा में था), मयूरभंज (ओडिशा) और पुरुलिया (प-बंगाल, हालांकि पहले बिहार में था)। सरइकला और पुरुलिया छाउ में ही मुखौटों का प्रयोग होता है। इस नृत्यानुष्ठान में पहले केवल पुरुष नर्तक ही भाग लेते थे, लेकिन बाद में महिलाओं ने भी नृत्य सीखना और दिखाना प्रारंभ कर दिया।
सरइकला के मुखौटे तथा छाउ की भंगिमाएं जापान, इंडोनेशिया एवं श्रीलंका की नृत्य शैलियों से मेल खाती है। प्राचीन काल में इन क्षेत्रों के सांस्कृतिक संबंधों का इससे पता चलता है।
छाउ नृत्य में नटराज शिव की अर्द्धनारीश्वर रूप में कल्पना की गई है। ढोल, करताल एवं गीत के साथ यह नृत्य-गीत-उत्सव फालगुन माह में तीन दिनों तक शिव मंदिरों में, तत्पश्चात् चार दिन तक स्थानीय राजा अथवा किसी धनी के आंगन में अनुष्ठित होता है। यह नृत्यशैली प्राचीन शास्त्रानुसार भाव एवं रस तथा राग संगीत व ताल समन्वित और प्राचीन संस्कृत गाथाओं पर आधारित होती है। इसमें धार्मिक विषयों के अतिरिक्त प्राकृतिक विषय भी शामिल रहते हैं, जैसे ‘शिकारी नृत्य’, ‘मयूरी नृत्य’, ‘फूल बसंत नृत्य’ इत्यादि। ऐसा कहा जाता है कि छाउ को शास्त्रीय नृत्य का दर्जा दिलाने में राजा बिजय प्रताप का काफी योगदान रहा था।
लोक नृत्य
भारत में लोक संस्कृति की परम्परा इतनी समृद्ध रही है कि इनके बिना संस्कृति की चर्चा अधूरी रहेगी। लोक कला के सभी रूप स्वतः स्फूर्त, कदाचित अपरिष्कृत और आम लोगों के लिए होते हैं। यह किसी भी मायने में शास्त्रीय रूप से निम्न कोटि का नहीं है। इसकी सादगी में अद्भुत शक्ति है, जो बरबस लोगों को अपनी ओर खींचती है। लोक कला किसी स्थान विशेष या विशेष जनसमूह की सामूहिक सम्पदा होती है। इसके प्रवर्तकों को भुलाया जा सकता है, किंतु उनके द्वारा विकसित शैली युगों-युगों तक बनी रहती है। प्रारंभ में धर्म से जुड़ी लोक कलाएं लोकप्रिय मनोरंजन का साधन बनीं। भारत के हर क्षेत्र का अपना लोक नृत्य है।
सुदूर उत्तर में, जम्मू व कश्मीर में कई लोक नृत्य हैं। दमाली मंदिरों में किया जागे वाला ओजस्वी पुरुष नृत्य है। रौ नृत्य रमजाग के महीने में और शरत् ऋतु में महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें पाए जागे वाले गीत लोक साहित्य से लिए जाते हैं। हिकित नृत्य कुंवारियों द्वारा किया जाता है। कवियों ने इस नृत्य के लिए कई गीत लिखे हैं। लद्दाख अपने ‘शैतान नृत्य’ के लिए प्रसिद्ध है, जो ‘ल्हापस’ और ‘मनिपस’ लोगों द्वारा अनुष्ठित किया जाता है। यह किसी गोम्पा के प्रांगण में किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र में बुवाई के मौसम में ‘कुद’ नृत्य होता है, जब लोग बुवाई कर आराम कर रहे होते हैं। बांस से बने मोरनुमा ढांचे, जिसे छज्जा कहते हैं, के चारों तरफ युवक-युवतियों द्वारा डांडी नाच किया जाता है।
हरियाणा में भी कई लोकगीत एवं लोक नृत्य हैं। अधिकांश नृत्यों का संबंध बसंत और होली से होता है। घूमर, फाग, खोरिया, धमाल कुछ ऐसे ही नृत्य हैं, जो महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। डफ और चैरैया पुरुषों के नृत्य हैं।
गुजरात में लोक नृत्यों की समृद्ध परम्परा रही है। गरबा और रास ऐसे ही नृत्य हैं। गरबा नृत्य नवरात्र के समय सितंबर-अक्टूबर में किया जाता है। गरबा से तात्पर्य छिद्र वाले मिट्टी के ऐसे पात्र से होता है, जिसमें दीपक जलाकर महिलाएं नृत्य करती हैं। गरबी भी कुछ ऐसा ही नृत्य है, लेकिन इसमें पदसंचालन थोड़ा भिन्न होता है और इसे पुरुष करते हैं। जेरियन और कुदनियन गरबी की भांति, वीरत्व व्यंजक नृत्य हैं, जिसे कृषक महिलाएं करती हैं। इसके गीत श्री कृष्ण के लिए होते हैं। नरसिंह मेहता, दयानंद और प्रेमानंद ने कई गरबी गीत लिखे हैं। धमाल एक रास नृत्य होता है, जिसमें छड़ियों का प्रयोग ठीक उसी प्रकार किया जाता है, जैसे तलवारबाजी में होता है। गोफ में किसी खम्भे से रंगीन लम्बे कपड़े बांध दिए जाते हैं और नृत्य करते हुए इस प्रकार घूमते हैं कि कपड़ों से एक रस्सी बन जाती है। घेरैया रास एक ऐसा नृत्य है, जिसमें नर्तक/नर्तकी के एक हाथ में छड़ी होती है और दूसरे हाथ में मोरपंख। उस छड़ी से सह-नर्तक/नर्तकी को स्पर्श कराते हुए आड़े-तिरछे रूप में घूमा जाता है।
महाराष्ट्र में उनका लोक रंगमंच तमाशा है। इसका मूल ‘गाथा’ में ढूंढ़ा जा सकता है, जिसमें प्रेम प्रसंग होते हैं और छेड़-छाड़ वाले दोहे कहे जाते हैं। मौलिक रूप से तमाशा में गीत एवं नृत्य होता था, लेकिन इसने पेशवा और अन्य मराठा सरदारों के काल में रंगमंचीय रूप धारण कर लिया। गाथा से ही
कुछ प्रमुख नृत्य
रेंगमा नागालैंड
बांस नृत्य कुकी नागा
जदूर मयूरभंज के भूमिया
डगला भील पुरुष
पाली भील पुरुष एवं महिलाएं
चेरिया बस्तर के मुरिया
सैला बैगा पुरुष
तपाडी बैगा महिलाएं
सरहुल बिहार के उरांव
करमा बिहार के कोल
माघा छोटानागपुर की होस जगजाति
गोंचो मध्य प्रदेश के गोंड
प्रसिद्ध लावणी को प्रेरणा मिली। लावणी विशेष प्रकार का उत्तेजक नृत्य होता है। महाराष्ट्र के अन्य प्रसिद्ध नृत्य लेजिम और दहिकला हैं।
संकीर्तन नृत्य मणिपुर राज्य का प्रमुख नृत्य है। यूनेस्को ने इस नृत्य को अमूत्र्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल किया है। ‘संकीर्तन’ वैष्णव लोगों के जीवन में धार्मिक अवसरों पर विभिन्न चरणों में प्रदर्शन किए जागे वाली नृत्य कला है। ढोल और गायन के माध्यम से नर्तक अक्सर श्रद्धालुओं के बीच एक उन्मादपूर्ण प्रतिक्रिया को उत्पन्न करते हैं। भक्ति गीत के माध्यम से कृष्ण के जीवन और उनके कार्यों को प्रदर्शित किया जाता है।
संकीर्तन का प्रदर्शन सार्वजनिक उत्सवों और धार्मिक अवसरों पर किया जाता है, जो वैष्णव समुदाय को मानने वालों के बीच एकजुटता को बढ़ावा देता है। यह व्यक्तिगत जीवन में भी अनुष्ठानों के उपलक्ष्य में किया जाता है। पूरा समुदाय अपने विशिष्ट ज्ञान और पारम्परिक रूप से शिष्य को गुरू से प्रेषित कौशल के माध्यम से संकीर्तन की सुरक्षा करने के लिए प्रयासरत है।
संकीर्तन को मंदिरों में कलाकारों द्वारा गीत और नृत्य के माध्यम से कृष्ण के जीवन की लीलाओं को प्रस्तुत किया जाता है। सौंदर्य और धार्मिक ऊर्जा की गरिमा की प्रवाह अद्वितीय होती है। इसमें भगवान को दृश्य अभिव्यक्ति के रूप में माना गया है।
मणिपुर का संकीर्तन लोंगों के साथ जैविक संबंध को बढ़ावा देने की एक जीवंत प्रथा है। संकीर्तन प्राकृतिक दुनिया के साथ सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है, जिसे कई अनुष्ठानों के माध्यम से स्वीकार किया गया है। सामाजिक समर्थन द्वारा तत्व की व्यवहार्यता को सदियों से कला के माध्यम से जीवित रखा गया है या संरक्षक के रूप में इसे संरक्षित रखने में अपना योगदान दे रहा है। राज्य भाग्यचंद्र, जिन्होंने नाहा संकीर्तन की कल्पना की थी, स्वयं एक महान कलाकार थे। अमूत्र्त सांस्कृतिक बिरासत प्रथाओं और पीढ़ियों के भावों को दर्शाता है। ये परम्पराएं लगातार अपने समुदायों द्वारा जीवित रखे जाते हैं, ताकि प्रकृति और इतिहास के साथ उनका रिश्ता कायम रह सके।
राजस्थान के लोकनृत्य भी बड़े जीवंत और मस्ती भरे होते हैं। झूमर या गनगौर इनमें सर्वाधिक विख्यात है। अन्य नृत्यों में सुसिनी,झूलन लीला और गोपिका लीला प्रमुख हैं।
हिमाचल प्रदेश में दशहरे जैसे त्यौहारों में विशेष नृत्य किये जाते हैं। गड्डी गड़ेरिनें चरबा नृत्य करती हैं। अन्य त्यौहारों एवं बसंत में किए जागे वाले नृत्य हैं महासू थाली, नाटी, जद्दा और जैंता।
पंजाब का भंगड़ा बड़ा ही मस्त नृत्य होता है। ढोल बजाते हुए मस्त धुनों पर खुलकर नृत्य किया जाता है। अच्छी फसल होने पर खुशी का इजहार करने का यह सबसे जोशीला माध्यम है। महिलाएं उतनी ही मस्ती और शोखी से गिद्धा करती हैं।
उत्तर प्रदेश की रासलीला लोकनृत्यों में अपना विशेष महत्व रखती हैं। भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं पर आधारित यह नृत्य लोक संस्कृति का उदात्त रूप है। कजरी और करन फसलों की कटाई से जुड़े हैं। कुमाऊं क्षेत्र में पुरुष दशहरे के उत्सव पर नृत्य करते हैं। झोरा नृत्य में पुरुष और स्त्री दोनों शामिल होते हैं।
बंगाल का काठी नृत्य काफी प्रसिद्ध है। बाउल नृत्य का अपना ही महत्व है। बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने के पश्चात् योगी पुरुषों के आदर्श से एक सहजिया सम्प्रदाय का जन्म हुआ, जो बाउल के नाम से जागा जाता है। ये लोग घुंघरू बांध कर और हाथ में एकतारा या गोपीयंत्र लेकर नृत्य करते हुए गाते हैं।
असम में बैशाखी बीहू, खेल गोपाल, तबल चोंगबी और बिहार में जट-जटिन नृत्य किया जाता है।
दक्षिण भारत में लोक नृत्यों का अपना ही रूप है। तमिलनाडु मंे कन्याओं द्वारा छड़ी के साथ किया जागे वाला ‘कोलट्टम’ नृत्य गुजरात के गरबा जैसा है। एक अन्य नृत्य पिन्नल कोलट्टम है। कुम्मी नृत्य महिलाएं करती हैं, जो वृताकार रूप में ताली बजाते हुए आगे बढ़ती हैं। करगम नृत्य में महिलाएं सजे हुए कलश सिर पर रखकर उनका संतुलन बनाते हुए नृत्य करती हैं। कावडी एक अन्य धार्मिक नृत्य है। आंध्र प्रदेश में घंटा मरडला एक सुंदर लोक नृत्य है। केरल में ओणम के अवसर पर कन्याएं व महिलाएं कई कोट्टिकली नृत्य करती हैं। एरूकली और तट्टमकली पुरुषों द्वारा मंदिरों में किए जागे वाले नृत्य हैं।
आधुनिक नृत्य
जब हम आधुनिक नृत्य की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य परंपराग्त शास्त्रीय नृत्य के बंधनों से मुक्त एक ऐसे नृत्य से होता है, जिसमें नये विषयों व मुद्राओं पर आधारित और प्रौद्योगिक विकास से उपलब्ध ध्वनि एवं प्रकाश द्वारा समर्पित नया संयोजन होता है। आधुनिक नृत्य का नाम आते ही उदयश्ंाकर का चेहरा सामने आता है। इन्होंने शास्त्रीय और पाश्चात्य नृत्य के मेल से अपनी शैली का एक अनोखा नृत्य विकसित किया है। अल्मोड़ा स्थित उनके संस्कृति केंद्र में कई प्रशिक्षु हैं। शांति बर्धान और सचिन शंकर तथा अमला शंकर ने भी आधुनिक नृत्य में कई प्रयोग किए हैं। उदय एवं अमला शंकर के पुत्र आनंदा शंकर ने प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के संयोजन से और मुक्त सहज मुद्राओं से आधुनिक नृत्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
इनके अतिरिक्त अन्ना पवलोवा का योगदान कैसे भुलाया जा सकता है। उनके और उदय शंकर द्वारा अभिगीत राधा कृष्ण और अजंता फ्रेस्को के युगल नृत्यों ने भारतीय नृत्य और पहनावे की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है।
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