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अपचयित धातु का शुद्धिकरण , द्रवीकरण / द्रव गलन परिष्करण (Liquation) , स्तंभ क्रोमैटोग्राफी Chromatography in Hindi

अपचयित धातु का शुद्धिकरण : धातु ऑक्साइडो के अपचयन से प्राप्त धातु पूर्णत: शुद्ध नहीं होती है अत: इसे कच्ची धातु (crude metal) कहते है।

इसमें निम्न अशुद्धियाँ हो सकती है –
  • अनअपचयित धातु ऑक्साइड की अशुद्धि
  • धातुमल व गालक
  • अनचायी धातुएँ
  • अधातुएँ जैसे C , S , P , Si , As आदि।
इन अशुद्धियो के आधार पर अपचयित धातु के शुद्धिकरण के लिए निम्न विधियाँ काम में लेते है –
1. आसवन (Distillation) : इस विधि द्वारा कम क्वथनांक वाली धातुओं जैसे Zn , Hg का शोधन किया जाता है। इन धातुओं में अवाष्पशील अशुद्धियाँ उपस्थित होती है अत: इन धातुओं को गर्म करके वाष्पन करवाया जाता है , इससे प्राप्त धातु की वाष्प को अलग से एकत्र करके संघनन द्वारा शुद्ध धातु प्राप्त करते है।
2. द्रवीकरण / द्रव गलन परिष्करण (Liquation) : यह विधि कम गलनांक वाली धातुओं जैसे Sn , Pb , Bi के शोधन में प्रयुक्त होती है।
इस विधि में अशुद्ध धातु को परावर्तनी भट्टी की ढालू सतह पर रखकर इसे CO के अक्रिय वातावरण में तेज गर्म किया जाता है अत: इससे धातु पिघलने के कारण बहकर नीचे चली जाती है तथा अशुद्धियाँ परावर्तनी भट्टी की ढालू सतह पर रह जाती है अत: इससे शुद्ध धातु प्राप्त होती है।
(3) दण्ड विलोडन विधि (Poling method) : यह विधि अशुद्ध कॉपर में उपस्थित Cu2O की अशुद्धि को दूर करने में प्रयुक्त होती है।
इस विधि में एक पात्र में अशुद्ध कॉपर को पिघली हुई अवस्था में लेकर इसे हरी लकड़ी के लट्ठो द्वारा विलोडित किया जाता है।  हरी लकड़ी से गैसें निकलती है।  यह गैसे Cu2O की अशुद्धि को Cu में अपचयित कर देती है तथा इसमें SO2 व As2O3 की अशुद्धि पृथक हो जाती है और शुद्ध कॉपर धातु प्राप्त होती है।
4. वैधुत अपघटनी अपचयन : इस विधि द्वारा Zn व Cu धातु का शोधन किया जाता है।
इस विधि में एक सेल का निर्माण होता है।  इस विधि में अशुद्ध धातु की मोटी छड को एनोड (+) के रूप में एवं शुद्ध धातु की पतली छड को कैथोड (-) के रूप में काम में लेते है।  इन धात्विक छड़ो को उसी धातु के लवण के अम्लीय विलयन में डुबोकर विद्युत धारा प्रवाहित करते है।  इस क्रिया में एनोड से धातु निकलकर धातु आयन के रूप में विलयन में आ जाती है।  यहाँ से यह धातु आयन इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके कैथोड पर धातु के रूप में विक्षेपित हो जाती है।  इस प्रकार कैथोड पर शुद्ध धातु प्राप्त होती है।
जैसे : अशुद्ध Cu का शोधन :-
एनोड – अशुद्ध Cu की मोटी छड
कैथोड – शुद्ध Cu की पतली छड
विद्युत अपघट्य पदार्थ – CuSO4 का अम्लीय विलयन
विद्युत अपघटन से इलेक्ट्रोडो पर निम्न अभिक्रियाएँ होती है –
एनोड पर –
Cu → Cu2+ + 2e
कैथोड पर –
Cu2+ + 2e → Cu
इस प्रक्रिया में एनोड से धातु निकलकर कैथोड पर स्थानान्तरित हो जाती है।
कॉपर धातु के शोधन की इस विधि में एनोड पर केवल अशुद्धियाँ बचती है।  इन अशुद्धियो को एनोड पंक कहते है।
एनोड पंक में कम क्रियाशील धातुएं जैसे – Ag , Au , Pt , Se , Te , Sb आदि उपस्थित होती है।
इन बहुमूल्य धातुओ की उपस्थिति के कारण इस विधि की लागत कम हो जाती है।
5. क्षेत्र परिशोधन / मण्डल परिष्करण विधि (zone refining method) : अर्द्धचालकों के लिए अतिशुद्ध Si व Ge की आवश्यकता होती है अत: Si व Ge को अतिशुद्ध रूप में प्राप्त करने के लिए इस विधि को काम में लेते है।
यह विधि इस सिद्धांत पर आधारित है कि अशुद्ध धातु को गलित अवस्था में लाकर ठण्डा करने से केवल शुद्ध धातु का क्रिस्टलीकरण होता है एवं अशुद्धियाँ इससे पृथक हो जाती है।

इस विधि में अशुद्ध धातु की पतली छड को अक्रिय गैस के वातावरण में रखकर इस पर वृत्ताकार गतिशील हीटर जलाते है। हीटर क्षेत्र में यह धातु पिघल जाती है तथा इस हीटर के आगे बढ़ने के साथ साथ अशुद्धियाँ भी आगे बढती है।  तथा पीछे की ओर ठण्डी होकर शुद्ध धातु क्रिस्टलीकृत हो जाती है।  इस प्रकार अशुद्धियाँ गलित भाग में रहती है।
इस प्रक्रिया को बार बार दोहराने से अशुद्धियाँ धातु छड के सिरे पर एकत्रित हो जाती है।  छड के इस सिरे को काटकर अशुद्धियो को पृथक कर देते है , इस प्रकार शुद्ध धातु प्राप्त होती है।
अशुद्धियो को पृथक कर देते है , इस प्रकार शुद्ध धातु प्राप्त होती है।
6. वाष्पन प्रावस्था परिष्करण विधि (vapour phase refining method) : इस विधि द्वारा Ni , Zr व Ti धातुओं का शोधन किया जाता है।
इस विधि में अशुद्ध धातु की क्रिया किसी उपयुक्त अभिकर्मक से करवाकर धातु का वाष्पशील यौगिक बना देते है। अब इस वाष्पशील यौगिक को अलग से एकत्र करके तथा उच्च ताप पर विघटित करके इससे शुद्ध धातु प्राप्त कर लेते है।
इस विधि की दो आवश्यक शर्ते निम्न है –

  • उपयुक्त अभिकर्मक ऐसा होना चाहिए जो धातु के साथ मिलकर वाष्पशील यौगिक बना ले।
  • वाष्पशील यौगिक ऐसा बनना चाहिए जो आसानी से विघटित हो जाए।
उदाहरण : a. Ni शोधन की मांड विधि :

 

Ni + 4CO → [Ni(CO)4]
[Ni(CO)4] → Ni + 4CO

 

b. Zr व Ti शोधन की वॉन (शुद्ध धातु) ऑर्केल विधि :

 

Zr + 2I2 → ZrI4
ZrI4 → Zr + 2I2

 

Ti धातु के लिए :

 

Ti + 2I2 → TiI4
TiI4 → Ti + 2I2

 

7. वर्णलेखिकी (chromatography method) : यह विधि मिश्रण में उपस्थित घटकों की पहचान , पृथक्करण एवं शोधन में प्रयुक्त होती है।
यह विधि सर्वप्रथम रंगीन पदार्थो के पृथक्करण में प्रयुक्त हुई इसलिए इसे वर्ण लेखिकी कहते है।
वर्णलेखिकी के प्रकार :
(i) अधिशोषण क्रोमेटोग्राफी :- उदाहरण – स्तंभ क्रोमेटोग्राफी
(ii) वितरण क्रोमेटोग्राफी :- उदाहरण – पेपर क्रोमेटोग्राफी
स्तंभ क्रोमेटोग्राफी : स्तंभ क्रोमेटोग्राफी मे दो प्रावस्थायें होती है –
(a) स्थिर अवस्था
(b) गतिमान प्रावस्था
इस विधि में स्थिर प्रावस्था के रूप में ठोस अधिशोषक पदार्थ एवं गतिमान प्रावस्था के रूप में घटकों का मिश्रण लेते है।
सिद्धांत : यह विधि इस सिद्धान्त पर कार्य करती है कि मिश्रण में उपस्थित घटकों की अधिशोषण क्षमता अलग अलग होने के कारण ये घटक ठोस अधिशोषक पर अलग अलग जगह अधिशोषित हो जाते है।
विधि : इस विधि में ठोस अधिशोषक पदार्थ का किसी द्रव के साथ पेस्ट बनाकर इसे फ्युरेट में भर देते है।  अब घटकों के मिश्रण को उपयुक्त विलायक में घोलकर इसे ठोस अधिशोषक पदार्थ पर प्रवाहित किया जाता है।  इस मिश्रण मे उपस्थित घटको की अधिशोषण क्षमता अलग अलग होने के कारण यह घटक ठोस अधिशोषक पदार्थ पर अलग अलग जगह अधिशोषित हो जाते है।  अधिक अधिशोषण क्षमता वाला घटक पहले व कम अधिशोषण क्षमता वाला घटक बाद में अधिशोषित होता है।
अब फ्युरेट में बने इस ठोस बैंड को बाहर निकाल लेते है , इस बैंड को काटकर घटकों को पृथक कर लेते है।  अब इन घटकों को निक्षालक पदार्थ में घोलकर सांद्रण द्वारा शुद्ध घटकों के रूप में पृथक कर लेते है।
प्रश्न : स्तंभ क्रोमेटोग्राफी में स्थिर प्रावस्था के रूप में कौनसे अधिशोषक पदार्थ प्रयुक्त किये जाते है एवं अधिशोषक पदार्थ के चयन हेतु क्या मापदण्ड है ?
उत्तर : अधिशोषक पदार्थ : एलुमिना , सिलिका जैल , CaCO3 , स्टार्च , सेल्युलोज आदि।
चयन हेतु मापदण्ड :-

  • अधिशोषक पदार्थ सफ़ेद रंग का होना चाहिए।
  • अधिशोषक पदार्थ उत्प्रेरकी सक्रीय नहीं होना चाहिए।
  • अधिशोषक पदार्थ विलायक से क्रिया नहीं करना चाहिए।
  • अधिशोषक पदार्थ की अधिशोषण क्षमता उच्च होनी चाहिए।