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बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी क्या है Bose Einstein Statistics in hindi Indistinguishability in hindi अविभेद्यता किसे कहते है

Bose Einstein Statistics in hindi  बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी क्या है परिभाषा सूत्र किसे कहते हैं Indistinguishability in hindi अविभेद्यता किसे कहते है ?

अविभेद्यता (Indistinguishability)

क्वान्टम यांत्रिकी के अनुसार दो अभिन्न ( identical) कणों के तरंग फलनों में कहीं भी अतिव्यापन हो तो वे अविभेद्य (indistinguishable) होंगे। चिरसम्मत यांत्रिकी में प्रत्येक कण की भविष्य की स्थिति व अवस्था की निश्चितता के साथ, वर्तमान स्थिति व अवस्था तथा उस पर कार्यरत बलों के ज्ञान से प्रागुक्ति की जा सकती है अर्थात् कणों का एक निश्चित प्रपथ (trajectory) होता है, जिससे अभिन्न होते हुए भी उनको पहचाना जा सकता है। क्वान्टम यांत्रिकी में अनिश्चितता के सिद्धान्त व उनके प्रायिकतात्मक स्वरूप के कारण निश्चित प्रपथ की कल्पना नहीं की जा सकती जिससे ये अभिन्न कण अविभेद्य होते हैं। संक्षेप में विभेद्य गुणों के आधार पर प्राप्त सांख्यिकी चिरसम्मत सांख्यिकी होती है तथा अविभेद्यता पर आधारित सांख्यिकी क्वान्टम सांख्यिकी होती है। क्वान्टम सांख्यिकी में तरंग फलन की सममितता, विनिमय अपभ्रष्टता (Symmetry of wave function in quantum statistics and exchange degeneracy) : अविभेद्य कणों के निकाय में दो कणों के परस्पर विनिमय ( exchange) से भौतिक स्थिति में अंतर नहीं आता है। मान लीजिए किसी निकाय में दो अविभेद्य कण 1 व 2 हैं तथा उनके संभावित प्रसामान्य अवस्थाएँ क्रमशः फलन Φ ( 1 ) व θ ( 2 ) द्वारा निरूपित हैं। यदि इन कणों की अदला-बदली कर दी जाये तो अवस्थायें होंगी, Φ( 2 ) व θ( 1 ) । प्रथम अवस्था में निकाय का अवस्था फलन Φ(1) θ(2) था व विनिमय के पश्चात् यह Φ(2) θ( 1 ) हो गया, इस तथ्य को निम्न रूप में लिखा जा सकता हैं |

जहाँ P12 विनियम संकारक (exchange operator) कहलाता है। व्यापक रूप में यदि अविभेद्य कणों के निकाय का अवस्था फलन Ψ है तो i व j कणों के विनिमय से प्राप्त अवस्था फलन Pij Ψ होगा। अतः अविभेद्य कणों के निकाय के लिए फलन Ψ ऐसा होना चाहिए कि Ψ व Pij Ψ दोनों समान भौतिक अवस्था को निरूपित करें। इसके लिए आवश्यक है कि

उपर्युक्त प्रतिबंध ì व j के सब मानों के लिए निम्न दो अवस्था फलनों द्वारा संतुष्ट होता है।

तरंग फलन Ψs सममित (symmetric) व फलन ΨA प्रतिसममित ( antisymmetric) कहलाता है। दो कणों के उपर्युक्त निकाय के लिए Ψs का निम्न रूप संभव है:

स्पष्ट है कि इसमें 1 व 2 के विनियम से फलन ( – ΨA) प्राप्त होगा ।
इस प्रकार एकसमान अविभेद्य कणों के निकाय को व्यक्त करने में समर्थ तरंग फलन सममित (symmetric) या प्रतिसममित (antisymmetric) होना चाहिये। असममित ( asymmetric) फलन जिसके लिए PjjΨ ≠ Ψ उपयुक्त नहीं है।

जिन कणों की चक्रण क्वान्टम संख्या पूर्णांकी (integral) (0, 1, 2, … ) होती है उनके तरंग फलन सदैव सममित होते हैं तथा जिन कणों के लिए चक्रण क्वान्टम संख्या अर्ध विषम पूर्णांकी (half odd integral) (1/2 , 3/2 , 5/2 …..) होती है, उनके तरंग फलन प्रतिसममित होते हैं।
सममित तरंग फलन से सम्बन्धित अर्थात् पूर्णांकी चक्रण क्वान्टम संख्या वाले कणों के लिए सांख्यिकी बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी (Bose-Einstein statistics) कहलाती है, इसे 1924 में प्रतिपादित किया गया। प्रतिसममित तरंग फलन से सम्बन्धित अर्थात् अर्ध विषम पूर्णांकी चक्रण क्वान्टम संख्या वाले कणों के लिए सांख्यिकी फर्मी (Fermi) व डिरैक (Dirac) ने 1926 में प्रस्तुत की व इसे फर्मी- डिरैक सांख्यिकी (Fermi-Dirac statistics) कहते हैं।
प्रतिसममित तरंग फलन वाले निकाय के लिए अर्थात् फर्मिऑनों के लिए
ΨΑ =Φ (1) θ(2) – Φ(2) θ(1)
यदि Φ = θ हो तो ΨΑ = 0 अर्थात् दो समरूप फर्मिऑनों के एक ही अवस्था में होने की स्थिति में तरंगफलन का अस्तित्व संभव नहीं है या दो समान फर्मिऑन एक ही अवस्था में स्थित नहीं हो सकते। यही पाउली का अपवर्जन नियम (Pauli’s exclusion principle) है।
बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी का पालन करने वाले कण (अर्थात् वे कण जैसे फोटोन, फोनोन आदि जिनकी चक्रण क्वान्टम संख्या पूर्णांकी हैं) बोसोन (boson) कहलाते हैं तथा फर्मी – डिरैक सांख्यिकी का पालन करने वाले कण (अर्थात् वे कण जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, आदि जिनकी चक्रण क्वान्टम संख्या अर्ध विषम पूर्णांकी होती है) फर्मीऑन (fermion) कहलाते हैं।
जब प्रथम कण अवस्था Φ में द्वितीय θ में स्थित होता है तो निकाय का तरंगफलन है Ψ(1, 2) = Φ (1) θ (2) ………(17)
तथा जब इन कणों का परस्पर विनिमय होकर द्वितीय कण अवस्था में प्रथम कण 8 में पहुंच जाता है तो निकाय का तरंग फलन है
Ψ(2, 1) = Φ (2) θ (1) …….(18)
अविभेद्यता के कारण तरंगफलनों Ψ(1, 2) व (2, 1) द्वारा समान ऊर्जा की अवस्था निरूपित होनी चाहिए अर्थात् ये दोनों तरंग फलन समान उर्जा की अवस्था से सम्बद्ध हैं, इस तथ्य को विनिमय अपभ्रष्टता (exchange degeneracy) कहते हैं।व्यापक रूप में n अभिन्न कणों के लिए जब हैमिल्टोनियम समय पर आश्रित नहीं होता तो श्रोडिंगर तरंग समीकरण निम्न रूप में लिखा जा सकता है।
H(1, 2…..n) Φ (1, 2, …n) = E Φ (1, 2, …n) ………..(19)
जहाँ संख्याएँ 1, 2, …..n क्रमश : विभिन्न कणों के निर्देशांक ( स्थित व स्पिन) निरूपित करती हैं।
कणों की अभिन्नता व अविभेद्यता के कारण हैमिल्टोनियम H कणों के परस्पर विनिमय से अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ऊर्जा आइगन मान E के समान मान के लिये विभिन्न क्रमचयों (permutations ) से n! हल प्राप्त होते हैं। आइगन फलनों का कोई भी रैखिक संयोजन भी आइगन मान E से सम्बद्ध उपयुक्त आइगन फलन होता है अर्थात् निकाय अपभ्रष्ट (degenerate) होता है। यह अपभ्रष्टता विनिमय अपभ्रष्टता कहलाती है।

C. समान पूर्व प्रायिकता (Equal apriori-probability)
साम्यावस्था की सांख्यिकी की मूल परिकल्पना है कि किसी भी साम्यावस्था में विलगित निकाय के लिए स सूक्ष्म अवस्थायें जो किसी स्थूल अवस्था के संगत हैं, समान रूप से संभाव्य होती हैं। चिरसम्मत निकाय में सूक्ष्म अवस्था को कला-आकाश में एक बिन्दु से निरूपित करते हैं तथा क्वांटित निकाय में तरंग फलन द्वारा । कुछ परिस्थितियों में प्रत्येक आइगन मान से सम्बन्धित एक ही आइगन फलन होता है, ऐसी स्थिति में आइगन अवस्था या ऊर्जा स्तर अनपभ्रष्ट (nondegenerate) कहलाता है। यदि एक ही आइगन मान से सम्बन्धित एक से अधिक संख्या में उपयुक्त तरंग फलन होते हैं तो आइगन स्तर अपभ्रष्ट ( degenerate) कहलाता है। अपभ्रष्ट परिस्थिति में किसी ऊर्जा के आइगन मान (ऊर्जा स्तर) सम्बद्ध आइगन अवस्थाओं की संख्या उस स्तर की अपभ्रष्टता की कोटि या अपभ्रष्टता कहलाती है। यदि किसी ऊर्जा आइगन मान के लिए अपभ्रष्टता gi है तो समान पूर्व प्रायिकता की परिकल्पना से ऊर्जा स्तर Ei में स्थित होने की प्रायिकता gi गुनी हो जाती है। gi को इस कारण आइगन अवस्था का सांख्यिकीय भार (statistical weight) या पूर्व प्रायिकता ( priori prboability) भी कहते हैं।
 बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी (Bose-Einstein Statistics)
यह सांख्यिकी उन अभिन्न, अविभेद्य कणों पर प्रयुक्त होती है जिनकी चक्रणी क्वान्टम संख्या (spin quantum number) पूर्णांकी (integral) होती है, जैसे फोटोन, हीलियम नाभिक He4 व H2 गैसें । इस सांख्यिकी का पालन करने वाले कण बोसोन (boson) कहलाते हैं तथा ये पाउली के अपवर्जन नियम द्वारा प्रतिबन्धित नहीं होते। अतः किसी भी क्वान्टम अवस्था में कणों की संख्या पर कोई सीमा लागू नहीं होती । इस प्रकार के कणों के निकाय को निरूपित करने वाला तरंग फलन सममित (symmetric) होता है। इस सांख्यिकी को सर्वप्रथम भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस ने 1924 में इस कल्पना के आधार पर कि प्रावस्था समष्टि में चरम आयतन अल्पांश h3 होगा, प्रतिपादित किया और प्लांक के नियम की व्युत्पत्ति दी । आइन्सटाइन ने इसको व्यापक रूप दिया।
बोस-आइन्सटाइन सांख्यिकी में हम पुनः षट् – विमीय कला निर्देशाकाश का उपयोग करते हैं। इस आकाश में एक बिन्दु के निर्देशांक x, y, z, Px, Py, P2 हैं और आयतन अल्पांश एक षट्विमीय समकोणिक समांतर षट्फलक (six dimensional rectangular parallelopiped) आयतन है,
H = dx.dy.dz dpx dpy dpz
चिरसम्मत यांत्रिकी के अनुसार, एक बिन्दु की स्थिति एवं संवेग परिशुद्धता की किसी इच्छित कोटि तक निर्दिष्ट की जा सकती है और इस प्रकार कला निर्देशाकाश में एक ज्यामितीय बिन्दु द्वारा निरूपित की जा सकती हैं। किन्तु हाइजनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त के अनुसार एक कण की स्थिति ओर संवेग दोनों के युगपत मापन की प्रायोगिक परिशुद्धता की एक सीमा है, और ये राशियाँ, गणितीय रूप से एक न्यूनतम सीमा तक निर्दिष्ट की जा सकती हैं या की जानी चाहिए। कला निर्देशाकाश में एक कण के निर्देशांक केवल उस सीमा तक निर्दिष्ट किए जा सकते हैं कि कण की स्थिति और संवेग का निरूपक बिन्दु कला निर्देशाकाश के आयतन h के एक अल्पांश में कहीं हो, जहाँ h प्लांक का नियतांक है, जिसका मान 6.6237 × 10^ -34 जूल सेकण्ड है।
अब हम आयतन h3 के अल्पांश को आयतन H की कोष्ठिका से अन्तर रखने के लिए, एक कक्ष कहेंगे। आयतन H स्वेच्छ है, इस पर केवल यही प्रतिबंध है कि dx dy dz तंत्र रेखीय विस्तार की तुलना में छोटे हैं और dp dpy dpzकणों के संवेग के परास की तुलना में छोटे हैं। इस प्रतिबन्ध के होते हुए भी, H को h3 से अत्यधिक बड़ा लिया जा सकता है, और हम कला निर्देशाकाश को आयतन H की कोष्ठिकाओं में विभाजन के साथ कोष्ठिकाओं का आयतन h^3 के कक्षों में, एक सूक्ष्मतर अन्तर्विभाजन करते हैं। अतः किसी कोष्ठिका i में कक्षों की संख्या giH/h^3 के बराबर योगी। हम कोष्ठिकाओं को इतना बड़ा लेते हैं कि इनमें कक्षों की संख्या gi बहुत बड़ी होती है जिससे कि gi! के लिए स्टर्लिंग का सन्निकटन प्रयुक्त किया जा सकता है। मान लीजिए कि ऊर्जा ∈i के संगत i वीं कोष्ठिका में कला बिन्दुओं की संख्या ni है । किसी प्रकार की संख्यिकी में. एक तंत्र के प्रेक्षण योग गुण तंत्र की स्थूल अवस्था, अर्थात् संख्याओं ni द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। एक स्थूल-अवस्था की ऊष्मागतिक प्रायिकता W भी उसके संगत सूक्ष्म अवस्थाओं की संख्या से निर्धारित की जाती है। कोष्ठिका में कक्षों की संख्या gi समान ऊर्जा ∈i की क्वान्टम अवस्थाओं की संख्या है, अर्थात् gi इस ऊर्जा स्तर की अपभ्रष्टता निरूपित करती है । क्वान्टम यांत्रिकी का एक आवश्यक लक्षण यह है कि इसमें कण अविभेद्य माने जाते हैं। हम एक सरल उदाहरण लेते हैं जिसमें चार कला बिन्दु एवं दो कोष्ठिकाएँ i और j हैं और एक विशेष स्थूल-अवस्था, ni = 3, nj = 1 पर विचार करते हैं। मैक्सवेल – बोल्ट्ज़मान सांख्यिकी के अनुसार इस स्थूल अवस्था के संगत चार सूक्ष्म अवस्थाएँ होती हैं, अर्थात् w = 41 चूंकि कणों में भेद नहीं किया जा सकता अतः यहाँ हम उनको अक्षरों के स्थान पर बिन्दुओं द्वारा निरूपित करेंगे।

अब हम चित्र (7.5-1) में प्रदर्शित सूक्ष्म – अवस्थाओं पर विचार करते हैं। मान लीजिए कि प्रति कोष्ठिका चार कक्ष हैं। चित्र में प्रत्येक i और j कोष्ठिकाओं को चार कक्षों में विभाजित कर दिखाया गया है, और कणों के अभिज्ञान का बिना उपयोग किए हम देखते हैं कि कोष्ठिका में तीन कला बिन्दुओं को व्यवस्थित करने की 20 विधियाँ हैं, और एकल बिन्दु को कोष्ठिका j में व्यवस्थित करने की चार विधियाँ हैं। अतः हम प्रत्येक कोष्ठिका के लिए ऊष्मागतिक

प्रायिकता निर्धारित कर सकते हैं, जो उस कोष्ठिका में कला बिन्दुओं को व्यवस्थित करने की विधियों की संभाव्य संख्या के बराबर होती है। यदि Wi तथा Wj तत्सम्बन्धी प्रायिकताऐं निरूपित करते हैं, तो इस उदाहरण में Wi = 20 , Wj = 4 कोष्ठिका ì में किसी भी व्यवस्था के लिए कोष्ठिका j की कोई एक व्यवस्था हो सकती है, अतः व्यवस्थाओं की कुल प्रसंभाव्य संख्या, जिसे हम स्थूल – अवस्था की ऊष्मागतिक प्रायिकता कहते हैं, निम्न होती है- W = Wi Wj = 20 × 4 = 80 यह मैक्सवेल बोल्टजमान सांख्यिकी के आधार पर प्राप्त W = 4 से भिन्न है। व्यापक रूप में W = π Wij जहाँ गुणनफल कला निर्देशाकाश में सब कोष्ठिकाओं पर लागू होता है। अब हम W के लिए 1; संख्याओं के पदों में व्यंजक व्युत्पन्न करते हैं। मान लीजिए वीं कोष्ठिका में कक्ष 1,2,3 ….. n तक अंकों द्वारा, और कला बिन्दु a, b, c, n तक अक्षरों द्वारा अंकित किए गए हैं। कला बिन्दुओं में कोई पहचान नहीं मानी गई है, हमने उनके लिए अक्षर केवल इस आशय से निर्धारित किए हैं जिससे कि ऊष्मागतिक प्रायिकता के परिकलन को समझने में सहायता मिले। कोष्ठिका i में कला बिन्दुओं की किसी एक व्यवस्था में कक्ष 1 में बिन्दु a और b, कक्ष 2 में c हो सकते हैं, कक्ष 3 रिक्त हो सकता है तथा कक्ष 4 में बिन्दु d, e, f, इत्यादि हो सकते हैं। यह अवस्था अक्षरों एवं अंकों के मिश्रित अनुक्रम से निरूपित की जा सकती है।

जहाँ किसी अंक के उत्तरवर्ती अक्षर उस अंक के कक्ष में कला बिन्दुओं को निर्दिष्ट करते हैं। यदि प्रत्येक अनुक्रम को अंक से प्रारम्भ कर अंक और अक्षर सब संभव अनुक्रमों में व्यवस्थित किए जाऐं तो प्रत्येक अनुक्रम एक स्थूल अवस्था निरूपित करेगा। अतः 8 विधियों से अनुक्रम प्रारम्भ हो सकते हैं और प्रत्येक अनुक्रम में शेष (gi + ni – 1) अंक एवं अक्षर किसी क्रम में व्यवस्थित किए जा सकते हैं। x वस्तुओं को एक अनुक्रम में व्यवस्थित करने की भिन्न रीतियों की संख्या x! होती हैं, अतः उन अनुक्रमों की संख्या जो अंक से प्रारम्भ होती हैं,निम्न हैं : gi(gi + ni -1)! प्रत्येक अनुक्रम एक स्थूल अवस्था निरूपित करता है परन्तु उनमें से अनेक एक ही अनुक्रम निरूपित करते हैं। उदाहरणार्थ चित्र (7.5-3) में ब्लाकों को एक भिन्न अनुक्रम में व्यवस्थित करें, जैसे

तो यह व्यवस्था चित्र (7.5-2 ) के समान है। अतः स्थूल अवस्था परिवर्तित नहीं होती क्योंकि कक्षों में समान कण होते हैं। अनुक्रम में इस प्रकार के 8 ब्लाक हैं, प्रत्येक कक्ष के लिए एक, अतः ब्लाकों के भिन्न अनुक्रमों की संख्या

g! है और हमको एक स्थूल अवस्था की एक से अधिक बार गणना न होने देने के लिए समीकरण (2) को gi से विभाजित करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त चूंकि कण अविभेद्य हैं, अतः अक्षरों का एक भिन्न अनुक्रम जैसे चित्र ( 7.5-2) के समान स्थूल अवस्था निरूपित करता है, क्योंकि किसी दिए हुए कक्ष में कला बिन्दुओं की समान संख्या होती है। ni अक्षर अनुक्रमों में ni! विभिन्न विधियों से व्यवस्थित किए जा सकते हैं,

अत: समीकरण (2) को ni! से भी विभाजित करना आवश्यक है। अतएव iवीं कोष्ठिका में सूक्ष्म अवस्थाओं की संख्या

 

समीकरण (1) से सब कोष्ठिकाओं को सम्मिलित कर सूक्ष्म अवस्थाओं की कुल संख्या अथवा ऊष्मागतिक प्रायिकता

दो भिन्न तापों पर बोस-आइन्सटाइन वितरण (ni/gi) चित्र में प्रदर्शित किया गया है। निम्न तापों पर अधिक कण निम्न ऊर्जा स्तरों में स्थित होते हैं व अब निम्न ऊर्जा स्तरों में संख्या घनत्व मैक्सवैल-बोल्टजमान सांख्यिकी के सापेक्ष अधिक होता है।