बोली किसे कहते हैं | बोली कब उपभाषा बन जाती है | उदाहरण सहित लिखिए | boli definition in hindi
boli definition in hindi बोली किसे कहते हैं | बोली कब उपभाषा बन जाती है | उदाहरण सहित लिखिए |
परिचय
मानवीय लेखन ने सम्पूर्ण इतिहास के दौरान संस्कृति, जीवन शैली, समाज और समकालीन समाज की राजनीति को प्रतिबिम्बित किया है। इस प्रक्रिया में, प्रत्येक संस्कृति ने अपनी भाषा विकसित की और एक विशाल साहित्यिक आधार का सृजन किया। साहित्य का यह विस्तृत आधार हमें शताब्दियों से प्रत्येक भाषा और संस्कृति के विकास की झलक देता रहा है।
साहित्यिक अर्थ में भाषा, वाणी के माध्यम द्वारा संचार करने की प्रणाली है, यह ध्वनियों का एक संग्रह है जिससे लोगों का समूह एक समान अर्थ ग्रहण करता है।
ऽ एक ‘‘भाषा परिवार’’ अभिलिखित इतिहास से पहले के एक ही पूर्वज से संबंध रखने वाली अलग-अलग भाषाओं को सम्मिलित करता है।
ऽ ‘‘बोली’’ भाषा का स्थानीय क्षेत्रा में बोले जाने वाला रूप है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी एक विशिष्ट भाषा से विविध बोलियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाएँ कई भाषाओं के परिवारों से संबंधित हैं जिनमें से अधिकतर भारतीय-आर्य भाषाओं के समूह से संबंध रखती हैं। यह भारतीय-आर्य समूह ‘‘भारोपीय परिवार’’ ;प्दकव.म्नतवचमंदद्ध से उत्पन्न हुआ है। हालांकि कुछ भाषा समूह भारतीय उप-महाद्वीप के स्वदेशी समूह हैं।
भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण
भारत में भाषाएँ निम्नलिखित प्रमुख उप-समूहों में वर्गीकृत हैंः
भारतीय भाषा
भारतीय-आर्य समूह द्रविड़ समूह चीनी-तिब्बत समूह नीग्रो आॅस्ट्रिक अन्य
भाषाओं का भारतीय-आर्य समूह
यह वृहत्तर भारोपीय परिवार की शाखा है जो आर्यों के आगमन के साथ भारत में आयी। यह भारत का सबसे बड़ा भाषा समूह है और लगभग 74 प्रतिशत भारतीय इस समूह से संबंधित भाषाओं को बोलते हैं। इस भाषा समूह को उत्पत्ति काल के आधार पर पुनः तीन समूहों में उप-विभाजित किया जाता है।
प्राचीन भारतीय-आर्य समूह
इस समूह का विकास लगभग 1500 ई. पू. में हुआ, और तथा इसी से संस्कृत का जन्म हुआ था। संस्कृत का प्राचीन रूप हमें वेदों में दिखाई देता है। यहाँ तक कि उपनिषद, पुराण और धर्मसूत्र सभी संस्कृत में लिखे गए हैं। संस्कृत को कई भारतीय भाषाओं की जननी कहा जा सकता है। संस्कृत भाषा विविधता तथा समृद्धि के प्रति समझ पैदा करने का वाहक बनी हैं। यह हमारे देश की सबसे प्राचीन भाषा है और संविधान में सूचीबद्ध 22 भाषाओं में से एक है।
संस्कृत का विकास
संस्कृत व्याकरण का विकास पाणिनी के समय से उनकी पुस्तक ‘अष्ठध्यायी’ के साथ ईसा पूर्व 400 में आरंभ हुआ। यह पुस्तक संस्कृत व्याकरण पर सबसे पुरानी पुस्तक है। यहां तक कि महायान और हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित कुछ बौद्ध साहित्य भी संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। हीनयान सम्प्रदाय की पुस्तक ‘महावस्तु’ कहानियों का खजाना है। सबसे पवित्र महायान ग्रंथ, ‘ललितविस्तार’ और अश्वघोष का बुद्ध चरित्र भी संस्कृत भाषा में लिखा गया था।
एकमात्रा संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसने क्षेत्र और सीमाओं की बाधाओं का अतिक्रमण किया है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम, भारत में ऐसा कोई भाग नहीं है जिसके लिए संस्कृत भाषा ने योगदान न दिया हो या जो संस्कृत भाषा से प्रभावित न हुआ हो। संस्कृत भाषा में उपलब्ध विभिन्न साहित्यों के संबंध में साहित्य वाले अध्याय में चर्चा की गई है।
संस्कृत का प्रांजल स्वरूप 300 ई. पू. से 200 ई. पू. के बीच विकसित हुआ। यह वैदिक संस्कृत का परिष्कृत संस्करण था। संस्कृत के उपयोग का पहला साक्ष्य वर्तमान दक्षिणी गुजरात क्षेत्रा के जूनागढ़ में रुद्रदमन के शिलालेख में पाया जा सकता है।
हालाँकि कविताओं में संस्कृत के उपयोग की जानकारी गुप्त काल से मिलती है। यह पूरी तरह से शुद्ध साहित्य रचना की अवधि है, जो महाकाव्यों तथा खण्ड काव्यों के कार्यों से स्पष्ट होती है।
संस्कृत साहित्य के क्षेत्रा में इस अवधि को अद्वितीय रचना काल के रूप में जाना जाता है जिसका कारण इस शासन काल में विभिन्न प्रकार के साहित्यक कार्यों की रचना होना था। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू साहित्यिक कार्यों में अलंकृत शैली से संबंधित है। गुप्तकाल के दौरान विकसित कई स्थानों ने संस्कृत को भाषा के रूप में प्रयोग किया। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इन स्थानों की एक विशेषता उच्च वर्णों के व्यक्तियों द्वारा संस्कृत भाषा का उपयोग किया जाना तथा महिलाओं और शूद्रों द्वारा प्राकृत भाषा का उपयोग किया जाना था।
भाषाओं का मध्य भारतीय-आर्य समूह
इस उप-समूह के विकास की अवधि ईसा पूर्व 600 से 1000 ईस्वी के बीच है और इसमें प्राकृत एक अहम् भाषा है। प्राकृत का अर्थ सहज, मूल, सामयिक (अनौपचारिक) समझा जाता है जिससे यह प्रकट होता है कि इसमें उपयोग करने के कोई कठोर नियम नहीं होते हैं और यस सर्वसामान्य की बोली है। प्राकृत एक व्यापक शब्द है जिसमें सामान्यय रूप से मध्य भारतीय-आर्य समूह की सभी भाषाओं को समाहित कर लिया जाता है। अर्द्ध-मगधी, पालि अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं का मूल प्राकृत में पाया जाता है।
प्राकृत आम लोगों के जीवन-यापन से संबंधित थी। वहीं दूसरी ओर, संस्कृत रूढ़िवादी थी, इसके निश्चित नियम थे और इसका प्रयोग विद्धानों एवं संभ्रात लोगों, विशेष रूप से ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषा में लिपि का विकास अपेक्षाकृत बाद में हुआ है।
प्राकृत एवं अर्द्ध-मगधी भाषा का उपयोग जैन ‘आगामों’ में किया गया था।
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि एक भाषा से दूसरी भाषा में संक्रमण की अवधि मंद है और इसे सख्त कालानुक्रमिक अवधियों में विभाजित नहीं किया जा सकता।
प्राकृत में सम्मिलित हैंः
ऽ पालिः इसे मगध मंे बडे़ पैमाने पर बोला जाता था। यह ईसा पूर्व पाचंवी से पहली शताब्दी के बीच लोकप्रिय थी। यह संस्कृत से निकटतापूर्वक संबंधित है, और इसे ब्राह्मी लिपि में लिखा जाता था। बौद्ध धर्म का त्रिपिटक पालि में लिखा गया था। यह थेरावडा बौद्ध धर्म की सामान्य भाषा के रूप में का कार्य करती है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि बुद्ध स्वायं पालि भाषा नहीं बोलते थे, अपितु उन्होंने अपने उपदेश अर्द्ध-मगधी भाषा में दिए।
ऽ मगधी प्राकृत या अर्द्ध-मगधीः यह प्राकृत का सबसे महत्वपूर्ण प्रकार है। संस्कृत और पालि के पतन के बाद इसका साहित्यिक उपयोग बढ़ गया। बुर्द्ध और महावीर संभवतः अर्द्र्ध-मगधी में बोलते थे। यह कुछ महाजनपदों एवं साथ ही मौर्य राजवंश के दरबार की भाषा थी। अनेक जैन ग्रंथों एवं अशोक के शिलालेखों को भी अर्द्ध-मगधी में लिखा गया था। यह बाद में पूर्वी भारत की भाषाओं अर्थात् बंगाली, असमिया, उडिया, मैथिली, भोजपुरी आदि में विकसित हुई।
ऽ शौरसेनीः इसे मध्यकालीन भारत में नाटक लिखने के लिए व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। यह उत्तरी भारतीय भाषाओं की पूर्ववर्ती है। जैन साधुओं ने मुख्य रूप से प्राकृत के इस प्रकार में लिखा। दिगांबर के एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘षत्खंडगामा’ का लेखन शौरसेनी में किया गया है।
ऽ महाराष्ट्री प्राकृतः 9वीं ईस्वी शताब्दी तक बोली जाने वाली यह भाषा मराठी और कोंकणी की पूर्ववर्ती थी। पश्चिमी और दक्षिणी भारत में इसका व्यापक उपयोग किया जाता था। यह शातवाहन राजवंश की आधिकारिक भाषा थी। इसमें अनेक नाटकों का लेखन किया गया था जैसे कि राजा हल द्वारा ‘गह कोश’, वाक्पति द्वारा गौड़वहो’ (राजा गौड का वध)।
ऽ इलुः श्रीलंका की आधुनिक सिंहल भाषा का प्राचीन रूप। यह पालि के समान है।
ऽ पैशाचीः इसे भूत-भाषा (मृत भाषा) भी कहा जाता है और इसे प्रायः प्राकृत माना जाता है। गुणाध्य् की बृहत्कथा (छठी शताब्दी) नामक प्राचीन महाकाव्य पैशाची भाषा में लिखी गयी है। प्राचीन सभ्यता में इस भाषा का कम महत्व पाया गया है।
अपभ्रंश
6-7 वीं शताब्दी तक, ‘अपभ्रंश’ (भ्रष्ट या गैर-व्याकरणीय) का विकास हो गया था। अपभ्रंश एक समावेशी शब्द है जो संस्कृत या यहाँ तक कि प्राकृत के अतिरिक्त अन्य सभी बोलियों को समाविष्टं करता है। यह मध्य से आधुनिक भारतीय-आर्य समूह की भाषाओं में संक्रमण का दर्शाता है।
अपभ्रंश धीरे-धीरे साहित्यिक भाषा बन गई एवं अनेक ग्रंथों, कथाओं आदि के लेखन में इसका उपयोग किया गया। 7 वीं शताब्दी तक, अपभ्रंश ने अपनी पहचान विकसित कर ली थी। इसे इस तथ्य से उजागर किया जा सकता है कि 6 या 7 वीं सदी में कश्मीर के विख्यात कवि भामा ने कविता को संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश में विभाजित किया साथ ही संस्कृत के प्राचीन साहित्यकार दण्डी ने भी कहा था कि अपभ्रंश सामान्य जन की भाषा है। कई जैन मुनियों और विद्वानों ने अपभ्रंश में बडे पैमाने पर लेखन किया और इसका संरक्षण किया।
प्रमुख ग्रंथ और लेखक हैंः पुष्पदन्त का महापुराण (दिगम्बर जैन ग्रंथ), धनपाल का भविसयक्ताकहा आदि।
आधुनिक भारतीय आर्य-समूह
इस समूह से संबंधित भाषाएँ हिन्दी, असमिया, बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी, राजस्थानी, सिंधी, ओडिया, उर्दू इत्यादि हैं। इस उप-वर्ग की भाषाएँ 1000 ईस्वी के बाद विकसित हुईं। इन भाषाओं को मुख्य रूप से भारत के उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भागों में बोला जाता है।
द्रविड़ समूह
इस समूह में मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी भागों में बोली जाने वाली भाषाएँ सम्मिलित हैं। लगभग 25ः भारतीय जनसंख्या इस समूह में सम्मिलित है। आद्य द्रविड़ भाषा से 21 द्रविड़ भाषाएँ उत्पन्न हुईं। उन्हें मोटे तौर पर तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः उत्तरी समूह, केन्द्रीय समूह और दक्षिणी समूह।
1. उत्तरी समूह
इसमें तीन भाषाएँ सम्मिलित हैं अर्थात् ब्राहुई, माल्टो और कुरुख। ब्राहुई बलूचिस्तान में बोली जाती है, माल्टो बंगाल और ओड़िसा के आदिवासी क्षेत्रों जबकि कुरुख बंगाल, ओडिशा, बिहार और मध्य प्रदेश में बोली जाती है।
2. केन्द्रीय समूह
इसमें सात भाषाएँ सम्मिलित हैं अर्थात् गोण्डी, खोण्ड, कुई, मण्डा, पर्जी, गडबा, कोलामी, पैंगो, नैकी, कुवी और तेलुगु। केवल तेलुगु एक सभ्य भाषा बनी और इसे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों में बोला जाता है जबकि अन्य जनजातीय भाषाएँ हैं।
3. दक्षिणी समूह
इस समूह से सात भाषाएँ संबंधित हैं। ये कन्नड़, तमिल, मलयालम, तुलु, कोडगु, टोडा और कोटा हैं। इन सब में तमिल सबसे पुरानी है।
इन 21 भाषाओं के बीच, द्रविड़ समूह की चार प्रमुख भाषाएँ हैंः
ऽ तेलुगु (संख्यात्मक रूप से सभी द्रविड़ भाषाओं में सबसे बड़ी)।
ऽ तमिल (भाषा का सबसे पुराना और शुद्धतम रूप)।
ऽ कन्नड़
ऽ मलयालम (द्रविड़ समूह में सबसे कम बोली जाने वाली और नवीनतम भाषा)
चीनी-तिब्बती समूह
इस समूह की भाषाएँ मंगोलियाई परिवार से संबंधित हैं और सम्पूर्ण हिमालय, उत्तरी बिहार, उत्तरी बंगाल, असम और देश की उत्तर-पूर्वी सीमाओं तक पाई जाती है। ये भाषाएँ भारतीय-आर्य भाषाओं से अधिक पुरानी मानी जाती हैं और सर्वाधिक पुराने संस्कृत साहित्य में इसका उल्लेख ‘‘किरात’’ के रूप में हुआ। 0.6ः प्रतिशत भारतीय जनसंख्या इस समूह से संबंधित भाषाएँ बोलती है।
चीनी-तिब्बती समूह को पुनः निम्नलिखित समूहों में विभाजित किया जाता हैः
1. तिब्बती-बर्मन
तिब्बती-बर्मन समूह की भाषाओं को पुनः चार समूहों में विभाजित किया जाता हैः
ंद्ध तिब्बतीः सिक्किमी, भूटिया, बाल्टी, शेरपा, लाहौली और लद्दाखी
इद्ध हिमालयीः किन्नौरी और लिम्बू
बद्ध उत्तरी असमः अबोर, मिरी, आका दापफला और मिश्मी
कद्ध असम-बर्माः कुकी-चिन, मिकिर, बोडो और नागा। मणिपुरी और मैथी कुकी चिन उप समूह के अंतर्गत बोली जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण भाषा है।
2. स्यामी-चीनी
इस समूह से संबंधित एक भाषा अहोम है। हालांकि यह भाषा भारतीय उप महाद्वीप से विलुप्त हो गई है।
आस्ट्रिक
इस समूह की भाषाएँ आस्ट्रो-एशियाई उप-परिवार से संबंधित हैं, जिनमें मुण्डा और कोल समूह की भाषाएँ आती हैं और मध्य, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत में बोली जाती हैं। उनमें से कुछ मोन-खेमर समूह से भी संबंधित हैं, जैसे. खासी और निकोबारी।
इन भाषाओं का अस्तित्व आर्यों के आगमन से बहुत पहले से रहा है और इन्हें प्राचीन संस्कृत साहित्य में ‘‘निषादं’’ के रूप में संदर्भित किया जाता था।
इस समूह के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण भाषा संथाली है जो झारखण्ड, बिहार और बंगाल के संथाल आदिवासियों द्वारा बोली जाती है।
खासी और संथाली के अलावा भारतीय क्षेत्रा में सभी आस्ट्रिक-एशियाई भाषाएँ लुप्तप्राय हैं।
अन्य
यह समूह अनेक द्रविड़ आदिवासी भाषाओं, जैसे.गोण्डी, ओराँव, प्रजी इत्यादि को सम्मिलित करता है, जो बहुत भिन्न हैं और उपर्युक्त उल्लिखित समूहों में वर्गीकृत नहीं की जा सकतीं।
भारतीय-आर्य समूह और द्रविड़ समूह की भाषाओं में अंतरः
1. इन दो भाषा परिवारों में मूल शब्द भिन्न हैं।
2. दोनों समूहों में व्याकरणीय संरचना भिन्न है।
ंद्ध द्रविड़ परिवार की भाषाओं की व्याकरणीय संरचना संशलिष्ट है अर्थात् इसका संयोजन इस प्रकार का है जिसमें मूल शब्द इस प्रकार संयुक्त रूप बनाए रखते है की न तो शब्दों की हानि होती है और न ही उनके रूप में परिवर्तन होता है।
इद्ध भारतीय-आर्य समूह की भाषाओं की व्याकरणीय संरचना बदलती रहती है अर्थात् शब्दों का अन्त या इनकी वर्तनी वाक्य में इनके प्रकार्य के अनुसार परिवर्तित होती रहती है।
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