जैविक क्रियाएँ किसे कहते हैं ? Biological Activities in hindi meaning definition जैव क्रिया की परिभाषा
Biological Activities in hindi meaning definition जैव क्रिया की परिभाषा जैविक क्रियाएँ किसे कहते हैं ?
जैविक क्रियाएँ
(Biological Activities)
जलवायु के तुल्य ही जैविक क्रियाएँ स्थलाकृतियों के स्वरूप तथा उनके विकास में बहुत प्रभाव डालती है। जलवायु के तत्वों के समान ही जैविक प्रक्रम भी भूस्वरूपों में परिवर्तन करने वाले मुख्य प्रक्रम हैं। सर्वप्रथम 1882 ई. में डार्विन ने यह स्पष्ट किया कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में जो कीड़े हैं उनसे प्रतिवर्ष 10 टन प्रति एकड़ मलबे का निष्कासन होता है जो वास्तव में भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय के लिए एक मुख्य तत्व है जिससे भू-भागों का विनाश होता है, सागर की पेन्दी में कई टन सिलिका का घोलीकरण करने में जीवों का मुख्य हाथ है।
जैकसन तथा शैलटोन ने यह सिद्ध किया है कि इन वनस्पति वाली जगहों में चने के पत्थरों के जोड़ शीघ्र ही इस वृक्ष की जड़ों से खलने लगते हैं. और ज्यों-ज्यों पेड़ की ऊँचाई बढ़ती है त्यों-त्यों येन वृक्ष की जड़ें गहराई तक जोड़ों को खोलकर चैड़ा कर देती हैं तथा उनसे अन्ततोगत्वा भूभाग का चट्टान टूटने लगती हैं या उनमें पानी भरने से कन्दराओं की उत्पत्ति होने लगती है,
पी. बिरोट ने ज्ीम बलबसम व िमतवेपवद पद कपििमतमदज बसपउंजमे नामक लेख में यह स्पष्ट किया कि जहाँ का यांत्रिक कार्य इतना प्रभावशाली है कि उसकी कल्पना करना वास्तव में कभी-कभी आश्चर्य उत्पन्न कर देती है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि 10 से.मी. मोटी तथा 1 मीटर लम्बी कोई भी जड़ लगभग 40 टन भारी वनज वाले पिण्डों को हटा सकती है। इस प्रकार के उदाहरण उन भागों में मिलते हैं जहाँ पर धरातलीय क्षेत्रों में मिट्टी की पर्तें या तो अनुपस्थित या बहुत पतली रहती है वहाँ पर पेड़ों की जड़ें आसानी से पथरीले धरातल में अपनी जड़ों को प्रविष्ट कर देती है जड़ों के मुंह या अग्र भाग पर एक प्रकार का रसीला पदार्थ होता है जिसके द्वारा भारी से भारी तथा कठोर से भी कठोर चट्टानें आसानी से क्षयित हो जाती है जिसके में प्रविष्ट कर जाती है, जिसके फलस्वरूप् जड़े आसानी से कठोर चट्टानी धरातल में प्रविष्ट कर जाती है, सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र में कोणधारी वनस्पति जिसमें चीड़, फर तथा देवदार इत्यादि के वृक्ष महत्वपूर्ण स्थान रखते है उनके द्वारा चुने की चट्टानों वाले क्षेत्र में जड़ों के प्रविष्ट होने से चट्टानों में दरारे विकसित हो गई है। कभी-कभी इन्हीं दरारों की उपरी सतह की पर्तें क्षरण के द्वारा समाप्त हो जाती है और वर्षा या हिम के समय यहां पर पानी पर जाने से दरारी संरचना टूट जाती है जिससे बड़े-बड़े शिलाखण्डों की उपत्पत्ति होती है। चीड़ वाले वनों में लाल भूरी मिट्टी का अपक्षय होने से जब दरारी संरचना वाले क्षेत्रों में वर्षा का जल एकत्रित हो जाता है तो उससे ग्लवा का प्रवाह ;उमकसिवूद्ध मुख्य रूप् से होता है, इस प्रकार के प्रभाव संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा ऋतु के समय देखने को मिलते है। पेड़ों की जड़ें 10 से लेकर 20 मीटर की गहराईयों में प्रवेश कर जाती है।
वनस्पति के बाद बिल बनाकर रहने वाले जीवों में गीदड़, चूहा, चींटी, लोमड़ी, प्रेयरी कल्ले इत्याटि का भी अपना विशेष महत्व है। आस्ट्रेलिया के वृहद्ध भागों तक खरगोश के द्वारा बिल बनाए गए है, इन बिलों में जो गुहाए होती हैं उसके कारण ऊपरी पर्त का अपक्षय होकर गिर जाती है। अन्तोतगत्वा वहाँ पर गहरे खड्डो की उत्पत्ति हो जाती है, इसी प्रकार रेगिस्तानी क्षेत्रों में शशकों के बिलों से भूमि का अधिकांश भाग गड्ढों के रूप में बदल जाता है, कई क्षेत्रों में केकड़े भी भूमि का अपक्षय करके उसके स्वरूप को बदल देते है। इसी प्रकार एक प्रकार का सफेद कीड़ा विशेषकर जानवरों के गोबर के स्थानों में रहता है जो कि वर्ष में लगभग 13 सेमी की गहराई में प्रवेश कर जाते है। ये कीड़े जिस किसी भी पेड़ की जड़ों के नीचे अपना घर बनाकर रहते है उनकी जड़ों को काटकर पेड़ों को सुखा देते हैं, घरों के समीप मिर्च, मक्का तथा खेतों में मडवे के पौधे को इस प्रकार के कीड़े नुकसान पहुंचाते हैं।
केंचुए भी मिट्टी के स्वरूप को बदल देते हैं जिस भाग में केंचुए अधिक होते हैं वहाँ की मिट्टी औपली हो जाती है तथा वर्षा की तेज प्रवाह के साथ बहकर समाप्त हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि जिन क्षेत्रों में केले के बागान स्थित हैं उन भागों में केंचुए केले की जड़ों को समाप्त कर देती हैं या उनमें छिद्राकार आकृति बनाकर केले के बागानों को समाप्त कर देती हैं। केले के कोमल तनों पर भी इसका प्रभाव होता है। यदि केंचुए तनों या जड़ों पर लग जायें तो उसमें बड़े पौधे गिरकर समाप्त हो जाते हैं, इसलिए साल में एक बार केले के बागानों में आग लगाई जाती है जिससे केंचुए समाप्त हो जायें तथा केले की नइ पाध निकलनी प्रारम्भ हो जाती है।
जैविक तत्वों में सबसे महत्वपूर्ण मनुष्य के क्रियाकलाप हैं जिसने भूभागों क स्वरूप में परिवर्तन कर डाला है, मनुष्य ने आदिम अवस्था अवस्था से लेकर सभ्यता के अन्तिम चरण तक पहुचनें मे भूभाग का रूपान्तरण एवं उसका विकास विभिन्न रूपों में किया। पृथ्वी के धरातल पर मनुष्य यह परिवर्तन विभिन्न रूपों में पाषाण कालीन सभयता से लेकर आज तक करता आ रहा है। आज से लगभग 10 या 15 हजार वर्ष पहले से मनुष्य ने पृथ्वी के धरातल पर जैविक एवं क्षयात्मक सन्तुलन को अपनी क्रियाओं के द्वारा समाप्त कर रहा है। इस प्रकार पृथ्वी के लगभग 2/3 माग में यह सन्तुलन समाप्त हो गया है। मनुष्य ने सांस्कृतिक स्थलाकृतियों के द्वारा भौतिक स्थलाकृतियों में वृहद्ध परिवर्तन कर डाला है। मिट्टी एवं भूभागों को काट-काट कर सीढ़ीनुमा खेतों का निर्माण किया है, प्रतिवर्ष नदियों के द्वारा मलवे की भारी पों का क्षरण होता है। नदियों में प्रवाह को रोक का निर्माण किया है उससे नदी घाटियों का प्राकृतिक सन्तुलन समाप्त हो जाता है। खेती करने से मिट्टी का कटाव तथा भूभागों का क्षरण होने से मौलिक स्थलाकृतियों के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है. खेती के लिए वनों को साफ किया गया जिसके फलस्वरूप जलवायु पर प्रभाव पड़ा तथा जो भाग पहले हरे-भरे वनस्पति वाले क्षेत्र थे वहाँ मनुष्य ने अपना क्रियाआ कद्वारा शुष्क मरूस्थलों को जन्म दिया है।
इस प्रकार भूआकृतियों पर जलवायु का और जलवायु पर इन भूआकृतियो का पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
महत्वपूर्ण प्रश्न
दीर्घउत्तरीय प्रश्न
1. भू-आकृति विज्ञान का विस्तृत विवेचन देते हुए जलवायु के स्थलाकृतियों पर पड़ने वाले प्रभावें को स्पष्ट कीजिए।
लघुउत्तरी प्रश्न
1. भू-आकृति विज्ञान की व्याख्या कीजिए।
2. जलवायु जनित स्थलरूपः जलवायु भूआकृति विज्ञान की प्रमुख पहचान है स्पष्ट कीजिए।
3. भू-आकृति विज्ञान और जलवायु नियंत्रण पर टिप्पणी लिखिए।
4. जलवायु के स्थलाकृतियों पर पड़ने वाले प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
5. भूभौमिक विज्ञान में जलवायु के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. जलवायु भू आकारिकी का प्रांरभ जर्मनी तथा फ्रांस में-
(अ) 19वीं शती के अंत में (ब) 20वीं शती के अंत में
(स) 11वीं शती के अंत में (द) 15वीं शती के अंत में
2. जलवायु का स्थलाकृतियों पर प्रभाव आंकने वाला प्रथम विज्ञान वेत्ता-
(अ) रासेल (ब) वुडल (स) हार्डवुड (द) मॅरोजिन
3. चेम्बरलेन ने उष्ण आर्द्र तथा मध्यवर्ती अक्षांस रेखीय प्रदेशों की स्थलाकृतियों में जलवायु की विषमताओं का अंतर कब स्पष्ट किया-
(अ) 1902 (ब) 1905 (स) 1910 (द) 1920
उत्तरः 1.(अ), 2. (ब), 3.(स)
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