आनुवंशिक पदार्थ का आधार क्या है , Basis of Genetic Material in hindi , जीवाणु भोजी संक्रमण (Bacteriophage infection)
पढेंगे कि आनुवंशिक पदार्थ का आधार क्या है , Basis of Genetic Material in hindi , जीवाणु भोजी संक्रमण (Bacteriophage infection) ?
आनुवंशिक पदार्थ का आधार (Basis of Genetic Material)
जैसा कि गुणसूत्र सिद्धान्त द्वारा ज्ञात है कि गुणसूत्र ही वंशागति के भौतिक आधार हैं। ये ही वे संरचनात्मक इकाइयाँ हैं जिन पर आनुवंशिक लक्षणों को नियन्त्रित करने वाले जीन स्थित होते हैं । ये वंशागत लक्षणों (hereditary traits) को पैतृक कोशिकाओं से संतति कोशिकाओं में ले जाते हैं। इनका रासायनिक संघटन (Chemical constitution) मुख्य रूप से न्यूक्लिक अम्लों तथा प्रोटीन्स (Nucleoproteins) द्वारा होता है। न्यूक्लिक अम्ल मुख्य रूप से डी.एन.ए. (DNA) तथा आर. एन. ए. (RNA) होते हैं। कुछ वाइरसों को छोड़कर सभी जीवों में मुख्य रूप से DNA पाया जाता है। यह एक महत्त्वपूर्ण रासायनिक यौगिक है । प्रयोगों द्वारा अब यह पूर्ण रूप से प्रमाणित किया जा चुका है कि DNA ही आनुवंशिक सामग्री है न कि प्रोटीन्स । इसी यौगिक में आनुवंशिक सूचनाएँ निहित होती हैं जो सजीवों में होने वाली समस्त जैविक क्रियाओं पर नियन्त्रण रखती हैं। DNA में उपस्थित सूचना (information) ट्राँसक्रिप्शन (transcription) की क्रिया द्वारा RNA अणु (ribonucleic acid molecule) में स्थानान्तरित कर दी जाती है। RNA अणुओं से ट्रांसलेशन (translation) की क्रिया द्वारा प्रोटीन का संश्लेषण होता है ।
संक्षिप्त इतिहास (Brief History )
एफ. मिशर (F. Meisher, 1869) ने सर्वप्रथम DNA अणु को श्वेत रक्त कणिकाओं से विलगित किया। उन्होंने इसे न्यूक्लिन (Nuclein) नाम दिया । किन्तु उस समय तक इसकी रासायनिक प्रकृति ज्ञात नहीं थी। सन् 1880 में फिशर (Fisher) ने न्यूक्लिक अम्लों में प्यूरीन (Purine) तथा पिरिमीडीन (Pyrimidine) क्षारों की उपस्थिति बतायी। कोसेल ( Kossel) ने बताया कि पिरीमीडीन दो प्रकार के साइटोसीन (Cytosine) तथा थायमीन (thymine) होते हैं। प्यूरीन भी दो प्रकार के एडीनीन (adenine) व ग्वानीन (guanine) होते हैं । इस खोज के लिए उन्हें सन् 1910 में नॉबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसी समय में एक जैव रासायनिक वैज्ञानिक लीवेन (Levene ) ने न्यूक्लिक अम्लों में ही ऑक्सीराइबोज शर्करा, राइबोज शर्करा, फॉस्फोरिक अम्ल की उपस्थिति बतायी। आर. फ्यूलजन (R. Feulgen, 1914) ने DNA की उपस्थिति को ज्ञात करने के लिए एक अभिरंजन तकनीक की खोज की।
इसके बाद सन् 1944 में ऐवेरी, मैकलिओइड तथा मैककार्थी (Avery, Macleod & Mc Carthy) ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि DNA ही आनुवांशिक पदार्थ होता है जो वंशागति के लिए उत्तरदायी। है । चारगाफ (Chargaff. 1947) ने DNA की रासायनिक संरचना का अध्ययन किया तथा बताया कि DNA के अणु में प्यूरीन ( Purine) बड़े व पिरिमीडीन (Pyrimidine) छोटे क्षारक होते हैं तथा समानुपात में पाये जाते हैं। विलकिन्स तथा उनके सहयोगियों (Wilkins et al, 1950) ने X-ray डिफ्रेक्शन विभि द्वारा यह ज्ञात किया कि DNA अणु में प्यूरीन व पिरिमीडीन क्षारक एक-दूसरे से 3.4 A° दूरी पर स्थित होते हैं । तथा दस न्यूक्लिओटाइड इकाइयाँ 34 A° दूरी में व्यवस्थित रहती हैं। इसके अलावा DNA अणु रेखीय संरचना प्रदर्शित नहीं करता है। यह एक कुण्डलित संरचना होती है। सन् 1953 में वाटसन तथा क्रिक ने DNA अणु की द्विक कुण्डलीय ( double stranded) संरचना बतायीं। जिसके द्वारा DNA अणु की विभिन्न क्रियाओं को समझा जा सका। कॉर्नबर्ग (Kornberg, 1957) ने वाटसन एवं क्रिक (Watson & Crick) द्वारा प्रस्तावित DNA की द्विकुण्डलीय संरचना को प्रमाणित करने के लिए कृत्रिम रूप से DNA अणु का संश्लेषण किया ।
वितरण (Occurrence)
पादप वाइरसों को छोड़कर सभी सजीवों में DNA पाया जाता है। यूकैरिओटिक कोशिकाओं में अधिकतर DNA केन्द्रक में लम्बे, अशाखित तथा सर्पिल कुण्डल के रूप में पाया जाता है। किन्तु प्रोकैरियोटिस में तथा यूकैरिओटिक कोशिका के कोशिकांगों, जैसे – माइटोकॉन्ड्रीया (Mitochondria) व लवकों (plastids) में DNA वृताकार (Circular) तथा कोशिका द्रव्य में अनावृत रूप में पाया जाता हैं। एक कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या के बराबर DNA अणु पाये जाते हैं ।
डी.एन.ए. के आनुवंशिक पदार्थ होने के प्रमाण (Evidences for DNA as the genetic material)
विभिन्न आण्विक जीव-वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों में निम्न परिघटनाओं (Phenomenon) का अध्ययन करके यह परिणाम निकाला कि ‘DNA’ ही आनुवंशिक पदार्थ होता है ।
(1) जीवाणु रूपान्तरण (Bacterial transformation ) – सर्वप्रथम सन् 1928 में फ्रेडरिक ग्रिफिथ (Frederich Griffith, 1928) ने न्यूमोनिया रोग (Pneumonia disease) कारक जीवाणु डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae) में आनुवंशिक रूपान्तरण का अध्ययन किया। इसके पश्चात् सन् 1944 में तीन अन्य वैज्ञानिकों ऐवेरी, मैकलिओइड तथा मैककार्थी (Avery, Macleod & McCarthy, 1944 ) ने अपने-अपने प्रयोगों द्वा.. इस जीवाणु में होने वाले रूपान्तरण अउग्र प्रभेद (non virulent) से उग्र प्रभेद (virulent Strain) में परिवर्तित होने का कारण DNA रसायन को बताया ।
डिप्लोकोकस न्यूमोनी जीवाणु जो कि चूहों तथा मनुष्यों में न्यूमोनिया रोग उत्पन्न करता है, दो प्रभेदों (Strains), उग्र (Virulent) तथा अउग्र (non virulent) के रूप में पाया जाता है। प्रथम उग्र- प्रद—S III (Virulent Strain-SIII) जीवाणु में कोशिका के चारों ओर पायी जाने वाली केप्स्यूल परत (capsule layer) पॉलीसेकराइड्स (Polysaccharides) की बनी होती है। तथा इसकी कॉलोनी चमकदार तथा चिकनी (Shinning & Smooth) होती है। यह प्रभेद रोग का कारक होता है। दूसरा अउग्र प्रभेद Ril (non virulent strain-RII) होता है। इसकी कॉलोनी खुरदरी व अनियमित होती है। इसका कोशिका के चारों ओर केप्स्यूल भी अनुपस्थित होती है तथा यह प्रभेद रोग कारक नहीं होता है। ऐस देखा गया है कि S प्रकार की जीवाणु कोशिकाएँ कभी-कभी R प्रकार की जीवाणु कोशिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं, किन्तु R से S प्रकार में परिवर्तन कभी भी नहीं देखा गया।
ग्रिफिथ (Griffith) ने जीवित अनुग्र प्रभेद – RII को चूहे में इंजेक्शन द्वारा प्रविष्ट कराया (चित्र 5.1 ) तो पाया गया कि चूहे की मृत्यु नहीं हुई। किन्तु जब जीवित उग्र प्रभेद – SIII को प्रविष्ट कराया गया तो यह पाया गया कि चूहे की न्यूमोनिया रोग से मृत्यु हो गयी। लेकिन जब प्रभेद—-SIII को गर्म करके नष्ट करने के बाद जब चूहे के शरीर में प्रविष्ट कराया गया तब चूहे को न्यूमोनिया रोग नहीं हुआ तथा उसकी मृत्यु नहीं हुई । अतः यहाँ ताप (heat) केवल उग्रभेद की रोग उत्पन्न करने की क्षमता को नष्ट करता है । उपरोक्त प्रयोगों की इस श्रृंखला में जब अनुग्र प्रभेद – RII की जीवित कोशिकाओं को ताप द्वारा नष्ट कर दिये गये उग्र प्रभेद-S III की कोशिकाओं के साथ इंजेक्शन द्वारा चूहे के शरीर में प्रविष्ट कराया गया तो यह पाया गया कि चूहे की न्यूमोनिया रोग से मृत्यु हो जाती है । जब मृत चूहे का अन्त्य परीक्षण (Postmortem) किया गया तो उसके हृदय रक्त में RII तथा SIII दोनों प्रकार के न्यूमोकोकस (Pneumococci) पाये गये ।
ग्रिफिथ ने इस प्रयोग के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि गर्म किये हुए (heat killed) Slll उग्र प्रभेद की कोशिकाओं में से कुछ रूपान्तरित करने वाला कारक निकलता है तथा वह अनुग्र प्रभेद RII (non virulent) की कोशिकाओं द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है तथा अनुग्र प्रभेद RII को केप्स्यूल युक्त SIII जीवाणु प्रभेद में रूपान्तरित कर देता है (चित्र 5.1 ) इन प्रयोगों द्वारा यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया कि DNA ही आनुवंशिक सामग्री है, न कि प्रोटीन ।
ऐवेरी तथा उसके साथियों ने अपने प्रयोग में सर्वप्रथम केप्स्यूल युक्त प्रभेद-SIII की कोशिकाओं में से विभिन्न रासायनिक घटकों, जैसे- कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन्स, फेट्स, DNA तथा RNA को अलग किया । तदुपरान्त उन्होंने अनुग्र प्रभेद – R II को संवर्धित किया तथा उसके संवर्धन माध्यम में अलग किये गये उपरोक्त रासायनिक घटकों को एक-एक करके अलग-अलग डाला तो उन्होंने पाया कि DNA घटक में ही यह क्षमता थी कि वह R प्रकार की कोशिकाओं (केप्स्यूल रहित) को 5 प्रकार की (A युक्त) कोशिकाओं में बदल सकें। रूपान्तरित S कोशिकाएँ सभी लक्षणों में SIII उग्र प्रभेद के समान थीं, क्योंकि उनमें DNA भाग SIII प्रभेद द्वारा प्राप्त किया गया था (चित्र 5.2)। इन प्रयोगों द्वारा यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया कि DNA ही आनुवंशिक सामग्री है, न कि प्रोटीन ।
(2) जीवाणु भोजी संक्रमण (Bacteriophage infection)
DNA एक आनुवंशिक पदार्थ है, इसे प्रमाणित करने के लिए एक और उदाहरण जीवाणुभोजी (वाइरस) में जनन क्रिया का अध्ययन है। यह वाइरस जीवाणु कोशिका को संक्रमित करता है तथा जीवाणु कोशिका में ही इसका गुणन (multiplication) होता है। उसके बाद जीवाणु कोशिका का लयन (Lysis) हो जाता है तथा कोशिका मृत हो जाती है। जीवाणुभोजी की संरचना ( चित्र 5.3) में मुख्य रूप से दो भाग होते हैं। एक शीर्ष (head) तथा एक पुच्छं (tail) पायी जाती है। शीर्ष प्रोटीन आवरण तथा DNA कोर (DNA core), का बना होता है जबकि पुच्छ भाग की रचना में एक पुच्छ कोर (tail core), पुच्छ आवरण (tail sheath) तथा कुछ पुच्छ रेशे (tail fibres) होते हैं । संक्रमण के लिए पहले जीवाणुभोजी (Bacteriophage) जीवाणु कोशिका पर पुच्छ रेशों की सहायता से चिपक जाता है । तदुपरान्त इसके शीर्ष में उपस्थित DNA जीवाणु कोशिका में स्थानान्तरित (transfer) कर दिया जाता है । वहाँ DNA द्विगुणन (duplication) की क्रिया द्वारा भोजी DNA के अणु का गुणन होता है तथा अधिक मात्रा नये भोजी DNA अणु बनते हैं जिनके चारों ओर प्रोटीन आवरण का संश्लेषण होता है । इस प्रकार अधिक मात्रा में नयी भोजी संतति उत्पन्न होती है। वे आनुवंशिक रूप से संक्रमणकारी भोजी के समान ही होती हैं। इस क्रिया के परिणामस्वरूप जीवाणु कोशिका का लयन (Lysis) हो जाता है तथा नये बनने वाले भोजी मुक्त हो जाते हैं।
ए.डी. हर्षे (A.D. Hershey) तथा एम.जे. चेज (M.J. Chase) ने सन् (1952) में विषाणु T2 भोजी पर प्रयोग करके, इस परिघटना का विस्तृत अध्ययन किया तथा यह परिणाम निकाला कि DNA आनुवंशिक पदार्थ है, क्योंकि इस क्रिया में संक्रमण करने वाले भोजी का केवल DNA अंश ही परपोषी जीवाणु कोशिका में प्रवेश करता है। वही आनुवंशिक सूचनाओं का वहन करता है जिससे नयी भोजी सन्तानों का समाकलन ( assemblage) सम्भव हो पाता है ।
इन वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों में रेडियोएक्टिव सल्फर S35 तथा रेडियोएक्टिव फॉस्फोरस (P12) युक्त माध्यम पर उगाकर जीवाणु भोजी DNA को रेडियोएक्टिव बना दिया, क्योंकि भोजी कणों को रेडियोएक्टिव फॉस्फोरस द्वारा अंकित होता है। इसी प्रकार भोजी प्रोटीन में ही सल्फर पाया जाता है। प्रोटीन में फॉस्फोरस नहीं होता है, किन्तु DNA में फॉस्फोरस होता है इसलिए केवल DNA जिसे उन्होंने रेडियोएक्टिव सल्फर (S) द्वारा अंकित कर दिया। इस प्रकार के विभेदी अंकन द्वारा जीवाणुभोजी के DNA व प्रोटीन घटकों को बिना किसी रासायनिक परीक्षण के सरलता से अलग-अलग पहचानना सम्भव हो पाया।
इसके बाद हर्षे तथा चेज ने इन अंकित भोजी कणों से अलग-अलग जीवाणु कोशिकाओं को संक्रमित कराया तो, उन्होंने पाया कि केवल रेडियोएक्टिव (P32) ही जीवाणवीय कोशिकाओं (bacterial (cells) के साथ सम्बद्ध था, किन्तु रेडियोएक्टिव S35 नहीं, इन प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हुआ कि जीवाणवीय कोशिका में केवल DNA ही प्रवेश करता है न कि प्रोटीन प्रोटीन आवरण परपोषी के बाहर ही रह जाता है तथा DNA ही प्रवेश करने के बाद अपने समान नये भोजी कणों का संश्लेषण करता है। हमें तथा चेज के इस प्रयोग द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया कि DNA ही आनुवंशिक सामग्री है।
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