पुष्पीय पादप की मूलभूत संरचना (structure of a flowering plant in hindi) पुष्पी पादपों के भाग , अंग
(basic structure of a flowering plant in hindi) पुष्पीय पादप की मूलभूत संरचना : वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार पुष्पधारी या आवृतबीजी पौधों को पृथ्वी पर उपस्थित सर्वाधिक प्रगत और विकसित पादप समूह माना गया है। इस समूह के सदस्यों में प्रजनन हेतु प्ररोह रूपान्तरित होकर पुष्प का निर्माण करते है और इनके फल और बीज क्रमशः फलभित्ति और बीजचोल नामक आवरण से ढके रहते है। विभिन्न आवृतबीजी प्रजातियों की पुष्पीय संरचनाओं , फलों और बीजों में पर्याप्त भिन्नताएं पाई जाती है। इसी प्रकार आवृतबीजी पौधों में बीजपत्रों की संख्या के आधार पर इनको दो प्रमुख समूहों में बांटा गया है –
(1) द्विबीजपत्री (dicots)
(2) एकबीजपत्री (monocots)
इस तथ्य से हम भली भाँती अवगत है कि द्विबीजपत्री पौधों की जड़े मूसला मूल तंत्र निरुपित करती है , जबकि एकबीजपत्री पौधों में रेशेदार जड़े पाई जाती है। इसके अतिरिक्त द्विबीजपत्री पौधों , जैसे सरसों , मूली आदि की पत्तियां चौड़ी होती है जबकि एकबीजपत्री पौधों जैसे दूब आदि की पत्तियाँ संकरी होती है। समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि आवृतबीजी पौधों की आकारिकी और आंतरिक संरचना अत्यंत जटिल होती है और इनमें विभिन्न पादप अंगो का स्पष्ट विभेदन भी पाया जाता है। मूलभूत रूप से सभी पुष्पीय पौधों की संरचना को दो विस्तृत भागों में विभेदित किया जा सकता है। ये है –
1. मूलतन्त्र (root system)
संवहनी पौधों का धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती और ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती , भूमिगत अंग , जो प्रकाश से दूर अन्धकार की ओर वृद्धि करता है , मूलतंत्र का निर्माण करता है। मूलतन्त्र का विकास बीज में मौजूद मूलांकुर द्वारा होता है।
आवृतबीजी पौधों में सामान्यतया दो प्रकार के मूलतंत्र पाए जाते है –
(A) मूसला मूल तंत्र (taproot system) : इस तंत्र में प्राथमिक जड़ जो कि मुलान्कुर से सर्वप्रथम विकसित होती है , वह ही मुख्य जड़ के रूप में पाई जाती है। इससे आगे चलकर अनेक शाखाएं उत्पन्न होती है। प्राथमिक जड़ की शाखाओं को द्वितीयक मूल कहते है। और द्वितीयक मूल से उत्पन्न शाखाएँ तृतीयक मूल कहलाती है। आगे चलकर इनसे भी अनेक शाखाएँ उत्पन्न होती है। यह समूची संरचना मिलकर समग्र रूप से मूसला मूल तंत्र कहलाती है।
(B) रेशेदार मूल तन्त्र (fibrous root system) : अनेक पौधों विशेषकर एकबीजपत्री पौधों में मूलांकुर से उत्पन्न प्राथमिक मूल अल्पजीवी होती है , और शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। इसके स्थान पर प्ररोह के आधारीय भाग से अनेक रेशेदार अथवा धागे जैसी जड़ें एक गुच्छे के रूप में विकसित होती है जो रेशेदार मूल तंत्र का निर्माण करती है।
2. प्ररोह तन्त्र (shoot system)
संवहनी पादप के वायवीय भाग को प्ररोह तंत्र कहते है। प्ररोह की उत्पत्ति और विकास बीज में उपस्थित प्रांकुर से होती है। पूर्णतया परिपक्व पौधों में प्ररोह तंत्र तने और उस पर उत्पन्न विभिन्न उपांगो जैसे पत्ती और पुष्प आदि में विभेदित होता है। पादप की प्रजनन अवस्था में ही पुष्प और फल विकसित होते है। प्ररोह तंत्र के विभिन्न घटकों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है –
(A) स्तम्भ या तना (stem) : यह पौधे का प्रमुख वायवीय भाग है जिस पर अन्य उपांग विकसित होते है। इनमें पर्ण विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो केवल तने पर ही उत्पन्न होती है और विशिष्ट व्यवस्था क्रम अथवा पर्ण विन्यास में पायी जाती है। पत्तियों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के उपांग भी कुछ पौधों में तने की सबसे बाहरी परतों जैसे बाह्य त्वचा अथवा वल्कुट से उत्पन्न होते हुए देखे जा सकते है , इनको बहिर्उपांग कहते है , जैसे गुलाब में तने से उत्पन्न कंटिकायें। इसके अतिरिक्त तने और पत्तियों की अधिचर्म पर पाए जाने वाले बहुकोशीय रोम भी उपांगो को ही निरुपित करते है।
विभिन्न पौधों में तना सामान्यतया उधर्व पाया जाता है और पौधे की प्रकृति के अनुसार यह शाकीय अथवा काष्ठीय और शाखित अथवा अशाखित हो सकता है। कुछ पौधों में तना दुर्बल और आरोही होता है , जो किसी वृक्ष अथवा अन्य सहारे को प्रयुक्त कर ऊपर की ओर वृद्धि करता है। प्राय: सभी पौधों में तना पर्व और पर्वसंधि में विभेदित रहता है। पौधों में पत्तियां और अन्य उपांग तने की पर्वसंधियों से ही विकसित होते है। पत्ती के कक्ष में कक्षस्थ कलिका विकसित होती है जो आगे चलकर तने की शाखा का निर्माण करती है। स्तम्भ का प्रमुख कार्य पौधे को यांत्रिक आधार प्रदान करना और जड़ों द्वारा अवशोषित जल और खनिज पदार्थों को पौधे के ऊपरी भागों तक पहुँचाने का होता है।
(B) पर्ण (Leaf) : पौधे में पायी जाने वाली पर्ण अथवा पत्ती सामान्यतया एक चपटी और फैली हुई संरचना होती है जो तने की पर्वसंधियों पर उत्पन्न होती है। पत्तियां पौधे का प्रमुख प्रकाश संश्लेषी भाग है जो कार्बन डाइ ऑक्साइड , प्रकाश और जल का उपयोग कर पौधे के लिए भोजन निर्माण का कार्य करती है। तने पर पत्तियों के विशिष्ट व्यवस्था क्रम को पर्ण विन्यास कहा जाता है। पर्ण विन्यास पौधे को प्रकाश की उपलब्धता के आधार पर अलग अलग प्रकार का हो सकता है। पौधे के आवास और वातावरण के अनुरूप पत्तियो में अनेक प्रकार की विविधताएं पाई जाती है जैसे कुछ मरुद्भिदीय पौधों नागफनी और कैपेरिस में पत्तियां शुलों में रूपांतरित हो जाती है। विभिन्न पौधों में पत्तियां सवृन्त या अवृन्त होती है। द्विबीजपत्री पौधों की पत्तियों में जालिकावत शिराविन्यास पाया जाता है जबकि स्माइलेक्स जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर एकबीजपत्री पौधों में समानांतर शिराविन्यास पाया जाता है। पौधों में पत्तियों का प्रमुख कार्य प्रकाश संश्लेषण का होता है।
(C) पुष्प (Flower) : यह आवृतबीजी अथवा पुष्पधारी पौधों में पायी जाने वाली जनन संरचना है जो कि प्ररोह का रूपान्तरित घटक है। इसलिए इसकी आधारभूत आकारिकी और आंतरिक संरचना प्ररोह से काफी समानता दर्शाती है।
पुष्प के विकास के समय तना संघनित होकर एक उत्तल अथवा चपटी चक्रिका में परिवर्तित हो जाता है , जिसे पुष्पासन कहते है। पुष्पासन अथवा टोरस पर विभिन्न पुष्पीय संरचनायें या उपांग जैसे बाह्यदल पुंज , दलपुंज , पुमंग और जायांग ठीक उसी प्रकार से व्यवस्थित होते है , जैसे तने पर पत्तियाँ सर्पिलाकार या चक्रिक क्रम में विन्यासित होती है।
बाह्यदल पुंज के चक्र में बाह्यदल और दलपुंज में दलपत्र पाए जाते है। उपर्युक्त दोनों चक्रों को सहायक चक्र कहते है क्योंकि ये सामान्यतया पुष्प के आवश्यक भागों की सुरक्षा अथवा परागण में सहायता (आकर्षण दल पुंज के कारण) का कार्य करते है।
पुष्प के आंतरिक चक्र अर्थात पुमंग और जायांग , आवश्यक चक्र कहलाते है , क्योंकि पुमंग में उपस्थित पुंकेसर और जायांग में उपस्थित अंडप क्रमशः नर और मादा जनन संरचनाओं को निरुपित करते है। पुंकेसर में परागकणों और अंडप में बीजाण्ड का विकास होता है , जिनसे आगे चलकर क्रमशः नर और मादा युग्मकोद्भिद बनते है।
(D) फल (fruits) : परागण और निषेचन के उपरान्त अंडाशय से फल और बीजांड से बीज का निर्माण होता है। विभिन्न आवृतबीजी पौधों में अनेक प्रकार के फल , जैसे – सरस अथवा शुष्क पाए जाते है।
(E) बीज (seed) : आवृतबीजी पौधों में बीज फलभित्ति द्वारा ढके रहते है और इनमें एक या दो बीजपत्र पाए जाते है। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर आवृतबीजी पौधों को दो बड़े समूहों क्रमशः एकबीजपत्री और द्विबीजपत्रियों में बाँटा गया है। आवृतबीजी पौधों के बीजों में प्राय: त्रिगुणित (3n) भ्रूणपोष उपस्थित होता है। कुछ पौधों जैसे अरंड और नारियल में भ्रूणपोष अत्यधिक विकसित होता है , ऐसे बीजों को भ्रूणपोषी बीज कहते है , जबकि कुछ अन्य पौधों जैसे चना और मटर के बीजों में भ्रूणपोष अल्पविकसित अथवा अनुपस्थित होता है , ऐसे बीजों को अभ्रूणपोषी बीज कहते है।
बीज में संचित खाद्य पदार्थ भ्रूणपोष अथवा बीजपत्रों में संगृहीत होता है , और भ्रूण संरक्षित रहता है। उपर्युक्त परिस्थितियों में बीज के अंकुरण द्वारा भ्रूण ही नए पौधे का निर्माण करते है।
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