अतरंजीखेड़ा का इतिहास क्या है , atranjikhera history in hindi
atranjikhera history in hindi अतरंजीखेड़ा का इतिहास क्या है ?
अतरंजीखेड़ा (27°41‘ उत्तर, 78°41‘ पूर्व)
अंतरंजीखेड़ा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित है। इस स्थान की खुदाई से विभिन्न काल की अनेकानेक पुरातात्विक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, जिससे विभिन्न संस्कृतियों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं। उत्खनन से यह भी स्पष्ट होता है कि पूर्व-मध्यकाल तक यह एक महत्वपूर्ण स्थल था।
बर्तन, टेराकोटा के मनके, और चूड़ियों के रूप में गेरुए रंग के मृदभांड (ओसीपी) संस्कृति के अवशेष अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुए हैं। इस संस्कृति की समयावधि 2000 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व मानी गई है।
अतरंजीखेड़ा में पहली बार ओसीपी तथा पीजीडब्ल्यू स्तरों के बीच बीआरडब्ल्यू सभ्यता प्राप्त हुई थी।
उत्खन्न ने यहां पर पीजीडब्ल्यू सभ्यता (1000 ई.पू.-600 ई. पू.) के समृद्ध निक्षेपों, जिसमें लोहे से बनी वस्तुएं जैसे भाले की नोक, तीर की नोक, चाकू, कुल्हाड़ी इत्यादि हैं, पर प्रकाश डाला है। यह संकेत करता है कि यहां पर लौह उद्योग भली प्रकार से विकसित था तथा लोहे के उपयोग के कारण ही गंगा की घाटी में वनों की कृषि हेतु साफ किया गया था। प्राप्त साक्ष्य नरकुल एवं मिट्टी से बने घरों के साथ-साथ फसलों की खेती की ओर संकेत करते हैं। एनबीपीडब्ल्यू अवधि में (छठी-दूसरी शताब्दी ई.पू.) खेती हेतु लोहे से बने औजारों का प्रयोग बढ़ गया। सिक्कों, मुहरों, टेराकोटा से बनी लघुमूर्तियों तथा जली ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य भी इस अवधि में स्थल के नगरीय स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। कुषाणकाल के सिक्के की प्राप्ति एक महत्वपूर्ण खोज है तथा इस बात की ओर संकेत करती है कि यहां पर कुषाण वंश का शासन था। जैन तीर्थंकर की मूर्ति के साथ अन्य उत्तम मूर्तियां गुप्त तथा उसके बाद के काल को दर्शाती हैं।
अतिरमपक्कम (13°13‘ उत्तर, 79°53‘ पूर्व)
तमिलनाडु की कोरटाल्लायर नदी घाटी में चेन्नई से लगभग 60 किमी उत्तर पश्चिम में स्थित अतिरमपक्कम प्रदेश के पूर्व पुरापाषाणकालीन तथा मध्य पुरापाषाण कालीन स्थलों में से एक है। 1863 ई. ब्रिटिश भूवैज्ञानिक राबर्ट ब्रूस फूटे ने इसकी खोज की तथा इसके पश्चात् एक शताब्दी से भी अधिक समय तक यहां छिटपुट रूप से अन्वेषण होते रहे। राबर्ट फूटे की खोज ने भारत के प्राक् इतिहास के अध्ययन में एक क्रांति ला दी। इस खोज ने दिखाया कि प्रागऐतिहासिक शिकारी कैसे इन हथियारों व औजारों को बनाते थे और किस प्रकार इनका उपयोग जानवरों का शिकार करने, कंदों को खोद निकालने, पौधों का रस निकालने इत्यादि में करते थे।
शांति पप्पू के नेतृत्व में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने इस स्थल में हाल ही में (वर्ष 2002) भारत के प्राचीनतम पाषाणकालीन औजारों की खोज की जो 1.5 मिलियन वर्ष तक पुराने हैं। ये औजार मानवीय शिल्प की श्रेणी, जिन्हें ‘ऐश्युलियन‘ (।बीमनसपंद) कहा जाता है, में आते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन औजारों का अविष्कार होमो इरेक्टस-आधुनिक मानवों के पूर्वजों, द्वारा अफ्रीका में लगभग 1.6 मिलियन वर्ष पहले किया गया।
अतीत में कुछ शोधार्थियों ने ‘ऐश्युलियन‘ औजारों का दक्षिण एशिया तथा यूरोप में मिलने के लिए ‘होमो हिडेलबरजेन्सिस‘ को जिम्मेदार माना। ये भी आधुनिक मानव के ही पूर्वज थे परन्तु ये होमो इरेक्टस के बहुत बाद में प्रकट हुए। अतिरमपक्कम औजारों का तिथि निर्धारण 1.5 मिलियन वर्ष होना इस बात का संकेत करता है कि होमो इटेक्टस औजार निर्माण कला को भारत में लेकर आए। इस स्थल से मिले 3500 से भी अधिक क्वार्टजाइट औजारों में से अधिकांश अंडाकार दुमुही कुल्हाड़ी, चाकू तथा घिसकर चिकने किए हुए पत्थर थे। बहुत सारे औजारों का ‘ऐश्युलियन‘ के सबसे निचले स्तर पर मिलना यह संकेत देता है कि इनको कहीं और से लाया गया था तथा अतिरमपक्कम में उसे केवल अंतिम आकार दिया गया। इस बात की संभावना इसलिए भी है कि ‘ऐश्युलियन‘ औजारों का उपयोग करने वाले मानव अत्यधिक घुमंतू थे। अतिरमपक्कम से प्राप्त औजार इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि होमो इरेक्टस भारत में एरोलियन संस्कृति को होमो हिडेलबरजेन्सिस के इसे यूरोप में ले जाने से पहले ही ले आए थे। यूरोप में इनसे संबंधित प्राचीनतम स्थल 600,000 वर्ष पुराने हैं।
भारतीय व फ्रांसीसी पुरातत्वविदों के एक दल ने तिथि निर्धारण की दो विधियों द्वारा यह दर्शाया कि अतिरमपक्कम से प्राप्त पाषाण की कुल्हाड़ी व छुरे कम से कम 1.07 मिलियन वर्ष पुराने तो हैं ही, ये संभवतः 1.5 मिलियन पुराने भी हो सकते हैं। दातों के तीन जीवाश्मों की खोज भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पूर्व पुरापाषाण स्थल व मध्य पुरापाषाण स्थलों पर पाई जाने वाली दुर्लभ वस्तुएं हैं। इनसे कम से कम तीन विभिन्न जीवाश्म प्रजातियों का संकेत मिलता है।
अटक (33°46‘ उत्तर, 72°22‘ पूर्व)
अटक, सिंधु नदी के पूर्वी तट पर स्थित है तथा वर्तमान समय में पाकिस्तान में है। 9वीं शताब्दी ईस्वी में यह काबुल साम्राज्य का एक भाग था, जहां हिंदशाही वंश का शासन था। यद्यपि, यहां गजनवी एवं गौरी ने कई बार भयंकर आक्रमण किए। दिल्ली सल्तनत के शासक बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी ने इसके सामरिक महत्व को समझा तथा इस स्थान का प्रयोग मंगोल आक्रमणों से बचाव के लिए किया। जब शेरशाह भारत का शासक बना तो उसने व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहित करने के निमित्त सोनारगांव से अटक तक ग्रांड-ट्रंक रोड का निर्माण कराया।
यह मुगल साम्राज्य का भी हिस्सा रहा तथा मुगलों ने यहां एक मजबूत किले का निर्माण कराया। रघुनाथ राव एवं माधव राव के नेतृत्व में मराठों ने अपनी हिन्दू पद-पादशाही की नीति को अटक तक विस्तृत किया। बाद में अटक पर अहमद शाह अब्दाली ने कब्जा कर लिया। 1813 में यह सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह के प्रभाव क्षेत्र में आ गया। जिसने इसमें अत्यधिक रक्षक सेनाओं को नियक्त किया।
रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत आंग्ल-सिख युद्ध में सिख, अंग्रेजों से पराजित हो गए तथा अटक पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों के पूरे शासनकाल में अटक सामरिक महत्व का एक महत्वपूर्ण स्थल बना रहा तथा अंग्रेजों ने इसका उपयोग मध्य एशिया के साथ संबंधों के लिए एक कड़ी के रूप में किया।
अंग्रेजों के वापस जाने के उपरांत तथा 1947 में भारत के विभाजन के पश्चात अटक पाकिस्तान में चला गया तथा इस स्थल ने अपने भू-रणनीतिक महत्व को बनाए रखा।
अरिकामेडु (11.89° उत्तर, 79.81° पूर्व)
वर्तमान में अरिकामेडु केन्द्र-शासित प्रदेश पांडिचेरी में स्थित है। यह कोरोमंडल तट का एक प्रमुख बंदरगाह था तथा संगम काल में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंधों के लिए प्रसिद्ध था। यही समय परवर्ती मौर्यकाल का था। अरिकामेडु, मलाया एवं चीन के मध्य एक प्रमुख व्यापारिक स्थल था। अज्ञात लेखक द्वारा लिखित ‘पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी‘ एवं टालेमी (दूसरी शताब्दी ईस्वी) द्वारा लिखित ‘जियोग्राफी‘ में इसका उल्लेख एक प्रसिद्ध बंदरगाह एवं व्यापारिक केंद्र के रूप में किया गया है।
सामान्यतया महापाषाणकाल से सम्बद्ध काले तथा लाल मृदभांडों की उपस्थिति, स्पष्ट रूप से स्थल की प्राचीनता सिद्ध करते हैं। यहां से प्राप्त अवशेषों में रोमन बर्तन, कांच के कटोरे, मिट्टी के दीपक, रत्न, मनके इत्यादि प्राप्त हुए हैं। यहां से एक दोहत्था जार भी प्राप्त हुआ है, जिसे संभवतः मंदिर में रखा जाता था। एक मनके के ऊपर रोमन सम्राट आगस्टस का चित्र भी प्राप्त हुआ है।
1945 ई. में व्हीलर के नेतृत्व में यहां व्यापक उत्खनन कार्य संपन्न हुआ, इससे प्राप्त अवशेषों से भारत एवं रोम के मध्य प्राचीन व्यापारिक संबंधों की अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। अरिकामेडु में न केवल भारतीय सामान लाकर उसे जहाजों से विदेश भेजा जाता था बल्कि कुछ वस्तुओं (मलमल) का निर्माण भी यहां होता था।
इटली के मिट्टी के बर्तन-चमकदार मृदभांड, जिसमें कहीं-कहीं बनाने वाले का नाम अंकित होना-की कला वाले अरेटाइन फूलदानों के साथ दो रंजक टंकियों की खोज, यहां पर भारत-रोमन व्यापार की पुष्टि करते हैं। यह स्थल रोमन मनकों, सिक्कों तथा दक्षिण भारतीय मृदभांडों के खजाने से सुसज्जित है। रोमन दीपक तथा रोमन कांच भी यहां मिला है। विदेशी वस्तुओं के मिलने के आधार पर यह माना गया है कि इस स्थल पर 300 शताब्दी ईस्वी तक अधिवास रहा होगा, यद्यपि चोल साम्राज्य के सिक्कों तथा चीन के समुद्री रंग के मृदभांडों के टुकड़ों का मिलना यह सुझाते हैं कि यहां पर 1000 ई. के बाद अधिवास रहा होगा। रोम के साथ व्यापारिक संबंधों के परिणामस्वरूप यहां के निवासी अत्यंत समृद्ध भौतिक जीवन व्यतीत करते थे।
असीरगढ़ (21.47° उत्तर, 76.29° पूर्व)
असीरगढ़, खरगौन के निकट मध्यप्रदेश में स्थित है। मध्यकाल में असीरगढ़ सामरिक दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था तथा अपने सशक्त एवं अभेद्य किले जो तापी एवं नर्मदा नदी के बीच स्थित था, के लिए प्रसिद्ध था। असीरगढ़ के किले के नीचे भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर यहां से प्राप्त किया गया है किंतु इसकी तिथि ज्ञात नहीं है।
13वीं शताब्दी के अंत में यह चैहान राजपूतों के अधीन था तथा अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दक्षिण अभियान से लौटते समय यहां भयंकर आक्रमण किया था। 1370 से 1600 ई. तक फारुखी शासकों द्वारा शासित होता रहा तथा 1601 में इसे मुगलों ने अधिकृत कर लिया। खानदेश के मीरन बहादुर ने असीरगढ़ में अकबर की सेनाओं का अत्यंत बहादुरीपूर्वक प्रतिरोध किया था फलतः अकबर को स्वयं आकर असीरगढ़ के अभियान का नेतृत्व संभालना पड़ा। लंबे संघर्ष एवं समुचित रणनीति के उपरांत ही मुगल असीरगढ़ को जीतने में सफल हो सके। असीरगढ़ की विजय अकबर की अंतिम सैन्य विजय थी। अकबर की सफलता ने दक्कन में मुगलों के अभियानों के लिए रास्ते खोल दिए।
मुगलों की केंद्रीय सत्ता दुर्बल होने के उपरांत असीरगढ़ मराठों के प्रभावाधीन हो गया। बाद में इस पर दो बार 1803 तथा 1819 में ब्रिटिश सरकार द्वारा आधिपत्य स्थापित किया गया।
अस्सक (असमक)
अस्सक गोदावरी के तट पर बसा हुआ प्राचीन समय में अवन्ति का पड़ोसी राज्य हुआ करता था। इसकी राजधानी पाटन थी। संभवतः काशी के राजाओं ने पाटन पर विजय प्राप्त की हो तथा इसके उपरांत कलिंग पर भी। बौद्ध धर्म के आगमन से पूर्व, अस्सकों ने अवंति पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए कठिन युद्ध लड़ा। पुराणों में अस्सक राजाओं को इक्ष्वाकु वंश का क्षत्रिय कहा गया है। अस्सक वर्तमान में महाराष्ट्र के पैठन के समीप स्थित है।
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