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कृषि बनाम उद्योग क्या है | प्राथमिक चालक बल किसे कहते हैं | Prime moving force– Agriculture vs- Industry

Prime moving force – Agriculture vs- Industry in hindi कृषि बनाम उद्योग क्या है | प्राथमिक चालक बल किसे कहते हैं |पृष्ठभूमि (The Background)
स्वतंत्रत-प्राप्ति के समय भारत की अर्थव्यवस्था बदतर स्थिति में थी। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का सटीक उदाहरण होने के कारण भारत अपनी नहीं बल्कि औपनिवेशिक शक्ति (यू.के.) के विकास का कार्य कर रहा था। कृषि और उद्योग दोनों में ही संरचनात्मक विसंगतियाँ थीं, जिसमें राज्य एकदम सीमांत भूमिका निभा रहा था। भारत की आजादी के 50 वर्ष पहले से जहाँ विश्व के दूसरे देशों में आर्थिक विकास में सरकार (राज्य) द्वारा सक्रिय भूमिका निभायी जा रही थी (इंग्लैंड में भी), वहीं भारत की सरकार ऐसा कुछ करने के बजाय एक आर्थिक शोषक का कार्य करती रही थी।
भारत से इंग्लैंड निवेश योग्य पूँजी का न सिर्फ एकतरफा हस्तांतरण जारी था, जिसे धन-निष्कासन (ड्रेन आॅफ वेल्थ) भी कहा गया है, बल्कि रुपये की असमान विनिमय दर के प्रचलगी से भारतीय वाणिज्य, व्यापार और हस्तकरघा उद्योग को गहरी क्षति पहंुच रही थी। पूरे औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी सरकार ने भारत की उन क्षमताओं के विकास पर ध्यान दिया, जिनसे भारत प्राथमिक उत्पादों का वृहत् निर्यातक बन सके। साथ ही ब्रिटिश प्रतिरक्षा व्यय का एक बहुत बड़ा भाग भी भारत पर लदा हुआ था।
ब्रिटिश शासकों ने सामाजिक क्षेत्र की उपेक्षा की जिसका गकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था में उत्पादन और उत्पादकता पर पड़ा। ब्रिटिश शासन में भारत निरक्षरों का महाद्वीप बना रहा। स्वतंत्रत-प्राप्ति के समय साक्षरता दर मात्र 17 प्रतिशत थी, जबकि जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 32-5 वर्ष थी।
उपनिवेशवादियों ने भारत के औद्योगीकरण की भी उपेक्षा कीऋ भारत को औद्योगिक देश बनाने के लिए जरूरी आधारभूत ढाँचे का विकास नहीं किया, बल्कि यहाँ के कच्चे माल के शोषण और उपभोग के लिए किया जो भारतीय पूँजीपति उभरे भी वे प्रायः ब्रिटिश वाणिज्यिक पूँजी पर निर्भर थे और उद्योग के अनेक क्षेत्रक ब्रिटिश प्रतिष्ठानों के अधीन अथवा उगके द्वारा संचालित थे, जैसे -जहाजरानी, बैंकिंग, बीमा, कोय, बागन तथा जूट इत्यादि।
स्वतंत्रत-पूर्व का काल कुल मिकर ठहराव का काल था जिसमें उत्पादन की संरचना अथवा उत्पादकता के स्तर में कोई परिवर्तन दृष्टव्य नहीं था – 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में वास्तविक उत्पादन दर 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष या इससे भी कम थी।
ब्रिटिश शासन में भारत का आर्थिक प्रदर्शन कुल मिकर निम्न स्तर पर था। आर्थिक सांख्यिकविद् अंगस मैडिसन के अनुसार 1600 से 1870 ईस्वी तक भारत में प्रति व्यक्ति वृद्धि दर शून्य थी – 1870 से 1947 के बीच प्रति व्यक्ति वृद्धि दर 0-2 प्रतिशत थी, जबकि ब्रिटेन में 1 प्रतिशत रही थी। 1899 में 18 रुपये तथा 1895 के लिए 39-5 रुपये की प्रति व्यक्ति आय का आँकड़ा भारतीय जनता की घोर दरिद्रता की कहानी कहता है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में बार-बार के अकों तथा महामारियों से भारत की ब्रिटिश सरकार की सामाजिक-आर्थिक जिम्मेदारियों के प्रति घोर परवाही प्रकट होती है जबकि दूसरी ओर जनता के घोर दुःख-दैन्य का अनुमान भी लगता है।
राजनेताओं और उद्योगपतियों को भारत के आजाद होने के बाद देश की आर्थिक स्थिति का अंदाजा भी था और चिंता भी थी। यही वजह है कि स्वतंत्रत के बाद भारत के आर्थिक विकास में कईलोगों ने अहम भूमिका निभाई। आजादी से पहले ही कई प्रमुख रणनीतिक मुद्दों पर आपसी सहमति9 भी देखने को मिली। ये मुद्दे निम्नांकित थेः
;i) विकास की सीधी जिम्मेदारी राज्यों एवं सरकारों की होगी।
ii. सार्वजगिक क्षेत्रों के लिए महत्वाकांक्षी और अहम भूमिका होगी।
iii. भारी उद्योग के विकास की जरूरत।
iv. विदेशी निवेश के लिए उत्साह दिखाने की जरूरत नहीं।
v. आर्थिक योजना की जरूरत।
जब देश स्वतंत्र हुआ तब सरकार के सामने आर्थिक क्षेत्र में विकास के लिए एक व्यवस्थित संस्था की जरूरत थी। तब देश की अर्थव्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं थी, ऐसे में ऐसी संस्था को बनाना भी मुश्किल चुनौतियों से भरा था। राजनीतिक नेतृत्व के सामने आर्थिक वृद्धि और विकास की भारी मांग को पूरा करने की चुनौती थी क्योंकि देश की जनता वादों और राष्ट्रीयता के उभार पर सवार थी। यह कोई आसान काम नहीं था।
तब देश के राजनीतिक नेतृत्व ने ये फैस लिया कि वक्त देश के भविष्य को आकार देने का है। कई महत्वपूर्ण और अहम फैसले 1956 में लिए गए, जो आज तक भारतीय अर्थव्यवस्था के ढांचे में अपना योगदान दे रहे हैं। ये फैसले आर्थिक सुधारों से पहले तो बेहद अहम साबित हुए ही, आर्थिक सुधारों के बाद भी उगका असर कायम रहा। भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति और उसकी संभावनाओं को समझने के लिए आपका ये जागना बेहद जरूरी है कि किस तरह से भारत की अर्थव्यवस्था विकसित हुई। इससे जुड़े तथ्य, घटना,ं, वजहें और अन्य घटकों को जागना भी उपयोगी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के सफर की झलक।

प्राथमिक चालक बल-कृषि बनाम उद्योग
(Prime moving force– Agriculture vs- Industry)

भारत में क्षेत्र का चयन बहस का प्रासंगिक मुद्दा रहा है कि कौन-सा क्षेत्रक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएना। तत्कालीन सरकार ने उद्योग को भारत की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने वाली प्रधान चालक शक्ति मागकर इसका ही चयन किया। भारत को उद्योग के बदले उस समय कृषि को विकास की बेहतर संभावना के लिए प्रधान चालक बल के रूप में चयन करना चाहिए था या नहीं – आज भी विशेषज्ञों के बीच यह बहस जारी है।
प्रत्येक अर्थव्यवस्था को अपने विकास के लिए प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का दोहन करना पड़ता है। एक निर्धारित समय सीमा में हासिल करने के लिए लक्ष्यों की प्राथमिकता भी तय करनी पड़ती है। संसाधनों (प्राकृतिक तथा मानव) की उपलब्धता अथवा अनुपलब्धता ही एक मात्र मुद्दा नहीं है जो एक अर्थव्यवस्था यह तय करके घोषित करे कि उसे प्रधान चालक शक्ति के रूप में कृषि को चुनना है अथवा उद्योग को। इसके अवा भी अनेक सामाजिक-राजनीतिक दबाव तथा उद्देश्य होते हैं जिगकी ऐसे निर्णयों में भूमिका होती है।
स्वतंत्रत के पश्चात् राजनीतिक नेतृत्व ने उद्योग को अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक शक्ति के रूप में चुना -यह पहले ही राष्ट्रवादी नेताओं के प्रभावी समूह द्वारा 1930 के दशक के मध्य में ही तय किया जा चुका था जबकि उन्होंगे भारत में आर्थिक नियोजन की आवश्यकता अनुभव भी 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति (National Planning Committee) का गठन किया था। उपलब्ध संसाधनों के मद्देनजर यह एक अतार्किक निर्णय था क्योंकि भारत में उन पूर्वापेक्षाओं अथवा जरूरतों का अभाव था, जिगके कारण उद्योग को प्रधान चालक घोषित किया जा सकता, जैसेः
;i) आधारभूत संरचना, जैसे-बिजली, परिवहन तथा संचार की अनुपस्थिति;
ii. आधारभूत उद्योग-ेहा एवं इस्पात, सीमेंट, कोय, कच्चा तेल, तेलशोधन तथा बिजली की नगण्य उपस्थिति;
iii. निवेश योग्य पूँजी की कमी-चाहे वह सरकार हो या निजी क्षेत्र;
iv. उद्योग की प्रक्रिया को चने के लिए जरूरी प्रौद्योगिकी की अनुपस्थिति तथा शोध एवं विकास का सर्वथा अभाव;
v. कुशल मानव संसाधन की कमी;
vi. लोगों में उद्यमशीलता का अभाव;
vii. औद्योगिक उत्पादों के लिए बाजार की अनुपस्थिति, तथा;
viii. अन्य सामाजिक-मनोवैज्ञागिक कारक जो कि अर्थव्यवस्था के सुचारू औद्योगीकरण में बाधक तत्व बने।
वास्तव में, भारत के लिए अर्थव्यवस्था की चालक शक्ति के रूप में कृषि ही सबसे स्वाभाविक विकल्प होता क्योंकिः
i. भारत के पास उर्वर भूमि के रूप में प्राकृतिक संसाधन मौजूद था जो कि कृषि के लिए उपयुक्त था।
ii. मानव पूँजी के लिए किसी उच्च कौशल प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं थी।
मात्र अपने भूमि स्वामित्व सिंचाई तथा कृषि के अन्य इनपुट के पुनर्गठन से भारत अपने विकास की बेहतर संभावना तश सकता था। एक बार यह सुनिश्चित कर लेने के बाद कि देश में अन्न, आवास, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधा आदि का संकट नहीं है, विकास का एक लक्ष्य तो हासिल किया ही जा सकता था – आमलोगों के कल्याण का लक्ष्य। एक बारलोगों द्वारा एक स्तर की क्रय शक्ति अर्जित कर लेने के बाद भारत उद्योगें के विस्तार में लगी सकता था। भारत उतनी अतिरिक्त आय सृजित करने में सक्षम था जितनी कि उभर रहे उद्योगें की बाजारू सफलता के लिए जरूरी थी। चीन ने 1949 में यही किया। अपने संसाधनों का सम्यक् मूल्यांकन करके उसने कृषि को अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक शक्ति घोषित किया। कृषि से जो अतिरिक्त आमदनी हुई, उसका औद्योगीकरण की पूर्व आवश्यकताओं के विकास के लिए निवेश किया गया जबकि 1970 के दशक में देश इसके लिए तैयार हुआ।
औद्योगिक चीन का उदय इतना प्रभावकारी था कि उसकी धमक तथाकथित उन्नत विकसित तथा औद्योगिक देशों में भी अनुभव की गई। चीन का उद्योग संबंधी प्रयास चीन को एक विशाल औद्योगिक देश के रूप मंे बदलगे में फलीभूत हुआ।
प्रश्न उठता है कि स्वतंत्र भारत का नेतृत्व क्या वास्तविकताओं का विश्लेषण करने में सक्षम नहीं था जैसा कि ऊपर विवेचन किया गया और यह निष्कर्ष सामने आया कि कृषि को उद्योग के ऊपर प्रधानता मिलगी चाहिए थी? क्या यह संभव है कि पंडित नेहरू भारत की जमीनी वास्तविकताओं का विवेकपूर्ण विश्लेषण करने में चूक गए, जो कि अपने समय में ,शिया के स्वप्नदर्शी नेताओं में बहुत ऊँचे कद के थे (उस समय माओ अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर कर नहीं आ, थे)? यह कैसे संभव हुआ कि भारत स्वतंत्रत-प्राप्ति के पश्चात कृषि को प्राथमिकता का क्षेत्र घोषित करने में किेल रहा है जबकि उसने आजादी की लड़ाई गाँव, कृषि तथा ग्रामीण विकास को प्रमुखता देने वाले गाँधीवादी सिद्धांतों के आधार पर लड़ी थी। भले ही गाँधीजी सत्ता से दूर रहे लेकिन कितने ही उद्भट् गाँधीवादी सरकार में शामिल थे और इसमें भी संदेह नहीं कि सरकार के अंदर जो मुख्य प्रेरणा सरकारी निर्णयों को संचालित करती थी, वह और कुछ नहीं बल्कि ‘गाँधीवादी समाजवाद’ था उस समय अनेक ऐसे निर्णय थे जिन पर उस काल की मुख्य राजनीतिक शक्ति का प्रभाव था, फिर भी कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व अर्थात नेहरूजी के स्वप्नदर्शी रुझानों के प्रभाव में लिए गए। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत के आर्थिक चिंतन को आज भी नेहरूवादी अर्थशास्त्र के रूप में जाग और स्वीकार किया जाता है। यदि हम भारतीय आर्थिक इतिहास के प्रमुख साहित्य पर नजर दौड़ाएं, उस समय के ओचकों तथा समकालीन विशेषतााओं के विचारों पर गैर करें तो यह स्पष्ट हो जाएना कि क्यों भारत ने उद्योग को अर्थव्यवस्था की प्रमुख चालक शक्ति के रूप में अपनाया जबकि कृषि ही उसके लिए सबसे सहज और सार्थक विकल्प था (यह हमारे लिए प्रीतिकर प्रसंग नहीं है कि आज भी विशेषज्ञों के बीच यह विषय बहस का मुद्दा है)। निम्न प्रकार से इसे और स्पष्ट किया जा सकता हैः
i. उपलब्ध संसाधनों के मद्देनजर कृषि ही अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक बल के रूप में स्वाभाविक विकल्प थी (कृषि योग्य भूमि तथा मानव शक्ति), लेकिन चूँकि भारतीय कृषि में पारम्परिक औजारों तथा तकनीक का इस्तेमाल हो रहा था, इसलिए इसके आधुनिकीकरण तथा भविष्य में यांत्रिकीकरण (कुछ अंशों में) की प्रक्रिया स्वदेशी औद्योगिक आधार के अभाव में बाधित हो जाती। यदि हम इसके लिए आयात का सहारा लेते तो इसके लिए पर्याप्त मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार की जरूरत थी, साथ ही विदेशों पर निर्भरता भी बन जाती। उद्योग को प्रधान चालक शक्ति के रूप में चुनाव करके वास्तव में हम अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण तो कर ही रहे थे, पारम्परिक कृषि का आधुनिकीकरण भी कर रहे थे।
ii. पूरी दुनिया में, विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (प्डथ्) सहित प्रबल विचारधारा औद्योगीकरण के पक्ष में थी-तीव्रतर वृद्धि तथा अंततः तीव्रतर विकास के लिए। ये अंतर्राष्ट्रीय संस्था,ँ सदस्य देशों को हर औद्योगीकरण के लिए हर दृष्टिकोण से समर्थन दे रही थी। यही स्थिति विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ भी थी। इस समर्थन और सहयोग के आधार पर न सिर्फ औद्योगीकरण तेज होना था, बल्कि भविष्य में औद्योगिक निर्यातक बनने की आशा भी बँधती थी। ऐसा सहयोग सदस्य देशों को उस स्थिति में नहीं मिल सकता था जब वे कृषि को प्रधान चालक शक्ति मागकर चलते।
वास्तव में कृषि को आगे लेकर चलगीा कहीं न कहीं पिछड़ेपन की निशानी भी था। भारत का राजनीतिक नेतृत्व देश को आगे ले जागे को संकल्पित था, पीछे नहीं। यह तो 1990 के दशक में जरूर संभव हुआ कि दुनिया और विश्व बैंक/अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का कृषि क्षेत्र के प्रति दृष्टिकोण बद और इस पर बल देना पिछड़ेपन की निशानी नहीं रह गया।
iii. द्वितीय विश्व युद्ध ने सामरिक शक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध कर दी। सामरिक शक्ति के लिए एक देश को मात्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी ही नहीं बल्कि औद्योगिक आधार भी चाहिए। भारत को भी एक शक्तिशाली सामरिक आधार विकसित करना था-प्रतिरोधक बल के रूप में। उद्योग क्षेत्र को प्रधान चालक बल बनाकर एक साथ अनेक चुनौतियों का समाधान ढूँढ़ने की कोशिश की गई.पह, उद्योग से तीव्र वृद्धि संभव होगी, दूसरा, कृषि का आधुनिकीकरण संभव होग तथा तीसरा, देश अपनी प्रतिरक्षा शक्ति का विकास कर सकेगा। चूँकि अर्थव्यवस्था में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तैयारी को भी प्रधानता मिली थी, इसकी उपलब्धियाँ आधुनिक विश्व के अनुरूप होतीं (यह भारत में बहुतहद तक संभव हुआ)।
;iv) स्वतंत्रत पूर्व भी राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ समाज विज्ञानियों के बीच इस बात पर एक राय थी कि भारत में सामाजिक परिवर्तन को गति मिलगी चाहिए क्योंकि देश आधुनिकता के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था। इसके लिए परम्परागत एवं फरानी जीवन शैली को त्यागना तथा वैज्ञागिक दृष्टिकोण युक्त कृषि एक अनिवार्यता थी। यह सोच भी पूर्ण औद्योगीकरण की ओर देश को ले जागे का कारण बना।
;v) भारत को स्वतंत्रत मिलगे तक औद्योगीकरण की ताकत का अनुभव दुनिया को हो चुका था और इसकी सक्षमता अथवा सामथ्र्य में कोई संदेह नहीं रहा था।
उपरोक्त कारणों से भारत स्वतंत्रत-पश्चात तीव्र औद्योगीकरण की ओर उन्मुख हुआ और यही अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक शक्ति बन गया। शायद संसाधन संबंधी एवं भारत की स्वभावगत वास्तविकता,ँ औद्योगीकृत एवं विकसित भारत की आशाओं-आकांक्षाओं में खो गईं। फिर भी यह निष्कर्ष नहीं गिका जा सकता कि भारतीय अर्थव्यवस्था इसमें पूर्णतः किेल रही है। इस विषय पर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं।
20वीं सदी के अंतिम दशक में कृषि को लेकर आर्थिक विचारों की दुनिया में बड़े परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। कृषि किसी अर्थव्यवस्था के लिए पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं रह गया अगर इसे वृद्धि एवं विकास का इंजन बनाने के प्रयास हुए। चीन ने सिद्ध कर दिखाया कि किस प्रकार कृषि को अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक शक्ति बनाकर आंतरिक एवं बाह्य रूप से शक्ति संपन्न होकर एक बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है। सुधार प्रयासों एवं प्रक्रियाओं से गुजरते हुए भारत स्वतंत्रत प्राप्ति के समय से ही अपगई गई लगभग सभी आर्थिक नीतियों की समीक्षा आत्मविश्लेषण की दृष्टि से कर रहा था। अब कृषि क्षेत्र पर ध्यान केन्द्रित करने का समय आ पहुँचा था। भारतीय आर्थिक चिंतन में एक बड़ा परिवर्तन आया जबकि वर्ष 2002 में भारत सरकार ने घोषणा की कि अब से कृषि ही उद्योग के स्थान पर अर्थव्यवस्था की प्रधान चालक शक्ति (PMF , primemovingforce) होगी। यह ऐतिहासिक महत्व का बदलाव था जिसे उच्चस्तरीय आर्थिक चिंतन केन्द्र (economic think tank) योजना आयोग ने संभव बनाया था जबकि दसवीं योजना (2002-07) की शुरुआत की गई। योजना आयोग11 के अनुसार इस नीतिगत परिवर्तन से अर्थव्यवस्था तीन बड़ी चुनौतियों से निबटने में समर्थ होगी –
;i) अर्थव्यवस्था कृषि उत्पादन बढ़ाकर खाद्य सुरक्षा हासिल करने में समर्थ होगी। इसके अतिरिक्त कृषि अधिशेष (agri cultural surplus) से भूमंडलीकृत होती विश्व अर्थव्यवस्था में विश्व व्यापार समझौते (ॅज्व्) का भ उठाकर निर्यात की संभावना बगई जा सकेगी।
ii. गरीबी उन्मूलगी की समस्या बहुत हद तक हल की जा सकेगी क्योंकि कृषि की प्रधानता से यह उच्चतर आय सृजन वा व्यवसाय बन जाएनी और इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी अधिक भकारी रोजगर होने से वृद्धि होगी।
iii. बाजार की दृष्टि से ‘किेल’ उदाहरण के रूप में देखे जागे वाले भारत की स्थिति में भी सुधार हो सकेगा।
कृषि क्षेत्र के बारे में वैसे तो वैश्विक (WB एवं IMF सहित) बोध (perception) 1990 के दशक के मध्य तक बदल चुका था लेकिन इस दिशा में भारत की आधिकारिक घोषणा कुछ विलंब से हो पायी-भारत में वर्ष 2002 में कृषि क्षेत्र को (औद्योगिक क्षेत्र के बदले में) अर्थव्यवस्था की ‘प्राथमिक चालक बल’ (Prime Moving Force) मानी गयी। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की उच्च भूमिका के मामले में आज सरकार एवं विशेषज्ञों की सोच एक जैसी है। वैसे देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में कृषि की हिस्सेदारी घटती गयी है (17-4 प्रतिशत)। लेकिन रोजगर उपलब्ध कराने के मामले में इसकी हिस्सेदारी (48-7 प्रतिशत) आज भी काफी उच्च है।
चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना का निर्धारण उत्तरोत्तर आगे वाली औद्योगिक नीतियों से हुआ था यही कारण रहा कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत भी इसी क्षेत्र से हुयी। जहां तक कृषि क्षेत्र में आर्थिक सुधारों की बात है तो इसकी शुरुआत कुछ विलंब से हो सकी-वर्ष 2000 की शुरुआत में। इस विलंब के लिए जिम्मेदार मुख्य कारण निम्न प्रकार रहेः
;पद्ध आर्थिक सुधारों में निजी निवेश को बढ़ावा देना तय था। चूंकि कृषि क्षेत्र पहले से ही निजी क्षेत्र के लिए मुक्त था इसमें निजी निवेश को बढ़ावा देने का रास्ता सिर्फ ‘संगठित’ (Corporate) एवं ‘ठेका’ (Contract) रह गया था और देश की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति इसके लिए तैयार नहीं थी।
;पपद्ध कृषि समाज में आर्थिक सुधारों के बारे में अनभिज्ञता एवं शक का माहौल था (कि यह प्रक्रिया धनी वर्ग के लिए ही भकारी है)।
;पपपद्ध कृषि क्षेत्र पर जीवन निर्वाह के लिए चूंकि निर्भरता काफी उच्च है जिस कारण भूमि अधिग्रहण या अन्य कृषि सुधारों को अंजाम देना मुश्किल बना रहा। भारत को पहले औद्योगिक क्षेत्र (विशेषकर रोजगर-त्वरित विनिर्माण क्षेत्र) के विस्तार द्वारा कृषि पर निर्भर जनसंख्या को रोजगर उपलब्ध कराने की जरूरत है तभी कृषि क्षेत्र में उचित सुधारों को क्रियान्वित किया जा सकता है। किसी एक क्षेत्र जिसमें केन्द्र एवं राज्य की सरकारें सर्वाधिक अवरोधों का सामना करती रही हैं वह है कृषि क्षेत्र। वर्तमान समय में इस क्षेत्र के आवश्यक सुधारों एवं संबंधित अवरोधों को निम्न प्रकार देखा जा सकता है:
i. देश में एक राष्ट्रीय कृषि बाजार की आवश्यकता है लेकिन राजनीतिक शक्ति के अभाव में राज्यों द्वारा उचित प्रकार के कृषि उत्पाद बाजार समितियों (ADMCs) का निर्माण लंबित है।
ii. कृषि में संगठित क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा इसलिए नहीं दिया जा पा रहा है क्योंकि देश में भूमि अधिग्रहण की एक प्रभावी और पारदर्शी नीति उपलब्ध नहीं है।
iii. श्रम सुधारों के अभाव में न सिर्फ वाणिज्यिक कृषि का विकास नहीं हो पा रहा है बल्कि उचित औद्योगिक विकास करके कृषि पर जनसंख्या के भारी बोझ को कम करना संभव नहीं हो पा रहा है।
iv. उचित अनुसंधान एवं विकास तथा निवेश की कमियों के कारण कृषि मशीनीकरण बाधित हो रहा है।
v. कृषि क्षेत्र में सही स्तर एवं प्रकार के अनुसंधान एवं विकास की आवश्यकता है लेकिन उचित वातावरण के अभाव में इस दिशा में दक्ष एवं सक्षम निजी क्षेत्र को बढ़ावा नहीं दिया जा सका है।
vi. कृषि उत्पादों के बाजार तक की पहुंच को स्थापित करने के लिए देश को ‘सप्ई चेन प्रबंधान’ में उचित निवेश करने की आवश्यकता है।
vii. इसी प्रकार कृषि उत्पादों के लिए उचित किस्म के ‘कमोडिटी ट्रेडिंग’ की व्यवस्था अत्यावश्यक है ताकि इन उत्पादों का सही और जोखिम रहित मूल्य की खोज हो सके।
;viii) ताकि भारतीय कृषि वैश्वीकृत ही रहे आर्थिक हात में विकसित देशों से प्रतिस्पर्धा कर सकें, भारत की तैयारी काफी कमजोर रही है।
;पगद्ध इसी प्रकार कृषि को भकारी (remunerative) बनाना अत्यावश्यक है ताकि कृषक समाज अपने कृषि कार्यों से बाजार-आधरित (डंतामज-इंेमक) आय अर्जित कर सके। कृषि संकट (ंहतंतपंद बतपेपे) के लिए यह एक भारी कारण रहा है।
विशेषज्ञों की राय में भारतीय कृषि क्षेत्र के विकास एवं सुधार के लिए देश की सरकारों में उच्च स्तरीय हभागिता का होना काफी जरूरी है। कृषक समाज में जागरूकता तथा सरकारों की सही नीतियों के द्वारा ही इस क्षेत्र का उचित विकास संभव है।