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प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं | natural resources in hindi प्रकार या वर्गीकरण | प्राकृतिक संसाधन की परिभाषा क्या है

(natural resources in hindi) प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं |  प्रकार या वर्गीकरण | प्राकृतिक संसाधन की परिभाषा क्या है , कौन कौन से है नाम की लिस्ट , प्रबंधन , उपयोग और आवश्यकता ?

प्रस्तावना : अन्य जीवधारियों की तरह मानव भी प्राकृतिक तंत्र का एक साधारण सदस्य है तथा जीवनयापन के लिए विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहता है। लेकिन बुद्धि के विकास ने मानव को प्राकृतिक संसाधनों का मालिक बना दिया। फलस्वरूप मानव ने इस संसाधनों का मनमाना अंधाधुंध दोहन प्रारंभ कर दिया। इस अविवेकपूर्ण उपयोग से भौतिक सुखो में बढ़ोतरी के साथ साथ प्राकृतिक संसाधन तथा जीवधारियों का आपसी संतुलन गडबडाने का खतरा भी उत्पन्न हो गया है।

वास्तव में मानव ने प्राकृतिक संसाधनों की घोर उपेक्षा की है , जिसके दुष्परिणाम अब स्वयं मानव जाति के लिए गंभीर संकट उत्पन्न कर रहे है। अत: मानव जाति को विनाश से बचाने के लिए विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षणपूर्ण सदुपयोग आज भी प्रमुख समस्या है।

1980 से प्राकृतिक संसाधनों के सम्बंधित बोध के निम्नलिखित 5 कालों का निर्धारण किया गया है –

  1. असिमित भण्डार का काल (1850-1925): इस अवधि में जनता में यह आम अवधारणा और विश्वास व्याप्त था कि प्राकृतिक संसाधनो का असिमित भण्डार है। संसाधनों के इस तरह के बोध के कारण उनका अंधाधुंध दोहन होने लगा और उनका आवश्यकता से अधिक व्यय किया गया। इनके संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
  2. आत्मनिर्भरता का काल (1925-1950): इस अवधि में युद्ध के समय और युद्ध के बाद –
  • पुनर्रचना
  • विश्व जनसंख्या में तेजी से वृद्धि
  • लोगो के जीवन स्तर में वृद्धि
  • राजनितिक विखण्डन (जर्मनी का पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी , कोरिया का उत्तरी और दक्षिणी कोरिया में विभाजन आदि। )
  • बाढ़ प्रकोप
  • मृदा अपरदन के कारण कच्चे पदार्थो की मांग में तेजी से वृद्धि हुई और उनकी आपूर्ति के सन्दर्भ में आत्मनिर्भरता पर अधिक बल दिया जाने लगा।
  1. पर्यावरण क्षति का काल (1950-1960): इस अवधि में तीव्र गति से औद्योगिक वृद्धि और नगरीकरण के कारण संसाधनों की आपूर्ति में सापेक्षिक कमी महसूस की गयी और लोगो को यह भी आभास होने लगा कि प्राकृतिक संसाधनों के बेलगाम विदोहन के पर्यावरण की क्षति हो सकती है।
  2. जन चेतना का काल (1960 के बाद): 1960 के बाद प्राकृतिक संसाधनों के लोलुपतापूर्ण अंधाधुंध विदोहन के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय संकट और पारिस्थितिकीय विनाश के विषय में लोगो में चिंता होने लगी।

परिणामस्वरूप लोगो का – सहकारी पर्यावरणीय नीतियों , प्रादेशिक आर्थिक सुधार , युक्तियुक्त और विवेकपूर्ण संसाधन नियोजन , पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय समस्यायों के प्रति जनचेतना और जनजागरण और पर्यावरण को बचाने के लिए स्वयंसेवी संगठनो की स्थापना और जनआन्दोलन (जैसे चिपको आन्दोलन) के क्रियान्वयन के प्रति अधिकाधिक ध्यान आकर्षण हुआ।

  1. संरक्षण आवश्यकता की वर्तमान स्थिति: वर्तमान समय में संसाधन अपर्याप्तता के बोध के कारण संसाधनों के परिरक्षण और संरक्षण के लिए आवश्यकता महसूस की जा रही है।

प्राकृतिक संसाधन : “संसाधन” केवल किसी विशिष्ट उद्देश्य के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त होता है। गिलहरियों तथा रोबिन पक्षियों के लिए प्रकटत: वे ही पदार्थ साधन होंगे जिनकी इन्हें आहार , आश्रय , विस्तार इत्यादि के लिए आवश्यकता होती है लेकिन इस शब्द को हम सामान्यतया इस अर्थ में प्रयोग नहीं करते है। संसाधन साधनों के वे स्रोत होते है जो हमारे जीवित रहने तथा फलने फूलने के लिए आवश्यक होते है।

मानव के लिए संसाधन का अर्थ अनेक प्रकार की वस्तुओं से है। उत्तरी अमेरिका के महाद्वीप के संसाधन कोलम्बस के पूर्व के इन्डियनों के लिए तथा बाद में आने वाले यूरोपियनों के लिए सर्वथा भिन्न थे। यूरोप के निवासियों के लिए अट्ठारहवी शताब्दी तथा बीसवीं शताब्दी में यूरोपीय महाद्वीप के साधन अलग अलग थे। इसका एक बहुत ही स्पष्ट उदाहरण युरेपियन है जो हमारे देखते ही देखते एक साधन बन गया है। जब हम संसाधनों पर विचार करना शुरू करते है तो हम पारिस्थितिकी से अर्थशास्त्र पर आ जाते है। तथापि आज भी मानव जीव मण्डल का अंग बना हुआ है तथा उसके संसाधन पर्यावरण के अंग है इसलिए यह आवश्यक है कि पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र पर विवेचन करते हुए उन दोनों में एक सम्मिश्र बनाये रखा जाए।

संसाधन का अर्थ : संसाधन एक गतिशील नामावली है क्योंकि ज्ञान , समाज , विज्ञान और प्रोद्योगिकी में प्रगति और विकास के साथ इसके अर्थ में भी परिवर्तन होता रहता है। कोई भी वस्तु , जो मनुष्य के लिए उपयोगी होती है , संसाधन है। दुसरे शब्दों में संसाधन वह वस्तु अथवा तत्व होता है जिसका उपयोग करके मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं की तुष्टि करता है। वास्तव में संसाधनों के तात्पर्य और संकल्पनाओं में सांस्कृतिक और प्रोद्योगिकीय परिवर्तनों के साथ परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए , वर्तमान समय में विचार , चिंतन , सौन्दर्य , ज्ञान , बुद्धि आदि भी संसाधन हो गए है। उल्लेखनीय है कि हम लोगो का यहाँ पर मात्र प्राकृतिक संसाधनों और खासकर परिस्थितिकीय संसाधनों से ही सम्बन्ध है। अत: यहाँ पर केवल परिस्थितिकीय संसाधनों पर ही विचार किया जायेगा।

आर. ऍफ़ डैस्मेन (1968) के अनुसार प्रारंभ में वे पदार्थ प्राकृतिक संसाधन थे जो मनुष्य की किसी खास संस्कृति के लिए उपयोगी और मूल्यवान थे। आज पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु मनुष्य के लिए उपयोगी और मूल्यवान है इसलिए वह प्राकृतिक संसाधन है। नॉर्टन गिन्सबर्ग 1957 के अनुसार “मनुष्य के कार्य क्षेत्र में प्रकृति द्वारा मुक्त रूप से प्रदान किये जाने वाले भौतिक पदार्थ और मानव के परिवेश में अतिरिक्त अभौतिक गुणवत्ता प्राकृतिक संसाधन है। “

जिमरमैन (e w zimmermann) के अनुसार संसाधन का तात्पर्य किसी वस्तु अथवा तत्व से नहीं होता है बल्कि उसके कार्य से होता है। प्राकृतिक संसाधन अपने आप में संसाधन नहीं होते है क्योंकि वे असक्रिय होते है। वे संसाधन तब होते है जब उनका उपयोग किया जाए। इससे स्पष्ट होता है कि संसाधनों का मनुष्य के क्रियाकलापों और प्राकृतिक पर्यावरण अथवा प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के मध्य कार्यात्मक सम्बन्ध होता है। यही कारण है कि संसाधन स्थिर नहीं होते है जबकि गतिशील होते है और उनकी सार्थकता ज्ञान में वृद्धि , प्रोद्योगिकी में विस्तार और सामाजिक आवश्यकताओं और उद्देश्यों के अनुरूप होती है। उनका (ससाधनों का) विकास उनके सामाजिक मूल्यों पर निर्भर करता है तथा संसाधनों के सामाजिक मूल्य लोगो के संसाधनों के प्रति बोध दृष्टिकोण , आवश्यकताओं , प्रोधोगिकी प्रगति , वित्तीय और संस्थागत सामर्थ्य से निर्धारित होते है। (सविन्द्र सिंह 1983)

संसाधनों के वर्गीकरण

संसाधनों को सामान्यतया दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है –

  1. प्राकृतिक संसाधन: प्राकृतिक पर्यावरण से सम्बन्धित संसाधनों को प्राकृतिक संसाधन कहते है। इसके अंतर्गत अजैविक (स्थल , भूमि , वायु , जल , मिट्टी , खनिज आदि) और जैविक (पौधे , प्राणी और मनुष्य) संसाधनों को शामिल किया जाता है। डैस्मेन (1976) ने प्राकृतिक संसाधनों को 4 उप प्रकारों में बाँटा गया है जो निम्नलिखित प्रकार है –
  • असीम संसाधन
  • अनव्य संसाधन
  • पुनर्चक्रणीय
  • नव्य अथवा नवीकरणीय
  1. अनुपयोगितावादी संसाधन: उन संसाधनों को अनुपयोगी कहते है जिनका कोई व्यावहारिक और प्रायोगिक मूल्य नहीं होता है लेकिन इनका सामाजिक और नैतिक मूल्य होता है , यथा – विभिन्न प्रकार के जीवन स्तरों वाले दो मानव वर्गों के पर्यावरण के प्रति दृष्टिकोण और बोध में पर्याप्त अंतर होता है। उदाहरण के लिए समृद्ध आर्थिक स्थिति , बेहतर शिक्षा और उच्च जीवन स्तर वाले ठोस अपशिष्ट पदार्थो का भारी मात्रा में उत्पादन करेगा। इसके विपरीत निम्न अर्थव्यवस्था , कम शिक्षा और निम्न जीवन स्तर वाले समाज में पर्यावरण की गुणवत्ता की परवाह नहीं होती है , इस श्रेणी के संसाधनों के अंतर्गत शिक्षा , मनोरंजन , स्थानिक और प्राकृतिक सौन्दर्य , विचारधाराओं , चिंतन , दर्शन , संस्कृति आदि को शामिल किया जाता है।

ओवेन (O. S. owen , 1971) ने संसाधनों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया है जो निम्नलिखित है –

  • असिमित अथवा अक्षय संसाधन
  • सिमित अथवा क्षयशील संसाधन

ओवन ने इन्हें पुनः द्वितीय और तृतीय श्रेणियों में विभाजित किया है।

ओवन का संसाधनों का वर्गीकरण उनकी गुणवत्ता , परिवर्तनशीलता और पुनः उपयोगिता के आधार पर आधारित है। ओवन ने विभिन्न संसाधनों के परिरक्षण और संरक्षण के लिए नियमों और विधियों का भी सुझाव दिया है।

सारणी : संसाधनों का वर्गीकरण या प्रकार :-

संसाधन प्रकार विशेषताएं और उदाहरण
1.       अनवीनकरणीय संसाधन इनका जनन उस गति से नहीं हो पाता है जिस गति से इनका उपभोग किया जाता है | जब एक बार ये संसाधन   समाप्त हो जाते है तो उनका स्थानापन्न नहीं हो पाता है | उदाहरण : वन्य जीवन
2.       पुनर्चक्रणीय संसाधन ये विशिष्ट प्रकार के अनवीनकरणीय संसाधन होते है और उपयोग करने के बाद पूर्णतया नष्ट नहीं हो पाते है जबकि इनका बार बार विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है | उदाहरण : धातुएं
3.        नवीनकरणीय संसाधन इनके अंतर्गत वे सभी जीवित वस्तुएं आती है जिनमे पुनर्जनन और वृद्धि की क्षमता होती है | जब तक इनके उपयोग की दर इनके जनन और पुनर्जनन की दर से कम रहती है तथा जब तक इनका पर्यावरण अनुकूल बना रहता है तब तक इनका प्रतिस्थापन स्वयं होता रहता है |
4.       असीम अथवा अक्षय संसाधन इनके अंतर्गत वे प्राकृतिक संसाधन आते है जो उपयोग करने अथवा न करने पर भी सदा सुलभ रहते है | उदाहरण के लिए , सूर्य प्रकाश , जल , वायु आदि |

सारणी : विभिन्न संसाधनों के प्रकार और उनकी सोदाहरण विशेषताएँ 

संसाधन प्रकार विशेषताएं और उदाहरण
1.       असीमित अथवा अक्षय संसाधन

 

 

 

(i)                   अपरिवर्तनशील संसाधन

 

(ii)                 दुरूपयोग्य संसाधन

 

इनकी विश्व स्तर पर आपूर्ति , जब तक यह ग्रहीय तन्त्र कायम रहेगा , कभी कम नहीं होगी | उदाहरण : सूर्य प्रकाश , जल , वायु आदि |

इनमे मनुष्य के कार्यो द्वारा प्रतिकूल परिवर्तन नहीं हो पाते है | उदाहरण : जल संसाधन

इनके पूर्ण रूप से समाप्त होने की बहुत कम सम्भावना होती है लकिन यदि इनका उचित ढंग से उपयोग न किया जाए तो इनकी गुणवत्ता घट जाती है (जैसे जल) | यहाँ तक कि मनुष्य के कार्यो द्वारा हरितगृह प्रभाव में वृद्धि और ओजोन परत की कमी के कारण सौर प्रकाश और सौर विकिरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट हो सकती है |

2.       क्षयशील अथवा सिमित संसाधन

 

 

 

 

 

 

(i)                   अनुरक्षणीय संसाधन

 

 

(ii)                 नवीनकरणीय अथवा नव्य संसाधन

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

(iii)                अनव्य अथवा अनवीकरणीय संसाधन

इनके अंतर्गत वे संसाधन आते है जिनका यदि उनके जनन की दर से अधिक दर से उपयोग किया जाए तो वे   पूर्णतया समाप्त हो सकते है | उदाहरण : जीवाश्म इंधन (खनिज तेल , कोयला , प्राकृतिक गैस आदि) , खनिज अयस्क आदि |

इनके अंतर्गत वे संसाधन आते है जिनका अथायित्व उनके उपयोग की विधियों पर निर्भर करता है | उदाहरण : वन संसाधन , वन्य जीव , मृदा उर्वरता इत्यादि |

इनके अंतर्गत जीवों (जैसे पौधे और मानव सहित प्राणियों) और कतिपय अजीवित वस्तुओं जैसे – मृदा और उनकी पारिस्थितिकीय संसाधनों का उचित ढंग से उपयोग और प्रबंधन किया जाए तो उनका सतत पुनर्जनन होता रहता है और उनका पुनर्भरण होता रहता है , लेकिन यदि उनका अनुचित ढंग से अंधाधुंध उपयोग किया जाए तो वे पूर्णतया समाप्त हो सकते है | उदाहरण : यदि बिना वनरोपण के वन संसाधन का धुआंधार विदोहन किया जाए तो एक दिन सारे वन समाप्त हो जायेंगे | इसी तरह यदि बिना उचित फसल प्रबंधन के लगातार कृषि की जावे तो मिट्टियों की उर्वरता समाप्त हो जाएगी |

 

वे संसाधन होते है जिनमे अत्यधिक विदोहन और उपयोग के कारण समाप्त हो जाने पर उनका पुनः प्रतिस्थापन संभव नहीं होता है |

उदाहरण : वन्य जीव |

3.       अ-अनुरक्षणीय संसाधन

 

 

 

(i)                   पुन: प्रयोज्य संसाधन

 

 

 

(ii)                 अपुनर्प्रयोज्य संसाधन

इनके अंतर्गत अधिकांश खनिज संसाधन आते है | इनकी मात्रा निश्चित होती है | इसे क्षयशील सम्पत्ति भी कहते है | विनाश और उपयोग के बाद ऐसे खनिजों का प्रतिस्थापन नहीं हो सकती है |

इनके अंतर्गत वे खनिज आते है जिनके पुनः उपयोग की क्षमता और सम्भावना बहुत अधिक होती है | उदाहरण : रत्न और हीरे जवाहरात , जैसे हिरा |

इनके अंतर्गत वे खनिज आते है जिनका प्रथम उपयोग में समय अधिकतम मूल्य होता है | इनका भंडार निश्चित होता है , अत: इनका समाप्त होना निश्चित होता है | उदाहरण : खनिज तेल , कोयला , प्राकृतिक गैस आदि |