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जैव प्रोद्योगिकी एवं इसके उपयोग (Biotechnology and it’s application) , पारजीवी जन्तु (Transgenic animal)

(Biotechnology and it’s application in hindi) जैव प्रोद्योगिकी एवं इसके उपयोग :

औद्योगिक स्तर पर जैव प्रोद्योगिकी के तीन विवेचनात्मक अनुसन्धान क्षेत्र है –

  1. जैव उत्प्रेरक (एंजाइम): सूक्ष्मजीवो या शुद्ध एन्जाइम के रूप में सर्वोत्तम उत्प्रेरक का निर्माण करना।
  2. अनुकुलतम दशाएँ: उत्प्रेरक के लिए उचित ताप , pH आदि उपलब्ध कराना।
  3. अध्वोगामी प्रक्रियाएं: उत्पादों जैसे प्रोटीन/कार्बनिक यौगिको की शुद्धता व पुनः प्राप्ति में उपयोग करना।

(A) कृषि में जैव प्रोद्योगिकी का उपयोग :

खाद्य उत्पादन में वृद्धि हेतु निम्न तीन विकल्प है –

  1. कृषि रसायन आधारित कृषि : उर्वरक व पीडकनाशी रसायन मृदा , जल व भोज्य पदार्थो को अत्यधिक संदूषित करते है।
  2. कार्बनिक कृषि : फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए जैव उर्वरक , जैव पीडकनाशी व जैव नियंत्रण का उपयोग किया जाता है।
  3. आनुवांशिक रूपांतरित फसल आधारित कृषि : ऐसे सजीव जो जीन-रूपान्तरण द्वारा परिवर्तित किये जाते है , आनुवांशिक रूपांतरित जिव कहलाते है।

ट्रांस जीन : वह जीन जो सजीव में प्रवेश कराया जाता है , ट्रांसजीन कहते है।

आनुवांशिक रूपान्तरित फसले (GM पादप) : आनुवांशिक रूप से विकसित फसलो या पादपो को GM पौधे कहते है।

G.M. पौधों के उपयोग से होने वाले लाभ :

  • ठंडा , सूखा , लवण , ताप के प्रति सहनशील फसलो का विकास
  • रासायनिक उर्वरक व पीडकनाशकों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता
  • पादपो की खनिज उपयोग क्षमता में वृद्धि
  • पोषक स्तरों में वृद्धि जैसे – विटामिन A से संपन्न चावल

कृषि में जैव प्रोद्योगिकी द्वारा विकसित कुछ ट्रांसजेनिक पादप :

  1. कीटरोधी पादप:

मृदा जीवाणु बेसिलस थुरिन्जीएन्सिस में उपस्थित जीन cry प्रोटीन का निर्माण करता है।

इस जीन को Ti प्लाज्मिड की सहायता से तम्बाकू , टमाटर , कपास आदि में पंहुचाकर इन्हें कीटरोधी बनाया गया है।

Bt – कपास : Bt कपास को किलर कॉटन भी कहते है , कपास से कोई प्रोटीन को संश्लेषित करने वाले दो क्राई जीन का प्रवेश कराया गया है , इन्हें क्राई-1 एसी व क्राई-2 एबी कहते है।

ये जीन कपास के मुकुल कृमि को नियंत्रित करते है।

क्राई-1 एबी मक्का हेदक को नियन्त्रित करती है।

बैसिलस थूरीन्जीएन्सिस जीवाणु की कुछ नस्ले ऐसी प्रोटीन का निर्माण करती है जो विशिष्ट कीटो जैसे लिथोडोप्टेशन (तम्बाकू के कलिका कीड़ा , सैनिक कीड़ा ) , कोलियोप्टेरॉन (भृंग) व डिप्टेरॉन (मक्खी , मच्छर) को मार देती है।

“बैसीलस थूरिन्जिएंसिस” द्वारा संश्लेषित Bt-विष कीटो को वो मार देती है परन्तु स्वयं जीवाणु को नहीं मारती क्योंकि जीवाणु में यह Bt-विष (Cry प्रोटीन) निष्क्रिय प्रोटीन रवों के रूप में होता है। कीट जब इस निष्क्रिय प्रोटीन रवो को खाता है तो ये रवे उसकी आंत्र में क्षारीय PH के कारण घुलनशील होकर सक्रीय Bt-विष में बदल जाते है जिससे कीट की आंत्र की उपकला कोशिकाओ में छेद हो जाते है और ये कोशिकाएं , फूलकर फट जाती है और कीट मर जाता है।

  1. पीडक प्रतिरोधी पादप:

वे पादप जो विभिन्न प्रकार के पिडको जैसे – सूत्रकृमियो के प्रति प्रतिरोधी होते है पीड़क प्रतिरोधी पादप कहलाते है।

सूत्रकृमि इनकोगनीशिया के संक्रमण को रोकने के लिए तम्बाकू में एग्रीबैक्टीरियम (जीवाणु) संवाहको के T-DNA की सहायता से सूत्र कृमि विशिष्ट जीनो को प्रवेश कराया गया है। इस DNA के द्वारा अर्थ (सेंस) व प्रतिअर्थ (एन्टीसेंस) RNA का निर्माण होता है। ये दोनों RNA एक दूसरे के पूरक होते है जो द्विसुत्री RNA का निर्माण करते है जिससे सूत्रकृमि के विशिष्ट दूत RNA निष्क्रिय हो जाते है , इस प्रक्रिया को RNA अंतर्क्षेप कहते है। RNA अन्तर्क्षेप के कारण सूत्रकृमि मर जाता है , इस प्रकार ट्रांसजेनिक पादप अपनी रक्षा सूत्रकृमि से करते है।

चिकित्सा में जैव प्रोद्योगिकी का उपयोग

वर्तमान में लगभग 30 पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियाँ विश्व में मनुष्य के स्वीकृत हो चूँकि है। इनमे से 12 औषधियाँ भारत में उपलब्ध है।

  1. आनुवांशिकत: निर्मित इन्सुलिन:

इंसुलिन मानव शरीर में ग्लूकोज की अधिक मात्रा को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करता है। इसकी कमी से मनुष्य में मधुमेह रोग हो जाता है।प्रारंभ में इन्सुलिन गाय व सूअर के अग्नाशय से प्राप्त किया जाता था , 100 ग्राम इन्सुलिन प्राप्त करने के लिए 800-1000 किलोग्राम अग्नाशय की जरुरत होती थी।

जानवरों से प्राप्त इन्सुलिन एलर्जी उत्पन्न करता था।

मानव सहित स्तनधारियों में प्राक-इन्सुलिन हार्मोन संश्लेषित होता है। जिसमे दो छोटी पोलीपेप्टाईट श्रृंखलाओ A एवं B के अलावा एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे पेप्टाइट C कहते है।

1983 में एली लिली ने दो DNA अनुक्रम तैयार किये जो मानव इन्सुलिन के A व B श्रृंखला के समान थे। इसे ई. कोलाई के प्लाज्मिड में डालकर इन्सुलिन श्रृंखलाओ का उत्पादन किया गया। इन अलग अलग निर्मित श्रंखलाओ को निकालकर डाइसल्फाइड बंध , बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इन्सुलिन तैयार किया गया।

  1. जीन चिकित्सा (Gene-Therapy):

सामान्य दोष वाली कोशिकाओ के उपचार हेतु सामान्य जीन को व्यक्ति या भ्रूण की कोशिका में स्थानांतरित करते है। इसे जीन चिकित्सा या जीन प्रतिस्थापन कहते है।

सर्वप्रथम 1990 में इस चिकित्सा द्वारा एक चार वर्षीय लड़की में एडिनोसिन डिएमीनेज न्यूनता का उपचार किया गया था।

कुछ बच्चो में ADA की कमी का उपचार अस्थिमज्जा के प्रत्यारोपण से होता है जबकि वयस्कों या दूसरो में सुई द्वारा रोगी को सक्रीय ADA दिया जाता है। जीन चिकित्सा में सक्रीय ADA का C-DNA (पश्च विषाणु संवाहक का प्रयोग कर) लसिकाणु में प्रवेश कराया जाता है।  इसके बाद लसिकाणु को रोगी के शरीर में वापस डाल दिया जाता है।

  1. आण्विक निदान (Molecular Diagnosis): पुनर्योगीज DNA प्रोद्योगिकी , PCR व एलाइजा कुछ ऐसी तकनीके है , जिनके द्वारा रोग की प्रारंभिक पहचान की जाती है।

जब शरीर में रोग के लक्षण स्पष्ट ना दिखाई दे अथवा रोगाणु बहुत कम हो तो रोग की पहचान (जैसे एड्स व कैंसर की पहचान) PCR द्वारा न्यूक्लिक अम्ल के प्रवर्धन (एंप्लीफिकेशन) द्वारा कर सकते है।

ELISA TEST (Enzyme linked immunosorbent assay) : इस परिक्षण एंजाइमो की सहायता से सूक्ष्मतम मात्रा में उपस्थित प्रोटीन , प्रतिजन व प्रतिरक्षियो की पहचान की जा सकती है।

DNA या RNA की एकल श्रृंखला से विकिरण सक्रीय अणु (संपरीक्षित्र ) जुड़कर कोशिकाओ के क्लोन में अपने पूरक डीएनए से संकरित होते है जिसे बाद में स्वविकिरण चित्र (ऑटोरेडियोग्राफी) द्वारा पहचानते है।

नोट : उत्परिवर्तित जीन फोटोग्राफिक फिल्म पर दिखाई नहीं देते है , क्योंकि संपरीक्षित्र व उत्परिवर्तित जीन आपस में एक दुसरे के पूरक नहीं होते

पारजीवी जन्तु (Transgenic animal)

वह जन्तु जिसकी जनन कोशिकाओ में शरीर के बाहर दुसरे जन्तु का जीन डाला जाता है ट्रांसजेनिक जंतु या पारजीवी जन्तु कहलाता है।

पारजीवी जन्तुओ में 95% से ज्यादा चूहे उत्पन्न किये गए है।

ट्रांसजैनिक जन्तुओ के उपयोग

  1. सामान्य शरीर क्रिया व विकास : ट्रांसजैनिक जन्तुओ में जीन की क्रिया , उनके नियंत्रित सामान्य देए कार्यो व विकास पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।
  2. रोगों का अध्ययन : वर्तमान में मानव रोग कैंसर , सिस्ट्रिक फाइब्रोसिस (पूटीय रेशामयता) रुमेटवाएड संधि शोथ व एल्जिमर में भाग लेने वाले जीनो के कार्यो का पता लगाने के लिए पारजीवी जन्तु उपलब्ध है।
  3. जैविक उत्पाद : ट्रान्सजैनिक जन्तु (दुधारू पशु) से प्राप्त मानव प्रोटीन (अल्फ़ा-1 एन्टीट्रिप्सिन) का उपयोग इन्फासीमा (वायुस्फीति ) रोग के निदान में किया जाता है।

लेक्टोफेरिन (गाय से प्राप्त) जैव उत्पाद द्वारा फिनाइल कीटोनूरिया व सिस्ट्रिक फाइब्रोसिस रोगों का उपचार किया जाता है।

1977 में सर्वप्रथम पारजीवी गाय ‘रोजी’ से मानव प्रोटीन संपन्न दूध (2.4 ग्राम/लीटर) प्राप्त किया गया।  इस दूध में मानव एल्फा लेक्टएल्बूमिन मिलता है जो मानव शिशु के लिए अत्यधिक संतुलित पोषक तत्व है।

  1. टीका सुरक्षा : मनुष्य में टिके को प्रयुक्त करने से पहले ट्रांसजेनिक जन्तुओ में टिके की जांच जाती है , जैसे पोलियो का टीका ट्रांसजैनिक चूहे पर जांचा गया है |
  2. रासायनिक सुरक्षा परिक्षण : पारजीवी जन्तु विषैले रसायनों के प्रभाव का अध्ययन करने में उपयोगी होते है |

नैतिक मुद्दे (एथिकल issue) :

  1. जैव पेटेंट (Bio patent) : जैव पेटेंट के अंतर्गत सरकार किसी जैव पदार्थ की खोज करने वाले को सुरक्षा प्रदान करती है ताकि उस नाम से कोई और उस उत्पाद को न बना सके और न ही बेच सके |

भारत में बासमती चावल की 27 किस्मे मिलती है परन्तु अमेरिका की एक कंपनी में 1977 में बासमती का पेटेंट व ट्रेडमार्क अपने नाम लेकर उस पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया , जिससे भारतीय जनमानस में इसका बहुत ज्यादा आक्रोश है |

नोट : भारत में धान की 2 लाख से अधिक किस्मे होती है |

  1. बायोपाइरेसी (BioPiracy) : राष्ट्रीय संपत्ति व संपदा , जीनी स्रोतों व जैविक स्रोतों की चोरी बायोपाइरेसी कहलाती है | औद्योगिक राष्ट्र आर्थिक रूप से संपन्न है परन्तु उनके पास परंपरागत ज्ञान की कमी है जबकि अविकसित राष्ट्र जैव विविधता व परम्परागत ज्ञान से संपन्न है अत: इन राष्ट्रों ने बायोपाइरेसी रोकने के लिए कड़े नियम बनाये है |

नोट : भारतीय संसद ने हाल ही में इन्डियन पेटेंट बिल में दूसरा संसोधन पारित किया है जिसमे एकस्व नियम सम्बन्धी आपतकालिक प्रावधान , अनुसंधान एवं विकसित प्रयास शामिल है |

  • ADA की कमी से बच्चो का शारीरिक विकास अवरंद होता है इसके अलावा निमोनिया , डाइरिया , स्किन रैसेज होते है |
  • फाइब्रोसिस नामक रोग में श्वास नली में श्लेष्मा का संग्रहण होने से श्वास नहीं फूल जाती है जिससे सांस में समस्या होती है |
  • वायुस्फीति : इस रोग में फेफड़ो में वायु भरने से सांस फूलने लग जाती है |
  • रुमेटोइड अर्थराइटिस : ये जोड़ो की बीमारी है जिसमे जोड़ो पर पाए जाने वाले संयोजी उत्तक में सूजन आ जाती है जिससे जोड़ो में दर्द होता है |
  • एल्जीमर : इस बीमारी में व्यक्ति का किसी भी समय मुड परिवर्तित हो जाता है , यादास्त में कमी हो जाती है |