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ट्रांजिस्टर : p-n-p ट्रांजिस्टर क्या है , n-p-n ट्रांजिस्टर क्या है , कार्य , उपयोग , अंतर (transistors in hindi)

(transistors in hindi) ट्रांजिस्टर : p-n-p ट्रांजिस्टर क्या है , n-p-n ट्रांजिस्टर क्या है , कार्य , उपयोग , अंतर : इलेक्ट्रॉनिक्स में बहुत अधिक उपयोग होने वाला उपकरण है ट्रांजिस्टर।
ट्रांजिस्टर का निर्माण करने के लिए p प्रकार का अर्धचालक तथा n प्रकार का अर्धचालक की आवश्यकता होती है , पुराने समय में इलेक्ट्रॉनिक परिपथों में ट्रायोड का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन ट्रांजिस्टर बनने के बाद इसे ट्रायोड के स्थान पर बहुतायत से उपयोग किया जाने लगा।
ट्रांजिस्टर : यह एक अर्धचालक युक्ति होती है एक चालक और कुचालक की तरह व्यवहार कर सकती है , ट्रांजिस्टर का उपयोग स्विच के रूप मे और प्रवर्धक (एम्पलीफायर) के रूप में किया जाता है , ट्रांजिस्टर  ऑडियो तरंगों को इलेक्ट्रॉनिक तरंगों में परिवर्तित कर देता है तथा किसी इलेक्ट्रॉनिक परिपथ में धारा के प्रवाह को कण्ट्रोल करने के काम में लिया जाता है।
ट्रांजिस्टर दो शब्दों से मिलकर बना होता है tans + resistance
ट्रांजिस्टर में तीन अर्धचालक सतहें होती है जिन्हें क्रमशः उत्सर्जक (emitter) , आधार (base) और संग्राहक (collector) कहा जाता है।
आधार भाग , उत्सर्जक और संग्राहक के मध्य का भाग होता है।
आधार भाग , उत्सर्जक और संग्राहक के मध्य एक सेंडविच की तरह मध्य में रहता है।

ट्रांजिस्टर दो प्रकार के होते है –
1. npn ट्रांजिस्टर (n-p-n transistor)
2. pnp ट्रांजिस्टर (p-n-p transistor)

 pnp ट्रांजिस्टर (p-n-p transistor)

इस ट्रांजिस्टर का कनेक्शन निम्न प्रकार किया जाता है –
इस ट्रांजिस्टर में उत्सर्जक को आधार के सापेक्ष धनात्मक विभव पर रखा जाता है तथा संग्राहक को आधार के सापेक्ष ऋणात्मक विभव पर रखा जाता है। अर्थात जो बायीं तरफ pn संधि बनी होती है वह अग्र अभिनति पर जुडी रहती है तथा दाई तरफ बनी pn संधि को पश्च अभिनती पर रखा जाता है।
लगभग 5% कोटर जो उत्सर्जक में उपस्थित है वे आधार में जाकर उदासीन हो जाते है तथा बाकी बचे 95% कोटर जो उत्सर्जक से चले वे संग्राहक में पहुँच जाते है और जिससे उत्सर्जक व आधार के मध्य अल्प धारा प्रवाहित होती है तथा संग्राहक व आधार में प्रवाहित धारा को संग्राहक धारा कहते है।

 npn ट्रांजिस्टर (n-p-n transistor)

इस प्रकार के ट्रांजिस्टर बनाते समय कनेक्शन निम्न प्रकार रखे जाते है –
इसमें उत्सर्जक को आधार के सापेक्ष ऋणात्मक विभव पर रखा जाता है तथा संग्राहक को आधार के सापेक्ष धनात्मक विभव पर रखा जाता है। अर्थात उत्सर्जक आधार को अग्र अभिनति पर रखा जाता है और संग्राहक आधार को पश्च या उत्क्रम अभिनती पर रखा जाता है।
लगभग 5% इलेक्ट्रॉन उत्सर्जक से निकलते है और आधार के कोटरों के साथ मिलकर उदासीन हो जाते है तथा शेष 95% इलेक्ट्रॉन संग्राहक में पहुंचते जाते है जिससे संग्राहक में जो धारा बहती है उसे संग्राहक धारा कहते है।