Logic and Digital Circuits in hindi तार्किक एवं अंकीय परिपथ क्या है , परिभाषा प्रकार समझाइये
तार्किक एवं अंकीय परिपथ क्या है , परिभाषा प्रकार समझाइये Logic and Digital Circuits in hindi ?
तार्किक एवं अंकीय परिपथ (Logic and Digital Circuits)
प्रस्तावना (INTRODUCTION)
‘Digit’ का प्राणी विज्ञान में तात्पर्य है ‘अंगुलि’। इस प्रकार Digital अर्थात् अंकीय पद्धति का प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब मानव ने गणना में अपनी अंगुलियों का उपयोग करना प्रारम्भ किया। इलेक्ट्रॉनिकी में अंकीय (digital) द प्रत्येक उस प्रक्रम को इंगित करता है जिसमें मापन विविक्त इकाईयों में किया जाता हो। मापन या गणना की एक अन्य पद्धति है, अनुरूप (analog ) पद्धति। इस पद्धति में वास्तविक राशि को किसी अन्य अनुरूपी राशि द्वारा निरूपित किया है, उदाहरण स्वरूप यदि किसी पिण्ड का भार 10 किग्रा है तो इसे किसी मापक यंत्र में निश्चित कोण (जैसे 10°) से सुई के घूर्णन द्वारा निरूपित किया जा सकता है। इलेक्ट्रॉनिकी की अनुरूप पद्धति में वोल्टता का सामान्यतः निरूपण में उपयोग होता है। आधुनिक युग में दोनों पद्धतियों का उपयोग यंत्रीकरण (instrumentation), संचार (communication) व नियंत्रण ( control) व्यवस्थाओं तथा अभिकलन (computer) तंत्रों में किया जाता है। इस अध्याय में हम केवल अंकीय पद्धति पर आधारित सिद्धान्तों व उनके निरूपण के लिये इलेक्ट्रॉनिक परिपथों का वर्णन करेंगे।
संख्या प्रणालियाँ (NUMBER SYSTEMS)
(i) दशमलव पद्धति (Decimal System) – यह चिर-परिचित संख्या पद्धति है जिसमें दस संकेतांक होते हैं-0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 व 9, जिन्हें अंक (digit) कहते हैं। इसका मूल्यांक या आधार (radix or base) 10 होता है। व्यापक रूप में प्रत्येक संख्या के दो भाग होते हैं, पूर्णांक (integer) तथा भिन्न (fraction) जिनको दशमलव से पृथक्कृत किया जाता है। उदाहरण के लिये संख्या 2178.426 में (2178) पूर्ण संख्या (पूर्णांक) है तथा 0.426 भिन्न हैं | दशमलव की स्थिति से बाँई ओर के अंकों का बाँई ओर विस्थापन के साथ भारण (weightage) 10 की धनात्मक घात के रूप में क्रमवार बढ़ता जाता है अर्थात् दशमलव के बाँई ओर पहले अंक का भारण 10° होता है, दूसरे अंक का भारण 101. तीसरे का 102, चौथे का 103. 3,… इत्यादि होता है। इस प्रकार उपरोक्त संख्या में दशमलव के बाँई ओर के प्रथम अंक 8 का मान है 8 x 10° = 8, दूसरे अंक 7 का मान है 7× 101 = 70, तीसरे अंक 1 का मान है 1 × 102 = 100 व चौथे अंक 2 का मान है 2 x 103 = 2000। इस प्रकार पूर्णांक 2178 = 2 × 103 + 1 × 102 + 7x 10 + 8 × 100
दशमलव के दाँई ओर भिन्नात्मक संख्या में प्रत्येक अंक का दाँई ओर विस्थापन के साथ भारण 10 के ऋणात्मक घात के रूप में क्रमवार घटता जाता है, अर्थात् दशमलव के दाँई ओर पहले अंक का भारण 10-1, दूसरे का 10-2, तीसरे का 10–3, इत्यादि होता है। इस प्रकार भिन्न संख्या 0.426 में प्रथम अंक 4 का मान है 4 x 10-1, दूसरे अंक 2 का मान है 2 x 10- 2 व तीसरे अंक 6 का मान है 6 × 10। इस प्रकार
अतः दी गई संख्या
0.426 = 4 × 10 + 2 × 102 + 6 × 10-3
2178.426= 2 × 103 + 1 × 102 +7 × 10′ + 8 × 10° + 4 × 101 + 2 × 102 + 6 × 10-3
स्थिति के अनुसार भारण का यह सिद्धान्त प्रत्येक संख्या पद्धति के लिय यथार्थ होता है।
(ii) द्विआधारी या बाइनरी पद्धति (Binary System) – सन् 1854 में जॉर्ज बूल (George Boole) ने एक नया बीजगणित प्रस्तावित किया जो सामान्य बीजगणित से पूर्णतया भिन्न था। यह तर्क की एक गणितीय पद्धति है। इसमें केवल दो चर (variables) होते हैं, सत्य या यथार्थ (truc) तथा असत्य या मिथ्या ( false )। इन चरों का ऑकिक संकेतन क्रमश: 1 तथा 0 होता है। अनेक वर्षों तक बूल का कार्य वैज्ञानिक दर्शन के रूप में ही प्रतिष्ठित रहा। 1938 में शैनन (Shannon) ने बूलीय बीजगणित तथा वैद्युत स्विचन निकायों में समानता को पहचाना। शैनन के अनुसार स्विचों की ऑन (on) व ऑफ (off) अवस्थाएँ बूलीय चर सत्य व असत्य के अर्थात् 1 व 0 के तुल्य हैं। इस प्रकार बूलीय बीजगणित की तार्किक प्रक्रियाओं को वैद्युत स्विचों द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है ओर ऐसे परिपथ जिनके द्वारा यह संभव होता है उन्हें तर्क-परिपथ ( logic circuits) कहते हैं।
द्वि-आधारी संख्या पद्धति में दो संकेतांक 1 व 0 होते हैं तथा इसमें मूलांक 2 होता है। जैसे दशमलव पद्धति में दशमलव बिन्दु पूर्णांक व भिन्न के मध्य स्थित होता है उसी प्रकार द्विआधारी पद्धति में बाइनरी बिन्दु (द्विआधारी बिन्दु) पूर्णांक व भिन्न को पृथक् करता है । द्विआधारी बिन्दु के बाँई ओर स्थिति के अनुसार क्रमवार भारण 2 की धनात्मक घात के रूप में बढ़ता जाता है, अर्थात् बाइनरी बिन्दु के बाँई ओर पहली संख्या का भारण 20, दूसरी का 21 , तीसरी का 22, चौथी का 2-3 आदि होता है।
उदाहरण स्वरूप यदि कोई द्विआधारी संख्या 1011 है तो
1011 = 1 × 23 + 0 x 22 + 1 2 + 1 × 20
जिसका दशमलव पद्धति में मान है
अर्थात्
8+0+2+1=11
(1011) 2 = (11) 10
द्विआधारी संख्या के बाइनरी बिन्दु के दाँई ओर स्थिति के अनुसार क्रमवार 2 की ऋणात्मक घात के रूप में भारण कम होता जाता है, अर्थात् बिन्दु के दाँई ओर पहली संख्या का भारण 21, दूसरी का 2-2, तीसरी का 2- 3…. इत्यादि होता है। इस प्रकार
द्विआधारी पद्धति में अंकों की स्थितियां द्वयंक ( द्विआधारी अंक) या bits कहलाती हैं (bits शब्द binary digits का संकुचित रूप है ) ।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि द्विआधारी संख्याओं को निरूपित करने के लिये केवल दो संकेत स्तर (signal levels) आवश्यक हैं। संकेतांक 1 को ट्रॉजिस्टर की संतृप्त अवस्था ( saturated state), प्रदीप्त बल्ब, ऊर्जित रिले निश्चित दिशा में चुम्बकित चुम्बक आदि से निरूपित कर सकते हैं तथा संकेतांक 0 को उपरोक्त के विपरीत अर्थात् ट्रॉजिस्टर की अंतक (cut off) अवस्था, अप्रदीप्त बल्ब, विऊर्जायित (de-energized) रिले, विपरीत दिशा में चुम्बकित चुम्बक अदि से निरूपित कर सकते हैं। केवल दो संकेत स्तर होने से इनके विभेदन में त्रुटि की संभावना नहीं होती तथा इनका संचरण सुगमता से हो सकता है। द्विआधारी पद्धति में ये लाभ द्वयंकों (bits) की अधिक संख्या के मूल्य पर प्राप्त होते हैं।
दशमलव संख्या का द्विआधारी संख्या में परिवर्तन– पूर्णांक – पूर्णांक दशमलव संख्या को द्विआधारी संख्या में परिवर्तित करने के लिये उसमें 2 का उत्तरोत्तर रूप से भाग देते जाते हैं और प्रत्येक बार शेष संख्या नोट कर ली जाती है। शेष संख्याओं का समुच्चय (set) परिणामी द्विआधारी संख्या होती है। अंतिम शेष संख्या सर्वाधिक सार्थक द्वयंक होती है व प्रथम शेष संख्या न्यूनतम् सार्थक द्वयंक होती है। इस विधि को स्पष्ट करने के लिये मान लीजिये पूर्णांक दशमलव संख्या 43 है-
ध्यान रखिये कि उत्तरोत्तर विभाजन तब तक जारी रखना चाहिये जब तक कि भागफल 0 न आ जाये। भिन्न-भिन्नात्मक दशमलव संख्या को द्विआधारी संख्या में परिवर्तित करने के लिये 2 का उत्तरोत्तर गुणन करते हैं। प्रत्येक स्तर पर गुणनफल में प्राप्त पूर्णांक (1 अथवा 0) नोट करते जाते हैं। उत्तरोत्तर गुणन पूर्णांक हटाकर केवल भिन्न में किया जाता है। पूर्णांकों का इस प्रकार प्राप्त समुच्चय परिणामी द्विआधारी संख्या होती है। प्रथम गुणन में प्राप्त पूर्णांक सर्वाधिक सार्थक द्वयंक होता है (द्विआधारी बिन्दु के निकटतम द्वयंक), अंतिम पूर्णांक न्यूनतम् सार्थकं द्वयंक होता है। उदाहरण के लिये भिन्न दशमलव संख्या 0.6525 लेते हैं।
उत्तरोत्तर गुणन इस प्रकार आगे भी जारी रखा जा सकता है परन्तु द्वयंकों की सार्थकता घटती जाती है।
अतः
(0.6525)10(0.1010011…..)2 = (0.101)2
(iii) अष्टआधारी संख्या पद्धति (Octal Number System) – कई अभिकलित्रों (computers) या लघु-अभिकलित्रों (mini computers) में अष्टआधारी संख्या पद्धति का उपयोग किया जाता है। इन संख्याओं का मूलांक 8 होता है और इस पद्धति में संख्या को आठ अंकों 0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसमें भी दशमलव पद्धति के समान पूर्णांक तथा भिन्न (fraction) संख्याओं को पृथक् करने के लिए मूलांक बिन्दु (अष्ट बिन्दु) का उपयोग करते हैं।
अष्टधारी संख्या में प्रत्येक अंक का स्थानिक मान (place value) मूलांक बिन्दु के बांये 8 के गुणन से
क्रमशः बढ़ता जाता है तथा मूलांक बिन्दु के दायें 8-1 के गुणन से क्रमशः घटता जाता है।
उदाहरणार्थ अष्ट आधारी संख्या
पूर्णांक दशमलव संख्या का अष्टआधारी संख्या में परिवर्तन- पूर्णांक दशमलव संख्या को अष्ट संख्या में परिवर्तित करने के लिए पीछे दी गई विधि का उपयोग करते हैं परन्तु इसमें 2 का भाग न देकर 8 से उत्तरोतर भाग देते हैं। उदाहरणार्थ-
भिन्न दशमलव संख्या का अष्टआधारी संख्या में परिवर्तन-भिन्न दशमलव संख्या को द्विआधारी संख्या में परिवर्तन करने की विधि के समान इसमें भिन्नात्मक संख्या में 8 का उत्तरोत्तर गुणन करते हैं। गुणन के प्रत्येक स्तर पर प्राप्त पूर्णांक अष्ट आधारी संख्या का अंक होता है। प्रथम गुणन से प्राप्त अंक सर्वाधिक सार्थक अंक होता है अर्थात यह मूलांक बिन्दु की निकटतम स्थिति में लिखा जाता है। गुणन क्रम बढ़ने के साथ प्राप्त पूर्णांक का सार्थक मान घटता जाता है। उत्तरोत्तर गुणन प्रत्येक स्तर पर पूर्णांक हटाकर केवल भिन्न संख्या में किया जाता है।
अष्ट आधारी संख्याओं का द्विआधारी संख्याओं में परिवर्तन-अष्टाधारी अंकों के तुल्य द्विआधारी अंकों को निम्न सारिणी में दर्शाया गया है-
यदि अष्टाधारी संख्या में उसके अंकों को तुल्य तीन द्वयंकों (bits) (द्विआधारी अंकों) से प्रतिस्थापित कर तो अष्टाधारी संख्या के तुल्य द्विआधारी संख्या प्राप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ-
अतः (0.321) (0.011010001)2
द्विआधारी संख्याओं का अष्ट आधारी संख्याओं में रूपान्तरण- पूर्णांक संख्या के रूपान्तरण के लिये मूलांक बिन्दु के बाँई और तीन-तीन द्वयांकों के समूह बना लीजिये तथा भिन्न संख्या के लिये मूलांक बिन्दु के दाँई ओर तीन-तीन द्वयांकों के समूह बना लीजिये। प्रत्येक बार मूलांक बिन्दु के निकटतम् अंक से समूह बनाना प्रारंभ करना होता है। तीन-तीन द्वयांकों के समूहों के मान अष्ट आधार अंकों (जो दशमलव अंकों के समान होंगे) के रूप में लिख लीजिये। परिणामी संख्या अष्टाधारी संख्या होंगी।
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