बीटा-ऑक्सीकरण किसे कहते हैं , बीटा ऑक्सीडेशन का वर्णन सर्वप्रथम किसने किया था beta oxidation in hindi
beta oxidation in hindi बीटा-ऑक्सीकरण किसे कहते हैं , बीटा ऑक्सीडेशन का वर्णन सर्वप्रथम किसने किया था ?
असंतृप्त एसाइल को एंजाइम
A यकृत कोशिकाओं में तीन प्रकार के डिहाइड्रोजेनेस एंजाइम देखे गये हैं। ये अभिकर्मक की विशिष्टता के अनुसार कार्य करते हैं। एक लम्बी श्रृंखला वाले वसा अम्लों (C14 C163C18) पर तथा शेष दो मध्यम एवं छोटी श्रृंखला वाले वसा अम्लों पर कार्य करते हैं।
(iii) जलयोजन (Hydration)- इस क्रिया में इनॉल हाइड्रेस (enol hydrase) की उपस्थिति में एक जल (H2O) का अणु युग्म-बन्ध पर जुड़ता है जिससे बीटा- कार्बन पर एल्कोहल-समूह (OH) बना जाता है।.
(iv) ऑक्सीकरण (Oxidation)- इस क्रिया में बीटा कार्बन का एल्कोहल – समूह विहाइड्रोजनीकरण से ऑक्सीकृत होकर कीटोन समूह बनाता है। इस ऑक्सीकरण में बीटा हाइड्रोक्सी एमाइल डिहाइड्रोजेनेस (B-hydroxy acyl dehydrogenase) एंजाइम काम में आता है तथा NAD एक हाइड्रोजन ग्राही के रूप में कार्य करके NADH1⁄2 बनाता है।
(v) थायोलाइटिक विवलन (Thiolytic cleavage)- इस प्रकार बना यौगिक बीटा-कीटोएसाइल थायोलेज (B-keto acyl thiolase) एंजाइम की उपस्थिति में कोएंजाइम – A के अणु के साथ क्रिया करता है। इस क्रिया में कीटोन समूह यौगिक दो खण्डों में विदलित हो जाता है। एक खण्ड सटा कोएंजाइम-A तथा दूसरा अक्रिय वसा अम्ल होता है जो प्रथम पद (first step) से बने मूल सक्रिय वसा अम्ल से दो कार्बन छोटा होता है। यह पुनः बीटा ऑक्सीकरण से गुजरता है तथा क्रमागत (consecutive) एसीटाइल कोएंजाइम – A का अणु पृथक होता है।
इस प्रकार प्राप्त एसीटाइल कोएंजाइम A का अणु सिट्रिक अम्ल चक्र अथवा क्रेब्स चक्र में प्रवेश करता है जिससे कार्बन डाइऑक्साइड, पानी एवं ऊर्जा (ATP) की प्राप्ति होती है।
सम्पूर्ण ऑक्सीकरण की क्रिया को निम्न रूप से दर्शाया जा सकता है। ऑक्सीकारण से प्राप्त ऊर्जा (Energy available from oxidation)
वसा के B-ऑक्सीकरण से काफी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त होती है। वसा के ऑक्सीकरण के समय एसीटाइल कोएंजाइम-A के एक अणु के निर्माण के साथ NADH का एक अणु तथा FADH2 (reduced) का एक अणु बनता है। इन अपचित (reduced) कोएंजाइम के अन्तिम श्वसन पथ द्वारा क्रमागत ऑक्सीकरण से क्रमश: 3 तथा 2 ATP अणु बनते हैं। इसी प्रकार, एसीटाइल कोएंजाइम- A के प्रत्येक अणु के साथ 5 ATP अणुओं का लाभ होता है।
उदाहरण के लिये यदि पाल्मिटिक अम्ल (C 15H 31 COOH) को ऑक्सीकृत किया जाये तो इससे 8 अणु एसीटेट के प्राप्त होते हैं तथा यह 7 बार बीटा-ऑक्सीकरण की क्रिया दर्शाता है। इसकी ऊर्जा का आंकलन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
7 बारा B ऑक्सीकरण से प्राप्त ऊर्जा 7 x 5 = 35 ATP
8 अणु एसीटाइल कोएन्जाइम – A से 8 × 12 = 96 ATP
(9 अणु = 12 ATP)
कुल = 131 ATP
प्रथम पद में 1 ATP वसा अम्ल को सक्रिय करने में खर्च होता है। (- 1) 1 ATP कुल ऊर्जा प्राप्ति = 130 ATP
इस प्रकार एक पाल्मिटिक अम्ल के B ऑक्सीकरण द्वारा 130 ATP अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वसा अम्ल में ऊर्जा (energy) कार्बोहाइड्रेट्स की तुलना में ज्यादा होती है तथा वसा अम्ल ऊर्जा प्राप्ति के अच्छे स्रोत होते हैं।
(2) बीटा-ऑक्सीकरण (B-Oxidation)
वसा अम्लों के ऑक्सीकरण हेतु दूसरी विधि पी.के. स्टम्फ (P. K. Stumpf) ने प्रस्तुत की है। यह मस्तिष्क तथा अन्य उत्तकों की कोशिकाओं तथा पादप कोशिकाओं में देखी गई थी। यह सामान्यतया हाइड्रोक्सी वसा अम्लों के ऑक्सीकरण में प्रयुक्त होती है जहाँ – OH समूह प्राय: कार्बन परमाणु से जुड़ा रहता है।
इसके प्रथम चरण में वसा अम्ल का विकार्बोक्सीकरण (decarboxylation) होता है जिससे यह .. एक ऐसे एल्डीहाइड में अपचयित हो जाता है जिसमें मूल वसा अम्ल से एक कार्बन परमाणु कम होता है। यह क्रिया परऑक्सीडेज एंजाइम (peroxidase) की उपस्थिति में होती है।
RCH2CH2CH2COOH -> RCH2CH2CHO+CO2+H2O+O2
इसा प्रकार प्राप्त एल्डीहाइड, एक एल्डीहाइड डिहाइड्रोजेनेस (aldehyde dehydrogenase) की उपस्थिति में ऑक्सीकृत हो जाता है।
R.CH2CH2.CH2 CHO → R.CH2 CH2COOH
इस प्रकार प्राप्त नया अम्ल एक अभिकर्मक की तरह कार्य करता है। इस पर पुनः परऑक्सीडेज एंजाइम कार्य करता है तथा यह क्रिया इसी प्रकार कार्बन परमाणु के ऑक्सीकरण द्वारा दोहराई जाती है।
इस प्रकार के ऑक्सीकरण का जैविक महत्व अभी अज्ञात है। यह विषम संख्यायुक्त वसा अम्ल देता है। इस ऑक्सीकरण से प्राप्त एल्डीहाइड अपचयित होकर लम्बी श्रृंखलायुक्त एल्कोहल भी देते हैं। सरणी 1- वसा अम्ल के बीटा आक्सीकरण की प्रमुख अभिक्रियाएँ
असन्तृप्त वसा अम्लों का उपापचय (Oxidation of unsaturated fatty acids)
जिन वसा अम्लों में कार्बन परमाणु द्वि-आबन्धों (double bonds) द्वारा बन्धित होकर हैं, उन्हें असन्तृप्त (unsaturated) वसा अम्ल कहते हैं। छोटी श्रृंखला वाले एवं असंतृप्त वसा अम्लों के गलनांक (melting point) अपेक्षाकृत न्यून (low) होते हैं। तेलों में प्राय: छोटी श्रृंखला वाले अथवा असंतृप्त वसा अम्ल पाये जाते हैं, इसलिए ये सामान्य ताप पद द्रव (liquid) अवस्था में होते हैं। असंतृप्त वसा अम्लों के उदाहरण सामान्यतया ऑलीक अम्ल (oleic acid), लिनोलीक अम्ल (linolic acid), लिनोलेनिक अम्ल (linolenic acid) तथा एरेकिडोनिक अम्ल (arachidonic acid) आदि होते हैं।
असंतृप्त वसा-अम्लों का ऑक्सीकरण संतृप्त वसा अम्लों की तुलना में काफी धीरे होता है। इनके ऑक्सीकरण द्वारा भी एसीटाइल कोएन्जाइम A तथा एसीटो एसोटिक अम्ल बनाता है। इस ऑक्सीकरण के लगभग वे सभी एन्जाइम्स काम आते हैं जो c-ऑक्सीकरण संतृप्त वसा अम्ल में क़ाम आते हैं। असंतृप्त वसा अम्ल से 2 कार्बन इकाइयों के अलग होने पर प्रोपिओनाइल कोएन्जाइम A(CH3CH2COS.CoA) बनता है, इसमें 3 कार्बन परमाणु होते हैं। इसका ऑक्सीकरण निम्न प्रकार होता है।
प्रोपिओनिक अम्ल प्रोपिओनाइल कोएंजाइम प्रोपिओनाइल कोएन्जाइम- A कार्बोक्सीलेज ATP D- मिथाइल मेलोनइल कोएन्जाइम – A रेमिसेज L- मिथाइल मेलोनाइल कोएन्जाइम – A म्यूटेज सक्सेनाइल कोएन्जाइम A
सक्सेनाइल कोएन्जाइम A सिट्रिक अम्ल या क्रेब्स चक्र में प्रवेश करके सक्सेनिक अम्ल में परिवर्तित हो जाता है। मिथाइमेलोनाइल कोएन्जाइम – A न्युट्रेज एन्जाइम की क्रिया हेतु विटामिन B12 कोएन्जाइम के रूप में आवश्यक होता है। इस विटामिन की कमी (deficiency) होने पर मिथाइलमेलोनेट एवं प्रोपिओनेट काफी अधिक मात्रा में मूत्र के साथ बाहर निकल जाते हैं।
कीटोन पिंडों का निर्माण एवं उपापचय (Formation and metabolism of ketone bodies)
अधिकतर वसा अम्लों का बीटा-ऑक्सीकरण यकृत कोशिकाओं (hepatic cells) में होता है। इस प्रकार यकृत में वसा अम्लों को ऑक्सीकरण में काफी मात्रा में एसिटाइल कोएन्जाइम – A बनता है। यकृत इन सम्पूर्ण एसिटाइल कोएन्जाइम – A का उपयोग नहीं कर पाता है। अधिक मात्रा में उपस्थित एसिटाइल कोएन्जाइम A के दो अणु यकृत में संयोग करके एसीटो एसिटाइल कोएन्जाइम – A (aceto acetly Co-A) बनते हैं। यह जलयोजन (hydration) द्वारा एसीटो एसिटि अम्ल (ceto acetic acid) बनाता है। यह पदार्थ रक्त परिवहन तंत्र (blood vascular system) द्वारा शरीर की अन्य कोशिकाओं को ले जाया जाता है। इन कोशिकाओं में एसीटो एसिटिक अम्ल पुन: कोएन्जाइम – A से संयुक्त होकर 2 कार्बनयुक्त एसीटाइल कोएन्जाइम – A में बदल सकता है। यह पदार्थ क्रेब्स चक्र में ऑक्सेल एसिटिक अम्ल के साथ मिलकर सिट्रिक अम्ल बना देता है। इस प्रकार यह क्रेब्स चक्र में प्रवेश कर ऑक्सीकरण द्वारा ऊर्जा देता है।
एसीटो एसिटिक अम्ल जन्तु शरीर की कोशिकाओं में एसीटोन (acetone) एवं बीटा हाइड्रोऑक्सी ब्यूटाइरिक अम्ल (B-hydroxy butyric acid) में बदल सकता है। ये तीनों यौगिक अर्थात् एसीटो एसिटिक अम्ल, एसीटोन एवं बीटा हाइड्रोक्सी ब्यूटाइरिक अम्ल कीटोन पिंड (Ketone body) कहलाते हैं। इनके निर्माण की क्रिया को कीटोसिस (Ketosis) या कीटोजेनेसिस (Ketogenesis) कहते हैं। सम्पूर्ण क्रिया को निम्प प्रकार से दर्शाया जा सकता है।
आवश्कय परिस्थितियों में ये कीटोन पिण्ड पेशी आदि उत्तकों में विच्छेदित भी हो जाते हैं। इसे कीटोलाइसिस (ketolysis) कहते हैं। एसीटो-एसिटिक अम्ल यकृत में बनता है। यहाँ से यह रक्त में प्रवेश करता है तथा सामान्य परिस्थितियों में इसका सक्रियण (activation) होता है एवं यह पेशियों तथा शरीर के अन्य ऊत्तकों द्वारा उपयोग में ले लिया जाता है। यदि शरीर में सामान्य मात्रा में कार्बोहाइड्रेट्स उपस्थित होते हैं तो यकृत कोशिकाओं में इसका दहन होकर ऊर्जा की प्राप्ति होती है तथा इस स्थिति में कीटोन पिंड का निर्माण बहुत कम होता है। इस प्रकार कार्बोहाइड्रेट्स एक एन्टीकीटोजेनिक (antiketogenic) पदार्थ के रूप में कार्य करते हैं। डाइबिटीस मेलिटस (diabetes mellitus) के समय अथवा अधिक भूखे (starvation) रहने की स्थिति में ऑक्सेली एसिटिक अम्ल की मात्रा कम होने के कारण क्रेब्स चक्र मन्द हो जाता है। इस स्थिति में वसा अम्लों का उपापचय अधिक शीघ्रता से होता है जिससे अधिक एसीटो-एसिटिक अम्ल बनता है। इसी के साथ एसिटाइल कोएन्जाइम – A की मात्रा भी बढ़ती है जो ऑक्सेलो एसिटिक अम्ल को क्रेब्स चक्र में भेजने के लिये आवश्यक होती है। इसके कारण एसिटाइल कोएन्जाइम – A भी बनता है जो बाद में कीटोन पिंड देता है। कीटोन पिंड की अधिक मात्रा होने पर ये रुधिर में सग्रहित होने लगते हैं। इस स्थिति को कीटोनेमिया (Ketonemia) कहते हैं। इसी के साथ कीटोन पिंड मूत्र में भी देखे जाते हैं तथा यह स्थिति कीटीन्यूरिया (Ketonuria) कहलाती है। इसे डाइबिटिस मेलिटिस के समय देखा जा सकता है। डाइबिटिज मेलिटज की कीटोसिस स्थिति से शरीर में उपापचयी विकार (metabolic – disorder) उत्पन्न होते हैं जिसमें डाइबिटिस से पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कीटोन पिण्डों का निर्माण एसिटाइल कोएन्जाइम – A की मात्रा में वृद्धि होने के कारण होता है। शरीर की कोशिकाओं में ऑक्सेली एसिटिक अम्ल के निश्चित मात्रा में होने के कारण एसिटाइल कोएन्जाइम – A का क्रेब्स चक्र में उपयोग नहीं होता है जिसके कारण आवश्यकता से अधिक एसिटाइल कोएन्जाइम – A पिण्डों में परिवर्तित होने लगता है।
पूर्व में ऐसा माना जाता था कि कीटोसिस नुकसानदायक होता है तथा इसे कीटोजेनिक पदार्थ (जैसें वसा) एवं एन्टीकीटोजैविक पदार्थ (जैसे कार्बोहाइड्रेट्स) के उचित अनुपात द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। आधुनिक धारणाओं के अनुसार कीटोसिस का मुख्य प्रभाव शरीर में ‘अम्ल क्षार संतुलन’ (acid-base balance) पर पड़ता है। कीटोसिस के समय मूत्र द्वारा एसिटोएसिटिक अम्ल तथा p-हाइड्रोक्सीब्यूटाइरिक अम्ल में काफी मात्रा में निष्कासन होता है। ये क्षारीय प्रकृति के होते हैं। इनके शरीर से बारह निकलने पर कोशिकाओं में अम्लीय प्रकृति बढ़ती है अर्थात् सि (acidosis) स्थिति उत्पन्न होती है।
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