WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

पादप चयन का सिद्धांत क्या है , Principle of Plant Selection in hindi , पादप चयन अथवा वरण विधि (Plant Selection Method)

पढ़िए पादप चयन का सिद्धांत क्या है , Principle of Plant Selection in hindi , पादप चयन अथवा वरण विधि (Plant Selection Method) ?

पादप चयन अथवा वरण विधि (Plant Selection Method)

पाषाण युग के मानव ने प्राचीन काल में पहाड़ों की गुफाओं से बाहर जब कदम रखा, शायद तभी से अपने उपयोग के लिए विभिन्न पौधों की अच्छी किस्मों का चयन करना शुरू कर दिया था । अतः यह स्पष्टतया प्रतीत होता है कि पादप चयन या वरण पादप प्रजनन की सर्वाधिक प्राचीन विधि है एवं यह समस्त कृष्य पौधों (Cultivated Plants) को उन्नत करने की प्रक्रिया का आधार है। इस प्रक्रिया का उपयोग कृष्य पौधे की जनन प्रकृति (Reproduction Nature) पर निर्भर करता है। मनुष्य ने प्रारम्भ में कृष्य पौधों का चयन अपने जीवन-यापन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया। इनकी फसलों में चयन की प्रक्रिया शुरू में तो अव्यवस्थित एवं स्वविवेक पर निर्भर थी, लेकिन आगे चलकर धीरे-धीरे सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक चयन विधियाँ विकसित हुई। चयन विधि का सरलतम प्रारूप वांछित लक्षणों वाले पौधों को कृषि विज्ञानियों द्वारा चुनना है। पादप प्रजनन की प्रक्रिया में चयन अथवा वरण एक महत्त्वपूर्ण विधि है क्योंकि इसी के द्वारा हम श्रेष्ठतम पौधों को चुनते हैं, तथा इससे विभिन्न कृष्य पादप किस्मों को उन्नत (Improve) करने और नई किस्मों (Varieties) को विकसित करने में सहायता मिलती है

पादप चयन का सिद्धान्त (Principle of Plant Selection) :

विभिन्न पादप किस्मों में पाई जाने वाली आनुवंशिक भिन्नता पादप चयन की आधारभूत इकाई है। आनुवंशिक भिन्नता की उत्पत्ति प्रकृति में स्वतन्त्र रूप से उत्परिवर्तनों के द्वारा होती है तथा आने वाली पीढ़ियों में प्राकृतिक संकरण एवं पुनर्योजन के द्वारा ये भिन्नताएँ जुड़ती हैं। इनमें से इच्छित लक्षणों को छाँट कर चयन की प्रक्रिया अपनाई जाती है ।

पादप प्रजननविज्ञानियों द्वारा चयन प्रक्रिया को दो वर्गों में बाँटा गया है-

(1) प्राकृतिक चयन (Natural selection)

(2) कृत्रिम चयन ( Artificial selection)

  1. प्राकृतिक चयन (Natural selection)

पौधों के प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया, सतत् रूप से व धीमी गति से निरंतर जारी रहती है । यह एक स्वनियंत्रित प्रक्रिया है जो प्राकृतिक कारकों के द्वारा प्रभावित होती है । इस क्रिया में समय अधिक लगता है एवं गुणों में वांछित परिवर्तन भी आता है। पौधों के विकासीय क्रम में प्राकृतिक चयन का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

  1. कृत्रिम चयन (Artifical selection)

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है कि चयन की यह क्रिया मनुष्य द्वारा संचालित होती है। इसमें पादप प्रजनन विज्ञानी स्वयं की आवश्यकता के अनुरूप एक बड़े पादप समूह या समष्टि (Population) से, वांछित लक्षण युक्त एक या एक से अधिक पौधों का चयन करता है। इस प्रकार से चयनित पादप, लक्षणों में विविधता प्रदर्शित करता है। कृत्रिम चयन की प्रक्रिया में न केवल लक्षणों का सुधार वांछित या अपेक्षित दिशा में होता है, अपितु यह तीव्र गति से भी होता है। कृत्रिम चयन की प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार से हैं-

  1. संहति चयन (Mass selection )
  2. शुद्ध वंशक्रम चयन (Pure line selection) C. संतति चयन (Progeny selection)
  3. लोनीय चयन (Clonal selection)
  4. संहति चयन (Mass selection):

पादप प्रजनन विज्ञान में यह कृष्य पौधों की फसल सुधारने की सामान्य विधि है, इसे व्यापक चयन या सपुंज चयन भी कहा जाता है । इस विधि का उपयोग अनेक स्वपरागित पौधों (Self pollinated plants), जैसे- प्याज एवं परपरागित (Cross pollinated) फसलों, जैसे- मक्का में गुणवत्ता सुधार के लिए किया जाता है । स्वपरागित फसलों में संहति चयन का उपयोग मुख्यतः लक्षणों की शुद्धता बनाये रखने के लिए ही प्रयोग में लिया जाता है।

संहति चयन के अंतर्गत पहले इच्छित गुणों वाले उत्तम पौधों को चुन लिया जाता है तथा इनसे प्राप्त बीज मिश्रित कर लिये जाते हैं, इनका संतति परीक्षण नहीं किया जाता। यह बीज समूह सपुंज या संहति (Mass) कहलाता है। समान लक्षणों वाले पौधों के बीजों का इस प्रक्रिया में चयन किया जाता है। बीजों की संहति से अगली पीढ़ी प्राप्त करते हैं । अगली पीढ़ी के पौधों का फिर व्यापक चयन (Selection) वांछित लक्षणों के आधार पर किया जाता है। संहति चयन की यह प्रक्रिया तब तक निरन्तर जारी रखी जाती है, जब तक कि चयनित पौधों के वांछित लक्षणों में समरूपता (Uniformity) स्थापित नहीं हो जाती। अंत में वांछित लक्षणों से युक्त नई किस्म विकसित हो जाती है ।

संहति चयन की विधि में केवल पौधों के लक्षण प्ररूप को ही आधार बनाया जाता है संतति परीक्षण (Progeny test) सामान्य स्थिति में नहीं किया जाता। लेकिन एलार्ड (Allard 1956) के अनुसार, इस चयन विधि में भी संतति परीक्षण की प्रक्रिया को अपनाया जाना जरूरी है, जिससे हल्की गुणवत्ता वाले एवं निर्बल पौधों को हटाया जा सके।

सामान्यतया समयुग्मजी (Homozygous) पौधों में पृथक्करण (Segregation) के अभाव में, आने वाली पीढ़ियों में संहति चयन प्रभावी नहीं रहता। लेकिन परपरागित पौधों में क्योंकि आनुवंशिक विविधताए, निरंतर पृथक्करण के कारण आने वाली पीढ़ियों में उत्पन्न होती रहती हैं, अत: वहाँ यह अनेक पीढ़ियों के बाद भी प्रभाव दिखाई देता है।

संहति चयन की क्रियाविधि (Procedure of Mass selection)—

किसी भी कृष्य पौधे की उन्नत किस्म तैयार करने के लिए, अपनाये गये संहति चयन में सर्वप्रथम पादप प्रजनन-विज्ञानी विभिन्न तथ्यों एवं गुणों पर विशेष ध्यान देते है जैसे आधारभूत पादप समूह (Base population) पौधों का चयन, पौधे के लक्षण प्ररूप जैसे जीवनीशक्ति (Vigour), रोग प्रतिरोधक क्षमता (Disease resist- ance), पौधों की ऊँचाई, वृद्धि इत्यादि लक्षणों के आधार पर किया जाता है। संहति चयन के द्वारा पौधे की उन्नत एवं नवीन किस्म को तैयार करने में लगभग 8 वर्ष का समय लगता है। कार्य प्रणाली एवं अध्ययन की सुविधा के लिए इस संपूर्ण कार्यविधि को निम्न कालखंडों में बाँटा जा सकता है (चित्र 12.1):-

  1. प्रथम वर्ष – पहले साल में इच्छित लक्षणों (Desired characters) वाले पौधों की बालियों या बीजों का चयन फसल कटाई के दौरान ही कर लिया जाता है। इन बीजों को मिलाकर एक पुंज या संहति (Mass) तैयार कर ली जाती है । इस मिश्रित पुंज को अगले मौसम में फसल उगाने के लिए संगृहीत कर लेते हैं। उपरिवर्णित कुछ गुणों एवं पैदावार की मात्रा इत्यादि का कुछ सीमा तक चयन में ध्यान रखा जाता है। विभिन्न लक्षण प्ररूपों के आधार पर बीजों के अनेक पुंज बनाये जाते हैं। भूमि कारक के कारण विविधता को दूर करने के लिए, पुंज वरण हेतु चयनित खेत को 10 वर्ग फीट के टुकड़ों में बाँटा जा सकता है। संभवतः इसीलिए पुंज वरण (Mass selection) को प्रकोष्ठीय वरण (Compartmental selection) भी कहते हैं ।
  2. द्वितीय वर्ष- प्रत्येक पुंज के बीजों को अलग-अलग भू-भाग, या खेतों में उगा कर इनसे नये पौधे तैयार करते हैं। इन पौधों में स्वपरागण या परपरागण दोनों प्रक्रियाओं को बिना किसी बाधा के सम्पन्न होने दिया जाता है। इसके अतिरिक्त इनकी जनक या पुरानी किस्म के पौधों को मानक किस्म (Standard Check) के रूप में प्रयुक्त करते हुए तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए साथ-साथ लगाया जाता है। इस सारी कार्यवाही के बाद, इच्छित लक्षणों वाले पौधों से बीजों को फिर चुना जाता है, तथा अनिच्छित (Non desirable) लक्षणों वाले पौधों को हटा दिया जाता है।
  3. तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ष – चुने हुए पुंज बीजों से प्राप्त पौधों के गुणों का पर्यवेक्षण एवं मूल्यांकन (Evaluation) विभिन्न केन्द्रों पर किया जाता है। यदि इच्छित लक्षणों वाले पौधे मिलते हैं, तो 2 या उससे अधिक वर्षों तक इन पौधों में उत्पादन व गुणों के लिए परीक्षण किया जाता है। इन पौधों से प्राप्त बीजों को मानक किस्म रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  4. छठा, सातवाँ एवं आठवाँ वर्ष- बारम्बार उगाये हुए पौधों में गुणवत्ता एवं उत्पादन की सावधानीपूर्वक जाँच के बाद संहति के रूप में चुनी हुई किस्मों को विभिन्न क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्रों को भेजा जाता है। वहाँ इन पौधों के बीजों की अलग-अलग स्थानों पर इनके दशानुकूलन अनुकूलनशीलता (Adaptability) तथा उत्पादन क्षमता की जांच करने के लिए उगाया जाता है। अंतिम वर्ष की समाप्ति पर यदि जाँच की गई किस्म, वर्तमान श्रेष्ठ किस्म या किस्मों की तुलना में बेहतर साबित होती है तो इस नई किस्म के पौधों को ज्यादा संख्या में लगाकर इनका गुणन (Multiplication) किया जाता है, जिससे ज्यादा संख्या में बीज प्राप्त हो सकें एवं किसानों को आसानी से उपलब्ध हो सकें। इसके साथ ही पौधे की नई किस्म का नामकरण भी कर दिया जाता है।

विभिन्न पादप प्रजनन विज्ञानियों द्वारा संहति चयन के लिए दो विधियाँ अपनाई जाती हैं, जो निम्न प्रकार से हैं:-

  1. हैलेट विधि (Hallet’s method 1869): – इसके अन्तर्गत प्रमाणित किस्म को अनुकूलतम वातावरण में उगाकर संहति चयन करते हैं ।
  2. रिमपाऊ विधि (Rimpau’s method) :- इसके अन्तर्गत प्रमाणित किस्म को प्रतिकूल (Adverse) परिस्थितियों में उगाकर संहति चयन किया जाता है ।

संहति चयन के लाभ (Advantages of Mass selection)

  1. पादप प्रजनन विज्ञानियों के लिए यह एक उपयोगी एवं सरल विधि है, जिसमें समय कम लगता है एवं लागत भी कम लगती है।
  2. इस प्रक्रिया द्वारा प्राप्त उन्नत किस्म, स्थानीय वातावरण के लिए अनुकूल रहती है ।
  3. इस विधि में फसल की गुणवत्ता के सुधार के साथ-साथ ही स्वपरागित (Self pollinated) फसलों में लक्षणों की शुद्धता (Purety) भी स्थापित की जाती है।

संहति चयन के दोष (Demerits of Mass selection)

  1. यह प्रायः स्वपरागित फसलों तक ही सीमित है, क्योंकि वे शुद्ध लक्षणों वाले एवं समांगी होते हैं।
  2. इससे प्राप्त नई किस्मों में अधिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं।
  3. उच्च गुणवत्ता किस्म (Superior variety) को घटिया किस्म से पृथक करना कठिन होता है।
  4. संतति परीक्षण (Progeny test) नहीं होने से, इच्छित गुणों में समानता नहीं पाई जाती।
  5. गुणवत्ता सुधार (Quality Improvement) कम मात्रा में होता है।
  6. शुद्ध वंशक्रम चयन (Pureline selection)

यहाँ शुद्ध वंशक्रम से हमारा तात्पर्य उस पादप संतति से है, जो स्वपरागित (Self pollinated) एवं समयुग्मजी पौधे से प्राप्त होती है। इस पादप प्रजनन विधि में चयन प्रक्रिया का आधार केवल एक पौधा होता है, जिसके वांछित लक्षणों को चयनित कर आगे की संतति में शुद्ध वंशक्रम पौधे तैयार किये जाते हैं। ऐसी अवस्था में जबकि खेत में खड़ी सघन फसल के कारण वांछित लक्षण वाले एकल पौधों की पहचान कठिन कार्य होता है, तो ऐसी स्थिति में एकल बाली (Solitary ear) को ही चयन का आधार बना लिया जाता है। यही कारण है कि शुद्ध वंशक्रम प्रक्रिया के सभी पौधों में आनुवंशिक समानता पाई जाती है तथा इनके बीच केवल पर्यावरणीय विविधता देखने को मिलती है।

इस शब्द अर्थात् शुद्ध वंशक्रम (Pureline) का प्रयोग सर्वप्रथम जोहनसन (Johnson 1903) के द्वारा किया गया था। तत्पश्चात् विभिन्न पादप प्रजननविज्ञानियों द्वारा इसकी व्याख्या अलग-अलग प्रकार से ही की गई ।

स्मिथ एवं सहयोगियों (Smith et al. 1955) के अनुसार ” किसी सजीव इकाई का वह प्रभेद जो अंतः प्रजनन (Inbreeding) या किसी अन्य कारण से आनुवंशिक रूप में शुद्ध होता है उसे शुद्ध वंशक्रम ‘ (Pureline) कहते हैं । ”

दूसरे शब्दों में ” एक स्वपरागित पौधे की आनुवंशिक रूप से समान संतति को लक्षणों के आधार पर शुद्ध वंशक्रम कहते हैं ।

सघन एवं मिश्रित पादप समूह में से एकल पौधे का चयन शुद्ध वंशक्रम चयन कहलाता है।

शुद्ध वंशक्रम चयन सम्बन्धी प्रयोग सर्वप्रथम जोहनसन (Johnson 1930) द्वारा सेम (Bean) की एक किस्म पर संधारित किये गये थे। सेम एक स्वपरागित पौधा है तथा जोहनसन ने इसके संतति परीक्षण में बीज के भार व आकृति जैसे लक्षणों का चयन किया। इसके साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला कि इन लक्षणों की विविधता आनुवंशिकता पर आधारित है, अतः इन लक्षणों का चयन कर अच्छी गुणवत्ता की किस्म प्राप्त की जा सकती है।

शुद्ध वंशक्रम चयन की क्रियाविधि (Procedure of Pureline selection) :

शुद्ध वंशक्रम की प्रक्रिया सामान्यतया तीन सोपानों में सम्पन्न होती है-

  1. प्रारम्भिक विविधता परिलक्षित करने वाले पादप समूह से 100 से 3000 पौधों का उनके वांछित लक्षणों के आधार पर चयन ।
  2. वांछित लक्षणों के आधार पर पौधों के बीजों को अलग-अलग कतारों में बोना ।
  3. अन्तिम रूप से चयनित पादप संततियों का प्रतिकृति उत्पादकता परीक्षणों (Replicated yield tests) द्वारा 2 से 3 वर्ष तक लगातार मूल्यांकन करना।

शुद्ध वंशक्रम (Pureline) पादपों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं:-

  1. ये पौधे आनुवंशिक स्तर पर समयुग्मजी (Homozygous) होते हैं।
  2. इनके जीन प्रारूप (Genotype) एक समान होते हैं।
  3. इनमें दिखाई देने वाली थोड़ी-बहुत भिन्नताएँ प्रायः वातावरणीय विविधताओं के कारण हो सकती हैं। शुद्ध वंशक्रम चयन की प्रक्रिया के द्वारा एक नई उन्नत किस्म को विकसित करने में लगभग 8 से 10 वर्ष का समय लगता है। विभिन्न कालखंडों में विभेदित क्रियाविधि अग्रलिखित है:

प्रथम वर्ष- एक मिश्रित पादप समूह से, वांछित लक्षणों वाले 100 से 3000 पौधों का चयन कर लिया जाता है। ऐसे प्रत्येक पौधे से प्राप्त बीजों को पृथक रूप से एकत्र कर, उनके ऊपर कोई संख्या, या पहचान चिन्ह अंकित करके उनका संग्रह कर लिया जाता है। चुने गये पौधों में वांछित लक्षण शुद्ध या आवश्यक रूप से समयुग्मजी होते हैं, साथ ही पौधों की संख्या का निर्धारण भूमि की अवस्था, समय, श्रम एवं लागत को ध्यान में रखकर किया जाता है।

द्वितीय वर्ष- प्रत्येक पौधे से प्राप्त 25 से 50 बीजों को अलग-अलग पंक्तियों में बोया जाता है, तुलनात्मक अध्ययन हेतु प्रत्येक 10वीं पंक्ति में एक मानक (श्रेष्ठ) किस्म के बीजों को बोया जाता है। चुनते समय, रोगग्रस्त एवं अवांछित लक्षणों वाले पौधों को इन पंक्तियों से हटा दिया जाता है। प्रत्येक पंक्ति से चयनित ऐसे पौधों से प्राप्त बीजों को अलग-अलग रखा जाता है। अब तक प्रत्येक पंक्ति के बीज एक प्रायोगिक प्रभेद (Experimental strain) के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं।

तृतीय वर्ष- दूसरे साल की बुवाई से प्राप्त प्रत्येक प्रायोगिक प्रभेद या चयनित बीजों को इस साल से 4 से 5 पंक्तियों में बोया जाता है। इनसे प्राप्त संततियों (Progeny) में वांछित एवं श्रेष्ठ लक्षणों वाले पौधों को छाँट लिया जता है, तथा दुर्बल एवं अवांछित लक्षणों वाले पौधों को हटा दिया जाता है। इसी वर्ष से उत्पादकता परीक्षण के लिए प्रत्येक प्रभेद के बीजों को अलग-अलग एकत्रित करके रखा जाता है ।

चौथे से छठे वर्ष-उपरोक्त विधि द्वारा चयनित पौधों का उत्पादकता परीक्षण विभिन्न केन्द्रों पर लगातार किया जाता है। प्रत्येक प्रभेद के बीजों को छोटे भू भाग में पंक्तियों में बोया जाता है। प्रत्येक पाँचवीं पंक्ति में मानक श्रेष्ठ किस्म या स्थानीय किस्म के बीज बोते हैं। इनसे तुलना करके श्रेष्ठ एवं इच्छित लक्षणों वाले पौधों को चुनकर शेष को हटा देते हैं ।

सातवाँ वर्ष- अंतिम रूप से चयनित प्रभेदों से प्राप्त बीजों को उगाकर व उनका गुणन करके अलग-अलग स्थानों पर भेजा जाता है ।

आठवें से दसवाँ वर्ष–अलग-अलग स्थानों पर भेजे गये बीजों की अनुकूलन क्षमता तथा तुलनात्मक उत्पादकता का निर्धारण करके, सर्वश्रेष्ठ चयनित संतति को नई किस्म (New variety) B का नाम दे दिया जाता है तथा किसानों को इसके इस्तेमाल की सलाह दी जाती है ।

शुद्ध वंशक्रम चयन के गुण (Merits of Pureline selection ) :

  1. शुद्ध वंशक्रम का चयन प्रक्रिया से प्राप्त उन्नतं पादप किस्मों में वांछित लक्षण, सभी पौधों में एक समान एवं समयुग्मजी (Homozygous) होते हैं अर्थात् लक्षणों की शुद्धता प्रदर्शित करते हैं ।
  2. अन्य विधियों की तुलना में इस विधि के द्वारा प्राप्त किस्मों के गुणों में आशातीत सुधार पाया जाता हैं ।
  3. शुद्ध वंशक्रम किस्मों को अन्तरप्रजनन (Interbreeding) प्रक्रिया में जनक पीढ़ी को पादप के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।
  4. बीज प्रमाणीकरण हेतु, शुद्ध वंशक्रम बीजों की पहचान करना आसान होता है।

शुद्ध वंशक्रम चयन के अवगुण (Demerits of Pureline selection)

  1. इस प्रक्रिया में समय एवं परिश्रम दोनों ही अधिक लगते हैं ।
  2. इस विधि से प्राप्त किस्मों के गुणों में विविधताएँ कम होती हैं, अत: चयन का आधार भी सीमित हो जाता है।
  3. इस प्रक्रिया से प्राप्त पादप किस्मों की सहनशीलता (Ecological amplitude) कम होती है, अत: वातावरण बदलने पर इनकी उपज में उतार चढ़ाव आते रहते हैं ।
  4. इस प्रक्रिया को अपना कर कोई नया लक्षण उत्पन्न नहीं किया जा सकता ।
  5. यह प्रक्रिया पर-परागित किस्मों के लिए स्थायी एवं उपयुक्त नहीं होती, क्योंकि नई किस्म में प्रथम पीढ़ी में प्राप्त लक्षण समय के बीतने के साथ-साथ ही विलोपित या अदृश्य होने लगते हैं ।