जीवाणुओं का संवर्धन क्या है , bacterial culture in hindi शुद्ध संवर्धन तकनीक (Pure culture technique)
bacterial culture in hindi शुद्ध संवर्धन तकनीक (Pure culture technique) जीवाणुओं का संवर्धन क्या है ?
जीवाणुओं का संवर्धन (Bacterial culture)
जीवाणु, मनुष्य की देह, पादपों के ऊत्तकों, पोषणीय पदार्थों, वायु, मृदा अथवा जल आदि में उपस्थित रहते हैं एवं वृद्धि करते हैं। ये लाभदायक या हानिकारक प्रकार के होते हैं। इनका प्राकृतिक रूप से पाया जाना व वृद्धि करना एक सामान्य प्रक्रिया है किन्तु यदि इन्हें प्राकृतिक स्थलों से पृथक कर प्रयोगशाला में वृद्धि व जनन करने हेतु प्रोत्साहित किया जाये व ये क्रिया सामान्य रूप से होने लगे तो इसे जीवाणु संवर्धन (bacterial culture) कहते हैं। जीवाणु संवर्धन (bacterial culture) की आवश्यकता रोगजनक जीवाणुओं को पहचानने हेतु एवं उद्योगों में लाभदायक जीवाणुओं के उपयोग हेतु की जाती है। यह प्राकृतिक या कृत्रिम माध्यमों (media) पर संवर्धित किये जाते हैं। जिन माध्यमों पर इन्हें संवर्धित किया जाता है संवर्धन माध्यम (culture media) कहलाते हैं।
शुद्ध संवर्धन (Pure culture) : शुद्ध-संवर्धन किसी जीवाणु का वह संवर्ध है जिसमें अन्य जाति के जीवाणु उपस्थित न हों ऐसा संवर्धन असंदूषित (axenic) परिस्थितियों में तैयार किया जाता है तथा आगन्तुक-हीन होता है। यह आवश्यक नहीं कि इस संवर्ध में आनुवंशिक दृष्टि से शुद्ध प्रकार के ही प्रभेद पाये जायें।
परिस्थितियाँ, वृद्धि कारक आदि को आवश्यकतानुसार जाँच कर तैयार किया जाता है। इस प्रकार • शुद्ध संवर्ध प्राप्त किया जाता है। विशिष्ट जाति के जीवाणु विशिष्ट आकृति की निवह बनाते हैं। इनके भौतिक एवं रसायनिक गुणों के आधार पर ही इन्हें पृथक कर वर्गीकृत एवं पहचानने में सहायता मिलती है।
अतः किसी सूक्ष्मजीव का संवर्धन करने हेतु उचित संवर्धन माध्यम का चयन करते हैं। बनाने की विधि आदि का वर्णन आगे किया जा रहा है। कुछ जीवाणु पेट्री प्लेट (petri-plate) में समतल सतह पर उचित प्रकार से वृद्धि करते हैं किन्तु कुछ परख नली (test-tube) में समतल सतह पर उचित प्रकार से वृद्धि करते हैं किन्तु कुछ परख नली (test-tube) में ढलान (slant) पर उचित वृद्धि करते हैं अतः उचित विधि का चयन किया जाता है।
निवह निर्माण (Colony formation) : सामान्यतः मानक (standerd ) ठोस माध्यम जैसे एगार पर उगाये जाने पर प्रत्येक जीवाण्विक जाति एक विशिष्ट प्रकार की निवह बनती है। इनके आमाप, आकार किनारे, आन्तरिक रचना व उत्थान में भिन्नता पायी जाती है चित्र 5.3 में थॉमस (Thomas) के अनुसार अनेक प्रकार की निवहों को दर्शाया गया है।
एगार की सतह पर तथा बेधन के अनुसार गहराई पर जीवाणुओं के द्वारा की जाने वाली वृद्धि का प्रारूप अभिलाक्षणिक होता है चित्र 11.4 द्वारा इन्हें दर्शाया गया है।
वृद्धि सतह की आकृति एवं आन्तरिक संरचना भी लाक्षणिक प्रकार की पायी जाती है जिसके . द्वारा जाति विशेष की पहचान संभव है। चित्र 11.5 द्वारा इन्हें दर्शाया गया है।
शुद्ध संवर्धन तकनीक (Pure culture technique)
शुद्ध संवर्धन तकनीक सूक्ष्मजीवों के पहचानने एवं अध्ययन करने हेतु उपयोग में लायी जाती है। यह सूक्ष्मजीवी विज्ञान की महत्वपूर्ण तकनीक मानी जाती है। इसके प्रत्येक स्तर पर अनेक सावधानियाँ रखी जाती है। ये सावधानियाँ प्रादर्श (sample) चुनने व माध्यम चुनने, बनाने, संरोपित (inoculation) करने, प्रयोगशाला को असंक्रमणित बनाये रखने एवं उपयोग में लिये गये उपकरणों को निजर्मित बनाने में रखी जाती है।
मिश्रित संवर्धन से पृथक्करण हेतु मुख्यतः तीन तकनीकें काम में लायी जाती हैं।
- रेखा प्लेट विधि ( Streak-plate method) : पोषक ऐगार की दो नलियों को उबलते हुए जल अथवा अर्नोल्ड निर्जर्मक में पिघलाते हैं। ऐगार को लगभग 50°C तक ठण्डा करते हैं। एक नली से रूई रोधक को बाहर निकालकर इसकी ग्रीवा को स्प्रिंट लेम्प की ज्वाला पर गर्म करते हैं। एक निर्जम पेट्रीडिश के ढक्कन को इतना ऊपर उठाते हैं कि नली का मुख भीतर डाला जा सके, पिघले हुए ऐगार को प्लेट में उडेल कर समतल रूप से फैला देते हैं। दोनों प्लेटों का ऐगार जम, जाने तक इन्तजार करते हैं।
संरोपण करने वाले तार या लूप को स्प्रिट लैम्प की ज्वाला में गर्म करके 5 सैकिण्ड के लिये वाली ठण्डा करते हैं। रूई रोधक को दाँहिने हाथ की कनिष्ठिका से पकड़ कर मिश्रित संवर्धन नलिका से हटाकर इसकी ग्रीवा को लैम्प की ज्वाला के निकट रखते हैं एवं सरोपण करने वाल तार से संवर्ध बाहर निकालते हैं। रूई के रोधक को पुनः नलिका के मुख्य पर लगा कर बन्द करते हैं।
संरोप करने वाले जार जो कि संवर्ध युक्त है ऐगार की ठण्डी की गई पेट्री प्लेट के निकट लाते हैं। पेट्री प्लेट के ढक्कन को थोड़ा ऊपर उठा कर लूप को भीतर प्रविष्ट करा कर ऐगार सह पर दूर-दूर रेखाएँ (streaks) बना दी जाती है। ये रेखाएँ विभिन्न प्रकार से बनायी जा सकती है: चित्र 5.7 द्वारा दर्शायी गयी है। पोषण ऐगार को पिघलाने, पेट्री प्लेट में डालने एवं सरोपण लेने को चित्र 5.6 द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
(ii) फैलाव प्लेट विधि (Spread plate method) : पेट्री प्लेट में पूर्व में वर्णित काँच की शालाखा द्वारा फैला कर जीवाणुओं का संवर्धन कराया जाता है।
(iii).सवन प्लेट विधि (Pour plate method) : इस विधि में जीवाणुओं का ठोस माध्यम पर संचारण करने से पूर्व ही किसी तरह माध्यम में हिला कर तनु (dilute ) करते जाते हैं। इसके लिये पिपेट का उपयोग करके 1 मि.ली. प्रादर्श लेकर प्रथम बार 1:10 में तनुकरण करते हैं। इसमें एक भाग प्रादर्श व 9 भाग तरल माध्यम होता है। अब 1:10 वाले माध्यम पुनः दूसरी परखनली में 1:100 अनुपात प्राप्त होता है। तीसरी बार एक अन्य टेस्ट ट्यूब में 9 मि.ली. तरल माध्यम लेते हैं व 1:1000 अनुपात वाले माध्यम से एक मि.ली. घोल मिलाते हैं इस प्रकार 1:100 अनुपात का
मध्यम प्राप्त होता है। इस प्रकार और भी अधिक तनुकृत माध्यम बना कर पेट्री प्लेट में डाल देते हैं। इस प्रकार तैयार किये गये संवर्धन अत्यन्त दूर-दूर स्पष्ट यहाँ तक कि एक दो के समूह में प्राप्त होते हैं जिनके अध्ययन में अत्यन्त सुविधा होती है । (चित्र 5.8)
इस विधि में पोषणिक माध्यम को 48-50°C पर रखते हैं, ऐगार इस तापक्रम पर तरल अवस्था में रहता है तथा इस तापक्रम पर जीवाणु मृत नहीं होते अतः ऐगार माध्यम का उपयोग इस विधि हेतु किया जाता है। कुछ जीवाणु समतल समूह के स्थान पर ढलान युक्त सतह पर वृद्धि करते हैं। इसके लिये परखनलियों में माध्यम गर्म करके इन्हें रूई का रोधक लगाकर तिरछा स्टैण्ड में खड़ा करते हैं एवं ठण्डा होने पर संसेपण कर संवर्ध प्राप्त करते हैं।
जीवाणुओं की वृद्धि हेतु माध्यम तथा वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारक (Media for growth of bacteria and factors influencing growth)
जीवाणु हानिकार तथा लाभदायकं दोनों प्रकार होते हैं। इनकी संरचना, गुणों आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं तथा एक से अधिक प्रकार के एक साथ पाये जाते हैं अतः प्रत्येक जाति की पहचान करके इन्हें समूह से अलग करना एवं इसके गुणों का अध्ययन करना आवश्यक होता है।
जीवाणुओं को उस स्थान ( संक्रमणित ऊत्तक, पोषणीय पदार्थ, वायु, जल, मृदा) से पृथक् कर प्रयोगशाला में संवर्ध माध्यम (culture media) पर वृद्धि करने एवं जनन करने की क्रिया को संवर्धन (culture) करना कहते हैं। संवर्ध माध्यम पोषणीय तत्वों को मिलाकर तैयार कया जाता है। ‘संवर्धन की आवश्यकता रोगजनित जीवाणुओं के अध्ययन करने में तथा अनेक उद्योगों में पड़ती है। प्राकृतिक प्रकार के एवं कृत्रिम प्रकार के संवर्धन माध्यम इस क्रिया में उपयोग में लाये जाते हैं।
अनेकों प्रकार के संवर्धन माध्यम वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किये गये हैं कोई भी एक प्रकार का संवर्धन माध्यम सभी जन्तुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता अत: आदर्श संवर्धन नहीं कहलाता है। विभिन्न परिस्थितियों में रहने वाले जीवाणुओं के लिये अनेकों प्रकार के विकसित किये गये हैं।
प्रत्येक जीवाणु को आवश्यक रूप से निम्नलिखित आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले की आवश्यकता होती है-
(1) ऊर्जा स्रोत (Energy source)। (2) कार्बन स्रोत (Carbon source)।
(3) नाइट्रोजन स्रोत (Nitrogen source)।
(4) सल्फेट, क्लोराइड, कार्बोनेट आदि जो सोडियम, पोटेशियम, मेग्नीशियम, लौह, कैल्शियम के लवण के रूप में पाये जाते हैं तथा सूक्ष्म मात्रिक तत्वों के रूप में कॉपर, मेंग्नीज एवं मॉलीबिड आदि।
(5) आदर्श pH [जो 7.2 से 7.6 तक होता है।
(6) आवश्यक ऑक्सीकरण अवकरण विभव (Eh)
(7) वृद्धि कारक पदार्थ जैसे ट्रिप्टोफेन, ग्लूटाथायोन, X तथा V कारक आदि । आदर्श संवर्ध माध्यम में निम्न लक्षण होने आवश्यक हैं।
जीवाणुओं की वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारकों में विटामिन्स, कार्बन डाई ऑक्साइ हाइड्रोजन आयन सान्द्रता अर्थात् pH एवं ताप, नमी, वायु आदि भौतिक कारक प्रमुख हैं जिनका पूर्व में वर्णन किया गया है। कुछ जीवाणु CO, की बढ़ी हुई सान्द्रता की उपस्थिति में अच्छी वृद्धि करते हैं जैसे स्वपोषी जीवाणु अतः इसके संवर्धन माध्यम में CaCO3 या NaHCO3 मिलाकर ऐसी अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न की जाती हैं-
(1) जो एक कोशिका का सूक्ष्म सरोप (inoculum) या निवेश द्रव्य से संतोषजनक वृद्धि दे सके।
(2) वृद्धि की गति तीव्र होनी चाहिये ।
(3) बनाने में सुविधाजनक होना चाहिये ।
(4) लागत कम हो तथा माध्यम संश्लेषण के उपयोग में लाये जाने वाले पदार्थ सामान्यतः सुविधा से उपलब्ध होते हैं।
(5) जो सुविधानुसार शीघ्र बनाया जा सकता हो ।
लुईस पास्तेर ने सर्वप्रथम जटिल प्रकार के संवर्धन माध्यमों का उपयोग किया जिनमें मूत्र, चिकन सूप, माँस सूप आदि मुख्य थे। ये सभी तरल प्रकार के माध्यम थे जिनके द्वारा वृद्धि एव शुद्ध प्रकार के संवर्धन प्राप्त करने में अनेकों कठिनाइयाँ होती थी। राबर्ट कॉक ने ठोस प्रकार के संवर्धन माध्यमों को विकसित किया इनमें आलू व जिलेटिन मुख्य थे। फ्रॉहेसे के सुझाव के अनुसार एगार-एगार युक्त संवर्धन माध्यम का विकास कॉक (Koch) के द्वारा किया गया। एगार समुद्री शैवालों से प्राप्त किया जाता है जिसमें पॉलीसेकेराइड, अकार्बनिक लवण, प्रोटीन आदि होते हैं। यह उच्च ताप (98°C) पर पिघलता है एवं 42°C पर ठोस अवस्था में बदल जाता है तथा अम्लीय या है। क्षारीय माध्यम में जल अपघटित हो जाता है। सभी माध्यमों में पेप्टोन का होना भी आवश्यक विभिन्न किस्मों के माध्यम ठोस तथा द्रव अवस्था में उपलब्ध हैं वैसे माँस सूप, रक्त, सार (extract) भी माध्यमों के उपयोग में लाये जाते हैं।
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