humoral and cell-mediated immunity notes pdf in hindi , तरल प्रकार की एवं कोशिका माध्यित प्रतिरक्षा क्या है
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तरल प्रकार की एवं कोशिका माध्यित प्रतिरक्षा की क्रियाविधि (Mechanism of Humoral and Cell Mediated Immunity)
कोई विशिष्ट प्रतिजन जब पोषक की देह के बाहर या भीतर उद्दीपन उत्पन्न करता है तथा पोषक इसके प्रति प्रतिक्रिया दर्शाता है, तो यह क्रिया प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immunity response) कहलाती है। यह प्रतिक्रिया दो प्रकार से व्यक्त की जाती है।
(i) तरल प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Humoral immune response) इसे प्रतिरक्षी मध्यवर्ती प्रतिक्रिया भी कहते हैं।
(ii) कोशिकीय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Cellular immune response) इसे कोशिका मध्यवर्ती भी कहते हैं।
एक प्रतिजेनिक उद्दीपन के ग्रहण किये जाने पर यह प्रतिक्रिया एक प्रकार की अथवा दोनों प्रकार की एक साथ भी प्रदर्शित की जाती है। इनमें एक प्रभावी एवं दूसरी कम प्रभावी, एक दूसरे के विपरीत एकल प्रकार की हो सकती है, किन्तु अधिकतर एक दूसरे के सहयोग के साथ-साथ सक्रिय रूप से व्यक्त की जाती है।
तरल प्रकार की प्रतिरक्षा मध्यवर्ती प्रतिक्रिया (antibody mediated immunity) (AMI) – प्राथमिक तौर पर अधिकतर बाह्य कोशिकीय जीवाणुओं, रोगाणुओं, विषाणुओं आदि से सुरक्षा प्रदान करती है जो श्वसन नलिका या आन्त्र से प्रवेश कर संक्रमण उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। कोशिका मध्यवर्ती प्रतिरक्षा (CMI) कवक, विषाणु, अन्तः कोशिकीय जीवाणु जो रोग उत्पन्न करते हैं, केन्सर, आदि से पोषक को सुरक्षा प्रदान करती है।”
तरल प्रकार की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Humoral immunity response)
प्रतिरक्षी के उत्पन्न किये जाने की क्रिया को तीन पदों में विभक्त किया जाता है।
(i) प्रतिजन का पोषक की देह में प्रवेश, वितरण, उत्तकों में भविष्य एवं उचित प्रतिरक्षी सक्षम कोशिका के साथ संयोजित होना ।
(ii) कोशिक द्वारा प्रतिजन का संसाधन (processing) एवं प्रतिरक्षी निर्माण क्रिया पर नियंत्रण ।
(iii) प्रतिरक्षी का स्त्रवण, ऊत्तक एवं दैहिक तरल में वितरण तथा इसके प्रभाव।
प्रतिजन उद्दीपन के तुरन्त बाद एक लेग प्रावस्था (lag phase) आती है। इनमें रक्त परिसंचरण तंत्र में कोई प्रतिरक्षी दिखाई नहीं देती। दूसरी प्रावस्था लॉग प्रावस्था (log phase) कहलाती है जिसमें प्रतिरक्षी विस्तृत रूप से बनती हैं वितरित होती हैं एवं प्रतिजन के विरुद्ध क्रिया करती हैं। तश्तीय प्रावस्था संतुलन अवस्था (steady state) की होती है इसमें प्रतिरक्षी संश्लेषण व अपचय के मध्य संतुलन होता है। चतुर्थ प्रावस्था पतन की प्रावस्था (phase of decline) होती है इसमें अपचय की क्रिया में वृद्धि होती है तथा प्रतिरक्षी का उत्पादन घटने लगता है।
एन्टीजेनिक उद्दीपन से उत्पन्न प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया दो प्रकार की होती है, प्राथमिक प्रतिक्रिया (primary response) जो उद्दीपन प्राप्त होते ही प्रदर्शित होती है धीमी, शिथिल एवं अल्पकालिक होती है। इसमें लेग प्रावस्था लम्बी होती है। प्रतिरक्षी का उत्पादन कम मात्रा में किया जाता है तथा से अल्प काल हेतु क्रियाशील होती है। द्वितीयक प्रतिक्रिया (secondary response) तीव्र शक्तिशाली व लम्बी अवधि की होती है। इसमें लेग प्रावस्था छोटी अथवा अनुपस्थित होती है। प्रतिरक्षी अधिक संख्या में बनती है एवं लम्बे समय तक क्रियाशील बनी रहती है। प्राथमिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बनी प्रतिरक्षी में मुख्यतः IgM तथा द्वितीयक प्रतिक्रिया में IgG होती है। लेग प्रावस्था की अवधि एवं प्रतिरक्षी की उपस्थिति प्रतिजन की प्रकृति पर निर्भर करती है। डिफ्थीरिया आविष के प्रवेश कराने पर लेग प्रावस्था 2-3 सप्ताह की होती है, जबकि न्यूमोकॉकस में यह कुछ घण्टों की ही होती है। यह कारण है कि रोगों से बचाव हेतु प्रतिजन की एक से अधिक खुराक दी जाती है। जैसे पोलियों से बचाव हेतु पहली हल्की खुराक जिसे प्राथमिक -मात्रा (primising dose) कहते हैं। फिर द्वितीय व तृतीय मात्रा जिसे बूस्टर मात्रा (booster dose) या जीवित टीके (living vaccines) की दी जाती है। ऐसे प्राणी जिसकी देह में विशिष्ट प्रतिरक्षीज रक्त में पहले से विचरण कर रही हो, में प्रतिजन को प्रवेश कराया जाये तो अस्थायी रूप से विचरणशील प्रतिरक्षी की मात्रा में कमी हो जाती है। ऐसा प्रतिजन प्रतिरक्षी के संयोजन के कारण होता है इसे ऋणात्मक प्रावस्था (negative phase) कहते हैं। इसके तुरन्त बाद वापस प्रतिरक्षी की संख्या में वृद्धि हो जाती है।
प्रतिजन का भविष्य (Fate of antigen )
प्रतिजन का प्राणी की देह में क्या भविष्य होता है, यह प्रतिजन की भौतिक व रासायनिक प्रकृति, मात्रा, प्रवेश करने का माध्यम तथा प्रतिजेनिक उद्दीपन की प्रकृति अर्थात् प्राथमिक है अथवा द्वितीयक है, पर निर्भर करता है। देह में प्रतिजन को यदि सीधे रक्त में प्रवेश कराते हैं तो प्लीहा, यकृत, अस्थि मज्जा, वृक्क व फेफड़ों में जाकर रुक जाता है। यह रेटिकुलोएन्डोथिलियल कोशिकाओं द्वारा विघटित होता है एवं मूत्र द्वारा देह से बाहर निष्कासित कर दिया जाता है। इस प्रकार 70-80% मात्रा प्रतिजन की एक दो दिन में देह से बाहर निकाल दी जाती है। ऐसे प्रतिजन जो उपत्वकीय विधि से प्रवेश करते हैं लसिका ग्रन्थियों में प्लीहा में ले गये जाते हैं। कणीय प्रतिजन भक्षाणु कोशिकाओं (phagocytes) द्वारा निगल लिये जाते हैं। विशिष्ट प्रतिरक्षीज के बाद वास्तविक प्रतिरक्षा की क्रिया का कार्य आरम्भ होता है। इसके दौरान प्रतिजन प्रतिरक्षी जटिल बनाते हैं एवं तीव्र गति से भक्षाणुनाशन की क्रिया जारी रहती है अतः शीघ्र ही प्रतिजन विचरणशील माध्यम से अदृश्य हो जाता है एवं विलयशील प्रतिजन तीन प्रावस्थाओं संतुलन, उपापचय एवं प्रतिजन निष्कासन से गुजरता है । सन्तुलन प्रावस्था में यह अन्तरांगों में विसरित होता है। उपापचय प्रावस्था में अपचय के ..कारण इसकी मात्रा में कमी होती है। अन्तिम प्रावस्था में प्रतिजन प्रतिरक्षी जटिल बनाकर इसका निष्कासन किया जाता है। इन जटिलों में कभी-कभी ऊत्तकों में “प्रतिरक्षी जटिल रोग” उत्पन्न जाते हैं प्रतिजन के देह से निष्कासन की गति इसके अपचय द्वारा प्रभावित होती है। प्रोटीन प्रकृति के प्रतिजन कुछ दिनों या सप्ताह में सामान्यतः निष्कासित कर दिये जाते हैं जबकि पॉलीसेकेराइड प्रकृति के प्रतिजन की उपापचय की क्रिया धीमी गति से होती है। इसमें महीने या वर्षों लग जाते हैं। न्यूमोकोकस पॉलीसेकेराइड मनुष्य में 20 वर्ष तक बना रह सकता है।
प्रतिजन का भक्षणशील लिम्फोसाइट्स द्वारा क्रिया किया जाना दो प्रकार से सम्पन्न होती है। प्रथम तौर पर मेक्रोफेज व डेन्ड्रिटिक कोशिकाएँ लसिका पर्वों में इनका सामना करती है। दूसरे दौर में प्रतिजन का मेक्रोफेज संसाधन (processing) करते हैं जो प्रतिरक्षी निर्माण है। यह क्रिया प्राथमिक प्रतिक्रिया (primary response) हेतु आवश्यक होती है। द्वितीयक प्रतिक्रिया आवश्यक होता के लिये इसका किया जाना जरूरी नहीं होता। डेन्ड्रिटिक कोशिकाएँ पूर्व में उपस्थित प्रतिरक्षीज की उपस्थिति ही प्रतिजन से बन्धन बनाती है। मेक्रोफेज एवं डेन्ड्रटिक कोशिकाएँ प्रतिजन से बन्धन बनाकर उसे कोशिका की सतह पर ले आती हैं, जहाँ लिम्फोसाइट्स अधिक मात्रा में गुजरते हुए इनका पहचान कर प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को आरम्भ कराते हैं।
प्रतिरक्षीज का उत्पादन (Production of antibodies)
प्रतिजन की पहचान लिम्फोसाइट्स के द्वारा कर लिये जाने के उपरान्त सक्षम B – लिम्फोसाइट्स जो सतही ग्राही युक्त होते हैं, ये IgM व IgG प्रकृति के होते हैं। प्रतिरक्षी संश्लेषण की क्रिया आरम्भ करते हैं। सतही ग्राही प्रत्येक एन्टीजेनिक निर्धारक (antigenic determinant) के लिये विशिष्ट होते हैं। एक अभिक्रियाशील कोशिका ( reactive cell) के ग्राही (receptors) एक निर्धारक समूह (determinant group) की ओर दिष्ट कर दिये जाते हैं। अब यह अभिक्रियाशील कोशिका उचित एन्टीजेनिक निर्धारक द्वारा उद्दीप्त होती है यह क्लोनी प्रचुरोद्भवन (clonal proliferation) व स्फोटन रूपान्तरण (blast transformation) हेतु तैयार होती है। यह प्लाज्मा कोशिकाओं (plasma cells) में रूपान्तरित हो जाती है। ये प्रतिरक्षीज संश्लेषण व स्त्रावण करती हैं। एक क्लोन (single clone) द्वारा स्त्रावित सभी प्रतिरक्षी अणु विशिष्टता में एक समान होती है, अर्थात् इनकी भारी व हल्की श्रृंखलाओं में समानता पायी जाती है। इसमें एक अपवाद है। कुछ कोशिकाएँ आरम्भ में IgM स्त्रावित करती हैं किन्तु बाद में IgG IgA या lgE का स्त्रावण आरम्भ कर देती हैं। अधिकतर प्रतिरक्षी स्त्रावण का कार्य B लिम्फोसाइट करती है किन्तु कुछ प्रतिजन हेतु T लिम्फोसाइट्स की सहायता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार के प्रतिजन लाल रक्त कणिकाओं, सीरम प्रोटीन्स, एवं प्रोटीन हेप्टेन संयुग्मी पदार्थ होते हैं। ऐसे प्रतिजन पहले T- कोशिकाओं से अन्योन्य क्रिया करते हैं ताकि वे कोशिका सतह पर आ जायें जहाँ B- कोशिकाएँ मिल जाती हैं जो प्रतिरक्षी निर्माण का कार्य करती है। T- सहायक कोशिकाएँ (T-helper cells) इस कार्य में सहायता करती हैं जबकि T-अवरोधक कोशिकाएँ (T-supressor cells) इसमें अवरोध उत्पन्न करती हैं।
प्रतिजेनिक उद्दीपन प्राप्त करने के बाद सभी B- कोशिकाएँ प्लाज्मा कोशिकाओं में रूपान्तरित नहीं होती। इनका कुछ अनुपात स्मृति कोशिकाओं (memory cells) के रूप में बना रहता है। इनका जीवन काल लम्बा होता है। ये उसी प्रतिजन की पहचान करने का कार्य करती जब वही प्रतिजन दोबारा पोषक से सम्पर्क में आता है। इन स्मृति कोशिकाओं के कारण ही द्वितीयक प्रतिक्रिया (second response) के फलस्वरूप प्रतिरक्षी अधिक मात्रा में बनती हैं।
एक क्लोनी प्रतिरक्षियाँ (Monoclonal antibodies)
प्रतिरक्षियाँ सामान्यतः किसी प्राणी की देह में प्रतिजन के प्रवेश करने के उपरान्त उद्दीपन स्वरूप प्रतिरक्षा हेतु प्राप्त अनुक्रिया के अन्तर्गत उत्पन्न होती हैं। प्रतिरक्षियाँ प्लाज्मा कोशिकाओं द्वारा बनायी जाती है एवं रक्त सीरम में पायी जाती है। देह में किसी प्रतिजन के प्रवेश करने पर एक से अधिक प्रकार की प्रतिरक्षी बनायी जाती हैं, जो प्रतिजन अणु के प्रत्येक निर्धारक बिन्दु (determinant point) से जुड़ने में विशिष्टता रखती है। अतः रक्त सीरम में प्रतिजन के प्रवेश करने पर एक से अधिक प्रकार की प्रतिरक्षियों का मिश्रण या समूह पाया जाता है। इन्हें बहुक्लोनी प्रतिरक्षियाँ (polyclonal antibodies) कहते हैं। बहुक्लोनी प्रतिरक्षियाँ प्रायः अपने बन्धन स्थलों में विभिन्न संरचनाओं के साथ विभिन्न प्रतिरक्षीग्लोबुलिन (immunoglobulins) वर्गों या उपवर्गों के अणुओं का मिश्रण होती है।
एकक्लोनी प्रतिरक्षियाँ उन प्लाज्मा कोशिकाओं से उत्पन्न होती है जो कि एकाकी एक पूर्वज (single clone) के कोशिका विभाजन से प्राप्त हुई है। ये एक एकाकी प्रतिजनिक निर्धारक (a single antigenic determinant) से प्रतिरक्षीग्लोबुलिन को संयुक्त कराने में अतिविशिष्टता युक्त होती है। एकक्लोनी प्रतिरक्षियों में एक ही समान प्रकार के अमीनों अम्लों का क्रम ( sequence) या श्रृंखला उपस्थित होती है। ये एक ही प्रतिरक्षीग्लोबुलिन वर्ग की होती है। किसी प्राणी की देह में उनके उत्पन्न होने हेतु किसी प्रतिजन का प्रवेश कर प्रतिरक्षी तंत्र को उद्दीप्त करना आवश्यक होता है, इस प्रकार एक क्लोनी प्रतिरक्षियाँ वे विशिष्ट प्रतिरक्षियाँ होती है जो एक विशिष्ट एन्टीजेनिक निर्धारक या एपीटोप (epitope) के विरूद्ध इन लिम्फोसाइट्स या प्लाज्मा कोशिकाओं के समूह द्वारा बनायी जाती है जो एक क्लोन से व्युत्पन्न होती है। ये कोशिकाएँ समान आनुवंशिक संगठन रखती है अतः केवल एक ही वर्ग के विशिष्ट प्रतिरक्षीग्लोबुलिन का निर्माण करने का गुण रखती है।
वैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययनों के दौरान पाया कि प्रतिरक्षियों का निर्माण करने वाली B कोशिकाएँ कैन्सर प्रवत्ति ( cancerous) की हो जाती है। कैन्सर प्रवत्ति में इनके रूपान्तरण से आशय यह है कि ये अनियंत्रित रूप से असिमित समय तक विभाजन करने लगती है। देह में अबुर्द (tumours) या गाँठ बनाने लगती है। कोशिकाओं के ऐसे पिण्ड को मायलोमा (myeloma) कहते हैं। चूंकि माललोमा एक एकल कोशिका के विभाजन से प्राप्त कोशिकाओं का समूह होता है, इनमें एक समान जीन पाये जाते हैं उन्हें क्लोन (clone) कहते हैं। ये एक ही समान प्रकार की प्रतिरक्षियाँ लम्बे समय तक बनाने की क्षमतायुक्त होती है। प्रतिरक्षियाँ या मोनोक्लोनल प्रतिरक्षीज रोगों के निदान एवं शोध कार्यों में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है । कोहलर व मिलस्टेन (Kohlr and Milstein) ने 1975 में इच्छित प्रकृति की एक क्लोनी प्रतिरक्षियों को उत्पन्न करने की तकनीक की खोज की इन्हें इसके लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसे हाइब्रिडोमा तकनीक (hybridoma technique) कहते हैं। विस्तृत अध्ययन हेतु जैव प्रौद्योगिकी का अध्याय 12 देखें ।
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