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रोग रोधक क्षमता क्या है , कार्यिकीय अवरोधक (Physiological barriers in hindi) , भक्षण अवरोधक (Phagocytic Barriers)

जाने रोग रोधक क्षमता क्या है , कार्यिकीय अवरोधक (Physiological barriers in hindi) , भक्षण अवरोधक (Phagocytic Barriers) ?

रोधक क्षमता (Immunity)

पोषक की रोधक क्षमता, प्रतिरोधकता ( resistance) या असंक्राम्यता से हमारा आशय सूक्ष्मजीवों या परजीवियों से अथवा इनके द्वारा स्त्रावित पदार्थों से होने वाली हानि के प्रति प्रतिरोध करने या अवरोध उत्पन्न करने से है। इसके अन्तर्गत पोषक के द्वारा की जाने वाली सभी कार्यिकीय विधियाँ (physiological mechanisms) किये जाने हेतु की जाती है जिससे पोषक की देह को अथवा ऊत्तकों को हानि नहीं पहुँचा सके।

प्रतिरक्षी अनुक्रियाएं देह में मुख्यतः निम्नलिखित क्रियाएं सम्पन्न करती हैं-

(i) सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा प्रदान करना ।

(ii) समस्थापन (homeostasis) क्रिया करना अर्थात मृत अथवा वृद्ध या जरित या क्षतिग्रस्त कोशिकाओं से देह को मुक्त रखना ।

(iii) उत्परिवर्ती कोशिकाओं की पहचान कर इन्हें नष्ट करना ।

उपरोक्त अनुक्रियाएं दो वर्गों में विभक्त की जाती है-

(a) अविशिष्ट रोधकक्षमता (non specific immunity)

(b) विशिष्ट रोधक क्षमता (specific Immunity)

(a) अविशिष्ट रोधकक्षमता (Non specific Immunity) : इसे सामान्य रोधकक्षमता कहते हैं। यह रोधकता किसी सूक्ष्मजीव इसके उपापचयी उत्पाद या अन्य बाह्य (foreign) कण के देह में प्रवेश करने पर उत्पन्न होती है। यह देह में कुछ अवरोधकों (barriers) के कारण उत्पन्न होती है। ये अवरोधक बाह्य कारक को देह को भीतर तक भेदने का अवरोध करते हैं। इसके द्वारा होने वाले विपरीत प्रभाव को रोकते हैं। अवरोधक अनेक प्रकार के हो सकते हैं जैसे-

भौतिक अवरोधक (Physical barriers) – देह के उस भाग या बिन्दु जहाँ से बाह्य जीव ने प्रवेश किया है जैसे कटी त्वचा, रोम, खुले स्थान घाव हो सकते हैं। सूजन (inflammation) का उत्पन्न होना, ज्वर (fever) होना। इसी प्रकार रासायनिक व जैविक अवरोधक भी होते हैं।

इस प्रकार की रोधकक्षमता को सामान्य या अविशिष्ट इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह सभी प्रकार के सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध एक ही प्रकार की की जाती है, किसी विशेष सूक्ष्मजीव के लिये ही नहीं।

(b) विशिष्ट रोधक क्षमता (Specific immunity ) : यह रोधकता किसी विशिष्ट जाति के सूक्ष्मजीव के देह के प्रवेश करने पर प्रतिक्रिया स्वरूप उच्च कशेरूकियों में देखी जाती है। कशेरूकी इस बाह्य जीव पर अनेक विधियों से प्रहार ( attack) करता है जैसे प्रतिरक्षियाँ (antibodies) बना कर जो कि बाह्य जीव को पहचान कर की जाती है।

रोधकक्षमता या प्रतिरक्षा वास्तव में किसी जीव को अन्य जीवों से सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता होती है। इसके पोषक में उत्पन्न होने के आधार पर दो प्रकार से विभक्त करते हैं-

  1. स्वभावज प्रतिरक्षा ( Innate immunity)
  2. उपार्जित अथवा अनुकूली प्रतिरक्षा (Acquired or Adaptive immunity)
  3. स्वभावज प्रतिरक्षा ( Innate immunity)

इस जीव की प्राकृतिक प्रतिरक्षा भी कहते हैं। यह जन्म-जात जीव में उपस्थित रहती है। यह बाह्य पदार्थों के पूर्व अनुभवों से प्रभावित नहीं होती। यह भक्षाणुनाशी (phagocytes) के द्वारा की जाती है एवं देह की सामान्य प्रतिरोधी क्रियाओं पर तथा दैहिक उपापचयी परिवर्तनों पर निर्भर करती है। यह सुरक्षात्मक तन्त्रों का प्राकृतिक जीनोटाइप पर आधारित तन्त्र होता है। जिसमें किन्हीं तत्वों का जन्म होता है जो जीव में जन्मजात उपस्थित रहते हैं और विभिनन संक्रमणों, असुखद स्थितियों से सुरक्षा प्रदान करते हैं जो वातावरणीय कारकों से जन्म लेते हैं। अत: इसे जन्मजात ( inborn). आनुवंशिक (genetic). कुलीय (familial) और प्राकृतिक (natural) प्रतिरक्षा भी कहते हैं। इसमें किसी प्रतिजन की पहचान नहीं होती, कोई विशिष्ट प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया भी नहीं होती अतः यह अविशिष्ट प्रतिरक्षा (non specific immunity) भी कहलाती है ।

इसमें दो प्रकार की युक्तियाँ अपनायी जाती हैं-

(i) बाह्य कारकों को देह में प्रवेश से रोकना ।

(ii) उन कारकों को शीघ्र अतिशीघ्र नष्ट करना जो देह में प्रवेश करने में सक्षम हो गये हैं ।

जन्मजात प्रतिरक्षा की जीवों में प्रथम सुरक्षा की क्रिया है जो पादपों जन्तुओं आदि में पायी जाती है। इसमें संरचनात्मक अवरोधक कार्यिकीय अवरोधक, भक्षणुनाशी अवरोधक शोध अवरोधक, प्राकृतिक मारक एवं पूरक तन्त्र सम्मिलित किये जाते हैं।

  1. संरचनात्मक अवरोधक (Anatomical barriers ) : ये वे अवरोधक होते हैं जो रोगाणु कारकों एवं अन्य बाह्य कारकों को देह में प्रवेश करने से रोकते हैं। इनमें त्वचा, रोम, श्लेष्म क पक्ष्माभ एवं मित्रवत् सूक्ष्मजीव आते हैं।

(i) त्वचा (Skin) : यह मृत शृंगीय किरेटिन युक्त कोशिकाओं का स्तर होती है जो बाह्य कारकों के प्रवेश को रोकती हैं।

(ii) घ्राण रोम (Nasal hairs) : ये बड़े बाह्य अणुओं को एवं सूक्ष्मजीवों को नासा मार्ग से प्रवेश को रोकते हैं।

(iii) श्लेष्म कलाएं (Mucous membranes ) : ये कलाएं देह की आन्तरिक नलिकाओं (पाचन, श्वसन एवं मूत्रजनन तन्त्र) को रेखित करती है। ये बाहर से सतत् रहती है और देह में बाह्य पदार्थों को देह के ऊत्तक में प्रवेश को रोकती है।

(iv) श्लेष्म (Mucous) : यह देह की आन्तरिक नालों पर बाह्य सूक्ष्म जीवों को फँसा लेता है। (v) पक्ष्माभ (Cilia) : ये नासा नाल के घ्राणीय क्षेत्र में पाये जाते हैं जो श्लेष्म में फँसे हुए कणों व सूक्ष्म जीवों को बाहर की ओर धकेल कर निकाल देते हैं।

  1. कार्यिकीय अवरोधक (Physiological barriers ) : ये जैव रासायनिक एवं कार्यकीय स्तर पर देह में प्रवेश कर गये रोग कारकों की वृद्धि एवं आगे प्रवेश को बाधित करते हैं। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।

(i) मित्रवत् सूक्ष्मजीव (Friendly microorganisms ) : ये त्वचा की सतह पर, नासा कोषों की कला, आन्त्र एवं योनि की सतह पर पाये जाते हैं जो हानिकारक स्त्रवण स्त्रवितकर रोगाणुओं को नष्ट करते हैं।

(ii) दैहिक तापक्रम (Body temprature) : रोगाणुओं के देह में प्रवेश कर जाने पर देह का तापक्रम प्रतिक्रिया स्वरूप बढ़ जाता है जो श्वेत रक्ताणुओं से आविष के रूप में निकलता है। के हो जाने से अनेक रोगाणुओं की वृद्धि रूक जाती है।

(iii) pH : जठरीय रस की अम्लीयता अनेक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देती है जो आहार नाल से होकर प्रवेश कर गये हैं।

(iv) तेल व पसीना (Oil and sweat ) : ये स्वेद ग्रन्थियों एवं तेलीय (sudoriferous ) ग्रन्थियों से स्त्रवित किये जाते हैं। ये जीवाणु नाशी एवं कवक नाशी गुण रखते हैं।

(v) सेरूमैन (Cerumen) : सेरूमैन कर्णग्रन्थियों से स्त्रवित होने वाला कर्णमोम जीवाणुओं, कीटों व धूल के कणों को जकड़कर बाहर निकालता है। यह बाह्य कर्ण कुहर में उपस्थित होता है।

(vi) लाइसोजाइम (Lysozyme) : यह पसीने, लार, श्लेष्म व आसुओं (fears) में पाये जाने वाला जीवाणुनाशी एन्जाइम होता है जो जीवाणुओं की वृद्धि को जीवाणुओं की देह भित्ति को नष्ट कर रोक देता है।

(vii) पित्त (Brile) : यकृत सं स्त्रवित पित्त सूक्ष्मजीवों की वृद्धि को घटाता है।

(vii) इन्टरफेरान्स (Interferons) : ये ग्लाइको प्रोटीन होते हैं जो विषाण्विक आक्रमण पर देह की सजीव कोशिकाओं से स्त्रवित होते हैं। जो विषाणुओं के संक्रमण को रोकते हैं। यह क्रिया विषाणुओं की वृद्धि को इनके डी. एन. ए. को नष्ट कर रोकते हैं।

  1. भक्षण अवरोधक (Phagocytic Barriers) : भक्षाणु कोशिकाएं न्यूट्रोफिल्स एवं मोनोसाइट्स होती है जो देह में प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीवों व बाह्य पदार्थों को भक्षण कर पाचन करती है। इनक अतिरिक्त मेक्रोफेजेज भी यह कार्य करती हैं। ये कोशिकाएं रक्त कोशिकाओं से बाहर निकल कर गमन करती है और संक्रमण स्थल पर पहुँच कर इन सूक्ष्मजीवों का भक्षण कर इन्हें नष्ट करती है। न्यूट्रोफिल्स बहुत अधिक संख्या में उपस्थित श्वेत रक्त कणिकाएँ होती हैं। मेकोफ्रेजेज रेटिकुलो एल्डोथीलियल तन्त्र का भाग होती है। ये अनियमित आकृति के श्वेत रक्ताणु होते हैं। ये गमनशील या स्थानाबद्ध रूप से अपना कार्य करती हैं। यकृत पात्रकों की ये कोशिकाएं कुफ्फर कोशिकाएं कहलाती है। जीवाणुओं व बाह्य कणों के देह में कही से भी प्रवेश करने पर ये उन्हें निगल कर मार देती है तथा देह से बाहर निकाल देती है।
  2. शोधीय अवरोधक (Inflammatory barriers) : ऊत्तक के नष्ट होने या सूक्ष्मजीव के देह में प्रवेश करने पर उस स्थान पर लाल रंग का उभार दर्द व ऊष्मा उत्पन्न होती है। संयोजी ऊत्तक की मास्ट कोशिकाओं व श्वेत की बेसोफिल्स कोशिकाएं, रासायनिक चेतावनी भरे संकेत देती हैं। ये हिस्टामीन व प्रोस्टाग्लैन्डिस के रूप में होते हैं, जो शोथ उत्पन्न करते हैं। इनके फैलने से रक्त कोशिकाएं अधिक पारगम्य बन जाती हैं। प्लाज्मा व भक्षाणुकोशिकाएं केशिकाओं से बाहर निकल कर कार्य करती है। प्लाज्मा में सीरम प्रोटीन होते हैं जो जीवाणुनाशी गुण रखते हैं। इनके एकत्र होने से शोध उत्पन्न होता है। एक ये सीरम प्रोटीन व ऊत्तक तरल जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न आविषों को तनु बनाते हैं । भक्षाणु कोशिकाएं देह में प्रवेश किये गये सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देती है।
  3. प्राकृतिक घातक कोशिकाएं (Natural killer cells) : ये B या T चिन्ह वाली लिम्फोसाइट्स कोशिकाएं होती हैं जो अस्थि मज्जा में उत्पन्न होती है। ये बिना किसी प्राथमिक प्रतिक्रिया के कोशिकीय जहरीली क्रियाओं को करने हेतु विशिष्टीकृत होती हैं। ये विषाणु संक्रमित कोशिकाओं के विरुद्ध इन्टरफेशन बढ़ाने वाली क्रिया करती है। दूसरी अबुर्द (tumour) कोशिकाएं भी इनके द्वारा नष्ट की जाती हैं। ये कोशिकाएं लक्ष्य कोशिकाओं पर आक्रमण कर परफोरिन (perforin) आस्तरित छिद्र कोशिका कला पर बनाती है। इन छिद्रों से जल प्रवेश करता है। अतः कोशिकाएं फूल जाती है एवं फट जाती हैं। ये घातक कोशिकाएं अबुर्द के लिये प्राकृतिक अवरोध का कार्य करती है।
  4. परिपूरक तन्त्र (Complemant system) : यह 3 सीरम प्रोटीन्स से बना तन्त्र होता है जिसमें झरने की तरह का प्रवाह होता है। इसके परिणामस्वरूप सूक्ष्मजीवों का अपघटन हो जाता है। यह दो प्रकार का होता है क्लासिक (classic) व क्रमवत (atternate ) । क्लासिक परिपूरक तन्त्र ग्रहित प्रतिरक्षा में कार्य करती है, जबकि क्रमवत परिपूरक तन्त्र स्वभावज प्रतिरक्षा में क्रियाशील होता है। इसे प्रोपरडीन (properdin) तन्त्र ‘कहते हैं। यह जीवाण्विक अन्तः आविषों, सूक्ष्मजीवों की बहुशर्कराओं, इनकी कोशिका कला भित्ति और अन्य प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीवों के घटकों से उत्तेजित होता है। कुछ प्रोटीन (जैसे C5) का विदलन होता है और (i) कला पर आक्रमण करने वाले जटिल (ii) जैविक रूप से सक्रिय तन्त्र जो ऑप्सोनिन (opsonin), एनाफाइलोटाक्सिन (anaphylatotoxin) और कीमोटेक्टिक (chemotactic) कारक बनाते हैं। प्रोटीन घटक सूक्ष्मजीव की कला पर आक्रमण कर इसमें धँस जाते हैं। ये झिल्ली के आर-पार आने जाने वाले छिद्रों का निर्माण करते हैं। चित्र (1.1) अतः इनसे होकर जल प्रवेश करता है व यह फूल कर नष्ट हो जाती है। इन्हें जटिल विघटन तन्त्र (lytic complex) भी कहते हैं। ये सक्रिय सूक्ष्मजीवों को एकत्रित कर विषाणुओं को उदासीन बनाने का कार्य करते हैं। ये देह में प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीवों के चारों ओर घेरा बना लेते हैं ताकि भक्षाणु कोशिकाएं वहाँ प्रवेश कर इन्हें नष्ट कर सकें।

स्वभाविक प्रतिरक्षा जाति विशिष्ट होती है अर्थात मनुष्य की एक प्रजाति में एक विशिष्ट जीवाणु रोगजनक हो सकता है किन्तु दूसरी प्रजाति में यही जीवाणु रोगजनक नहीं होता। जैसे पादपों के रोग मनुष्य जाति को प्रभावित नहीं करते। इस प्रकार की रोधकक्षमता पौषक की देह के ऊत्तकों में उपस्थित विशिष्ट पदार्थों एवं जैव रासायनिक क्रियाओं तथा क्रियात्मक भिन्नताओं के कारण पायी जाती है। माइकोबैक्टिरियम लेपरे (Mycobeterium leprae) मनुष्य व आर्मडिल्लो को ही प्रभावित करता है। बेसिलस एन्थेसिस (Bacillus anthracis) मनुष्य में ही होता है चिकन्स में नहीं। गोनोरिया मनुष्य व चिम्पैन्जी में ही होता है अन्य जातियों में नहीं। स्वभावज रोधकक्षमता जाति परक विशिष्ट ( Species specific) भी होती है अर्थात एक सूक्ष्मजीव एक जाति के जन्तुओं को तो प्रभावित करता है अन्य जाति के जन्तुओं को नहीं करता जैसे चूहों में डिपिथरिया आविष का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु मनुष्य में होता है। मनुष्य में हाँग कॉलेरा नहीं होता। हॉग्स में पोलियो रोग नहीं होता। पशुओं में होने वाला प्लेगं मनुष्य को प्रभावित नहीं करता। पशुओं में गोनोरिया रोग नहीं होता आदि । सम्भवतः ऐसा कार्यिकीय व संरचनात्मक भिन्नताओं के कारण होता है। चूजों में एंथ्रेक्स बैसिलाई के प्रति रोधक क्षमता पायी जाती है। चूजों के सामान्य तापक्रम 45°C रहता है जबकि इस तापक्रम पर एन्थ्रेक्स बैसिलाई सामान्य वृद्धि व जनन नहीं कर सकता। 37°C से ऊपर तापक्रम होने पर ही इसमें वृद्धि व जनन क्रियाएँ प्रभावित होने लगती हैं। रोधकक्षमता प्रजाति विशिष्ट (racial specific) भी होती है अर्थात् एक ही जाति की कुछ प्रजातियों में कोई रोग होता है किन्तु वही रोग उस जाति की ही अन्य प्रजातियों में नहीं होता जैसे काले अफ्रीकन प्रजाति के लोगों में दाब कोशिका अरक्तता (sickle cell anaemia) रोग होता है मलेरिया रोग नहीं होता सम्भवत: ऐसा इसलिये होता है कि परजीवी का स्पोरोजोइट (sporozoite) अनियमित आकृति की लाल रक्त कणिकाओं को भेदने में असमर्थ रहता है। अमेरिका व जापान के लोगों में मीजल्स (measles) अल्प प्रभाव उत्पन्न करती है किन्तु भारतीय प्रजाति के लोगों में यह प्रभाव व्यापक होता है। रोधकक्षमता व्यक्ति विशिष्ट (individual specific) भी होती है अर्थात् कोई पदार्थ या आविष एक व्यक्ति को प्रभावित करता है अन्य को नहीं करता। सम्भवतः यह व्यक्ति की व्यक्तिगत विशिष्टता के कारण होता है जो उसके ऊत्तकों में होने वाली जैव रासायनिक क्रियाओं में पायी जाती है।

उपापचयी (Metabolic) : रोधकक्षमता हारमोन एवं उपापचयी कारकों द्वारा भी प्रभावित होत है उदाहरणतः मधुमेह के रोगियों में एड्रीनल ग्रन्थि के प्रभावित होने के कारण अनेक रोगों के प्रति प्रतिरोधकक्षमता घट जाती है। अनेक दवाओं के प्रभाव से भी प्रतिरोधक क्षमता में कमी आती है इस समय अनेक संक्रमण रोग हो सकते हैं।

यह प्राणी में सामान्य स्वास्थ्य पोषण, लिंग व आयु द्वारा प्रभावित होती है। सभी स्तनधारियों में यह निम्न कारणों के कारण हो सकती है-

उम्र (Age) : कम उम्र के शिशुओं में अनेक रोग हो सकते हैं इनमें इ. कोलाई व मेनिनजाइटिस प्रमुख है। सम्भवत ऐसा इसलिये होता है कि Igm ऑवल को पार नहीं कर पाती। इसी प्रकार रिकेटसिया व पिषाण्विक संक्रमण अधिक उम्र में ज्यादा भयानक होते हैं।

वातावरण (Environment) : रहन-सहन की खराब स्थिति भील्माड अल्पपोषित लोगों में यह कम होती है।

इस प्रकार स्वभावज रोधकक्षमता तीव्रगति से देह को प्राथमिक रेखा (first line) के रूप में अवांछित संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने वाली रोधक क्षमता होती है।

  1. अभिग्रहित रोधकक्षमता (Acquired immunity ) : अभिग्रहित रोधकक्षमता जीवन काल के दौरान प्राप्त की गयी या ग्रहण की गयी रोधकक्षमता है। यह सूक्ष्मजीव या इनके द्वारा उत्पन्न उपापचयी पदार्थों के पूर्व अनुभव के आधार पर जीव द्वारा प्राप्त की जाती है। यह जीव के जीवन काल के दौरान रोग के प्रतिरोधकता के रूप में विकसित होती है। यह प्रतिरक्षी (antibodies) व विशिष्ट सूक्ष्मजीवों के प्रति विशिष्ट कोशिकाएं उत्पन्न कर प्रकट की जाती है। यह किसी रोग के होने पर ही उस रोग के विरुद्ध उत्पन्न होती है। इसे अनुकूल प्रतिरक्षा (adaptive immunity) या विशिष्ट प्रतिरक्षा (specific immunity) भी कहते हैं। यह स्वाभाविक प्रतिरक्षा की क्रिया में योगदान देती है। यह स्तनियों एवं पक्षियों में अधिक विकसित होती है। एम्फीबिया व मत्स्य समूह के प्राणियों में अल्पविकसित होती है। यह दो प्रकार की हो सकती है।

(i) सक्रिय अभिग्रहित रोधकक्षमता (Active acquired immunity) : सक्रिय रोधक क्षमता वह है जो प्राणी अथवा पोषक (host) में रोगाणु के संक्रमण के उपरान्त अथवा यह टीकाकरण या रोग के प्रारम्भिक संकुचन के कारण उत्पन्न होती है। यह ग्रहित चेष्ट प्रतिरक्षा भी कहलाती है। प्रतिजेनिक उद्दीपन (antigenic stimulus) प्राप्त होने के फलस्वरूप प्राकृतिक तौर पर विकसित होती है। इसके फलस्वरूप पोषक की देह में प्रतिरक्षी (antibodies) अर्थात् प्रतिरक्षी रोधकक्षमता युक्त कोशिकाएँ बनती है। इस प्रकार की रोधकक्षमता एक बार विकसित हो जाने के उपरान्त लम्बे समय तक बनी रहती है। दूसरी बार इसी पोषक या प्राणी को इसी प्रकार का प्रतिजैविक उद्दीपन प्राप्त होने पर यह रोधक क्षमता और बढ़ जाती है। सक्रिय रोधकक्षमता प्राकृतिक (natural) होती है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति को चेचक का संक्रमण होने पर इस व्यक्ति में चेचक के प्रति रोधकक्षमता विकसित होती है तथा दोबारा चेचक के रोगाणु के सम्पर्क में आने पर भी चेचक रोग उसे नहीं होता। इस प्रकार प्राकृतिक प्रकार की सक्रिय अभिग्रहित रोधकक्षमता पोषक में किसी रोगजनक विषाणु या जीवाणु के संक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न की जाती है। सक्रिय प्रकार की रोध कक्षमता को उद्दीपन प्राप्त होने के बाद उत्पन्न होने में कुछ समय लगता है इसे सुषुप्त काल (latent period) कहते हैं। सक्रिय प्रकार की रोधक क्षमता के विकसित होने में एक ऋणात्मक प्रावस्था (negative phase) भी आती है जिसके दौरान मापन योग्य रोधकक्षमता का स्तर पोषक में प्रतिजेनिक उद्दीपन दिये जाने के पूर्व की अपेक्षा कुछ समय के लिये घट जाता है। ऐसा पूर्व में उपस्थित प्रतिरक्षी के साथ प्रतिजन के मिलने पर परिसंचरण तन्त्र में इनकी मात्रा घटने के कारण होता है। एक बार विकसित होने पर सक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता लम्बी अवधि तक बनी रहती है। यह भी देखा गया है कि यदि व्यक्ति को पूर्व में दिया गया प्रतिजेनिक उद्दीपन दोबारा दिया जाता है तो प्रथम बार की अपेक्षा द्वितीय बार दिये गये उद्दीपन के फलस्वरूप रोधकता अधिक शीघ्रता एवं अधिक प्रबलता के साथ व्यक्त होती है इसे द्वितीयक प्रतिक्रिया (secondary response) कहते हैं। यह तरल प्रकार की रोधक क्षमता (humoral immunity) एवं कोशिकीय रोधक क्षमता (cellular immunity) को विकसित करने के साथ-साथ रोधकता स्मृति (immunological memory) से सम्बन्धित भी होती है। अर्थात् प्रतिरक्षी तन्त्र लम्बे समय पूर्व प्राप्त प्रतिजेनिक उद्दीपन एवं उसके फलस्वरूप उत्पन्न प्रतिरक्षियों एवं व्यक्त क्रिया की स्मृति को भी बनाये रखता है। सक्रिय प्रकार की रोधक क्षमता अक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता से अधिक प्रभावी होती है एवं देह को अक्रिय प्रकार की रोधक क्षमता के फलस्वरूप अधिक सुरक्षा प्रदान करती है।

यह प्रतिरक्षी द्वारा उत्पन्न होती है अतः माता की देह से ऑवल (placenta) से होकर गर्भस्थ शिशु में या माता के दुग्ध कोलोस्ट्रम द्वारा शिशु में प्रवेश कर जाती है। यदि माता में डिप्थीरिया, रूबेला अथवा पोलियो के प्रति रोधकक्षमता हो तो यह शिशु को स्थानान्तरित हो जाती है। शिशु में ये उस समय तक क्रियाशील बनी रहती है जब तक कि शिशु का स्वयं का प्रतिरक्षी तन्त्र विकसित नहीं हो जाता है।

सक्रिय रोधकक्षमता कृत्रिम (artificial) रूप में भी विकसित की जाती है उदाहरण के तौर पर मनुष्य में पोलियों विषाणु (polio virus) का विभेद टीके (vaccine) के रूप में प्रवेश कराया जाता है तो इस व्यक्ति में इसके प्रति रोधकक्षमता विकसित हो जाती है अतः दोबारा पोलियो का विषाणु इस व्यक्ति में संक्रमण करने में सफल नहीं होता। किन्तु यह रोधकक्षमता केवल पोलियो विषाणु के प्रति विकसित की गयी है अन्य विषाणु जनित रोग खसरा आदि के प्रति नहीं होती। रोधकक्षमता अनेकों बार क्षीण (weak) प्रकृति की तथा क्षेत्रीय प्रकार की भी होती है।

(ii) अक्रिय अभिगृहित रोधकक्षमता (passive acquired immunity) : जब पोषक में रोधकक्षमता बाहर से तैयार अवस्था (ready made ) में पहुँचाई जाती है तो अक्रिय रोधक क्षमता- कहलाती है। यह ग्रहित निष्वेष्ट प्रतिरक्षा भी कहलाती है। इसमें कोई प्रतिजेनिक उद्दीपन भी नहीं होता इस प्रकार प्राप्त रोधकक्षमता में पोषक की देह कोई सक्रिय क्रिया नहीं करती। यह प्राकृतिक एवं सक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता के कम प्रभावी होती है। अक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता को पोषिक की देह में प्रवेश कराने पर क्रियाशील होने में कोई समय नहीं लगता जबकि सक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता प्राप्त करने में पोषक या प्राणी की देह में कुछ समय लगता है। अक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता के उत्पन्न होने में सुषुप्त काल नहीं पाया जाता । अक्रिय प्रकार की रोधकक्षमता अल्पकालीन होती है क्योंकि इनका उद्गम पोषक में नहीं होता अतः ये कुछ दिनों या माह के, उपरान्त नष्ट हो जाती है। इन्हें एक से अधिक बार देने पर इनका प्रभाव भी कम हो जाता है। उदाहरण के तौर पर कुत्ते, बन्दर या सुअर द्वारा मनुष्य को काट लेने पर इन्जेक्शन द्वारा अक्रिय रोधक क्षमता के रूप में रेबीज विषाणु (ribies virus) को निष्क्रिय करने हेतु तैयार अवस्था में प्रेषित की जाती है। इसके एक से अधिक इन्जेक्शन कुछ दिनों के अन्तराल पर दिये जाते हैं । किन्तु कुछ वर्षों के बाद यदि उसी मनुष्य को पुनः कुत्ता काट लेता है तो इस प्रकार के इंजेक्शन पुनः लगवाने पड़ते हैं क्योंकि पूर्व में तैयार अवस्था में अभिग्रहित रोधकक्षमता समाप्त हो चुकी होती है। इसी प्रकार की क्रिया टेट्नस के जीवाणु के प्रति रक्षा हेतु की जाती है। इसके उपचार हेतु रोगी को एन्टी टेटनस सीरम (anti tentus serum) ATS के इंजेक्शन दिये जाते हैं।