भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम किसने पारित किया , indian university act 1904 in hindi द्वारा सीनेट के सदस्यों का कार्यकाल निर्धारित किया गया
indian university act 1904 in hindi पढ़िए भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम किसने पारित किया , भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 द्वारा सीनेट के सदस्यों का कार्यकाल निर्धारित किया गया ?
भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904
20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में देश में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था। गिजी प्रबंधन के तहत् सरकार की धारणा यह थी कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है तथा शिक्षण संस्थान राजनीतिक क्राांतिकारियों को पैदा करने वाले कारखाने मात्र बनकर रह गये हैं। राष्ट्रवादियों ने भी स्वीकार किया कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है परंतु इसके लिये उन्होंने सरकार को दोषी ठहराया तथा आरोप लगाया कि सरकार अशिक्षा को दूर करने के लिये कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है।
सन् 1902 में सर टामस रैले की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया, जिसका उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का आंकलन करना तथा उनकी कार्यक्षमता एवं उनके संविधान के विषय में सुझाव देना था। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा इस कार्यक्षेत्र में सम्मिलित नहीं थी। इसकी सिफारिशों के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार
विश्वविद्यालयों को अध्ययन तथा शोध-ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
ऽ विश्वविद्यालय के उप-सदस्यों (Fellows) की संख्या तथा अवधि कम की जागी चाहिए तथा यह प्रावधान किया जागा चाहिए कि ये उप-सदस्य मुख्य रूप से सरकार द्वारा मनोगीत हों।
ऽ विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया गया। सरकार को सीनेट द्वारा पास किये गये प्रस्तावों पर निषेधाधिकार (Veto) दिया गया। सरकार को यह अधिकार था कि वह सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों में परिवर्तन एवं संशोधन कर सकती थी। सरकार यदि आवश्यक समझे तो इस संबंध में नये नियम भी बना सकती थी।
ऽ अशासकीय काॅलेजों पर सरकार नियंत्रण और कड़ा कर दिया गया।
ऽ उच्च शिक्षा तथा विश्वविद्यालयों के उत्थान के लिये 5 लाख रुपये की राशि प्रति वर्ष की दर से 5 वर्षों के लिये स्वीकृत की गयी।
ऽ गवर्नर-जनरल को विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय सीमायें निर्धारित करने का अधिकार दे दिया गया।
कर्जन ने गुणवत्ता एवं दक्षता के नाम पर विश्वविद्यालयों में सरकारी नियंत्रण अत्यधिक कड़ा कर दिया। लेकिन उसका वास्तविक उद्देश्य राष्ट्रवाद के समर्थक शिक्षितों की संख्या को रोकना तथा उन्हें सरकारी भक्त बनाना था।
राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की तीव्र आलोचना की तथा इसे साम्राज्यवाद को सुदृढ़ करने के एक प्रयास के रूप में देखा। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अधिनियम राष्ट्रवादी भावनाओं की हत्या का प्रयास है। गोपाल कृष्ण गोखले ने इसे ‘‘राष्ट्रीय शिक्षा को पीछे की ओर ले जागे वाला अधिनियम’’ की संज्ञा दी।
शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव
1906 में प्रगतिशील रियासत बड़ौदा ने अपनी पूरी रियासत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रारंभ कर दी। राष्ट्रवादी नेताओं ने सरकार से पूरे ब्रिटिश भारत में ऐसी व्यवस्था करने का आग्रह किया। (गोखले ने विधान परिषद में इसकी सशक्त वकालत की)।
शिक्षा नीति पर 1913 के अपने प्रस्ताव में सरकार ने अनिवार्य शिक्षा का उत्तरदायित्व लेने से तो इंकार कर दिया किंतु उसने अशिक्षा को दूर करने की नीति की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली तथा प्रांतीय सरकारों से आग्रह किया कि वे समाज के निर्धन एवं पिछड़े वग्र को निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा देने के लिये आवश्यक कदम उठायें। इस दिशा में उसने अशासकीय प्रयत्नों को प्रोत्साहित किया तथा सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा के स्तर में सुधार किया जागा चाहिए। सरकार ने प्रत्येक प्रांत में विश्वविद्यालय की स्थापना तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य को प्रोत्साहित करने का भी गिर्णय लिया।
सैडलर विश्वविद्यालय आयोग
वर्ष 1917 में सरकार ने लीड्स विश्वविद्यालय के उप-कुलपति डा. एम. ई.सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया, जिसका कार्य कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं का अध्ययन कर इसकी रिपोर्ट सरकार को देना था। यद्यपि यह आयोग केवल कलकत्ता विश्वविद्यालय से ही सम्बद्ध था, किंतु इसकी सिफारिशें भारत के अन्य विश्वविद्यालयों के संबंध में भी सही थीं। इस आयोग ने प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयीन स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन किया।
आयोग ने अनुमान लगाया कि यदि विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सुधार करना है तो इसके लिये पहले माध्यमिक शिक्षा के स्तर में सुधार लाना होगा। इस आयोग की सिफारिशें निम्नानुसार थीं
ऽ स्कूल की शिक्षा 12 वर्ष की होनी चाहिए। विद्यार्थियों को हाईस्कूल के पश्चात् नहीं अपितु उच्चतर-माध्यमिक परीक्षा के पश्चात् त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के लिये विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहिये। यह निम्न प्रकार से किया जागा चाहिए
(i) विश्वविद्यालय स्तर के लिये विद्यार्थियों को तैयार करके।
(ii) उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा के पश्चात स्नातक की उपाधि के लिये त्रिवर्षीय शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
(iii) वे छात्र जो विश्वविद्यालयीन शिक्षा हेतु जागे के लिये तैयार न हों उन्हें काॅलेज स्तर की शिक्षा दी जागी चाहिये। माध्यमिक तथा उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं नियंत्रण के लिये पृथक् माध्यमिक एवं उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा बोर्डों का गठन किया जागा चाहिये।
ऽ विश्वविद्यालयों से संबंधित नियम बनाते समय कठोरता नहीं होनी चाहिये।
ऽ विश्वविद्यालयों को पुराने, संबद्ध विश्वविद्यालयों (affiliating universities) जिनमें, काॅलेज दूर-दूर बिखरे होते थे, के स्थान पर एकाकी-केंद्रित-आवासीय- अध्ययन एवं स्वायत्तपूर्ण (unitary residential teaching and autonomous) संस्थानों के रूप में विकसित किया जागा चाहिये।
ऽ महिला शिक्षा, अनुप्रयुक्त विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा (applied scientific and technological education) तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण और ज्यादा प्रोत्साहित किया जागा चाहिये।
1916 से 1921 के मध्य सात नये विश्वविद्यालय-मैसूर, अलीगढ़, ढाका, पटना, बनारस, उस्मानियां एवं लखनऊ अस्तित्व में आये। 1920 में सरकार ने सैडलर आयोग की रिपोर्ट को सभी प्रांतीय सरकारों से लागू करने का आग्रह किया।
द्वैध शासन के अधीन शिक्षा
1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अंतग्रत शिक्षा विभाग, प्रांतीय सरकारों को हस्तांतरित कर दिया गया तथा सरकार ने शिक्षा संबंधी मसले पर सीधे तौर पर रुचि लेनी बंद कर दी। यद्यपि सरकार द्वारा शिक्षा विभाग को 1902 से दी जा रही सहायता उदारतापूर्वक जारी रही। वित्तीय कठिनाइयों के कारण प्रांतीय सरकारें शिक्षा संबंधी कोई महत्वपूर्ण योजना नहीं बना सकीं किंतु लोकोपकारी पुरुषों द्वारा शिक्षा संबंधी महत्वपूर्ण प्रयास जारी रहे।
हार्टोग्रग समिति
शिक्षण संस्थाओं की संख्या में अंधाधुंध वृद्धि के कारण शिक्षा के स्तर में गिरावट आने लगी। शिक्षा में हुये विकास के संदर्भ में रिपोर्ट देने के लिये वर्ष 1929 में सर फिलिफ हार्टोग की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की गयी। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नानुसार थीं
ऽ समिति ने प्राथमिक शिक्षा की महत्ता पर बल दिया लेकिन अनिवार्यता या शीघ्र प्रसार को अनुचित बताया।
ऽ केवल समर्पित विद्यार्थियों को ही उच्चतर-माध्यमिक (intermediate) एवं उच्च शिक्षा (high education) के विद्यालयों में प्रवेश लेना चाहिये। जबकि सामान्य स्तर के विद्यार्थियों को 8वीं कक्षा के पश्चात् व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेना चाहिये।
ऽ विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सुधार के लिये, विश्वविद्यालयों में प्रवेश संबंधी नियम अत्यंत कड़े होने चाहिये।
मूल शिक्षा की वर्धा योजना
अक्टूबर 1937 में, कांग्रेस ने शिक्षा पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन वर्धा में आयोजित किया। इस सम्मेलन में पारित किये प्रस्तावों के अंतग्रत, आधार शिक्षा (Basic education) पर राष्ट्रीय नीति बनाने के लिये जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी। इस समिति के गठन का मूल उद्देश्य था ‘गतिविधियों के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करना’। यह अवधारणा गांधी जी द्वारा हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित लेखों की एक शृंखला पर आधारित थी। गांधीजी का मानना था कि पाश्चात्य शिक्षा ने मुट्ठीभर शिक्षित भारतीयों एवं जनसाधारण के मध्य एक खाई पैदा कर दी है तथा इससे इन शिक्षित भारतीयों की विद्वता अप्रभावी हो गयी है। इस योजना को मूल शिक्षा की वर्धा योजना के नाम से जागा गया। इस योजना में निम्न प्रावधान थे
ऽ पाठ्यक्रम में आधार-दस्तकारी को सम्मिलित किया जाये।
ऽ राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के प्रथम सात वर्ष निःशुल्क एवं अनिवार्य होने चाहिये तथा यह शिक्षा मातृभाषा में दी जाये।
ऽ कक्षा 2 से कक्षा 7 तक की शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में शिक्षा कक्षा आठ के पश्चात् ही दी जाये।
ऽ शिक्षा हस्त उत्पादित कार्यों (manual productive works) पर आधारित होनी चाहिये। अर्थात् मूल शिक्षा की योजना का कार्यान्वयन उपयुक्त तकनीक द्वारा शिक्षा देने के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिये। इसके लिये छात्रों को कुछ चुनिंदा दस्तकारी तकनीकों के माध्यम से शिक्षित किया जागा चाहिये।
शिक्षा की यह योजना नये समाज की नयी जिंदगी के लिये नये विचारों पर आधारित थी। इस योजना के पीछे यह भावना थी कि इससे देश धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता एवं स्वतंत्रता की ओर बढ़ेगा तथा इससे हिंसा-रहित समाज का निर्माण होगा। यह शिक्षा सहकारिता एवं बच्चों पर केंद्रित थी। किंतु 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने तथा कांग्रेसी सरकारों के त्यागपत्र देने के कारण यह योजना खटाई में पड़ गयी।
शिक्षा की सार्जेन्ट योजना
वर्ष 1944 में केंद्रीय शिक्षा मंत्रणा मंडल (Central Advisory Board of education) ने शिक्षा की एक राष्ट्रीय योजना तैयार की जिसे, सार्जेन्ट योजना के नाम से जागा जाता है। सर जाग सार्जेन्ट भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार थे। इस योजना के अनुसार
ऽ3-6 वर्ष के आयु समूह के बच्चों के लिये पूर्व-प्राथमिक (pre primary) या प्रारंभिक (elementary) शिक्षा की व्यवस्था; 6-11 वर्ष के आयु समूह के बच्चों के लिये निःशुल्क, व्यापक और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था; 11-17 वर्ष के आयु समूह के चुनिंदा बच्चों के लिये उच्च शिक्षा (high education) की व्यवस्था तथा उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् त्रिवर्षीय स्नातक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के दो भाग होने चाहिये (i) विद्या विषयक शिक्षा (Academic education) और (ii) तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा (Technical and vocational education)।
ऽतकनीकी, वाणिज्यिक एवं कला विषयक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
ऽउच्चतर माध्यमिक पाठ्यक्रमों को समाप्त कर दिया जाये।
ऽ20 वर्षों में वयस्कों को साक्षर बना दिया जाये।
ऽशिक्षकों के प्रशिक्षण,शारीरिक शिक्षा तथा मानसिक एवं शारीरिक तौर पर विकलांगों को शिक्षा दिये जागे पर बल।
इस योजना में 40 वर्ष में देश में शिक्षा के पुनर्निर्माण का कार्य पूरा होना था तथा इंग्लैण्ड के समान शिक्षा के स्तर को प्राप्त करना था। यद्यपि यह एक सशक्त व प्रभावशाली योजना थी किंतु इसमें इन उपायों के क्रियान्वयन के लिये कोई कार्ययोजना नहीं प्रस्तुत की गयी थी। साथ ही इंग्लैण्ड जैसे शिक्षा के स्तर को प्राप्त करना भी भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल न था।
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