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पादप हार्मोन किसे कहते हैं , पादप हार्मोन के मुख्य लक्षण (Characteristics of phytohormones in hindi)

पढेंगे पादप हार्मोन किसे कहते हैं , पादप हार्मोन के मुख्य लक्षण (Characteristics of phytohormones in hindi) ?

 पादप हार्मोन (Plant Hormones)

परिचय (Introduction)

पादप वृद्धि एवं परिवर्धन बहुत जटिल प्रक्रिया है जो बाह्य कारकों द्वारा प्रभावित व नियंत्रित होती है। आंतरिक कारकों में पादप की जीनी संरचना के अतिरिक्त पादप हार्मोन शामिल हैं। इन्हें वृद्धि हार्मोन (growth hormone), वृद्धि नियंत्रक (growth regulators) एवं वृद्धि पदार्थ (growth substances) के नाम से भी जाना जाता है । इस शब्द का उपयोग सर्वप्रथम स्टार्लिंग (Starling, 1904) ने किया था जिसका अर्थ है उद्दीप्त करना ।

पिंकस एवं थीमेन (Pincus and Thimann, 1948) के अनुसार पादप हार्मोन ( phytohormones) पादप द्वारा अति सूक्ष्म मात्रा में संश्लेषित कार्बनिक पदार्थ हैं जो अपने संश्लेषण स्थल से दूर वृद्धि एवं अन्य कार्यिकी प्रक्रियाओं को नियंत्रित व प्रभावित करते हैं ।

पादप हार्मोन के मुख्य लक्षण (Characteristics of phytohormones)

  1. ये अधिकांशतः मूल शीर्ष, प्ररोह शीर्ष अथवा पर्ण शीर्ष पर संश्लेषित होते हैं ।

ये सदैव कार्बनिक पदार्थ होते हैं।

  1. इनकी अत्यंत सूक्ष्म मात्रा ही पर्याप्त होती है।
  2. ये अत्यंत सूक्ष्म परन्तु निश्चित सांद्रता में ही वृद्धि अथवा अन्य कार्यों को प्रेरित व प्रभावित करते हैं ।
  3. ये सदैव स्वयं के संश्लेषण स्थल से दूर अपना प्रभाव डालते हैं ।

प्रकृति में पाये जाने पादप हार्मोनों के मुख्य रूप से पांच समूह हैं- ऑक्सिन (auxins), जिबरैलिन (gibberellins), सायटोकाइनिन (cytokinins), इथाइलीन (ethylene) एवं एैबसिसिक अम्ल (abscisic acid) ।

इन पादप हार्मोनों को दो समूहों में बांटा जा सकता है-

  1. वृद्धि प्रवर्धक हार्मोन (Growth promoting hormones) – ये पादप व उनके विभिन्न अंगों में वृद्धि प्रेरित करते हैं जैसे ऑक्सिन, सायटोकाइनिन आदि ।
  2. वृद्धि संदमक हार्मोन (Growth inhibitory hormones)- ये हार्मोन पादप अथवा उनके अंगों में वृद्धि को रोकते अथवा संदमित करते हैं उदाहरण- एबसिसिक अम्ल ।
  3. ऑक्सिन (Auxins)

परिचय (Introduction)

वृद्धि नियंत्रक कार्बनिक पदार्थ जो मूल एवं स्तम्भ के शीर्ष पर उपापचयन के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं तथा जिनका कोशिका दीर्धीकरण के लिए स्थानांतरण दीर्धीकरण क्षेत्र में होता है ऑक्सिन (auxin) कहलाते हैं। ऑक्सिन नाम कोल (Kogl) द्वारा दिया गया था। इस की उत्पत्ति ग्रीक शब्द Auxin से हुई है जिसका अर्थ है वृद्धि करना (to grow) । इण्डोल एसिटिक अम्ल (Indole acetic acid, IAA), इण्डोल प्रोपिऑनिक अम्ल (Indole propionic acid, IPA), इण्डोल ब्यूटायरिक अम्ल (Indole butyric acid, IBA) नैफथलीन एसिटिक अम्ल (Naphtalene acetic acid, NAA), फिनायल एसिटिक अम्ल (Phenyl acetic acid, PAA), 2–4 डाइक्लोरो–फीनोक्सी एसिटिक अम्ल (2–4, dichloro-phenoxyacetic acid, 2,4-D), 2.4,5 ट्राइक्लोरो फीनाक्सी एसीटिक अम्ल (2.4,5 trichloro-phenoxy acetic acid. 2.4,5-T) इत्यादि कुछ ऑक्सिन है। ये 0.01 m से भी कम सांद्रता पर भी प्रभावी हो सकते हैं

ऑक्सिन की खोज (Discovery of auxins )

विभिन्न पादप हार्मोनों में से सर्वप्रथम ऑक्सिन की खोज की गयी थी। इन की खोज का श्रेय प्रसिद्ध जीव विज्ञानी चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin, 1880) को जाता है जिन्होंने कैनेरी घास फैलेरिस कैनारिएन्सिस (Phalaris canariensis) के प्रांकुर चोल (coleoptile) पर कुछ प्रयोग किये थे। उन्होनें पाया कि प्रांकुर चोल को एक तरफा प्रकाश देने पर वे प्रकाश की दिशा की ओर मुड़ जाते हैं । प्रांकुर चोल शीर्ष को ढक देने पर अथवा काट देने पर इस प्रकार का प्रकाश की ओर वक्रण दिखाई नहीं देता अर्थात् प्रांकुर चोल का शीर्ष प्रकाश को ग्रहण करके प्रकाशित व अप्रकाशित भाग में असमान वृद्धि को प्रेरित करता है ।

बोयसन जैनसन (Boysen-Jensen 1910–13) ने प्रांकुर चोल के शीर्ष को काट कर बीच में जिलेटिन का एक ब्लाक रखा फिर एक तरफा प्रकाश देने पर पाया कि वे प्रकाश की ओर मुड़ जाते हैं । दूसरे प्रयोग में उन्होंने देखा कि यदि एक तरफा प्रकाश से प्रदीप्त घास के नवोद्भिद के छाया वाले आधे भाग पर प्रांकुर चोल के शीर्ष के नीचे अभ्रक की प्लेट (mica plate) रख दी जाये तो प्रांकुर चोल प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता है । परन्तु इस के वितरीत आधे प्रदीप्त भाग की ओर अभ्रक प्लेट को रखा जाये तो प्रांकुर चोल प्रकाशानुवर्ती वक्रता (phototropic curvature) प्रदर्शित करता है। इस से सिद्ध होता है कि प्रकाशानुवर्ती वक्रता के लिए उद्दीपन अथवा उद्दीपक पदार्थ शीर्ष से छायामय भाग से ही नीचे स्थानांतरित होता है।

पाल (Paal, 1914–1919) ने अपने प्रयोग में बताया कि जिलेटिन के स्थान पर कोको बटर, अभ्रक अथवा प्लेटिनम की प्लेट का प्रयोग करने पर उद्दीपन का स्थानान्तरण नहीं होता अर्थात संभवतः यह उद्दीपक पदार्थ जल में विलेय होता है। उन्होंने अंधकार में नवोद्भिद के शीर्ष को आधे भाग पर टिकाते हुए इसे पुनः रखा तब भी प्रकाशानुवर्ती वक्रता के समान वक्रता दिखाई दी ।

वेंट (Went, 1926, 1928) ने जई के प्रांकुर चोल से शीर्ष को हटा कर अगार के एक खंड पर कुछ देर के लिए रखा। फिर इस ब्लाक के टुकड़े कर के शीर्ष विहीन प्रांकुर पर असममित रूप से (asymmetrically) रखा तो उसमें अंधकार में भी वक्रता पाई ।

उन्होंने शीर्ष को लम्बवत बराबर भागों में काट कर दोनों के नीचे अलग-अलग अगार के टुकडे रखे व एकतरफा प्रकाश दिया तथा असमान वितरण को प्रदर्शित किया प्रकाश की ओर 27% तथा अंधकार की ओर 57% ऑक्सिन प्राप्त हुआ । चारों ओर से प्रकाशित शीर्ष में अगार खंडों में समान मात्रा में आक्सिन पाया गया ।

प्राप्ति स्थल एवं स्थानांतरण (Occurrence and transport)

सामान्यतः पादपों के सभी अंगों में ऑक्सीन की उपस्थिति हो सकती है किन्तु ऑक्सिन की सांद्रता सबसे ज्यादा शीर्ष बिन्दुओं जैसे प्ररोह शीर्ष, कलिका, प्रांकुर चोल, पर्ण शीर्ष वृद्धिकारी फल, भ्रूण एवं बीज इत्यादि में पाई जाती है। यहाँ से शीघ्र ही इन का स्थानांतरण अन्य भागों की ओर हो जाता है। वेंट (1928) ने ऑक्सिन के ध्रुवीय स्थानांतरण का प्रदर्शन किया। ऑक्सिन का स्थानांतरण हमेशा शीर्ष से आधार की तरफ ही होता है। प्ररोह में यह स्थानान्तरण शीर्ष से नीचे की ओर अर्थात तलाभिसारी तथा मूल शीर्ष से ऊपर की ओर अर्थात् अग्राभिसारी होता है । इस प्रकार का स्थानान्तरण ध्रुवीय स्थानान्तरण (polar transport) कहलाता है। यह प्रक्रिया सान्द्रता प्रवणता (concentration gradient) के विपरीत दिशा में भी हो सकती है। जैकब (Jacobs, 1962) के अनुसार परिपक्व व विभेदित ऊतकों में ऑक्सिन की गति ध्रुवीय (polar) एवं अध्रुवीय (non polar) दोनों प्रकार की होती है ।

सामान्तयः आक्सिन का स्थानान्तरण पोषवाह मृदूतक अथवा संवहन पूलों के परिधीय मृदूतकी कोशिकाओं के माध्यम से होता है। इस संदर्भ में कुछ तथ्य ऑक्सिन के सक्रिय स्थानान्तरण का पुष्टीकरण करते हैं ।

(i) ऑक्सिन स्थानान्तरण की गति विसरण द्वारा संभावित गति से लगभग 10 गुना से भी अधिक होती है । (ii) सांद्रता प्रवणता (concentration gradient) के विपरीत ऑक्सिन स्थानांतरण सक्रिय विधि द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।

(iii) ऑक्सिन स्थानान्तरण की ऑक्सीकरण उपापचय पर निर्भरता एवं ATP के निर्माण के संदमकों की उपस्थिति में ऑक्सिन स्थानान्तरण में कमी भी इनके सक्रिय स्थानान्तरण का संकेत देते हैं ।

लुण्ड (Lund, 1947) के अनुसार ऑक्सिन का अभिगमन वैद्युत विभव. (electric potential ) के अन्तर द्वारा नियंत्रित होता है। जई के प्रांकुर चोल ‘का आधार, एकतरफा प्रकाश से प्रदीप्त शीर्ष में छाया वाले क्षेत्र तथा क्षैतिज दिशा में रखे गए प्रांकुर चोल में निचली सतह अपेक्षाकृत अधिक धनात्मक होते हैं तथा ऑक्सिन इन की ओर गति करते हैं ।

गोल्डस्मिथ (Goldsmith, 1977) ने ऑक्सिन के स्थानान्तरण के लिये रसायन- परासरणी परिकल्पना (Chemi-osmotic hypothesis) प्रस्तुत की। ऑक्सिन के ध्रुवीय स्थानान्तरण में ATP की आवश्यकता होती है। कोशिका झिल्ली अनावेशित IAA के Vacuole – लिये अधिक पारगम्य होती है अतः IAA कोशिका झिल्ली से परासरण (निष्क्रिय क्रिया) द्वारा कोशिका द्रव्य में प्रविष्ट होता है साथ ही ATP के जलापघटन से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग करते हुये H+ आयन जीवद्रव्य से कोशिका भित्ति में स्थानान्तरित होते हैं । इसके फलस्वरूप कोशिका द्रव्य का pH मान बढ़ जाता | (cytoso pH = 7.0) एवं कोशिका भित्ति में pH घट (5.5 ) जाता है। कोशिकाद्रव्य में उच्च pH पर IAA H+ एवं IAA – आयन में बंट जाता है तथा कोशिका के निचले छोर पर आवेश युक्त IAA(IAA- ) वाहक के माध्यम से कोशिका से बाहर स्थानांतरित हो जाते हैं। इसके साथ ही 2H+ आयन भी जीवद्रव्य से कोशिकाभित्ति में स्थानांतरित हो जाते हैं। कोशिकाभित्ति क्षेत्र में निम्न pH (5.5) पर IAA तथा H+ मिल कर अनावेशित IAA अणु बनाते हैं जो फिर से निचली कोशिका में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार ऑक्सिन का ध्रुवीय स्थानांतरण होता है ।

इन का स्थानांतरण तापमान, O2, गुरूत्वाकर्षण एवं आयु इत्यादि से प्रभावित होता है।