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plant movements notes in hindi , पादप गतियाँ क्या है , अनुक्रिया की प्रक्रिया (Mode of reaction)

जानेंगे plant movements notes in hindi , पादप गतियाँ क्या है , अनुक्रिया की प्रक्रिया (Mode of reaction) ?

पादप गतियाँ (Plant Movements)

परिचय (Introduction )

पादप अंगों एवं निम्न पादपों में गतियाँ पायी जाती है। परन्तु इन गतियों के धीमी होने के कारण प्रायः हमें इनका आभास नहीं हो पाता है। जीवद्रव्य बाह्य उद्दीपनों को ग्रहण कर उत्तेजित (irritabilitity) हो अनुक्रिया (response) करता हैं। इस अनुक्रिया के फलस्वरूप गति प्रगट होती है। अनुक्रिया विभिन्न प्रकार की होती है जो कि बाह्य उद्दीपनों से प्रभावित होती है। पादप अथवा पादप अंग में गति एक विशेष दिशा में होती है जिससे वे एक सुविधाजनक स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। व स्थलीय पादपों (vascular land plants) में गति उनके वर्धी क्षेत्रों में झुकाव को कहते हैं। कुछ पादप अंगों की कोशिकाओं के जीवद्रव्य में भी गति पायी जाती है। उद्दीपनों के प्रभाव से जलीय शैवाल, चल बीजाणु, जनन कोशिकाओं तथा कई स्थितियों में सम्पूर्ण पादप भी एक दिशा में तैरता है। कभी-कभी गति के कारक पादपों के अन्दर ही स्थित होते हैं

उद्दीपन (Stimulus )

उद्दीपन, ऊर्जा प्रयोग पश्चात् इसकी तीव्रता अथवा दिशा में एक परिवर्तन है जो कि जीवित जीवद्रव्य पर समुचित प्रभाव उत्पन्न करता है तथा एक दृश्य अनुक्रिया ( reaction) अथवा प्रभाव ( response) लाता है। उद्दीपन एक बाह्यकारक अथवा आंतरिक कारक हो सकता है। आंतरिक कारकों द्वारा उत्पन्न उद्दीपन से एक स्वतः (automatic ) अथवा एक अचानक (spontaneous) अनुक्रिया उत्पन्न होती है ।

उद्दीपन तीन प्रकार के पाये जाते हैं यथा (i) यांत्रिक (mechanical), (ii) रासायनिक (chemical) तथा (iii) ईथरी (ethereal) | यांन्त्रिक उद्दीपन, संहति के अभिचलन ( movement ) पर निर्भर करता है जिससे पादपों में स्पर्श एवं घर्षण का प्रभाव तथा दबाव उत्पन्न होता है उदाहरण – गुरूत्व बल । रासायनिक उद्दीपन, रासायनिक संगठन एवं अणुओं की संरचना पर निर्भर करते हैं। ईथरी उद्दीपन तरंगदैर्घ्यं से उत्पन्न होते है जैसे- प्रकाश, ताप एवं विद्युत ।

अनुक्रिया की प्रक्रिया (Mode of reaction)

उद्दीपन के फलस्वरूप जीवद्रव्य की वैद्युत स्थिति (electrical condition) में परिवर्तन होने के कारण यह उद्दीपित अथवा उत्तेजित हो जाता है। यह स्फीत में परिवर्तन स्वरूप अभिव्यक्त होता है । उदाहरण मिमोसा (Mimosa) की पर्ण की पर्णतल्पों की निचली कोशिकाओं में परिवर्तन। इसी प्रकार उद्दीपन से वृद्धि अनियमित अर्थात् एक सतह पर अधिक तथा दूसरी सतह पर रूक जाती है। उदाहरण- अनुवर्तन गतियाँ। इससे ग्रन्थि कोशिका से तरल का अधिक स्त्राव भी हो सकता है।

आन्तरिक अभिक्रियाऐं (Internal reactions)

यह आवश्यक नहीं होता है कि अनुक्रिया उसी स्थान पर उत्पन्न हो जहाँ कि उद्दीपन द्वारा पादप को शुरू में प्रभावित किया हो। ऐसा माना जाता है कि उद्दीपन का किसी तरह का आंतरिक गमन होता है। इसकी निम्न तीन अवस्थायें पायी जाती हैं

(i) प्रेरण (Induction) – वह स्थान जहाँ पर उद्दीपन प्रथम बार कार्य करता है उसे अवगमन क्षेत्र (region of perception) कहते हैं । प्रारम्भिक अभिक्रिया इसी क्षेत्र पर होती है।”

(ii) अभिक्रिया अथवा उत्तेजना का प्रसार (Propagation of reaction or excitement ) – जीवद्रव्य से जीवद्रव्य तक अभिक्रिया का प्रसार प्लास्मोडेस्मेटा (plasmodesmota) के द्वारा होता है। प्रथम अनुक्रिया से अन्तिम अनुक्रिया के मध् य अनेक अभिक्रियाओं की श्रृंखला होती है जो कि प्रत्येक इससे पहले वाले एक पूर्व उद्दीपन की एक अनुक्रिया होती है तथा यह बाद वाले अनुक्रिया के लिए उद्दीपन का कार्य करती है

(ii) अनुक्रय क्षेत्र (The responsive region) – पादपों के वे अंग जो उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित करते हैं अनुक्रय क्षेत्र (responsive region) कहलाते हैं। पादप उद्दीपन ग्रहण कर अनुक्रिया भी उसी क्षेत्र में दर्शा सकते हैं अथवा किसी अन्य क्षेत्र में भी। उदाहरण- मूल में अवगम क्षेत्र (perception region) मूल गोप (root cap) तथा अनुक्रय क्षेत्र (responsive region), दीर्घीकरण क्षेत्र (region of elongation) होता है। जहाँ उसके उपरी तथा निचली सतहों पर वृद्धि दर असमान होने के फलस्वरूप वक्रण (curvature) उत्पन्न होता है ।

प्रदर्शन काल (Presentation time )

किसी अभिक्रिया के उत्पन्न होने के लिए किसी देय तीव्रता के उद्दीपन की एक न्यूनतम समय के लिए आवश्यक होती है। इस न्यूनतम समय को प्रदर्शन काल (presentation time) कहते हैं। उद्दीपन यदि प्रदर्शन काल से कम समय के लिए हो तो कोई अनुक्रिया नहीं होती है। उद्दीपन के छोटा होने पर इसकी पुनरावर्ती से अलग-अलग प्रभाव होते हैं। परन्तु इनके संयुक्त होने से यह अनुक्रिया उत्पन्न करने में सक्षम हो जाते हैं। इसे उद्दीपनों का संकलन (summation of stimuli) कहते हैं । अर्थात् किसी अभिक्रिया / अनुक्रिया के सम्पन्न होने के लिए प्रदर्शन काल में विशेष मात्रा में उद्दीपन की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में क्षीण उद्दीपन को लम्बे समय तक अथवा तीव्र उद्दीपन को कम समय तक देने पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए प्रदर्शन काल एवं उद्दीपन की तीव्रता का गुणनफल एक नियतांक होता है। इस सम्बन्ध को उद्दीपन मात्रा का नियम (law of quantity of stimulus) कहते हैं। यह सभी अनुवर्तनी गतियों (tropic movements) तथा अन्य गतियों पर लागू होता है । इस नियम को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है-

प्रदर्शन काल x उद्दीपन तीव्रता = K

प्रतिक्रिया काल (Reaction time )

उद्दीपन के प्रारम्भन से अनुक्रिया के सम्पूर्ण होने तक के समय अन्तराल को प्रतिक्रिया काल ( reaction time) कहते हैं। प्रतिक्रिया काल में प्रदर्शन काल + संचरण काल + वृद्धि काल समाहित होते हैं ।

उत्तेजनशीलता (Excitability)

जीवद्रव्य स्वस्थ अवस्था अथवा स्थिति में ही किसी उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया दर्शाता है। यह स्थिति तापमान, आक्सीजन की उपस्थिति, जल एवं प्रकाश से प्रभावित होती है। इस उत्तेजनशीलता को संवेदनाहरणों ( anesthetics) जैसे – क्लोरोफार्म अथवा ईथर के द्वारा कुछ समय के लिए कम किया जा सकता है। कुछ समय पश्चात इनका प्रभाव खत्म हो जाता है जिससे पूर्व स्थिति पुनः प्राप्त हो जाती है । परन्तु इनकी सान्द्र मात्रा इस स्थिति के लिए घातक होती है।

श्रांति एवं टिटेनस (Fatigue and tetanus)

किसी उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित कर कोई भी पादप अंग कुछ समय पश्चात् अपनी पूर्व स्थिति पुनः प्राप्त कर लेता है। परन्तु एक साथ अनेक उद्दीपनों के कारण अथवा पूर्व स्थिति में पुनः प्राप्त करने से पूर्व ही उद्दीपित करने से पादप की उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया बहुत क्षीण हो जाती है। इस स्थिति को श्रांति (fatigue) कहते हैं । श्रांति के बाद भी यदि पादप को उद्दीपित किया जाय तो पादप में अनुक्रिया की क्षमता पूर्णतः समाप्त हो जाती है। यह स्थिति टिटेनेस (tetanus) कहलाती हैं क्योंकि यह माँसपेशियों की टिटेनस स्थिति सदृश्य होती है। टिटेनस के समय पुनः पूर्वस्थिति में आने तक सभी क्रियाऐं रूक जाती हैं।

गतियों का वर्गीकरण (Classification of movements)

पादपों में मुख्यतः दो प्रकार की गतियाँ होती है यथा (1) भौतिक (physical) एवं (II) जैविक (vital) |

  1. भौतिक गतियाँ (Physical movements)

भौतिक गतियाँ उद्दीपनों के अभाव में उत्पन्न होती हैं। यह गतियाँ प्रायः मृत अथवा जीवित पादप अंगों में पायी जाती है जो जल सान्द्रता में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती है। इनका जीवद्रव्य की उत्तेजनशीलता (irritability) से कोई सम्बन्ध I नहीं होता है। भौतिक गतियाँ दो प्रकार की होती हैं- (1) आर्द्रताग्राही गति (hygroscopic movement) उदाहरणे – फर्न में बीजाणुधानी (sporangia) का स्फुटन, इक्वीसीटम (Equisetum), मार्केन्शिया (Marchantia), ब्रायोफाइट इत्यादि में इलेटर्स (elators) की गति, शुष्क होने पर फलों का प्रस्फुटन इत्यादि तथा (2) यान्त्रिक गति (mechanical movements) उदाहरण–बाल्सम (Balsam) के फलों, कवकों के ऐसाई तथा पाइलोबोलस (Pilobolus) की बीजाणुधानी (sporangia) का फटना ।

II जैविक गतियाँ (Vital movements)

जैविक गतियाँ जीवद्रव्य की उत्तेजनशीलता (irritability) से सम्बन्धित होती हैं। यह मुख्यतः दो प्रकार की होती है- (1) चलन गतियाँ एवं ( 2 ) वक्रता गतियाँ |

  1. चलन गतियाँ (Movements of locomotion)

इस प्रकार की गतियों में सम्पूर्ण पादप अथवा पादप अंग का एक स्थान से दूसरे स्थान तक गमन होता है। यह दो प्रकार की होती है— (A) स्वप्रेरित चलन गतियाँ एवं (B) अनुप्रेरित चलन गतियाँ ।

(A) स्वप्रेरित चलन गतियाँ (Autonomous / spontaneous movements of locomotion)

ये गतियाँ आन्तरिक परिवर्तन अथवा उद्दीपनों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। यह निम्न प्रकार की होती हैं ।

  • कशाभिकी गति (Ciliary movements) – इस प्रकार की गति काशाभिकाओं की गति के फलस्वप होती है। उदाहरण क्लैमाइडोमोनास (Chlamydomonas). पुंमणुओं (antherozoids). अलैंगिक चल बीजाणु (zoospores) इत्यादि । (ii) अमीबीय गति (Amoeboid movements) – अमीबीय गति कूटपाद (pseudopodia) के बनने से होती है। उदाहरण-अवपंक कवक (slime mold) |

(iii) जीवद्रव्यी गति (Protoplasmic movements)

कोशिका में जीवद्रव्य रसधानियों (vacuoles) के चारों ओर भ्रमण करता है ।

(a) घूर्णन (Rotation) – जीवद्रव्य रसधानियों के चारों ओर एक ही दिशा में घूर्णन करता है। उदाहरण- हाइड्रिला (Hydrilla) इलोडिआ ( Elodea) |

(b) परिसंचरण (Circulation)- कोशिका में जीवद्रव्य अनेक रसधानियों के चारों ओर में भिन्न-भिन्न दिशाओं में भ्रमण करता है। उदाहरण–ट्रेडेस्कैन्शिया (Trade.scantia) के पुंकेसरी रोम, कुकरबिटेसी के स्तम्भ रोम इत्यादि । (iv) उत्सर्जी गतियाँ (Excretory movements) – तन्तु के एक अथवा दूसरी ओर उत्सर्जी पदार्थ के उपस्थिति में नील हरित शैवाल ऑसिलेटोरिया (Oscillatoria) का शीर्ष भाग पेन्डुलम की भांति दायें से बायें गति करता है।

 (B) चलन की अनुप्रेरित गतियाँ (Induced movements of locomotion)

बाह्य उद्दीपन जैसे तापमान, प्रकाश रसायन, इत्यादि के प्रति अनुक्रिया से उत्पन्न गतियों को चलन की अनुप्रेरित गतियाँ (induced movement of locomotion) कहते हैं। इन्हें अनुचलनी (tacic) गतियाँ भी कहते हैं। यह निम्न प्रकार की होती हैं।

(i) प्रकाशानुचलित गतियाँ ( Phototactic movements) – ये गतियाँ प्रकाशिक उद्दीपनों की अनुक्रिया के फलस्वरूप सम्पन्न होती है। अनेक सूक्ष्मदर्शीय शैवाल धीमें से तीव्र प्रकाश की ओर अर्थात धनात्मक तथा तीव्र से धीमे प्रकाश की ओर अर्थात ऋणात्मक गति दर्शाते हैं। उदाहरण-

क्लेमाइडोमोनास (Chlamyjdomonas), वोल्वोक्स (Volvox). पुंमणु (antherozoids), अलैंगिक चल बीजाणु (zoospores) इत्यादि ।

(ii) तापानुचलित गतियाँ (Thermotactic movements) – ये गतियाँ तापीय उद्दीपन में उत्पन्न होती हैं। उदाहरण- क्लेमाइडोमोनास (Chlamydomonas ) में।

  • रसायनानुचलित गतियाँ (Chemotactic movements )- किसी रसायन के प्रति अनुक्रिया के कारण उत्पन्न गति को रसायनानुचलित गति (chemotactic movement) कहते हैं। उदाहरण- ब्रायोफाइटा एवं टेरिडोफाइटा में नर युग्मक स्त्रीधानियों की ग्रीवा के मुख पर उत्पन्न लसदार पदार्थ (mucilaginous subastance) के प्रति अनुक्रिया के फल स्वरूप गति करते हैं।

(iv) रीओटैक्टिक गतियाँ (Rheotactic movements) रीओटैक्टिक गति (rheotactic movement) कहते हैं। उदाहरण- जलीय आवृतबीजी पादपों में। • जल तरंगों के प्रति अनुक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न गति को

(v) गैल्वेनोटैक्टिक गति (Galvanotactic movements) – यह गति विद्युत तरंगों के प्रति अनुक्रिया के फलस्वरूप प्रगट होती है । उदाहरण – कुछ जीवाणु, वोल्वोकेल्स (volvocales) के कुछ सदस्यों में ।

  1. वक्रण गति (Movement of curvature)

इस प्रकार की गतियाँ वक्रण अथवा झुकाव अथवा पादप अंगों किसी विशेष दिशा में विन्यास (orientation) के रूप में परिलक्षित होती हैं। वक्रण गतियाँ दो प्रकार की होती है। (A) स्वतः प्रेरित वक्रण गतियाँ, एवं (B) अनुप्रेरित वक्रण गतियाँ

(A) स्वतः प्रेरित वक्रण गतियाँ (Autonomous curvature movements)

इस प्रकार की गति पादप में आन्तरिक परिवर्तन अथवा उद्दीपनों से उत्पन्न होती है। इन्हें किसी बाह्य उद्दीपन की आवश्यकता नहीं होती है । स्वतः प्रेरित वक्रण गतियाँ दो प्रकार की होती है।

(i) स्वतः परिवर्तनी गतियाँ (Automatic movements of variation)

स्वतः परिवर्तनी गतियाँ कोशिकाओं में स्फीत के परिवर्तन से उत्पन्न होती हैं इसलिए इन्हें स्फीत गतियाँ (turgor movements) भी कहते हैं। उदाहरण- इस प्रकार की गतियाँ डेस्मोडियम गायरेन्स (Desmodium gyrans= Indian telegraphic plant) में देखी जा सकती है। इस पादप में दो पार्श्व पर्ण दिन के समय उपर नीचे गति करते दिखलाई देते हैं। एक चक्र 5-8 मिनट में सम्पन्न होता है। इस पादप में पर्णकों की गति झटके से होती है। यही कारण है कि इसे टेलीग्राफिक पादप (telegraphic plant) कहते हैं । पर्णकों के आधार पर पर्ण वृन्त तल्पों (pulvini) में उत्पन्न स्फीत परिवर्तनों के कारण पर्णकों में यह गति होती है ।

(ii) स्वतः वृद्धि गतियाँ (Autonomous movements of growth)

चित्र – 4: प्रतान में शिखा चक्रण

स्वतः वृद्धि गतियाँ दो क्षेत्रों में वृद्धि के अन्तर के कारण होती हैं। यह निम्न प्रकार की होती हैं ।

  • शिखा चक्रण (Nutation ) – इस प्रकार की गति आड़ी टेढ़ी होती है। यह दो पार्श्व सतहों में एकान्तर क्रम में असमान वृद्धि के कारण होती है। उदाहरण- कुकरबिटेसी के स्तम्भ आरोही, पर्ण प्रतान, मूल, भूस्तारी (stolons), पुष्प वृन्त, कवक के बीजाणुधानीधर (sporangiophores) तथा तन्तु मय शैवाल में ।

(b) अधोवृद्धिवर्तन एवं अधोकुंचन (Hyponasty and Epinasty)

किसी पादप अंग के उपरी सतह पर अधिक वृद्धि होने से वक्रण नीचे की ओर होता है। इस प्रकार की गति को अह गोकुंचन (epinasty) कहते हैं। उदाहरण- पुष्प कलिकाओं का खुलना । यदि अधिक वृद्धि पादप अंग के निचली सतह पर होती है तो इस प्रकार की गति को अधोवृद्धिवर्तन (hyponasty) कहते हैं। उदाहरण बन्द पुष्प कलिका, फर्न की पर्ण में कुण्डलित किसलय विन्यास (circinate vermation)

 (B) प्रेरित वक्रण गतियाँ (Paratonic or induced curvature movements)

प्रेरित वक्रण गतियाँ बाह्य उद्दीपनों से उत्पन्न होती है जो कि दिशीय (unidirectional) अथवा विसरित ( diffused) होते हैं। यह गतियाँ दो प्रकार की होती है:

(i) अनुवर्तनी गतियाँ (दिशीय गतियाँ) (Tropic movements (directive movements)]

इन गतियों में उद्दीपन जीवद्रव्य पर एक दिशा में कार्य करता है तथा अनुक्रिया का उद्दीपनों से सीधा सम्बन्ध होता है।

(a).प्रकाशानुवर्तनी गतियाँ ( Phototropic movements)

प्रकाशानुवर्ती गति में मुख्य स्तम्भ एक दिशीय उद्दीपन से प्रकाश की ओर मुड़ जाता है। इसे धनात्मक प्रकाशानुवर्तन (positive phototropism) कहते हैं। परन्तु मूल एवं मूलाभा प्रकाश उद्दीपन के विपरीत मुड़ जाते हैं। इससे ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन (negative phototropism) कहते हैं। प्रकाश के समान्त पादप अंग की स्थिति को शुद्ध प्रकाशानुर्वतन (orthophototropism) कहते हैं। उदाहरण – मुख्य स्तम्भ | यदि पादप अंग की गति प्रकाश स्त्रोत के समकोण पर व्यवस्थित होती है तब इसे अनुलम्बाप्रकाशानुवर्तन (dia-phototropism) कहते हैं। उदाहरण- पर्ण में। यदि यह गति प्रकाश स्त्रोत के किसी भी कोण पर व्यवस्थित हो तो इसे तिर्यक प्रकाशानुवर्तन (plagio-phototropism) कहते हैं।

सूरजमुखी (Helianthus annuus) के पुष्प एवं नेप्टूनिया ओलिरेसिया (Neptunia olearacea) की पत्तियाँ अपना मुख सूर्य की ओर रखते हुए पूरे दिन पूर्व की ओर से पश्चिम की ओर गति करती रहती है। पाइलोबोलस (Pilobolus) नामक कवक में बीजाणुओं का प्रकीर्णन बीजाणुधानीधर के प्रकाश की ओर स्थित होने पर ही होता है। मूंगफली में निषेचित होने तक अण्डाशय वृत धनात्मक रूप से प्रकाशानुवर्तनी रहता है जबकि अण्डाशय के निषेचित होने के बाद यह ऋणात्मक रूप से प्रकाशानुवर्तनी हो जाता है जिसके कारण यह मिट्टी की ओर झुककर मिट्टी में चला जाता है।

प्रकाशानुवर्तन के प्रदर्शन के लिए गमले में लगे एक पौधों को लकड़ी के बक्से में रखते हैं। इस बक्से में प्रकाश आने के लिए एक ओर छिद्र होता है। कुछ दिनों बाद पौधे के शाखाऐं छिद्र से आते हुए प्रकाश की ओर मुड़ जाती है। यह ε नात्मक प्रकाशानुवर्तन को दर्शाता है।

प्रकाशानुवर्तन का सर्वप्रथम अध्ययन चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin. 1880) ने केनेरी घास (Canary grass) एवं जई के प्राकुंर चोलो (coleoptiles) में किया। बाद में वेन्ट (F. W. Went, 1928) ने इस प्रक्रिया में ऑक्सिन का सम्मिलित होना सुझाया। पादपों की प्रकाशानुर्वन गतियाँ इनके प्रकाशित एवं अप्रकाशित क्षेत्र की कोशिकाओं में असमान वृद्धि के कारण होती है तथा यह वृद्धि ऑक्सिन द्वारा नियंत्रित होती है।