WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

phases of growth and development in plants in hindi , पौधों का विकास किससे प्रभावित होता है

जानिये phases of growth and development in plants in hindi , पौधों का विकास किससे प्रभावित होता है ?

 वृद्धि एवं परिवर्धन (Phases of Growth and Development)

परिचय (Introduction)

सभी उच्च पादपों का जीवन चक्र भ्रूण (embryo) के परिवर्धन (development) के साथ प्रारंभ होता है। प्रारम्भ में कायिक अंगों का विकास एवं परिवर्धन होता है, बाद में प्रजनन अंगों का परिवर्धन होता है। ये कुल प्रक्रिया कोशिकाओं के विभाजन, वृद्धि एवं विभेदन के फलस्वरूप होती है। सामान्यतः वृद्धि एवं परिवर्धन पदों को एक दूसरे के बदले भी प्रयोग किया जाता है ।

वृद्धि एवं परिवर्धन : परिभाषा (Growth and Development : Definitions)

वृद्ध जीवों का मुख्य लक्षण है। हर सजीव नाप, आकार, आयतन एवं भार में बढ़ता है। इस क्रिया को वृद्धि (growth) कहते हैं। ऐसी जैव प्रक्रिया जिससे कोशिका, अंग अथवा जीव के द्रव्यमान ( mass), भार (weight) अथवा आयतन (volume) में अनुत्क्रमणीय (irreversible) बढ़त होती है, वृद्धि कहलाती है। एक कोशिकीय अथवा निम्न पादपों में शरीर की प्रत्येक कोशिका में वृद्धि होती है अर्थात् वृद्धि विसरित ( diffused) होती है, परन्तु उच्च पादपों में वृद्धि कुछ विशेष स्थानों तक ही सीमित रहती है। इन स्थलों को विभज्योतक (meristems) कहते हैं। पादपों में प्राथमिक वृद्धि मुख्यतः शीर्षस्थ विभज्योतक (apical meristems) से होती है जो कि मूल शीर्ष तथा स्तम्भ शीर्ष पर होती है। इस वृद्धि से इनकी लम्बाई बढ़ती है। स्तम्भ एवं मूल के पार्श्व में पार्श्व विभज्योतक (lateral meristem) उपस्थित होता है तथा इनकी वृद्धि से चौड़ाई में वृद्धि द्वितीयक संवहन ऊतकों (secondary vascular tissues) से होती है। पर्व एवं पत्ती के आधार पर अन्तर्वेशी विभज्योतक (intercalary meristem) की उपस्थिति से भी अंगों की लम्बाई में बढ़त होती है।

परिवर्धन (Development) पद का प्रयोग वृद्धि एवं विभेदन ( differentiation) की समग्र प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है। परिवर्धन एक सुनिश्चित क्रम में होने वाली वह प्रक्रिया है जिससे जीव अथवा अंग सामान्यतः अधिक जटिल प्रावस्था की ओर अग्रसर होता है : ( It is an orderly change often towards more ordered and complex state) | परिवर्धन में विभेदन (differentiation) आवश्यक है। सामान्यतः वृद्धि व परिवर्धन साथ-साथ चलते हैं तथा एक ही उद्दीपन से प्रेरित हो सकते हैं। कभी-कभी वृद्धि के बिना परिवर्धन हो सकता है तथा वृद्धि बिना परिवर्धन के भी हो सकती है। उदाहरणतया कोशिका के आकार में बढ़ोतरी वृद्धि है परन्तु परिवर्धन नहीं। इसी प्रकार भ्रूण के परिवर्धन के दौरान कुछ प्रारंभिक विभाजनों के समय वृद्धि नहीं होती। जंतुओं में एक निश्चित आकार का भ्रूण होने पर कोशिकाओं की पुनर्व्यवस्था होती है। यहाँ भी वृद्धि नहीं है, परन्तु संभवतः परिवर्धन है ।।

परिवर्धन के दौरान जीनों के द्वारा नियंत्रित एक निश्चित क्रम में रूपान्तरण होते हैं जिनकी चरमावस्था (culmination) पूर्ण विकसित पादप की विशिष्ट आकृति एवं संगठन होते हैं। इस अनुक्रम में एक भी अवस्था को छोड़ा नहीं जा सकता । उसके बगैर आगे की अवस्था की वृद्धि संभव नहीं होती। पादप के जीवन चक्र में बीज के अंकुरण से लेकर बीजों के परिपक्वन तक अंकुरण, नवोद्भिद का बाहर निकलना, पत्तियों व शाखाओं का परिवर्धन व वृद्धि, पुष्पन का आरंभन (initiation), पुष्प का विकास, पुष्प का स्फुटन (anthesis), परागण (pollination), निषेचन (fertilization) तथा फल एवं बीज का परिवर्धन होते हैं। बीज परिवर्धन एवं परिपक्वन तक पहुँचने के लिए इन सभी अवस्थाओं को पार करना आवश्यक है। एक भी अवस्था पर रुकावट होने से आगे का परिवर्धन नहीं हो सकता। प्रत्येक अवस्था एक निश्चित समयांतराल में पूरी हो जाती है। उदाहरणतः अंकुरण न होने पर पादप नहीं बन सकता। पुष्पन, परागण अथवा निषेचन न हो पाने पर बीज एवं फल नहीं बन सकते ।

इस प्रकार वृद्धि, विभेदन ( differentiation) एवं परिवर्धन में पादप की जीनोम में कोडित जानकारी, आंतरिक एवं पर्यावरणीय उद्दीपन (environmental stimulus) के अनुसार उपापचयी (metabolic) एवं संरचनात्मक संगठन (structural organization) संबंधी प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं। बाह्य उद्दीपन के अनुसार थोड़ा परिवर्तन हो सकता है परन्तु मूल आधार वही रहता है।

वृद्धि की प्रावस्थाएँ (Phases of growth)

पादपों में वृद्धि मुख्यतः मूल एवं प्ररोही पर केन्द्रित रहती है जहाँ प्राथमिक वृद्धि होती है। पादप में कोशिकाओं व ऊतकों का बनना, उनकी लंबाई में वृद्धि तथा विभिन्न अभिवृद्धियों अथवा उपांगों (जैसे पत्तियाँ, पुष्प इत्यादि) का बनना प्राथमिक वृद्धि के कारण होता है ।

वृद्धि के दौरान विभज्योतकी (meristem- atic) कोशिकाओं से परिपक्व कोशिकाओं के बनने की प्रक्रिया में तीन प्रावस्थाएँ होती हैं- (i) कोशिका विभाजन (Cell division ) (ii) कोशिका विवर्धन (Cell enlargement) (iii) कोशिका परिपक्वन (Cell maturation ) विभज्योतकी कोशिकाएँ तथा उनसे उत्पन्न पुत्री कोशिकाएँ पतली भित्ति, सघन जीवद्रव्य एवं बड़े केन्द्रक से युक्त एवं समव्यासी (isodiamet- ric) होती हैं तथा इनमें कोई अन्तराकोशिकी. अवकाश (inter cellular spaces) नहीं होते । कोशिका विभाजन के पश्चात पुत्री कोशिकाएँ कुछ वृद्धि कर मातृ कोशिका के आकार की हो जाती हैं तथा फिर से विभाजित. होती हैं या उनमें विवर्धन की प्रक्रिया शुरू जाती है । अत: कोशिका विभाजन के क्षेत्र में अधिक वृद्धि नहीं होती है।

कोशिका विवर्धन (cell enlargement) वृद्धि की दूसरी प्रावस्था है । पादप अथवा पादप अंगों के आकार में बढ़त मुख्य रूप से कोशिका विवर्धन के कारण होती है जो कोशिकाओं के अनुत्क्रमणीय प्रसार (irreversible expansion) के कारण होती है। इसके बारे में दो मत हैं।

एक मत के अनुसार कोशिका भित्ति में वृद्धि नये कोशिका भित्ति अणुओं अथवा कणों का समावेश होने के कारण होती. है। कोशाभित्ति में समावेशन (incorportion) के कारण कोशिका आयतन में वृद्धि होती है तथा जल का अवशोषण होता है। इससे कोशिका का स्फीति दाब (turgor pressure) बढ़ जाता है तथा कोशिका भित्ति थोड़ी सी पतली हो जाती है अतः फिर अणुओं का समावेशन होता है।

दूसरी अवधारणा के अनुसार कुछ हार्मोनों के प्रभाव के कारण कोशिका भित्ति में उपस्थित वृहतअणुओं के मध्य बन्ध कमजोर हो जाते हैं तथा भित्ति संरचना कमजोर हो जाती है। इससे अंदर की ओर पड़ने वाले भित्ति दाब (wall pressure) एवं स्फीत दाब (turgor pressure) में परिवर्तन होता है एवं भित्ति में कुछ खिंचाव होता है। इससे जल का अवशोषण होता है साथ ही कुछ विलेय भी अवशोषित हो जाते हैं तथा कोशिका का परासरण दाब ( osmotic pressure) बढ़ जाता है जो TP बनाये रखने में मदद करता है। साथ ही नये अणुओं का समावेशन अणुओं के बीच में कणाधान (intuscuption) अथवा परत के रूप में स्तराधान (apposition) के द्वारा होता है।

कोशिका के विवर्धन के दौरान कोशिका के आकार में बढ़त के साथ-साथ कोशिका द्रव्य का संश्लेषण भी होता है। विभिन्न प्रोटीन, एन्जाइम, लिपिड को संश्लेषण होता है तथा विभिन्न कोशिकांग बनते है। विवर्धन के फलस्वरूप कोशिका द्रव्य परिघ् गीय तथा कोशिका बड़ी रिक्तिका युक्त हो जाती है। इस दौरान जीवद्रव्य की मात्रा भी बढ़ जाती है।

वृद्धि की तीसरी प्रावस्था में कोशिका स्थिति, जीन कूट में निहित संदेश व कोशिका के संभावित कार्य के होती है।

वृद्धि गतिकी (Kinetics of growth)

वृद्धि को नियंत्रित करने वाले कारकों की अनुकूलतम मात्रा में भी कोशिका अथवा पादप अंग की वृद्धि असमान होती है जो कि अनियमित परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है। प्रारम्भिक अवस्था में कोशिका निर्माण के समय वृद्धि बहुत ही धीमी होती है जो तेजी से बढ़ती जाती है तथा कोशिका दीर्घीकरण प्रावस्था (cell elongation phase) में अधिकतम हो जाती है परन्तु अन्त में कोशिका परिपक्वन प्रावस्था (cell maturation phase) में वृद्धि रूक जाती है। वृद्धि की प्रारम्भिक से अन्तिम प्रावस्था तक के कुल समय को वृद्धि की समग्र अवधि (grand period of growth) कहते हैं। इस कुल समय को निम्न प्रावस्थाओं में बाँटा गया है:-

  1. लैग अथवा मंद वृद्धि काल (Lag phase of growth)

इस काल में वृद्धि धीमी होती है क्योंकि इसमें वृद्धि का प्रारम्भन होता है। इससे मुख्य रूप से जैव अणुओं का संश्लेषण होता है।

  1. लौग अथवा अधिकतम वृद्धि काल (Log phase of growth)

इस काल में वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी होती है तथा यह अधिकतम हो जाती है। यह कोशिका विभाजन एवं अन्य जैविक क्रियाओं (physiological processes) के तीव्र गति से घटित होने के कारण होती है।

  1. वृद्धि का स्थिर काल (Steady phase of growth)

इस काल में उपापचयी क्रियाओं के धीमे हो जाने से वृद्धि लगभग स्थिर हो जाती है।

  1. जीर्ण काल (Senescent phase of growth)

इस काल तक वृद्धि पूर्ण हो जाती है एवं अपचयी क्रियाओं के आधिक्य के कारण वृद्धि में गिरावट आती है।

वृद्धि का ग्राफ समय के विपरीत बनाने पर ‘S’ आकार का वक्र प्राप्त होता है। इसे सिग्मॉइड वक्र अथवा समय वृद्धि काल वक्र कहते हैं। वातावरणीय परिस्थितियों से वृद्धि में बदलाव हो सकता है परन्तु वृद्धि वक्र के सिग्मॉइड आकार में यह परिवर्तन सामान्यतः नहीं पाया जाता है।

वृद्धि दर का ग्राफ समय के विपरीत बनाने पर घंटी के आकार का ग्राफ बनाना है। उसी घंटी में ग्राफ के विशिष्ट भाग का क्षेत्रफल उस निश्चित समय में हुई वृद्धि को दर्शाता है। वृद्धि दर vs समय के ग्राफ से स्पष्ट हो जाता है कि वृद्धि कुछ समय चरघातांकी (exponentially) रूप से होती है तथा लगभग स्थिर हो जाती है। उसके बाद वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाती है।