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रसारोहण के सिद्धांत क्या है , Theories of ascent of sap in hindi , जैविक सिद्धान्त , जैविक , मूलदाब , भौतिक बल

पढेंगे रसारोहण के सिद्धांत क्या है , Theories of ascent of sap in hindi , जैविक सिद्धान्त , जैविक , मूलदाब , भौतिक बल ?

रसारोहण के सिद्धान्त (Theories of ascent of sap)

वैज्ञानिकों ने रसारोहण को स्पष्ट करने के लिए अनेक सिद्धान्त दिये हैं। इन सभी सिद्धान्तों को निम्न तीन भागों में समूहित किया गया है:-

  1. जैविक सिद्धान्त (Vital theories)
  2. भौतिक बल सिद्धान्त (Physical force theories)
  3. मूलदाब का सिद्धान्त (Root pressure theory)
  4. जैविक सिद्धान्त (Vital theories)

प्रारम्भ में वैज्ञानिकों का मत था कि पादपों में जल का संवहन पादपों की जीवित कोशिकाओं की जैविक क्रिया द्वारा उत्पन्न परासरण दाब द्वारा होता है।

(i) रिले-पम्प सिद्धान्त (Relay pump theory) – यह सिद्धान्त गोड्लेवस्की (Godlewski, 1884) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसके अनुसार जायलम (xylem parenchyma) की जीवित कोशिकाओं के परासरण दाब में आवर्ती परिवर्तन होने से जल का गमन ऊपर की ओर होता है।

इस सिद्धान्त का स्ट्रासबर्गर (Strasburger 1893) एवं आधुनिक वैज्ञानिकों ने विरोध किया। स्ट्रासबर्गर ने दर्शाया कि विष देने पर मृत कोशिकाओं में भी जल संवहन पाया जाता है।

(ii) स्पंदन सिद्धान्त (Pulsation theory)- सर जे. सी. बोस (Sir J. C. Bose, 1923) ने एक ऐसी विद्युत सुई (प्रोब) की खोज की जिसकी सहायता से पादप कोशिकाओं में होने वाली क्रिया का पता लगाया जा सकता है (चित्र – 15 ) । उन्होंने दर्शाया कि पादप में रसारोहण जीवित कोशिकाओं की स्पंदन क्रिया के कारण होता है। उनके उपकरण में एक विद्युत सुई, गैल्वेनोमीटर, एक विद्युत परिपथ (circuit) एवं एक पादप होता है। गैल्वेनोमीटर का एक सिरा सुई से तथा दूसरा सिरा पादप से जुड़ा था। जब सुई को पादप स्तम्भ की सबसे अन्दर की परत में घुसाया गया तब गैल्वेनोमीटर की सुई में तीव्र दोलन (oscillations) देखे गये (चित्र-15)। इससे बोस ने निष्कर्ष निकाला कि स्तम्भ के सबसे अन्दर के भाग की कोशिकाएँ एकान्तर क्रम में फैलने एवं संकुचित होने से स्पन्दन दर्शाती है। इससे उन्होंने बताया कि वल्कुट (cortex) के अन्दरूनी परत में स्पन्दन क्रिया होती है तथा इन ऊतकों की स्पन्दन क्रिया ही रसारोहण के लिए उत्तरदायी होती है।

बोस के सिद्धान्त का विरोध अन्य वैज्ञानिकों ने इसलिए किया क्योंकि वे स्न्दन क्रिया एवं संवहन दर में कोई सम्बन्ध नहीं बता पाये।

  1. भौतिक बल सिद्धान्त (Physical force theories)

(i) अन्तःशोषण सिद्धान्त (Imbibition theory) – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अंगर ( Unger, 1868) ने किया तथा सैक्स (Sachs, 1878) ने इसका समर्थन किया। उनके अनुसार जायलम कोशिकाओं की भित्तियों में अन्तःशोषी बल (imbibitional force) का मान 100-1000atm होता है जो कि सबसे लम्बे वृक्ष के शीर्ष तक भी जल के संवहन में सक्षम होता है । परन्तु वलय प्रयोग के अनुसार जल संवहन कोशिका गुहिका (lumen) से होता है न कि भित्ति से। इसलिए इस सिद्धान्त को भी गलत माना गया ।

(ii) केशिका सिद्धान्त (Capillary theroy) – इस परिकल्पना के प्रदाता बोहम (Boehm, 1809) है। यदि काँच की केशिका नली के आधार को जल में रखा जाये तो यह जल नली में केशिकत्व (capillarity) के कारण चढ़ जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार वृक्ष की जल संवहनी कोशिकाएं केशिका नली की तरह कार्य करती हैं परन्तु इन कोशिकाओं का व्यास अधिक होता है इसलिए जल इनमें कुछ सेन्टीमीटर तक ही चढ़ पाता है। वे बल जिनके कारण केशिक क्रिया होती है वे पतली नलिकाओं में एवं खुली जल सतह पर ही हो सकते हैं परन्तु वृक्षों में इसका अभाव होता है। दूसरा कारण इस सिद्धान्त को न मानने का यह है कि लम्बे वृक्षों में वाहिकाओं का व्यास अधिक होता है। रसारोहण शीत ( autumn) ऋतु की अपेक्षा बसन्त (spring) ऋतु में अधिक होता है। परन्तु बसन्त काष्ठ के तत्व शीत काष्ठ से अधिक बड़े होते हैं। इसलिए इस परिकल्पना को भी मान्यता नहीं दी जाती है।

(iii) वायुमण्डलीय दाब सिद्धान्त (Atmospheric pressure theory) – इस सिद्धान्त के अनुसार पत्तियों द्वारा जल का वाष्पोत्सर्जन होने से जायलम कोशिकाओं में दाब कम हो जाता है इस कमी को इन कोशिकाओं के नीचे उपस्थित जल द्वारा वायवीय दाब के कारण पूरा कर लिया जाता है। इस सिद्धान्त को भी अधिक समर्थन प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि (i) वायवीय दाब जल को 34 फीट तक ही ऊपर खींच सकता है। (ii) पादपों की जड़ में कोई मुक्त सतह नहीं होती जहाँ वायुमंडलीय दाब उत्पन्न हो सके।

(iv) वाष्पोत्सर्जन खिंचाव अथवा जल ससंजन सिद्धान्त (Transpiration pull and water cohesion theory) – इसे ससंजन-तनाव (cohesion – tension) सिद्धान्त भी कहते हैं। इसे डिक्सन एवं जोली (Dixon and Jolly, 1894) ने प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त का समर्थन रेनर (Renner, 1911), कर्टिस एवं क्लार्क (Curtis and Clark, 1951), बॉनर एवं गैल्स्टन (Bonner and Galston, 1952) क्रेमर एवं कोजलोवस्की (Kramer and Kozlowski, 1960) ने भी किया ।

यह सिद्धान्त निम्न लक्षणों पर आधारित है:

(i) जल अणुओं का संसजन गुण जिससे कि जायलम में अटूट

जल स्तम्भ बनता है।

(ii) जल स्तम्भ पर लगने वाला वाष्पोत्सर्जन खिंचाव ।

(i) जायलम में जल का संसजन (Cohesion of water in xylem)

जायलम वाहिकाएं नलिकाकार आकृतियाँ होती हैं जो पादपों की मूल से शीर्ष तक फैली रहती हैं। ये कोशिकाऐं एक के ऊपर एक स्थित होती है तथा भित्तियाँ छिद्रल होती हैं तथा जिससे एक सतत नलिका बन जाती है। यह जायलम की वाहिकाओं में देखा जा सकता है। जायलम की वाहिकाओं में जल भर जाता है तथा पानी के संसजन (cohesion) एवं आसंजन ( adhesion) गुणों के कारण एक सतत (continuous) जल स्तम्भ (water column) बन जाता है।

चूंकि संसजन बल की प्रबलता बहुत अधिक ( 350 atm) होती है अतः जल स्तम्भ के स्वयं के भार एवं अन्य बलों के बावजूद भी यह नहीं टूटता है। स्कोलैण्डर ( Scholander et al. 1957) ने यह दर्शाया कि कोशिकाभित्तियों में गर्तौ (pits) की उपस्थिति के कारण वायु के बुलबुले जल स्तम्भ को अवरूद्ध नहीं करते हैं।

(ii) वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (Transpiration pull)

जल का खिंचाव नीचे से न होकर जायलम द्वारा पादप के ऊपरी भाग (पर्ण) से होता है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि जायलम वाहिकाएँ नलिकाकार संरचना होती हैं जो मूल से पादप के शीर्ष तक फैली रहती है। यह जायलम वाहिनिकाओं द्वारा समर्थित रहती है जिनकी अन्तः भित्ति (end walls) में रन्ध्र पाये जाते हैं। इनका एक सिरा पर्ण की मध्योतक कोशिकाओं द्वारा अधोरंध्री गुहिकाओं (sub stomatal cavity) से जुड़ा रहता है तथा दूसरा सिरा मूल की परिरंभ (pericycle), अंतस्त्वचा (endodermis ) एवं वल्कुट (cortex) द्वारा मूल रोम से जुड़ा होता है।

सक्रिय वाष्पोत्सर्जन के कारण जल पर्ण की पर्णमध्योतक कोशिकाओं (mesophyll cells) से अन्तःकोशिकीय स्थलों में वाष्पीकृत हो जाता है। इससे पर्ण के जल विभव में कमी आ जाती है। जल, जल विभव प्रवणता (water potential gradient) की दिशा में एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक तथा अन्त में पर्ण के संवहन बंडल से गमन करता है। क्योंकि जायलम तत्व (xylem elements) सतत जल स्तम्भ से भरे रहते हैं इसलिए स्तम्भ के सिरे पर एक तनाव अथवा खिंचाव उत्पन्न हो जाता है। इस खिंचाव को वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (transpiration pull) कहते हैं। यह खिंचाव पर्णवृन्त से तने तथा अन्त में मूल तक पहुँच जाता है जिससे जल का ऊपर की ओर गमन होता है।

वाष्पोत्सर्जन की जल खींचने की क्षमता का प्रदर्शन एक तरूण पर्ण युक्त शाखा को जल में काट कर पोटोमीटर में लगा कर किया जा सकता है (चित्र-17)। कुछ समय बाद उर्ध्व नली में पारे का तल बढ़ा हुआ पाया जाता है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि पर्ण में वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल में हुई कमी के कारण एक चूषण बल (suction force) उत्पन्न होता है जिससे रसारोहण होता है।

ससंजन- तनाव सिद्धान्त के समर्थन में प्रमाण (Evidences in support of cohesion-tension theory )

(i) एक पर्णित शाखा को जल में काट कर मरकरी – मैनोमीटर (mercury manometer) लगा देने से यह पारे को बेरोमैट्रिक तल के ऊपर खींच लेता है ( थूट, Thut 1932)।

(ii) जल का ससंजन बल 350 atm होता है जो जायलम में जल स्तम्भ को टूटने से बचाता है।

(iii) स्कोलैन्डर एवं सहयोगियों (Scholander et al. 1957) के अनुसार जायलम के जल स्तम्भ में वायु के बुलबुले आ जाने पर भी यह टूटता नहीं है।

(iv) जल तनाव की स्थिति में वाहिकाओं का व्यास कम हो जाता है। उच्च वाष्पोत्सर्जन होने पर वृक्षों के स्तम्भ के व्यास में कमी देखी गयी है।

(v) सामान्यतः जल अवशोषण की दर वाष्पोत्सर्जन दर के समान होती है।

  1. मूल दाबु सिद्धान्त (Root pressure theory)

यदि किसी पादप के शीर्ष को काट दिया जाये तो उसकी मूल में उत्पन्न परासरण दाब के कारण जल बाहर निकलता हुआ दिखाई पड़ता है। परासरण एवं अन्य बलों के मिले हुए प्रभाव को मूल दाब (root pressure) कहते हैं। रस स्त्रावण (bleeding) एवं बिन्दु स्त्राव (guttation) इस बल के कारण होते हैं। यही वह बल है जिसके द्वारा मूल के केन्द्र में जायलम नलिकाओं में जल को बल पूर्वक धकेला जाता है। जिससे जायलम वाहिकाओं से रस ऊपर धकेला जाता है। यह मूल दाब रसारोहरण के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। मूल दाब अधिक नहीं होता तथा यह विरले ही 2 atm से ऊपर होता है जो जल को लम्बे वृक्षों के शीर्ष तक पहुँचाने में सक्षम नहीं है। परन्तु यह वाहिकाओं से वायु निकाल कर पुनः जल स्तम्भ को बनाने में सहायक हो सकता है।

 

मूल दाब सिद्धान्त के विरोध में कई प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं जो अग्रलिखित है:-

 

(i) मूल दाब अधिक से अधिक 2 वायुमण्डल तक हो सकता है जो ऊँचे पेड़ों की चोटी तक जल चढाने में असमर्थ होता है।

(ii) स्ट्रासबर्गर (Strasburger) ने मूल रहित पादपों में भी रसारोहण बताया है।

(iii) मूल दाब ठंडे शुष्क अथवा कम वायु वाली मृदा में उगने वाले पादपों में नहीं पाया जाता परन्तु इनमें रसारोहण एक सामान्य क्रिया है।

(iv) शंकु वृक्ष (conifers) जैसे कुछ पादपों में मूल दाब कभी भी नहीं देखा गया है।

मूल दाब का प्रदर्शन  (Demonstration of root pressure)

एक गमले में लगे पादप को पर्याप्त पानी देकर उसे मृदा तल से कुछ इन्च ऊँचाई से काट दिया जाता है। अब उसे एक रबड़ नली के सहारे पारे के दाबमापी से जोड़ दिया जाता है जैसा कि चित्र 18 में दर्शाया गया है।

कुछ समय पश्चात पारे का तल बढ़ जाता है जिसे स्केल द्वारा नापा जा सकता है। वास्तव में यह दाब द्रव्यस्थैतिक दाब (hydrostatic pressure) है जो कि मूल तंत्र में विकसित होता है। इस दाब को मूल दाब कहते हैं।