टिड्डी का प्रजनन कैसे होता है , टिड्डों में नर व मादा प्रजनन तंत्र reproductive system locust in hindi
reproductive system locust in hindi टिड्डी का प्रजनन कैसे होता है , टिड्डों में नर व मादा प्रजनन तंत्र ?
प्रजनन तन्त्र’ (Reproductive system) :
टिड्डों में नर व मादा जन्तु पृथक-पृथक होते हैं तथा इनमें लैंगिक विभेदन पाया जाता है। मादा टिड्डे के उदर के पश्च सिरे पर अण्डनिक्षेपक पाये जाते हैं जिससे आसानी से नर व मादा में भेद किया जा सकता है।
नर जनन तन्त्र (Male reproductive system) :
नर टिड्डे के तीसरे चौथे व पाँचवें उदर खण्डों में आन्त्र के ऊपर एक जोड़ी वृषण पाये जाते हैं जिनमें शुक्राणुओं का विकास होता है। प्रत्येक वृषण अनेक पतली नलिकाओं या पुटिकाओं (follicles) की शृखला का बना होता है। वृषण की नलिकाएँ महीन शक्राण वाहिकाओं में खुलती है जो वृषण के अधर तल से निकल कर एक लम्बी कण्डलित शक्रवाहक (vas deferens) में दी है। दोनों ओर के शुक्रवाहक नवे उदर खण्ड में पश्च आन्त्र के नीचे परस्पर जुड़ कर एक मान्य मध्यवर्ती स्वखलन वहिका (ejaculatory dut) बनाते हैं। स्वखलन वाहिका एक बड़े। आधारी मेथुनांग, शिश्न (penis) या लिग्राग्रिका (aedegus) द्वारा बाहर खुलती है। स्वखलन वाहिका के सामने एक जोड़ी सहायक ग्रन्थिया (accessory glands) पायी जाती है जो स्वखलन वाहिका के अग्र सिरे में खुलती है। प्रत्येक सहायक ग्रन्थि लम्बी नलिकाओं का एक समूह होता है। ये ग्रन्थिया । अपना नावण तरल पदार्थ के रूप में स्वखलन वाहिका में विसर्जित करती है। इसी तरल में मैथुन के समय नर के शुक्राणु मादा में पहुँचाये जाते हैं। प्रत्येक सहायक ग्रन्थि के साथ एक अति लम्बी नलिका जुड़ी रहती है जिसे शुक्राशय (seminal vesicle) कहते हैं। शुक्राशय में शुक्राणु संचित किये जाते हैं और मैथुन क्रिया के समय स्वखलन वाहिका में विसर्जित कर दिये जाते हैं।
मादा जनन तन्त्र (Female Reproductive System)
मादा टिड्डे में भी नर की तरह आन्त्र के ऊपर एक जोड़ी अण्डाशय स्थित होते हैं जो एक मध्यवर्ती अण्डाशयी स्नाय द्वारा पष्ठ देह भित्ति से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक अण्डाशय 6 से 8 शुण्डाकार तिर्यक अण्ड नलियों या अण्डाशयकों (ovarioles) का बना होता है। प्रत्येक नली में विकासशील अण्डाणु एक रेखिक श्रेणि में स्थित होते हैं। जैसे-जैसे एक अण्डजनक (oogonium) अण्डाशयक में नीचे की ओर खिसकता है तो यह पीतक का संचय कर परिमाण में बढ़ता जाता है और अन्त में एक प्राथमिक अण्डक (primary oocyte) बन जाता है। अण्डाशयक के पिछले सिरे की उपकला द्वारा अण्डक के चारों ओर जरायु (chorion) या कवच का स्रावण किया जाता है। कवच के ऊपरी ध्रुव पर एक सूक्ष्म छिद्र या अण्डद्वार (micropyle) पाया जाता है। मैथुन क्रिया के पश्चात् । शुक्राणु इसी अण्डद्वार से होकर अण्डाणु को निषेचित करते हैं।
प्रत्येक अण्डाशय के सभी अण्डाशयक एक चौड़ी अण्डवाहिनी में खुलते है। प्रत्यक अण्ड वाहिनी अपनी ओर से अण्डाशय के बाहरी किनारे के साथ-साथ पीछे व नीचे की ओर बढ़ता है। बटर के सातवें खण्ड में मलाशय के नीचे दूसरी ओर से आने वाली साथी अण्डवाहिनी से ल जाती है। दोनों अण्डवाहिनियाँ परस्पर मिलकर एक चौडी और पेशीय योनि का निर्माण करती पनि अण्डनिक्षेपकों प्लेटों के बीच एक जननिक छिद्र द्वारा बाहर खलती है। योनि छिद्र के ऊपर एक छोटी नलिका निकली होती है जो एक संचयन प्रकोष्ठ (storage chamber) में खुलती है जिस कग्राहिका (seminal recepticle) या शुक्रग्राहिका (spermatheca) कहते हैं। शुक्रग्राहिका में थन क्रिया के समय नर से प्राप्त शुक्राणुओं का संचय किया जाता है। प्रत्येक अण्ड वाहिनी के सामने एक लम्बी कुण्डलित सहायक (accessory) या कोलेटरियल ग्रन्थि (collaterial gland) स्थित होती है। ये ग्रन्थियाँ एक सीमेन्ट के समान एक प्रकार का पदार्थ सावित करती है जो अण्ड दिये जाने पर उन्हें परस्पर चिपकने का कार्य करता है।
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जीवनवृत्त (Life cycle)
मैथन क्रिया (Copulation) : टिड्डे ग्रीष्म ऋतु में प्रजनन क्रिया करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में नर व मादा के बीच मैथुन क्रिया होती है। इस क्रिया में नर टिड्डा मादा टिड्डे की पीठ पर चढ़कर शिश्न को मादा की योनि में प्रवेश करा कर शुक्राणु युक्त शुक्ररस को विसर्जित करता है। यह शुक्राणु युक्त शुक्ररस शुक्रग्राहीका में एकत्रित कर संचित किये जाते हैं। मादा द्वारा अण्डे देना प्रारम्भ करने से पूर्व यह क्रिया कई बार की जा सकती है।
निषेचन (Fertilization): मैथुन क्रिया के पश्चात् परिपक्व अण्डे अण्डवाहिनी में नीचे की ओर उतरते हैं। परिपक्व अण्डाणु 3 से 5 मि.मी. लम्बा होता है। अण्डे में पीतक भरा रहता है व पीतक के चारों ओर एक पतली पीतक झिल्ली (viteline membrane) पायी जाती है तथा बाहर की ओर एक हरा भूराभ कवच (shell) से ढका रहता है। बाहरी कवच में एक छोटा छिद्र पाया जाता है जिसे अण्ड द्वार (micropyle) कहते हैं। जब परिपक्व अण्डे अण्डवाहिनी में नीचे उतरते हैं तो शुक्रग्राहिका से शुक्राणु आकर अण्ड द्वार से अण्डे में प्रवेश कर अण्डे को निषेचित करता है। इस क्रिया में शुक्राणु का केन्द्रक अण्डाणु के केन्द्र से संगलित हो जाता है। इसके पश्चात् अण्डे के परिधी की ओर एक कोरक चर्म (blastoderm) का विकास हो जाता है जिससे भ्रूण का निर्माण होता है।
अण्डनिक्षेपण (Oviposition) : वयस्क मादा मैथुन के 8 से 24 घण्टे के अन्दर अण्डे देना प्रारम्भ करती है जो हेमन्त ऋत तक चलती रहती है। मादा द्वारा अण्डे जमीन में 2 से 6 इन्च की गहराई पर दिये जाते हैं इसके लिए मादा अपने उदर के पश्च भाग अण्ड निक्षेपक को रेतोली जमीन म घुसा कर सुरंग बना लेती है। एक सुरंग में 20 अण्डों का गुच्छा निक्षेपित कर दिया जाता है। ये अण्डे कोलेटेरियल ग्रन्थि द्वारा स्रावित पदार्थ से परस्पर चिपक कर अण्ड फली (egg pod) बनाते है। एक मादा लगभग 200 से 500 अण्डे दे सकती है। अण्डे 7 से 9 मिमी. लम्बे व 1 मिमी चौडे चावल के दाने के समान होते हैं।
परिवर्धन (Development):
इसका भ्रोणिक परिवर्धन तीन सप्ताह तक चलता है तत्पश्चात परिवर्धन रूक जाता है और भ्रूण विश्राम काल या डायपॉज (diapause) अवस्था में प्रवेश कर जाता है। वसन्त ऋतु आने पर भ्रूण में पुनः वद्धि होने लगती है और शिशु टिड्डा जिसे अर्भक या निम्फ (nymph) कहते हैं. अण्डे बाहर निकलता है। यह वयस्क टिडे का छोटा रूप होता है। यह पोधों की पत्तियों को खा कर नवी से वद्धि करता है इसे हॉपर अवस्था (hopper stage) कहते हैं। इस अवस्था में सिर बड़ा होता तथा पंखों का अभाव होता है। शरीर को वृद्धि के साथ इसका अप्रत्यास्थ (inflexible) काइटिनी बही कंकाल अधिक नहीं खिंच सकता है इसलिए इसे समय-समय पर उत्तर दिया जाता है. इस किया को निर्माचन या त्वकपतन (mounting moul) या निर्माक उत्सर्जन (ecvsis) कहते हैं। पाँच से छ: निमोचनों के पश्चात् शिशु टिड्डा वयस्क में रूपान्तरित हो जाता है। इस प्रकार परिवर्धन क्रमिक कायान्तरण (gradual metamorphosis) कहलाता है। वयस्क टिड्डे में पंखों व जननांगों का विकास हो जाता है।
वंश व जातियाँ (Genus and Species)
टिड्डियों की प्रमुख जातियों की संख्या 9 से 13 तक मानी जाती है। जहाँ भारत में मिलने वाली तीन जातियों का ही उल्लेख किया जा रहा है।
- बॉम्बे लोकस्ट (Bombay Locust, Patanga succinata) : बाम्बे लोकस्ट नामक जाति गुजरात से तमिलनाडु तक पाई जाती है। यह मानसून की अवधि में पश्चिमी घाटों पर प्रजनन करती है तथा साल भर में एक बार अण्डे देती है।
- माइग्रेटरी लोकस्ट (Migratory Locust, Locusta migratoria) : यह राजस्थान व गुजरात में पाई जाने वाली जाति है। यह वर्ष में दो बार प्रजनन करती है। यह एक बार सर्दी या बसन्त में तथा दूसरी बार गर्मी या मानसून के समय अण्डे देती है।
- डेजर्स्ट लोकस्ट (Desert Locust, Schistocerca gregaria) : यह भारतीय व विश्व के लोकस्टों की प्रमुख व अत्यधिक हानिकारक जाति है। भारत के अलावा दक्षिणी एशिया, पश्चिमी व उत्तरी अफ्रीका के 60 देशों का लगभग 3 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इससे प्रभावित क्षेत्र माना जाता है।
जीवनचक्र (Life Cycle)
शिस्टोसा ग्रिगेरिया (Schistocerca Gregaria Forskall) के जीवन में अण्डा (nymph) व वयस्क (Adult) तीन अवस्थाएँ आती हैं। इस प्रकार यह पूर्ण कायान्तरण प्रदर्शित करता है।
- वयस्क (Adult) : वयस्क कीट दो या तीन अवस्थाएँ प्रदर्शित करता है। सामान्यत: यर एकल अवस्था (solitary phase) में रहता है परन्तु कछ वर्षों के अन्तराल में यही जाति बडे यापन बनाती है तथा यह इसकी यूथी अवस्था (gregarious phase) होती है। इनक बाच एक संक्रमण अवस्था (transitional phase) भी पाई जाती है। एकल व यूथी अवस्था के बीच इतने अन्तर होते हैं कि एक समय दोनों अवस्थाएँ अलग जातियाँ मानी जाती थीं सर्वप्रथम रूसी वैज्ञानिक युवेरोव (Uvarov) ने 1928 में फेज थ्योरी (phase theory) प्रस्तावित कर यह स्पष्ट किया कि झुण्ड बनाने वाले लोकस्ट अलग जाति के न होकर एकल अवस्था प्रदर्शित करने वाली जातियों की ही रूपान्तरित अवस्थाएँ हैं।
(a) एकल अवस्था (Solitary phase or Phasis solitaria): एकल अवस्था में लोकस्ट झुण्ड बनाकर नहीं रहते हैं। ऐसे लोकस्ट रंग में हरे दिखाई देते हैं तथा इन पर कोई काले धब्बे नहीं होते हैं। ये एकल रूप से रात्रि में उड़ते हैं तथा वनस्पतियों को भोजन बनाते हैं।
(b) यूथी अवस्था (Phasis gregaria or Gregrious phase) : इस अवस्था में लोकस्ट बहुत बड़े झुण्ड बना लेते हैं। ये लोकस्ट रंग-रूप व व्यवहार में एकल लोकस्ट से भिन्न होते हैं। इस अवस्था में आने से पूर्व से एक छोटी संक्रमण अवस्था (phasis transiens) से भी गुजरते हैं। टिड्डी दल बढ़कर बहुत विशाल रूप ले लेता है इसीलिए इसे प्लेग (plague) यानि आफत या महामारी कहा जाता है। लोकस्ट का आशय भी यही है। इन बड़े समूहों में ये प्रवसन (migration) भी करते हैं। अपनी उड़ाने से ये 1800 km तक ही दूरी तय कर लेते हैं। इस दौरान ये जहाँ भी रूक जाते हैं वहाँ वनस्पति के नाम पर सिर्फ सख्त तने आदि ही शेष रह जाते हैं। लाखों की संख्या में उड़ते लोकस्ट बादलों के समान दिखाई देते हैं और यह दृश्य व ध्वनि रोंगटे खड़े कर देने वाली होती है। इनकी संख्या का अनुमान इस आधार पर लगाया जा सकता है कि एक समुद्री तूफान में फंस कर एक टिडडी दल डूब गया। जब यह लहरों के साथ किनारे पर आया तो तट पर चालीस मील लम्बाई में कई फट ऊँचाई तक मरी हुई टिड्डियों की दीवार बनी पाई गई एक अन्य समय मारी गई टिड्डियों का वजन लगभग ढाई हजार टन पाया गया।
यूथी अवस्था का वयस्क कीट प्रारम्भ में गुलाबी होता है परन्त प्रजनन क्षम होने पर यह पीला हो जाता है। इस पर काले धब्बे पाए जाते हैं।
यथी अवस्था में यह जीव सदैव नहीं पाया जाता है वरन् कुछ वर्षों के अन्तराल पर यह झुण्ड बनाता है। उदाहरणार्थ भारत में जारी शताब्दी में 1901-1903. 1906-07, 1912-15, 1926-31, 1040-46. 1949-56, 1959-62 आदि में टिड्डी दलों का हमला हुआ था। किन कारणों से टिड्डिया यण्ड बनाकर प्रवसन करती हैं यह ठीक से ज्ञात नहीं है टिड्डियों की इस कालिकता (Periodicity FLocust cycles) के विषय में भारतीय कीट विज्ञानी स्वर्गीय डॉ. एस. प्रधान द्वारा जैविक सिद्धान्त (Biotic theory) प्रस्तुत किया गया जो कालिकता का स्पष्टीकरण देने वाला एकमात्र सिद्धान्त है। इसके अनुसार टिड्डियों की अचानक वृद्धि या झण्ड बनाना तब देखा जाता है जबकि कछ समय से जलवायविक कारक चरम-सीमा को छते हैं। इन जलवायविक चरमों (climatic extremes) के कारण टिड्डियों के आवास में उनके प्राकतिक शत्र नष्ट हो जाते हैं या वहाँ से पलायन कर जाते हैं। इसके कारण टिड्डियों की संख्या नियन्त्रित नहीं हो पाती है तथा यह अत्यन्त बढ़ जाती है।
यह टिड्डियाँ पहले उस क्षेत्र में प्रजनन करती है जहाँ सर्दियों में वर्षा होती है। सहारा लीबिया, इजिप्त व दक्षिणी अरेबिया ऐसे स्थान हैं। वहाँ से यह इरान, पाकिस्तान व भारत तक आती हैं जहाँ गर्मियों (जून से अगस्त) वर्षा होती है। इस तरह से वर्ष भर में दो पीढ़ियाँ उत्पन्न कर पाती हैं तथा दो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठाती हैं।
क्षति (Damage) : जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि टिड्डी दल तबाही का दूसरा नाम है। यह बहुभोजी कीट है तथा इसकी निम्फ व वयस्क दोनों अवस्थाएँ ही वनस्पतियों को भारी क्षति पहुँचाती हैं। ये आक, नीम, जामुन, धतूरा, शीशम जैसी गिनी-चुकी वनस्पतियों को छोड़ कर सभी फसलों. झाड़ियों व पौधों को हानि पहुँचाती है। इनके कारण लाखों रूपए की फसल नष्ट हो जाती है।
नियन्त्रण (Control measures) : टिड्डियों के विषय में उपरोक्त वर्णन पढ़कर एक बुद्धिमान पाठक के लिए यह अनुमान लगाना कठिन न होगा कि एक घंटे किसान के लिए टिडिडयों से अकेले मुकाबला करना सम्भव नहीं है। इसक लिए प्रभावित क्षेत्र के लिये व राज्यों को ही नहीं वरन् देशों को भी सहयोग से काम लेना होता है। टिड्डी नियन्त्रण के लिए निम्न रणनीतियाँ काम ली जाती हैं
- टिड्डी सतर्कता व सूचना (Locust intelligence and warning) : टिड्डियों के झुण्ड बनाने उनके उडने की गति, दिशा आदि का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है ताकि जितनी जल्दी हो सके इनका नियन्त्रण किया जा सके व जिन क्षेत्रों में इनके पहुँचने की आशका हो वहाँ भी बचाव के उपाय किए जा सकें। यह कार्य आसान नहीं है क्योंकि टिड्डियाँ रेगिस्तानों के दूर-दराज क्षेत्रों में प्रजनन करती हैं। इन पर नजर रखने के लिए देश में लोकस्ट वार्निग आगनाइजेशन (Locust Warnng organization) का 1939 में गठन किया गया। केन्द्र के एन्टी लोकस्ट संगठन के 4 वत्त व 10 क्षेत्र हैं। ये चार वृत्त बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर (राजस्थान) व पालमपुर (गुजरात) में है। राज्यों में भी अपने टिड्डी निरोधक संगठन हैं। ये सभी टिड्डी दल की संख्या, गति, दिशा आदि की जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं, नियन्त्रण कार्यों का समन्वय हैं, इन दलों का लेखा-जोखा रखते हैं।
लन्दन अवस्थित अन्तराष्ट्रीय लोकस्ट अनुसंधान केन्द्र (ILRC) तथा एफ, ए. ओ. का यूनाडो नेशन्स स्पेशल डेजर्ट लोकस्ट प्रोजेक्ट भी इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(ii) प्रजनन क्षेत्र में झण्ड बनना रोकना (Prevention of Swarm formation in breeding belts) : इस रणनीति के अन्तर्गत टिड्डियों को दल बनाने से रोका जाता है। दर लिए अण्डों को मैदान खोद कर, हल चलाकर या पानी फैलाकर नष्ट किया जाता है। अण्डे वाले क्षेत्रों में एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन छिड़के जाते हैं। हॉपर अवस्था (निम्फ) का नियनत्रण इन्हें जहर यक्त भोजन देकर (poison baiting) से किया जा सकता है। ये अवस्था उड़ती नहीं है। ये उचक-उचक कर गति करते हैं अतः इन्हें एक लम्बी कम गहरी खाई खोदकर वहाँ तक खदेड़ कर ले जाया जाता है। खाई में गिरे असंख्य निम्फ रसायन से आसानी से मारे जा सकते हैं।
वयस्क चूंकि अधिक सह्य होते हैं अत: इनको मारना अपेक्षाकृत अधिक कठिन है परन्तु इनके रुकने के स्थान पर भी रसायनों का छिड़काव कर या आग की लपटें फेंकने वाले यन्त्रों से इन्हें जला कर इनका नियन्त्रण किया जा सकता है।
(iii) फसल की टिड्डियों से रक्षा : जिन क्षेत्रों में टिड्डी दल के आने की सम्भावना हो। वहाँ भी रसायन छिड़क कर बचाव किया जाता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के वैज्ञानिकों ने यह पाया कि नीम की गिरी के छिड़काव से वनस्पतियों को तीन सप्ताह तक के लिए टिड्डियों से बचाया जा सकता है।
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